होली उमंग, उल्लास, मस्ती, रोमांच और प्रेम आह्वान का त्योहार है। हिंदू पंचांग के अनुसार, हर साल वसंत ऋतु में होली का त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष होली 2023 में 8 मार्च 2023 (बुधवार) को मनाई जाएगी। जबकि होलिका दहन मार्च 7 2023 (मंगलवार) को किया जाएगा।
आज के इस लेख में हम छात्रों के लिए होली पर निबंध लेकर आए हैं। जिससे छात्रों को होली के अवसर पर अपनी स्कूल प्रतियोगिताओं पर मदद मिलेगी। होली हिंदूओं का एक प्रमुख त्यौहार माना जाता है और इस दिन के शुभ अवसर पर स्कूलों में प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है।
होली को रंगों के त्योहार के रूप में जाना जाता है। यह भारत में सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। प्रत्येक वर्ष मार्च के महीने में हिंदू धर्म के अनुयायियों द्वारा उत्साह और उत्साह के साथ होली मनाई जाती है। जो लोग इस त्योहार को मनाते हैं, वे हर साल रंगों के साथ खेलने के लिए उत्सुकता से इंतजार करते हैं और मनोरम व्यंजन खाते हैं। होली, यानी सभी बुराई को भुलाकर प्यार की ओर बढ़ना है। कलुषित भावनाओं का होलिका दहन कर नेह की ज्योति जलाने और सभी को एक रंग में रंगकर बंधुत्व को बढ़ाने वाला यह त्योहार आज देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पूरे जोश के साथ जोरों-शोरों से मनाया जाता है। भले विदेशों में मनाई जाने वाली होली का मौसम के हिसाब से समय और मनाने के तरीके अलग-अलग हो पर संदेश सभी का एक ही है - 'प्रेम और भाईचारा।' होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सांकेतिक पर्व है। प्रकृति के पांवों में पायल की छमछम बसंत के बाद इस समय पतझड़ के कारण साख से पत्ते टूटकर दूर हो रहे होते हैं। ऐसे में परस्पर एकता, लगाव और मैत्री को एक साथ एक सूत्र में बांधने का संदेशवाहक यह त्योहार वातावरण को महुए की गंध की मादकता, पलाश और आम की मंजरियों की महक से चमत्कृत कर देता है। फाल्गुन मास की निराली बासंती हवाओं में संस्कृति के परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति सुसज्जित होकर चहुंओर मस्ती की भंग आलम बिखेरती है, जिससे दुःख-दर्द भूलकर लोग रंगों में डूब जाते हैं।
जब बात होली की हो तो ब्रज की होली को भला कैसे बिसराया जा सकता है। ढोलक की थाप और झांझतों की झंकार के साथ लोक गीतों की स्वर लहरियों से वसुधा के कण-कण को प्रेममय क्रीङाओं के लिए आकर्षित करने वाली होली ब्रज की गलियों में बड़े ही अद्भूत ढंग से मनायी जाती है। फागुन मास में कृष्ण और राधा के मध्य होने वाली प्रेम-लीलाओं के आनंद का यह त्योहार प्रकृति के साथ जनमानस में सकारात्मकता और नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला है। यकीनन होली के इस माहौल में मन बौरा जाता है। नायक और नायिका के बीच बढ़ रही इसी उत्तेजना, उत्कंठा और चटपटाहट को हिन्दी के कई रचनाधर्मी कवियों ने अपनी रचनाओं में ढाला है, वो वाकई अद्भूत है। अनुराग और प्रीति के इस त्योहार का भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य में सृजनधर्मा रचना प्रेमियों ने बखूबी से चित्रण किया हैं। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद सहित सगुन साकार और निर्गुण निराकर भक्तिमय प्रेम और फाल्गुन का फाग भरा रस सभी के अंतस की अतल गहराइयों को स्पर्श करके गुजरा हैं। सूफी संत अमीर खुसरो ने प्रेम की कितनी उत्कृष्ट व्याख्या की है - 'खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार। जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा हुआ पार।।'
