Independence Day Speech 2022 For Counselor MLAs Leaders: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास 200 साल पुराना है। भारत को अंग्रेजों से आजादी मिलने में 200 साल लग गए। इस आजादी के लिए सन 1857 में विद्रोह शुरू हुआ। कई भारतीय सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाई। 15 अगस्त 1947 की नई सुबह देखने के लिए भारत ने कई आंदोलन किए और अपना अधिकार प्राप्त किया। स्वतंत्रता दिवस पर भाषण या 15 अगस्त पर भाषण देने के लिए सभी बच्चों से लेकर नेता तक ने तैयारी शुरू कर दी है। ऐसे में यदि आपको भी स्वतंत्रता दिवस पर भाषण या 15 अगस्त पर भाषण लिखना या पढ़ना है तो करियर इंडिया हिंदी आपके लिए सबसे बेस्ट स्वतंत्रता दिवस पर भाषण या 15 अगस्त पर भाषण लेकर आया है। जिसकी मदद से आप स्वतंत्रता दिवस पर भाषण या 15 अगस्त पर भाषण की तैयारी कर सकते हैं। तो आइये जानते हैं स्वतंत्रता दिवस पर भाषण या 15 अगस्त पर भाषण कैसे लिखें?
स्वतंत्रता दिवस पर भाषण (Speech On Independence Day 2022)
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मंच पर मौजूद सभी अतिथियों को मेरा सादर प्रणाम और यहां मौजूद सभी लोगों को मेरा नमस्कार। साथियों आज हम सब स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर यहां एकत्रित हुए हैं। तीन शब्दों से बना शब्द 'आजादी', जिसे पाने के लिए भारत ने 200 साल तक अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। लेकिन क्या आप जानते हैं अंग्रेजों के भारत छोड़ो आंदोलन के पीछे की पूरी हकीकत क्या है। लोगों का मानना है कि भारत में कांग्रेस आंदोलनों से डरकर अंग्रेजों ने अधिकार छोड़ा था, लेकिन कुछ लोग इसके विपरीत अंग्रेजों के अपना बसा-बसाया उपनिवेश भारत छोड़ वापस भागने का कारण कुछ अन्य मानते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सन 1945 में इंग्लैंड में सरकार अनुदार पार्टी के हाथ से निकल कर उदार दल अथवा श्रमिक दल के हाथ में आ चुकी थी। श्रमिक दल के नेताओं की मानसिक अवस्था चर्चिल इत्यादि नेताओं के विपरीत थी। सन 1935 का कानून बन चुका था, उसमें भारत वासियों को बहुत कुछ अधिकार दिये जा चुके थे। इसमें भारत की जनता में उन तत्वों को भी उभारा गया था, जिनको तत्कालीन कांग्रेस प्रतिक्रियावादी मानती थी। तत्कालीन ब्रिटेन और भारत के इतिहास व वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों की गहराई से अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों के भारत से जाने का कारण कांग्रेस आंदोलन नहीं था, बल्कि कई अन्य कारण थे, जिसके कारण अंग्रेज भारत छोड़ने को विवश हुए।
इंग्लैंड में आरंभ से ही अर्थात भारत में अंग्रेजी शासन के पूर्व से ही ऐसे लोग रहे हैं, जो इंग्लैंड की अपनी अधीन प्रजाओं के साथ न्याय की दृष्टि से व्यवहार चाहते रहे। परंतु 18वीं और 19वीं शताब्दियों में इंग्लैंड में पार्लियामेंट के लिए वोट का अधिकार धनी और जमींदारों तक ही सीमित था। इस कारण उदार विचार वालों की पार्लियामेंट में बहुत कम पहुंच थी। पार्लियामेंट में अधिकांश जमींदारों के भेजे हुए लोग ही होते थे, और वे संकुचित विचारों के होते थे। आरंभिक काल में इंग्लैंड में कभी भी वयस्क मताधिकार नहीं रहा। मताधिकार में कुछ न कुछ संपत्ति रखने अथवा संपत्ति भाड़े पर लेने की शर्त सदा रही है। 1884 तक तो यह भी शर्त होती थी कि प्रत्याशी चुनाव का सब खर्च स्वयं दे।
