2020 प्रश्न :क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि असहयोग आन्दोलन की परोक्ष असफलता तथा राष्ट्रवादी परिदृश्य पर छाई उदासी ने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया? विवेचना कीजिए.
2018 - प्रश्न : क्या आप असहयोग आन्दोलन के स्थगन को "राष्ट्रीय विपत्ति" मानते हैं?
2017 - विवेचना कीजिए कि गांधीजी के सत्याग्रहों ने किस प्रकार भारतीयों के बीच भय के दौर को समाप्त किया था और इस प्रकार साम्राज्यवाद के एक महत्त्वपूर्ण खम्भे के उखाड़ फेंका था.
2013 : "हममें से बहुत से जिन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमों में काम किया था, 1921 में एक प्रकार के नशे में जीते रहे. हममें उत्साह और आशावाद भरा था .... . हमें स्वाधीनता का आभास होने लगा जिस पर हमें गर्व था." समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए.
यूपीएससी पाठ्यक्रम: 9.5 असहयोग आंदोलन समाप्त होने के बाद से सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रारंभ होने तक की राष्ट्रीय राजनीति
प्रश्न: किन विशिष्ट मुद्दों पर असहयोग आन्दोलन की शुरुआत हुई?
प्रश्न: असहयोग आंदोलन समाप्त होने के बाद से सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रारंभ होने तक की राष्ट्रीय राजनीति
रौलेट एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल, 1919 को, गांधीजी के नेतृत्व में, देश भर में सत्याग्रह दिवस के रूप में मनाया गया। लोगों पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। सभी वर्ग के लोगों ने इसमें भाग लिया। पूरे देश में एक, नए वातावरण का सृजन हुआ। यह आन्दोलन अभी जोर पकड़ ही रहा था कि जगह-जगह हिंसा होने लगी। गांधीजी को लगा लोगों के अन्दर हिंसा के छिपे आवेग को सही-सही आंकने में उनसे भूल हो गई है और भारत के लोग अभी भी शांतिपूर्ण आंदोलन के रहस्य को नहीं समझे हैं।
गांधीजी का मानना था कि क़ानून के सविनय भंग के लिए लोगों को पूरा प्रशिक्षण नहीं मिला है, इसलिए आंदोलन चालू रखना ग़लत होगा। प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने तीन दिन का व्रत रखा और रौलट एक्ट के विरोध में किए गए सत्याग्रह को 18 अप्रैल, 1919 को स्थगित कर दिया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों के कहर से डर गए थे। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए थे। इस घटना के बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेजी शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा, जो "रॉलेट सत्याग्रह" से भी अधिक व्यापक था! वह था असहयोग आन्दोलन।
असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि
रौलेट एक्ट, जालियांवाला बाग़ हत्याकांड, खिलाफत का प्रश्न, विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न आर्थिक असंतोष, अकाल, महामारी, मोंट-फोर्ड सुधारों से व्याप्त असंतोष, किसान-मज़दूर आन्दोलनों, सरकार की दमनात्मक कार्रवाई और भारत में बढ़ती राष्ट्रीय भावना ने वह पृष्ठभूमि तैयार कर रखी थी, जिसपर एक देशव्यापी आन्दोलन छेड़ा जा सकता था। भारतीय जनता को उम्मीद थी कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेज़ी हुक़ूमत उसके लिए कुछ करेगी। पर 1919 की घटना, रॉलेट एक्ट, जालियावाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और कुछ नहीं मिलने वाला है।
मांटेग्यू-चेम्सफॉर्ड सुझाव भी एक छलावा मात्र ही था। इसका मकसद दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि जनता को राहत देना। तुर्की के धर्मस्थलों पर से ख़लीफ़ा का नियंत्रण हट जाने के बाद से भारत के मुसलमान बहुत क्षुब्ध थे। पंजाब के अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर पर्दा डालने में लगी थी। यह सब देखकर गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था भी चूर-चूर हो गई। उनका अब मानना था कि ऐसे 'शैतानी' शासन से असहयोग करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। उस समय की विशेष परिस्थिति का उचित उपयोग करते हुए ब्रिटिश-साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशक्त संघर्ष शुरू करने के उद्देश्य से गांधीजी ने 1 अगस्त, 1920 से असहयोग आन्दोलन शुरू करने की घोषणा की। उन्होंने कहा, "कुशासक को किसी भी तरह का सहयोग न देने के प्रजा के अनंतकालीन अधिकार का उपयोग करेंगे"।