होली का त्योहार मन-प्रणय मिलन और विरह वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है। राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा, नित नूतन आनंद के अतिरेकी उद्गार की छाया, राग-द्वेष का क्षय कर प्रीति के इंद्रधनुषी रंग बिखेरने वाला यह त्योहार कितनी ही लोककथाओं और किंवदंतियों में गुंथा हुआ है। प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा जनमानस में सर्वाधिक प्रचलित है। बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक ईश्वर श्रद्धा के अनुपम उदाहरण प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकीं। बुराई भले कितनी ही बुरी क्यों न हो पर अच्छाई के आगे उसका मिटना तय है। लेकिन इसके विपरीत आज बदलते दौर में होली को मनाने के पारंपरिक तरीकों की जगह आधुनिक अश्लील तरीकों ने ले ली हैं। जिसके फलस्वरुप अब शरीर के अंगों से केसर और चंदन की सुगंध की बजाय गोबर की दुर्गंध आने लग गई है। लोक गीतों में मादकता भरा सुरमय संगीत विलुप्त होने लगा है और अब उसकी जगह अभद्र शब्दों की मुद्राएं भी अंकित दिखलाई पड़ने लगी हैं।
फाल्गुन के प्राचीन उपमा-अलंकार कहां गये? मदन मंजरियों का क्या हुआ? पावों में महावर लगाई वे सुंदरियां कहां गई जो बसंत के स्वागत में फागुनी गीत गाती संध्या के समय अभिसार के लिए निकला करती थीं? चंग-डफ की थाप और ढोलक की गूंज के साथ फाग गायन को सुनने के लिए अब कान तरस रहे हैं। आधुनिकता और संचार क्रांति के युग में उपकरणों के बढ़ते उपयोग ने होली को खुले मैदान, गली-मोहल्लों से मोबाइल के स्क्रीन पर लाकर रख दिया है। अब लोग होली वाले दिन भी घर में डूब के बैठे रहते हैं। ये कहे कि आधुनिक होली वाट्सएप और फेसबुक के संदेशों तक सिमट कर रह गई है। होली को बिंदास, मस्ताने और अल्हड़ तरीके से मनाने की पारंपरिक पद्धति के खंडन ने होली को कइयों के लिए हानिकारक भी बना दिया है। मदिरा पीकर नाली का कीचड़ मुंह पर लगाकर गाली-गलौज के साथ ही कइयों ने तेजाब तक उछाल कर होली के जरिए अपनी दुश्मनी निकालने के भरसक प्रयत्न किये हैं। इसी कारण मस्ती और खुशियों की सौगात देना वाला होली का त्योहार घातक सिद्ध होने लगा है।
होली के रंगों का केवल भौतिक ही नहीं बल्कि आत्मिक महत्व भी है। रंग हमारी उमंग में वृद्धि करते हैं और हर रंग का मानव जीवन से गहरा अंतर्संबंध जुड़ा हुआ है। लेकिन आज प्राकृतिक रंगों की जगह केमिकल रंगों के प्रयोग ने मानव त्वचा को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। वहीं बढ़ती महंगाई और मिलावट ने पारंपरिक मिष्ठान का स्वाद भी बिगाड़ने का काम किया है। साल दर साल होली के गुणों में न्यूनता आती जा रही हैं। होली के फीके होते रंगों में रौनक लौटाकर जनमन में आस्था और विश्वास जगाने की आज बेहद जरूरत है। केवल होलिका दहन के नाम पर घास-फूस को ही नहीं जलायें अपितुु मानव समाज की उन तमाम बुराइयों का भी दहन करें जो हमारे भीतर अलगाव और आतंक को फैला रही है। दरअसल, असली होली तो तब मनेंगी जब हमारे देश के राजनेता अपने चेहरों पर लगे बेमानी, स्वार्थ और रिश्वतखोरी के रंगों को उतार कर भ्रष्टाचार की होली का दहन करेंगे। तब तक आम आदमी की होली सुखी नहीं बल्कि सूखी ही है। किसी ने क्या खूब कहा है- 'वक्त बदल गया है, हालात बदल गए, खून का रंग नहीं बदला, पर खून के कतरे बदल गए हैं। दिन रात नहीं बदले, मगर मौसम बदल गए, होली तो वही है, पर होली के रंग बदल गए।