सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपने सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन में बड़े-बड़े त्याग किए। उनके जितने त्याग राष्ट्र व समाज के लिए महात्मा गांधी के अलावा और किसी ने नहीं किए। आज के इस लेख में हम आपको डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैज़ाबाद के डॉ. श्रवण कुमार यादव द्वारा किए गए शोध, जिसका शीर्षक 'भारत में राष्ट्रवाद के विकास में सरदार वल्लभभाई पटेल के विचारों की प्रासंगिकता' है, के अनुसार बताएंगे की सरदार पटेल पटेल ने भाई विठ्ठलभाई और जवाहरलाल नेहरू के लिए क्या-क्या किया कुर्बान?
वकालत में कदम रखते ही वल्लभाई ने बनाई अपनी साख
वल्लभाई पटेल ने पूर्ण में ही अच्छी ख्याति अर्जित कर ली। तर्क-वितर्क करने में वे दक्ष थे। साथ ही वे प्रायः वादी पक्ष की ओर से न्यायालय में उपस्थित हुआ करते थे। उस समय अपराधियों के विरूद्ध जो चार्जशीट पुलिस न्यायालय में प्रस्तुत करती थी, उसमें कुछ न कुछ तकनीकी कमी रह ही जाती थी। वल्लभभाई उन कमियों को पकड़ने में भी माहिर थे। अपराध-स्थल पर उन कमियों को उजागर करके वह भी मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में, वल्लभभाई पुलिस को झूठा साबित कर देते थे। जिससे आसानी से वादी छूट जाते थे। वल्लभभाई अनेक मामलों में डंके की चोट पर न्यायालय में जीते, उनकी छवि धाक वाली बन गई। जनता में तो उनका प्रभाव दिनों-दिन बढ़ा ही मजिस्ट्रेट व न्ययााधीश भी उनके मुरिद होने लगे थे।
बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल की भी वकालत में मदद
बोरसद में ही यद्यपि विट्ठलभाई पटेल भी वकालत करते थे, लेकिन सरकारी अधिकारियों, न्यायाधीशों व मजिस्ट्रेटों में साख वल्लभभाई की अधिक थी। कारण, जहां विट्ठलभाई सीधे मजिस्ट्रेटों तक की आलोचना कर बैठते थे, या उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा देते थे, वहीं वल्लभभाई सदैव नीति से कार्य लेते थे। वे ब्रिटिश अधिकारियों के मित्र नहीं थे, लेकिन उनके बाह्य व्यवहार से कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वे किसी अधिकारी या मजिस्ट्रेट के प्रति कोई दुर्भावना रखते थे। बोरसद में वकालत के समय वल्लभभाई का सम्पर्क अहमदाबाद और मुम्बई के और प्रसिद्ध वकीलों के साथ हुआ। इससे उनका स्तर ऊंचा हुआ; मामलों के लिए उन्हें बड़ा बड़ा पारिश्रमिक मिलने लगा। कठिन परिश्रमी तो वल्लभभाई थे ही। अपने कुशल व्यवहार के बल पर वे विट्ठलभाई की भी सहायता कर सके। वे उन्हें अनेक बार कठिनाइयों से बाहर ला सके। यही नहीं, वल्लभभाई की आय यहां बोरसद में खूब बढ़ी, जिससे करमसद में सारे परिवार की अच्छी सहायता हो सकी।
इंग्लैंड जाकर पढ़ना चाहते थे वल्लभाई
