10 Lines On Birsa Munda in Hindi for UPSC Notes : भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में यूं तो कई वीरों का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है, लेकिन शायद ही कोई ऐसा है जिनके नाम के साथ आज भी लोग पहले भगवान शब्द को जोड़ते हैं।
जी हां, हम बात कर रहे हैं भगवान बिरसा मुंडा की। झारखंड और ओडिशा के कई क्षेत्रों के लोग आज भी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को भगवान बिरसा मुंडा कह कर बड़े ही आदर और सम्मान के साथ पुकारते हैं।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह, दादा भाई नौरोजी, बिपिन चंद्र पाल आदि शामिल हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता है कि स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई में बिरसा मुंडा ने भी आदिवासी समाज का नेतृत्व किया था। अंग्रेजों के शासन और प्रताड़ना के कारण उनका निधन महज 25 वर्ष की आयु में हो गया।
बिरसा मुंडा को भगवान क्यों बुलाते हैं?
कई प्रांतों में भगवान बिरसा मुंडा की पूजा तक की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और आदिवासी स्वाधीनता की मांग को लेकर अपनी आवाज बुलंद की। उन्होंने आदिवासियों को उनका अधिकार और सम्मान दिलाने के लिए कई आंदोलन चलाए और आदिवासियों को संघर्ष के लिए प्रेरित की। इतना ही नहीं उन्होंने आदिवासियों के जमीन, अधिकार और शिक्षा की राह पर आदिवासी जनजागरण आंदोलन की पहल की। आदिवासी समुदाय के लोग उन्हें वर्ग के उद्धारक के रूप में देखते हैं और भगवान स्वरूप उनकी पूजा करते हैं।
आज हम बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि पर उनके जीवन से जुड़ी 10 रोचक बातें आपको बता रहे हैं। आइए जानते हैं बिरसा मुंडा कौन थें, कैसे ब्रिटिस शासन के खिलाफ उन्होंने अपनी लड़ाई लड़ी और बिरसा मुंडा का निधन कैसे हुआ।
बिरसा मुंडा पर 10 लाइनें | 10 Lines On Birsa Munda
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रसिडेंसी जो वर्तमान में झारखंड राज्य है, के उलीहातू में हुआ। झारखंड और ओडिशा राज्य के कुछ क्षेत्रों में बसे मुंडा जनजाति के लोग बिरसा मुंडा को भगवान मानते हैं। लोक नायक बिरसा मुंडा एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे।
मुंडा ने ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी में एक जनजातीय धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके इसी विद्रोह ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बना दिया। बिरसा मुंडा ने अपना विद्रोह मुख्य रूप से खूंटी, तमाड़, सरवाड़ा और बंदगाँव के मुंडा बेल्ट में ही केंद्रित रखा।
बिरसा ने अपनी शिक्षा सलगा में अपने शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में प्राप्त की। बाद में, बिरसा जर्मन मिशन स्कूल में शामिल होने के लिए एक ईसाई बन गए, लेकिन जल्द ही यह पता चला कि अंग्रेज आदिवासियों को शिक्षा के माध्यम से ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का लक्ष्य बना रहे थे। स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा मुंडा ने बिरसैत नामक धर्म की स्थापना की। मुंडा समुदाय के सदस्य जल्द ही धर्म में शामिल होने लगे जो बदले में ब्रिटिश गतिविधियों के लिए एक चुनौती बन गया। ऐसे बिरसा मुंडा ने धर्मांतरण पर धीरे-धीरे विजय प्राप्त किया।
झारखंड सीमांत के आदिवासी समुदायों जिनमें मुख्य रूप में मुंडा और उरांव जनजाति के लोग शामिल थें, के दमन, शोषण और उत्पीड़न के लिए प्रमुख रूप से स्थानीय जमींदार और साहूकार जिम्मेदार थे। क्षेत्र में सभी आदिवासी वर्गों के लोग अंग्रेजों से लड़ना तो चाहते थे, लेकिन उनमें नेतृत्व और रणनीति की कमी थी।
इस बीच आदिवासियों की दुर्दशा को देखते हुए बिरसा मुंडा ने सन् 1894 में क्षेत्रीय आदिवासियों की भूमि और अधिकारों के लिए सरदार आंदोलन की शुरुआत की। बिरसा मुंडा के अनुयायियों द्वारा कई जगहों पर अंग्रेजों पर कई हमले किए गए जिसके कारण ब्रिटिश शासकों ने बिरसा मुंडा पर 500 रुपये का इनाम घोषित कर दिया।
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी समुदाय के लोक नायक बिरसा मुंडा ने आदिवासी समुदाय के अधिकारों की लड़ाई लड़ी। उन्होंने आदिवासी समुदाय के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के विकास का प्रयास किया। समाज के प्रति उनकी सेवा भावना और उनके संघर्ष को आज भी याद कर लोग उन्हें एक महान नेता के रूप में पूजते हैं। बिरसा मुंडा को आदिवासी जागृति के मेसिहा के रूप में माना जाता है। बिरसा मुंडा को "धरती आबा" के नाम से भी जाना जाता है।
उन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और आदिवासी अधिकारों को प्रोत्साहित किया। मुंडा ने अपने जीवनकाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उनकी नीतियों में न केवल मानने से अस्वीकार किया बल्कि उनके विरुद्ध भी संघर्ष किया। उन्होंने आदिवासी जनजागरण आंदोलन की पहल की। स्वतंत्रता संग्राम में उनके नेतृत्व में आदिवासी समुदाय ने विभिन्न उपविभागीय आंदोलन चलाए, इनमें नागरिकता विरोध, खूंटी और उरांव आंदोलन प्रमुख हैं। उन्होंने आदिवासी समाज की समाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास किए।
उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और आदिवासी स्वाधीनता की मांग को लेकर अपनी आवाज बुलंद की। बिरसा मुंडा ने अपनी जीवनकाल में बिरसा मुंडा संघ की स्थापना की, जो उनके संघर्ष को संगठित रूप देने का उद्देश्य रखता था। उन्होंने अपने समुदाय को जागृत करके वन और जमीन के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया। उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से जनसामान्य को जागृत किया और उन्हें अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा जनजाति के सदस्यों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ अनगिनत आंदोलनों में हिस्सा लिया और जनसंघटनाओं का निर्माण किया एवं लोगों को एकजुट करने का संकल्प लिया।
उनके जनजागृति अभियानों और व्यापक आंदोलनों के फलस्वरूप बिरसा मुंडा को सन् 1900 में गिरिडीह जेल में कैद किया गया और उन्हें 9 साल की सजा सुनाई गई। उन्होंने वहां भी अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी और अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने के तमाम प्रयास किये। बिरसा मुंडा को 1909 में रिहा किया गया और उनकी लड़ाई ने अनेकों लोगों को प्रेरित किया और मुक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बिरसा मुंडा का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महत्वपूर्ण माना जाता है और उन्हें आदिवासी मुक्ति के एक प्रमुख संदर्भ में याद किया जाता है। उनकी महत्वपूर्ण योगदानों को मान्यता मिली और उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्वीकार किया गया। 25 साल की उम्र में 9 जून 1900 को रांची की जेल में उनकी मृत्यु हो गई थी।