Hindi Diwas Story Celebration Importance: हिंदी दिवस के आसपास हिंदी को लेकर जितना भी विचार-विमर्श होता है, उसमें आमतौर पर इस बात का रोना सबसे ज्यादा होता है कि आजादी के इतने साल गुजर गए फिर भी अभी तक हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी। इन दिनों तमाम सभाएं संगोष्ठी में हर कोई इसके लिए सरकार और प्रशासन को कोसता मिलेगा, लेकिन हम भूल जाते हैं कि स्वतंत्र देश के नागरिक होने के नाते अगर संविधान हमें बहुत सारे अधिकार देता है, तो कुछ कर्तव्य भी देता है। सवाल है कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बने इसके लिए एक नागरिक होने के नाते हमने स्वयं क्या किया? कुछ लोग कहते हैं कि यह कैसा सवाल है क्योंकि हमारे करने से क्या होगा?
हमारी निष्क्रियता का परिणाम
आजादी के 75 साल बाद कई लोगों को यह नहीं पता कि हिंदी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा? हिंदी भारत की राजभाषा है, हिंदी को अभी तक राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है। भाषा महज संपर्क या संवाद का जरियाभर नहीं होता। यह किसी देश के संस्कार और संस्कृति का आधार भी होता है। अब चूंकि किसी देश का संस्कार या संस्कृति महज सरकारें तय नहीं कर सकती। किसी देश की संस्कृति व्यापक सामाजिक गतिविधियों से निर्मित होती है। इसमें समूचे समाज की भागीदारी होती है। इसलिए अगर पिछले 75 सालों में भी हिंदी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी, तो यह महज विभिन्न सरकारों और उनके प्रशासनिक अमलों की ही असफलता नहीं है बल्कि एक समाज के नाते इसमें हम सबकी असफलता सम्मिलित है। हिंदी अगर इतने सालों बाद ही देश की राष्ट्रभाषा नहीं बनी तो इसकी एक वजह यह भी है कि एक नागरिक होने के नाते हमने के लिए कुछ भी नहीं किया।
भाषा के प्रति संवेदनशीलता जरूरी
किसी किसी समाज को जब अपनी भाषा से जबरदस्त प्यार और लगाव होता है, तो वह हर स्तर पर दिखाता है। कहा जाता है, अगर कोई एक फ्रांसीसी नागरिक फ्रेंच भाषा का कोई शब्द गलत बोलता है, तो उसे कई लोग टोकते होते हैं, सिर्फ टोकते नहीं नहीं उसे सही बोलना भी सिखाते हैं। यह भी बताते हैं कि सही बोला जाने क्यों जरूरी है। क्योंकि भाषा में आज मुंह से निकली धोनी नहीं है, वह भाव भी है, एक विचार भी है। उसमें हमारी सोच, समझ, सपने और भविष्य की दृष्टि से सब कुछ समाहित होता है। इसलिए राष्ट्रभाषा के एक संवेदनशील सार्थक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी भी है कि हम जब भी जहां भी भाषा के साथ कुछ गड़बड़ होते देखे वहां अपने हस्तक्षेप दर्ज कराएं। लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं होता। आप किसी बाजार की तरफ निकल जाइये या सड़क पर चलते हुए यूं ही इधर-उधर नजरें दौड़ाइए, आपको आधे से अधिक ऐसे साइनबोर्ड मिलेंगे, जिनमें हिंदी के शब्द गलत लिखे होंगे।
राम को रामा लिखा होगा, दवाई को दवाइ लिखा होगा, पूर्व को पुर्व लिखा होगा। लेकिन हम इनको पढ़कर कुछ भी नहीं करते अगर बुरा लगेगा थोड़ा मुंह बनाएंगे और आगे बढ़ जाएंगे। कुछ हास्यस्पद लगेगा तो मन ही मन थोड़ा मुस्कुरा लेंगे। लेकिन जिस दुकान या घर पर कुछ ऐसा गलत लिखा होगा, वहां संबंधित व्यक्ति को हम यह बताने की कोशिश नहीं करते यह गलत लिखा है। यह ऐसा नहीं है, ऐसा होना चाहिए। हम यह तो चाहते हैं कि सरकार की कोशिश से हिंदी राष्ट्रभाषा बन जाए, लेकिन हम कभी यह नहीं सोचते कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने में हमारी भी कोई जिम्मेदारी हो सकती हैं, हमारा भी कोई योगदान हो सकता है। हमें लगता है, यह सब करने की क्या जरूरत है? ये सारे काम तो सरकार के हैं।
