किस कारण डॉ. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने छोड़ा था जवाहर लाल नेहरू का साथ

By विकास आनन्द

आज देश (6 जुलाई) जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 122वीं जयंती मना रहा है। आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक डॉ. मुखर्जी जन्म आज ही के दिन 1901 में सर आशुतोष मुखर्जी के तीसरे संतान के रूप में हुआ था। डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया।

डॉ. मुखर्जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह एक शिक्षाविद्, बैरिस्टर, राजनीतिज्ञ और सर्वोत्कृष्ट मानवतावादी थे। अपनी कड़ी मेहनत और अकादमिक उत्कृष्टता के कारण वह 33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के कुलपति बने, यह शायद अकादमिक इतिहास में पहला उदाहरण था।

किस कारण डॉ. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने छोड़ा था जवाहर लाल नेहरू का साथ

कॉलेज में एक छात्र के रूप में उनकी इच्छा एक पत्रकार बनने की थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनकी रुचि राजनीति में बढ़ती गयी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण एकीकरण करने के उद्देश्य के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया।

अपने विचारों और गुणों के कारण डॉ. मुखर्जी ने महात्मा गांधी का ध्यान आकर्षित किया। वह डॉ. मुखर्जी से इतने प्रभावित हुए कि जब 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ, तो महात्मा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू पर आजादी के बाद गठित पहले मंत्रिमंडल में अन्य लोगों के अलावा दो लोगों को शामिल करने के लिए दबाव डाला। जिसमें एक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दूसरे डॉ. बी. आर. अम्बेडकर थे।

दिलचस्प बात यह है कि दोनों कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं थे। पंडित नेहरू ने डॉ. मुखर्जी को वाणिज्य और उद्योग विभाग का दायित्व दिया। नेहरू के मंत्रिमंडल में एक मंत्री के रूप में उन्होंने एक ऐसे अमिट छाप छोड़ी, जिसने नए स्वतंत्र देश के औद्योगीकरण की मजबूत नींव रखी। उन्होंने देश को तेजी से औद्योगीकरण की ओर ले जाने का निर्णय लिया।

एक मंत्री के रूप में अपनी प्रभावशीलता के बावजूद डॉ. मुखर्जी ने शरणार्थी समस्याओं, कश्मीर मुद्दे से निपटने और पाकिस्तान के क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार को लेकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्हें एहसास हुआ कि वह अब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार में काम करना संभव नहीं है और वह उन नीतियों के साथ आगे नहीं बढ़ सकते, जो उनके विचार, देश के सर्वोत्तम हित में नहीं थीं। अंततः 8 अप्रैल, 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस की मदद से 'जनसंघ' की स्थापना की। 21 अक्टूबर, 1951 को नई दिल्ली में जनसंघ की औपचारिक शुरुआत हुई और डॉ. मुखर्जी इसके पहले अध्यक्ष बने।

स्कूल शिक्षक की नौकरी छोड़कर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने मुस्लिम कांफ्रेंस के नाम से राजनीतिक दल शुरू किया था। बाद में इसका नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस कर दिया गया। जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला को इस राज्य का 30 अक्टूबर 1947 को अंतरिम प्रधान मंत्री बनाया गया।

जम्मू-कश्‍मीर में एकीकरण की मांग

इसके बाद जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए भारत सरकार पर अब्दुल्ला ने दबाव डाला। शेख अब्दुल्ला के दबाव में धारा 370 को अस्थायी प्रावधान के रूप में संविधान में शामिल किया गया। शेख ने जम्मू और कश्मीर के लिए अलग झंडा और अलग संविधान बनाया। इसका विरोध करने के लिए प्रेम नाथ डोगरा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सहयोग से प्रजा परिषद नामक संगठन की स्थापना की। प्रजा परिषद ने जम्मू और कश्मीर का भारत के साथ पूर्ण एकीकरण की मांग की। इसने अपना विरोध दो प्रधानमंत्रियों, दो झंडों और दो संविधान के ख़िलाफ़ शुरू किया। सत्याग्रहियों ने "एक देश में दो विधान, दो निशान, और दो प्रधान नहीं चलेंगे" का नारा दिया।

किस कारण डॉ. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने छोड़ा था जवाहर लाल नेहरू का साथ

डॉ. मुखर्जी ने 'दो विधान, दो निशान और दो प्रधान' के खिलाफ प्रा परिषद् के सत्याग्रह का समर्थन किया। उन्होंने इस मुद्दे को देश की जनता तक पहुंचाया। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् के आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के लिए देश भर में सार्वजनिक बैठकें आयोजित कीं। डॉ. मुखर्जी आंदोलन को अहिंसक रखना चाहते थे। जम्मू-कश्मीर की स्थिति का आकलन करने के लिए डॉ. मुखर्जी ने उमा शंकर त्रिवेदी और श्री जीवी देशपांडेय को जम्मू भेजने का निर्णय लिया, लेकिन दोनों को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की इजाजत नहीं दी गई।

जब पठानकोट पहुंचे डॉ. मुखर्जी

इसके बाद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वयं बिना किसी मंजूरी या अनुमति के कश्मीर जाने का फैसला किया। डॉ. मुखर्जी ने 8 मई, 1953 को नई दिल्ली से जम्मू-कश्मीर के लिए अपनी यात्रा आरंभ की। 11 मई को वे पठानकोट पहुंचे। पठानकोट में उनका भव्य स्वागत हुआ। डॉ. मुखर्जी चार बजे माधोपुर चेक पोस्ट पहुंचे।

डॉ. मुखर्जी को ले जा रही जीप जैसे ही माधोपुर पुल के बीच पहुंची, उन्हें जम्मू-कश्मीर पुलिस ने रोक लिया। डॉ. मुखर्जी को उनके दो सहयोगियों गुरुदत्त वैद्य और टेकचंद के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें बताया गया कि उन्हें जम्मू-कश्मीर के सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी जो उनके साथ यात्रा कर रहे थे, को डॉ. मुखर्जी ने वापस जाने और देश के लोगों को यह बताने के लिए कहा कि डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश कर लिया है।

डॉ. मुखर्जी को श्रीनगर ले जाया गया। सभी कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें दो अन्य लोगों के साथ 23 जून, 1953 को निशात गार्डन के पास एक झोपड़ी में उनकी रहस्यमय मृत्यु तक यानी 42 दिनों तक हिरासत में रखा गया। तब से उनकी पुण्य तिथि को 'बलिदान दिवस' के रूप में याद किया जाता है।

सच पूछिए तो जम्मू-कश्‍मीर को भारत का अभिन्न ह‍िस्सा मानने वाले डॉ. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी का ही सपना था कि राज्य में धारा 370 कभी लागू नहीं हो, लेकिन घाटी में अपना वर्चस्व दिखाने वाले नेताओं ने तब इसे लागू किया, जिसकी वजह से राज्य विकास की धारा में काफी पीछे रह गया। लेकिन डॉ. मुखर्जी के अधूरे कार्य को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 को समाप्त करके पूरा किया।

(लेखक - भाजपा के मुखपत्र कमल संदेश के एसोसिएट एडिटर हैं।)

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Did you know why Shyama Prasad Mukherjee broke relations with Jawahar Lal Nehru and resigned from the post of cabinet minister. There are several reasons behind. Know his historical journey on his birth anniversary?
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