भारत विविधताओं से भरा देश जहां हर धर्म, जाति और लिंग के लोग एक साथ मिल जुल के रहते हैं। भारत में किसी भी धर्म को लेकर या जाति को लेकर भेदभाव नहीं किया जाता। एकजुटता की सबसे बड़ी मिसाल की बात करें तो भारत की आजादी के समय अलग अलग समुदाय के लोग एकजुट हुए और कदम से कदम मिलाकर उन्होंने भारत को आजादी दिलवाई। ये वहीं राज्य है जो पूरे देश में एकजुटता को दर्शता है। और अपने भिन्न भिन्न संस्कृति के लिए देश भर में जाना जाता है। भारत में बहुत से आदिवासी समुदाय भी थे जिन्होंने देश की आजदी के लिए आवाज उठाई थी और इसके लिए युद्ध भी किया। ये वो योद्धा हैं जिनके नाम कहीं खो गया। आजादी से पहले भारत में कुछ 700 से अधिक आदिवासी समुदाय थे। आज की बात करें तो आज भी कई राज्य हैं जहां आदिवासी समुदाय रह रहें और अपने पारंपरिक तरीकों से अपना जीवन बसर कर रहे हैं। भारत में लगभग 600 के आस पास आदिवासी समुदाय हैं। भारत की आजादी में इन आदिवासी समुदायों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिनके बारे में जानना के गौरव की बात है। भारत आजादी के 75 साल पूरे होने पर आजादी का अमृत महोत्सव माना रहा है इस उपलक्ष में ये जानना और अतिआवश्यक हो जाता है कि आप इन आदिवासी समुदाय के स्वतंत्रात सेनानियों के बारे में जाने। इस लेख के माध्यम से हम आपको आज इन आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बताने जा रहे हैं आइए जाने इनके बारे में संक्षिप्त में।
तिलका मांझी
तिलका मांझी भारत के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी है जिनका जन्म 11 फरवरी 1750 में बिहार में हुआ। वह संथाल समुदाय से थे। 1784 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह कया था। करीब 10 साल जमींदारों से लड़ने के बाद 1800 में उन्हें जमींदारों से बातचीत करने के एक छोटा सा मौका मिला। मांझी ने ऑगस्टस क्लीवलैंड जो की ब्रिटिश कमिश्नर थे और राजमहल पर गुलेल से हमला किया जिसके बाद इनकी मृत्यु हो गई। इस घटनक्रम के बाद मांझी के तिलपुर जंगल को घेरा गया और उन्हे पकड़ लिया गया और घोड़े की पुंछ से बांध कर कलेक्टर के घर तक खीच के लाया गया और वहां उन्हें बरगद के पेड़ से लटका दिया गया।
गुंड़ा धूर
गुंड़ा धूर एक आदिवासी समुदाय के नेता थे। ये वर्तमान समय के छत्तीसगढ़ में जन्मे थे। भारत के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं। इन्हें मुख्य तौर पर 1910 की धूरवास क्रांति के लिए जाना जाता है। जो कि कांगरे के जंगल में हुआ था जो बस्त में स्थित है।
राजमोहिनी देवी
राजमोहिनी देवी गांधी जी के विचारों से प्रभावित थी। वह एक समाज सेविका थी। इन्होंने बापू धर्म सभा मंण्डल की स्थापना की थी। ये संस्था गोंडवाना आदिवासियों के हितों के लिए बनाई गई थी। 1951 में उन्होंने जन आंदोलन की शुरुआत की जिसे राजमोहिनी आंदोलन भी कहा जाता है। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्ता थी। समय के साथ इस आंदोलन में करीब 80,000 लोग जुड़े। बाद में ये आंदोलन नॉन-गवर्नमेंटल ऑर्गेनाइजेशन के तौर पर स्थापित हुआ। अपने इस योगदान के लिए राजमोहिनी देवी को 1989 में पद्म श्री से नवाजा गया।
गोविंद गुरु
गोविंद गुरु के नाम से जाने जाने वाले गोविंद गिरि का जन्म 1858 में हुआ था। वह एक धार्मिक सुधारक थे और आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्हें मुख्या तौर पर भगत आंदोलन के लिए जाना जाता है। जागीरदारों और अंग्रेजो के बारे में अपने लोगों को जागरूक किया और देखते ही देखते उनके साथ बहुत से लोग जुड़ने लगे। लगातार बढ़ रही विद्रोह की स्थिति को देखते हुए ब्रिटिश ने 1912-13 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और आंदोलन को रोकने के उनपर दबाव डाला गया। 1913 में उन्हे रिहा करके डूंगरपुर राज्य को छोड़ने के लिए कहा गया।