असहयोग आन्दोलन के प्रश्न पर बनारस में सम्मेलन
अब तक असहयोग आन्दोलन केवल ख़िलाफ़त से ही संबंध रखता था। इस प्रश्न को देश के अन्य नेताओं के सामने रखने के लिए गांधीजी ने एक सम्मेलन बनारस में आयोजित किया। इस सम्मेलन में असहयोग की नीति अपनाने का निश्चय किया गया। असहयोग का कार्यक्रम बनाने के लिए एक कमेटी बना दी गई, जिसमें अबुल कलाम आज़ाद, हकीम अजमल ख़ान और गांधीजी को रखा गया। इस कमेटी ने स्कूल-कॉलेजों और अदालतों के बहिष्कार की सिफ़ारिश की। उपाधियों, सरकारी नौकरियों, आनरेरी पदों और धारा-सभाओं के बहिष्कार का निर्णय पहले ही हो चुका था। पंजाब के अत्याचारों का प्रश्न भी इसके साथ जोड़ दिया गया। यह भी निश्चय किया गया कि पुलिस तथा फौज की नौकरियों का त्याग किया जाएगा।
कलकत्ता कांग्रेस विशेष अधिवेशन
कलकत्ता कांग्रेस विशेष अधिवेशन (4-9 सितंबर, 1920) के अध्यक्ष लाला लाजपत राय चुने गए। अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य असहयोग के प्रश्न पर विचार करना था। प्रस्ताव में ख़िलाफ़त और पंजाब के अन्याय को लेकर असहयोग करने की बात थी। एक तरफ जहां ख़िलाफ़त कमिटी ने एक बार में ही उनके इस प्रस्ताव को मान लिया था, वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस के दिग्गज इस मामले में बहुत गर्मजोशी नहीं दिखा रहे थे, बल्कि कई वरिष्ठ नेताओं ने इसका विरोध किया। विरोधियों में प्रमुख थे, सी.आर. दास। इसके अलावा विपिन पाल, लाजपत राय और मालवीय जैसे नेता भी इस प्रस्ताव के विरोध में थे। वल्लभभाई पटेल, नेहरू, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद जैसे युवा नेता गांधीजी के साथ थे। विजयराघवाचार्य को इस बात पर आपत्ति थी कि असहयोग किसी खास अन्याय (ख़िलाफ़त) को लेकर ही क्यों किया जाए? सबसे बड़ा अन्याय तो स्वराज्य का अभाव है। उसे लेकर ही असहयोग किया जाना चाहिए। सुझाव मंजूर हो गया और प्रस्ताव में स्वराज्य की मांग भी जोड़ दी गई। बहस के बाद असहयोग का प्रस्ताव मंजूर हो गया।
नागपुर वार्षिक अधिवेशन-असहयोग प्रस्ताव स्वीकृत
दिसंबर, 1919 के नागपुर वार्षिक अधिवेशन तक, जिसके अध्यक्ष वयोवृद्ध विजयराघवाचारी थे, असहयोग को लेकर कांग्रेस के अंदरूनी विरोध लगभग ख़त्म हो चुके थे। कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग का विरोध करने वाले सी.आर. दास ने ही इस सम्मेलन में असहयोग आंदोलन से संबद्ध प्रस्ताव रखा था। सम्मेलन में असहयोग आन्दोलन की पुष्टि की गई थी। गांधीजी ने कहा था, "मनुष्यों की तरह राष्ट्र भी अपनी ख़ुद की कमज़ोरी के कारण आज़ादी खोते हैं। अंग्रेज़ों ने भारत को नहीं पाया है; हमने उनको दिया है। वे भारत में अपनी ताकत के बल पर नहीं हैं, बल्कि हमने उनको रखा हुआ है। भारतीय जनता इतने वर्षों से स्वेच्छापूर्वक और चुप साधकर जो सहयोग देती आ रही है, अगर उसे देना बंद कर दे तो ब्रिटिश साम्राज्य का भहराकर गिरना अनिवार्य है।"
गांधीजी का नेतृत्व और कांग्रेस के विधान में परिवर्तन
राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन का नेतृत्व अब गांधीजी के हाथों में था। गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से ढालने की ज़रुरत महसूस की। उन्होंने कांग्रेस के विधान में परिवर्तन किया। उसे प्रजातांत्रिक और साधारण जनता की संस्था बना दिया। इसमें छह हज़ार डेलिगेट की व्यवस्था थी। कांग्रेस का स्वरूप पिरामिडीय ढांचे जैसा किया गया। आधार के रूप में गांवों, तालुको, जिलों और प्रान्तों की समितियां, और शिखर के रूप में 15 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति तथा अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति थी। प्रदेश कांग्रेस समितियों का गठन भाषा के आधार पर किया गया। इससे स्थानीय लोगों की ज़्यादा-से-ज़्यादा भागीदारी संभव हो सकी। सदस्यता फीस साल भर के लिए चार आने कर दी गई। कांग्रेस को अधिक व्यापक आधार मिला।