वल्लभाई पटेल की हार्दिक इच्छा इंग्लैंड से बार-एट-लॉ की उपाधि अर्जित करनी थी। 1905 के प्रारम्भ में आवश्यक धन जमा हो जाने के बाद वल्लभभाई ने मुम्बई की एक ट्रेबल कम्पनी थामस कुक एण्ड सन्स से शीघ्र यात्रा व्यवस्था करने हेतु सम्पर्क किया। यह सब कुछ वल्लभभाई ने घर के किसी भी सदस्य को बिना बताए गुप्त रूप से किया। यद्यपि वल्लभभाई की विट्ठलभाई से प्रतिदिन भेंट होती थी, लेकिन विट्ठलभाई से भी उन्होंने कोई चर्चा अपनी विदेश यात्रा की योजना के सम्बन्ध में नहीं की। थामस कुक कम्पनी ने वल्लभभाई के लिए एस. एस. मालोजा में सीट की व्यवस्था कर दी और उन्हें पत्र से बोरसद में सूचना भेजी पत्र पर पते में वी.जे. पटेल लिखा था। यह दोनों वल्लभभाई झवेरभाई पटेल तथा विट्ठलभाई झावेरभाई पटेल का ही संक्षिप्त नाम था इसलिए पत्रवाहक ने कम्पनी का पत्र विट्ठलभाई को दे दिया।
विट्ठलभाई ने पत्र पढ़ा तो उन्हें वल्लभभाई की योजना के सन्दर्भ में ज्ञात हुआ। उन्होंने तुरन्त ट्रेवल कम्पनी को लिखा कि एस. एस. मालोजा से उनकी आरक्षित सीट को रद्द कर दिया जाए और उसके बाद जो भी शिप सबसे पहले लन्दन जा रहा हो, उसमें उनके जाने की व्यवस्था कर दी जाय। कम्पनी ने ऐसा ही किया और एक सप्ताह के बाद पुनर्व्यस्था के बारे में उन्हें पत्र भेजा, जो अब वह वल्लभभाई के हाथों में पड़ा। पत्र में पुनर्व्यवस्था को देखकर वल्लभभाई भौंचक्के रह गए। संध्या में दोनो भाई, जैसा कि प्रायः होता था, भोजन के समय मिले। उनमें वार्तालाप हुआ। दोनों ने अपनी-अपनी बातें स्पष्ट कीं अन्ततः विट्ठलभाई ने वल्लभभाई से उन्हें अवसर का लाभ लेने को कहा।
अपनी जगह भाई विट्ठलभाई को भेजा इंग्लैंड
वल्लभभाई अपने बड़े भाई का बड़ा सम्मान करते थे। उन्होंने अपने लिए की गई सारी व्यवस्था के बल पर बड़े भाई विट्ठलभाई को पहले इंग्लैण्ड भेजा। यही नहीं, उनकी अनुपस्थिति में, उन्होंने विट्ठलभाई के परिवार के खर्च का तारा उत्तरदायित्व, स्वयं उठाने का वचन दिया। विट्ठलभाई की पत्नी दीवालीबाई तीब स्वभाव की थीं। उनके साथ निभाव का होना कठिन कार्य था। उनका स्वभाव दूसरों पर पूर्ण वर्चस्व रखने का भी था। वल्लभभाई की पत्नी झावेर बा व दीवालीबाई का साथ-साथ रहना कठिन था।
विट्ठलभाई के लिए वल्लभभाई ने बड़ी श्रद्धा प्रकट की। उनके लिए बहुत बड़े त्याग किए। हो सकता है कि कोई कहे कि उन्होंने त्याग अपने भाई के लिए ही तो किए, इसमें कौन-से अपवाद की बात हुई, लेकिन वल्लभभाई, वास्तव में, त्याग की मूर्ति थे।
पण्डित नेहरू के लिए छोड़ा देश का प्रथम प्रधानमंत्री बनने का अवसर
वल्लभभाई पटेन ने अपने से आयु में 14 वर्ष छोटे और अनुभव में कम पण्डित जवाहरलाल नेहरू के पक्ष में तीन बार 1929 1936 तथा 1937 में कॉंग्रेस के अध्यक्ष पद को छोड़ा। तीनों अवसर भारत के इतिहास में अपने-अपने महत्व के कारण मील का पत्थर थे। चौथी बार वल्लभभाई ने प्रचण्ड बहुमत अपने पक्ष में होते हुए भी 1946 में फिर कांग्रेस अध्यक्ष का पद जवाहरलाल नेहरू को दे दिया। इस बार के कांग्रेस अध्यक्ष को ही देश का प्रथम प्रधानमंत्री बनना था। लेकिन हर दशा में देश अखण्ड रहे, कोई आन्तरिक मतभेद उसे दुर्बल न करे, इस दृढ़ निश्चय के साथ उन्होंने महान त्याग किया। उन्होंने नेहरू को प्रधानमंत्री बन जाने दिया जबकि खुद ने उप प्रधानमंत्री पद पर रहकर देश की सेवा की।