चुनाव सम्बन्धी कार्यों के प्रबंधन में संलग्न सरकारी अधिकारियों, निर्वाचन केंद्रों अर्थात बूथों तक अधिकारियों, मतदाताओं को दूर-दूर से लाने-ले जाने, उनको ठहराने, खाने-पीने की व्यवस्था करने का खर्च प्रत्याशियों को, चाहे जीते अथवा हारे, चुनाव के पूर्व ही स्वयं जमा करना पड़ता था। निर्वाचन के खर्चे की अधिकता के कारण कई स्थानों पर प्रत्याशी ही खड़ा नहीं होते थे। इस कारण प्रायः चुनाव लड़े बिना ही लोग विजयी घोषित होते थे। प्रायः कोई धनी जमींदार क्षेत्र से अपना प्रत्याशी नामजद कर देता था, उसे खर्चा अपने पास से दे देता था, और वह मुकाबला के बिना ही विजयी हो जाता था। इसलिए सामान्य प्रजा में से कोई पार्लियामेंट में जाने की साहस नहीं करता था। मतदाता होने में भी शर्त यह थी कि मतदाता के रहने का मकान अथवा व्यापार का स्थान कम से कम 10 पोंड प्रतिवर्ष भाड़े के योग्य है, तो वह मतदाता हो सकता है।
परिणाम यह था कि 1885 में पूर्ण वयस्कों में मतदाता केवल 28.2 प्रतिशत थे, और 1921 में उनकी संख्या पूर्ण वयस्कों में 74 प्रतिशत थी। सन 1918 से पहले स्त्रियों को मत देने का अधिकार नहीं था। 1818 में कम से कम 30 वर्ष की स्त्री मतदाता हो सकी थी और 1928 में 20 वर्ष की व्यस वाली वाली स्त्री को मत देने का अधिकार मिला। कोई मजदूर वर्ग चुनाव लड़ नहीं सकता था, और मतदाता भी बहुत कम थे। परंतु धीरे-धीरे मतदाताओं की संख्या बढ़ी तो मध्यम श्रेणी के लोग भी पार्लियामेंट में आने लगे और उदार व मजदूर दल बन गया। प्रथम मजदूर दल का सदस्य 1901 में सफल हुआ था, उसका नाम था हेनरी कौरन। इस कारण उपनिवेशों की दशा की चर्चा पार्लियामेंट में बहुत बाद में आरंभ हुई, और जब आरंभ हुई तो भारत की सुनवाई भी होने लगी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत 1945 में मजदूर दल की सरकार बनने पर उन्होंने निश्चित किया कि हिंदुस्तान को स्वराज देना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैंड का सहायक अमेरिका यह घोषणा करने लगा था कि सब उपनिवेश स्वतंत्र कर दिए जाएं। इंग्लैंड यद्यपि अपने मुंह से कुछ नहीं कहता था, परंतु युद्ध के उपरांत वह विवश हो गया था। 1898 से हिंदुस्तान में क्रांतिकारियों ने अपना कार्य आरंभ किया, इससे इंग्लैंड और भारत में अंग्रेज समुदाय में आतंक फैल गया। 1907 में लाहौर में लाला लाजपत राय के पकड़े जाने के समय तो अंग्रेज समुदाय इतना भयभीत था कि लाहौर के सब सिविलियन दो रात लाहौर किले में जाकर सोए थे। 1909 के प्रथम शासन सुधार में हिंदुस्तानियों को कुछ कहने का अधिकार मिला। 1901 के उपरांत इंग्लैंड के उदार तथा मजदूर दल के लोग अधिक संख्या में चुने जाने लगे तो भारत में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की चर्चा होने लगी। इसके उपरांत शासन में हिंदुस्तानियों को पूछा जाने लगा।
हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के आतंक के कार्य भारत में और इंग्लैंड में चलते रहे। अतः 1919 में अधिकारों की दूसरी किस्त दी गई। कुछ हद तक यह एक चैथाई स्वराज्य कही जा सकती है। क्रांतिकारी प्रायः हिंदू थे। अंग्रेज ने इनको निस्तेज करने के लिए मुसलमानों को भड़काना शुरू किया। यह कर्म तब से ही आरंभ हो गया था, जब सर ए ओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना का मात्र विचार ही बनाया था। सर ए ओ ह्यूम ने आरम्भ में तो हिंदुस्तान के वायसराय की राय से कांग्रेस नामक संस्था स्थापित की थी। और उन्हीं दिनों वायसराय के प्रोत्साहन और सहायता से अलीगढ़ में मुसलमानों का गढ़ स्थापित हुआ, अर्थात सरकार ने दोनों ओर से सरकारी प्रबंध से जनता की संस्था से मुसलमानों को पृथक कौम बनने में उत्साहित करना आरंभ किया। 1885 में कांग्रेस स्थापित हुई और उसमें डेलीगेटों में मुसलमानों की संख्या नियत कर दी।
प्रत्येक 10 डेलीगेट में दो मुसलमान निश्चित हों, ऐसा निश्चय किया गया। सरकारी तौर पर सैयद अहमद को सर की उपाधि देकर मुसलमानों को हिंदुओं के विपरीत भड़काने का यत्न आरंभ किया गया। आरंभ से ही मुसलमानों को हिंदुओं से पृथक करने की आंग्ल सरकार की नीति में कांग्रेस सहायक ही हुई। जो साम्राज्य के लिए आतंक उत्पन्न करना साधन मानते थे, कांग्रेस ने उनकी जनता अर्थात पब्लिक में निंदा करनी आरंभ की। हिंदुस्तान में पूर्ण स्वराज्य की जो मांग करते थे, उनकी निंदा करना, यह 1918 तक कांग्रेस का कार्य रहा है। 1916 में कांग्रेस ने मुसलमानों को पृथक और अपनी संख्या से अधिक अधिकारों के नीति का समर्थन किया था। अंग्रेजी सरकार की नीति का कांग्रेस ने खुलेआम 1920-22 में खिलाफत का समर्थन कर अलीगढ़ नीति का समर्थन किया।
कांग्रेस सदा मुसलमानों को पृथक रहकर सहयोग लेने के पक्ष में रही। ज्यों- ज्यों स्वराज समीप आता गया, कांग्रेस की यह नीति बढ़ती गई। कांग्रेस जाने में अथवा अनजाने में सरकार की हिंदुस्तान में मुसलमान एक पृथक कौम निर्माण करने की योजना में सहायक रही, जो आज भी देश के लिए घातक सिद्ध हो रही है। स्वराज की प्राप्ति में सबसे अधिक योगदान नेता जी सुभाष चंद्र बोस की नेशनल सेना -आजाद हिन्द फौज का है। मुंबई में नौसेना की बगावत ने बहुत सहायता की। देश में चतुर्दिक ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध माहौल था। स्थिति ऐसी थी कि अंग्रेज लुकते-छुपते -फिरते थे। किंतु जब अधिकार मिलने लगे तो क्रांतिकारियों तथा आजाद हिंद सेना के मुखिया या तो भूमिगत थे या देश एवं विदेश की जेलों में बंद थे। इसलिए कांग्रेस चैधरी बन गई।
वास्तव में कांग्रेस मुंबई, कोलकाता के उद्योगपत्तियों, पूंजीपत्तियों के कंधों पर चढ़कर जलसे, जुलूस निकालकर आरंभ से ही हिंदुस्तान में दो कौमों के होने की घोषणा करते रही है, जो अंततः द्विराष्ट्र का कारण बनकर रही। इससे स्पष्ट है कि स्वराज्य प्राप्ति का आतंकवादियों, क्रांतिकारियों और नेशनल आर्मी इत्यादि घटनाओं के कारण हुई परंतु कांग्रेस मुंबई और कोलकाता के उद्योगपत्तियों, पूँजीपत्तियों के धन से स्वप्रचार कर चैधरी बनी रही और अंग्रेजों के भागकर जाने के समय चाटुकारिता वश राज्य का अधिकार पा गई, और देश विभाजन से अब तक के अपने शासन काल में देश को उसके मूल भारत, भारतीय और भारतीयता से दूर ले गई। साथियों मैं अपना यह भाषण यहीं समाप्त करता हूं, मुझे यह अवसर देने के लिए आप सभी का धन्यवाद।
जय हिंदी जय भारत