हर स्तर पर सजगता आवश्यक
सिर्फ सरकार की बदौलत कोई भी काम तो ऑफिस ही नहीं हो सकता। बचपन में हमारे गांव के बाहर गांव का नाम जिस साइनबोर्ड पर लिखा जाता था, वह पहले अकसर गलत होता था, क्योंकि जो व्यक्ति गांव का नाम लिखने आता था, आमतौर पर वह कम पढ़ा लिखा होता था, तो उसे गांव के नाम से कोई संवेदना नहीं थी। उसे हालांकि जैसे कागज में लिख कर दे दिया जाता था या वह बोर्ड पर जैसा पहला लिखा हुआ होता था उसकी नकल कर लेता था। लेकिन नकल करने के बाद भी अक्सर गांव के नाम में गलती हो जाती थी। फिर गांव के लोग ने यह तय किया कि अपने सामने खड़े होकर गांव का नाम लिखा जाए, इसलिए जब तक वह पेंटर बोर्ड पर पेंट से गांव का नाम लिखता तब तक कोई ना कोई गांव का व्यक्ति वहां खड़ा रहता, इसके बाद गांव का नाम कभी गलत नहीं लिखा गया।
जागरूक नागरिक का निभाए दायित्व
एक जागरूक नागरिक होने के नाते, अखबारों-पत्रिकाओं का एक जागरूक पाठक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अखबारों पत्रिकाओं में गलत शब्द लिखे होने पर उन्हें यह बताएं, विरोध दर्ज करें। टीवी के उद्घोषकों द्वारा लगातार गलत बोले जाने को हम फोन कर करके उनके दफ्तरों में शिकायत करें कि आपका फला उद्घोषक बार-बार गलत शब्द बोलता है, इसको सही करवाया जाए। अखबारों में संपादकों को फोन करें, चिठ्ठी लिखें मेल करें कि इस तरह की गलतियां रोकी जाएं। इससे भाषा के प्रति लोगों में सजगता और संवेदनशीलता आएगी।
शुरू से सिखाएं भाषा-संस्कार
कोई भी भाषा तभी सशक्त होती है, जब रचनात्मक कल्पनाशीलता विकसित करती है और हमारे रोजमर्रा के संस्कार का हिस्सा बनती है, जब बचपन से ही हमें उस भाषा का बोध और संस्कार दिया गया हो। हमारे दिलो-दिमाग में यह बात बैठ गई हो कि हमें अपनी भाषा को जानना समझना क्यों जरूरी है? लेकिन आजकल के कोई भी अभिभावक अपने घर के बाहर हिंदी के इतने सालों बाद भी राष्ट्रभाषा ना बनने पर अफसोस तो जताते हैं, लेकिन घर में बच्चों से हिंदी बोलते हुए कतराते हैं। भले उन्हें ठीक-ठीक अंग्रेजी भी ना आती हो, लेकिन अधिकतर भारतीय अभिभावकों की यह चाहत होती है कि उनके बच्चे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलें। इससे वे खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। जब हम अपने घर में इस तरह का व्यवहार करते हैं तो भला घर के बाहर और समाज में अंग्रेजी के वर्चस्व की जगह हिंदी कैसे ले सकती है?
हिंदी कैसे बनेगी राष्ट्रभाषा
सारांश यह है कि हिंदी अगर पिछले 75 सालों में हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी तो इसमें सिर्फ सरकार का दोष नहीं है, हम सब लोग इसके लिए कहीं ना कहीं दोषी हैं। हिंदी के प्रति हमारी उदासीनता भाषा संस्कृति को लेकर आसंवेदनशीलता और अंग्रेजी के प्रति आकर्षण जैसे कारणों से ही हिंदी आज भी अपने अपेक्षित प्रतिष्ठित स्थान पर नहीं पहुंच पाई है। ऐसे में आवश्यक है कि हम सब मिले और दोषारोपण करने के बजाए इस दिशा में यथासंभव प्रयास करें। अगर हम चाहते हैं कि हिंदी बहुत ज्यादा उन्नति करें, देश की राष्ट्रभाषा हो तो हमें इन चाहतों का बोझ किसी और पर नहीं डालना होगा, बल्कि हमें खुद भी इसके लिए नागरिक होने के नाते अपने हिस्से की जिम्मेदारी उठानी होगी, तभी हिंदी राष्ट्रभाषा बन सकती है।