भारत में आजादी से पहले कुछ 700 से आस पास आदिवासी समुदाय थे। फिलहाल भारत में लगभग 600 के आस पास आदिवासी समुदाय हैं। भारत के कई राज्यों में आज भी आदिवासी समुदाय अपना जीवन बसर कर रहें है। जब भारत आजादी के लड़ रहा था, ब्रिटिशा राज और उनके अत्याचारों को झेल रहा था तो उसी दौरान भारत के कई आदिवासी समाजों ने स्वतंत्रात के लिए आवाज उठाई थी। भारत के उत्तर पूर्वी में कई राज्य हैं जहां के कई आदिवासी समुदायों ने भारत की स्वतंत्रता और अपने लोगों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की और आंदोलनों की शुरूआत की। भारत के नॉर्थ ईस्ट में स्थित राज्यों के आदिवासी समुदायों ने स्वतंत्रता में एक अहम योगदान दिया है। आईए इस स्वतंत्रात दिवस में जाने नॉर्थ ईस्ट के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में।
मतमूर जमोह
सियांग नदी के किनारे कोम्सिंग गांव है। जहां एक आदिवासी समुदाय रहता है। इसी गांव में 31 मार्च 1911 में मतमूर जमोह का जन्म अरुणाचल प्रदेश में हुआ था। जिन्हें मुख्य तौर पर अपने लोगों की रक्षा और ब्रिटिश अधिकारी विलियमसन की हत्या करने के लिए जाना जाता है।
मालती मेम
मालती मेम एक आदिवासी समुदाय से थी। इनका जन्म असम में हुआ था। इन्हें मुख्य तौर पर चाय बगानों में अफीम की खेती के विरोध के लिए जाना जाता है। वह उन प्रमुख नेताओं में से एक थी जिन्होंने चाय बगानो में अफीम विरोधी अभियान चलाया था। 1921 में उन्होंने शराब बंद करने के लिए शराबबंदी अभियान में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का समर्थन किया था।
हैपौ जादोनांग
हैपौ जादोनांग का जन्म 10 जून 1905 में मणिपुर में हुआ था। हैपौ जादोनांग रोंगमई नागा जनजाति से थे। वह धर्मांतरण के खिलाफ थें जो अंग्रेजों द्वारा करवाया जा रहा था। हैपौ जादोनांग ने बाद में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के बारे में सुना और इस आंदोलन में उनके साथ एकजुटता की इच्छा जताई।
लक्ष्मण नाईक
लक्ष्मण नाईक का जन्म उड़ीसा के में 22 नवंबर 1899 में हुआ था। वह आदिवासी नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता थे। उन्होंने शोषण के खिलाफ लड़ने वालों को एकत्रित कर के एक संगठन बनाया और यहा से उन्हें आदिवासी नेता की पहचान मिली। कुछ समय में कांग्रेस ने इन्हें अपनी पार्टी में शामिल किया। उन्होंने गांधी के अहिंसा और सत्य के विचारों का परिचय दिया। इसी के साथ उन्होंने अपने क्षेत्र आदिवासी परिवारों में वयस्क शिक्षा और शराब से दूरी बनाने के लिए संदेश दिया। 1942 में गांधी जी के आह्वान पर एक जुलूस का नेतृत्व किया और एक शांतिपूर्ण प्रदर्श का किया। प्रदर्श शांतिपूर्ण होने के बाद भी पुलिसकर्मियों ने उन पर गोली चलाई। ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें एक व्यक्ति की मृत्यु के दोष में पकड़ा और 13 नवंबर 1942 में फांसी की सजा सुनाई और 29 मार्च 1943 में बरहामपुर जेल में फांसी की सजा दी गई।
पाओना ब्रजबाशी
पाओना ब्रजबासी का जन्म मणिपुर मे एक आदिवासी समुदाय में हुआ था। इन्होंने मणिपुरी किंगडम की सेना में प्रवेश लिया। 1891 में इन्होंने एंग्लो-मणिपुर युद्ध की लड़ाई में भाग लिया। जो की अंग्रेजों को मणिपुर पर कब्जा करने से रोकने के लिए की गई थी। अंग्रेजों के साथ हुई इस लड़ाई में अपने सैनिकों की हार के बाद उनके विरोधियों ने ब्रजबासी को उनकी सेवा में प्रवेश करने के लिए उनकी जान को बख्शने का एक मौका दिया। लेकिन इसके लिए ब्रजबासी ने साफ इनकार कर दिया जिसकी वजह से उन्हें मार दिया गया।