अब तक कांग्रेस पर उच्च और मध्यम वर्ग का कब्जा था, अब पहली बार इसके दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली आम जनता के लिए खोल दिए गए। कांग्रेस में किसानों का प्रवेश आसानी से होने लगा। कांग्रेस ने यह भी तय किया कि जहां तक संभव हो हिंदी को ही बतौर संपर्क भाषा इस्तेमाल किया जाए। कांग्रेस का उद्देश्य बदल दिया गया। पहले उद्देश्य था सांविधानिक और वैधानिक तरीक़े से विरोध प्रकट करना, अब अहिंसक और शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन से स्वराज की स्थापना इसका उद्देश्य था। अबतक जो कांग्रेस सिर्फ़ बातचीत करती थी, और उसके बाद एक प्रस्ताव पास कर देती थी, अब कर्म इस संस्था का उद्देश्य बन गया। कर्म जो शांतिपूर्ण युक्तियों पर आधारित होता था। गांधी जी एक शांतिवादी नेता थे। उनके शांतिपूर्ण कार्य-पद्धति का लक्ष्य था राष्ट्रीय एकता, अल्पसंख्यकों की समस्या का निदान, दलितों का उत्थान और अस्पृश्यता का निराकरण। नागपुर कांग्रेस में अंत्यजों के बारे में प्रस्ताव पास हुआ। पहली बार दलितों का मुद्दा अखिल भारतीय स्तर पर उठाया गया। इस तरह कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का दायित्व भी अपना लिया गया।
असहयोग आन्दोलन आरंभ
गांधीजी ने तीन मुख्य मुद्दों पर असहयोग आंदोलन शुरू किया था, ख़िलाफ़त का प्रश्न, पंजाब में अत्याचार और स्वराज। कांग्रेस ने गांधी जी का असहयोग का कार्यक्रम अपना लिया था। संघर्ष की यह पद्धति बिलकुल शांत और अहिंसक थी। जो भारतीय उपनिवेशवाद को ख़त्म करना चाहते थे, उनसे आग्रह किया गया कि वे विदेशी सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का बहिष्कार, सरकारी उत्सवों का बहिष्कार, स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय का बहिष्कार और मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार के अंतर्गत बनाई गई नई कौंसिल का बहिष्कार करें। बाद में नौकरियों से भी बहिष्कार किए जाने की घोषणा की गई। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार को उसके शासन कार्य और भारत के शोषण में सहायता देने से इंकार कर दिया जाए। अहिंसात्मक असहयोग के कार्यक्रम में मुख्य क्रियाकलाप विदेशी वस्तुओं और विदेशी (ब्रिटिश) सम्मान का बहिष्कार तो था ही। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार को उसके शासन कार्य और भारत के शोषण में सहायता देने से इंकार कर दिया जाए। इसके प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने देश-भर का तूफानी दौरा किया और गांव-गांव घूमे। वही गांधीजी जो अपने-आपको ब्रिटिश हुकूमत का वफ़ादार प्रजाजन मानते थे, ने लिखा था, "लॉर्ड रीडिंग यह जान लें कि सरकार के ख़िलाफ़ यह खुला, लेकिन अहिंसात्मक विद्रोह है।" गाँधीजी ने लोगों से कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा।
सितंबर के बाद से गांधीजी एक साथ राष्ट्रीय और ख़िलाफ़त दोनों ही संघर्षों के नेता थे। गांधीजी ने जब अहिंसक विद्रोह की कमान संभाली तो सरकार ने उसे अपनी सत्ता और अस्तित्व के लिए चुनौती समझा और मुकाबले के लिए तैयार हो गई। अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह समझते थे, कि यदि असहयोग-आन्दोलन सफल हो गया, तो उनकी प्रशासनिक व्यवस्था ठप्प हो जाएगी। लार्ड चेम्सफोर्ड ने पहले तो "हद दर्जे की बेवकूफी" कह कर इस आन्दोलन की खिल्ली उड़ाई। नरम दल के कई नेताओं ने भी इस आलोचना में सरकार का साथ दिया और गांधीजी द्वारा प्रस्तावित जन-आन्दोलन के खतरों पर जोर दिया। लेकिन गांधीजी के आह्वान ने जादू की छड़ी का काम किया। कुछ ही दिनों में जनता में अभूतपूर्व उत्साह का तूफान पैदा हो गया। चार साल पहले हुए लखनऊ कांग्रेस में गांधीजी एक प्रेक्षक की तरह बैठे थे, जो देखकर नेहरूजी को बहुत दूर स्थित और भिन्न और अराजनीतिक लगे थे, वही गांधीजी आज राष्ट्रीय आन्दोलन के मैदान में छाए हुए थे।
उपाधियों का बहिष्कार
गांधी जी ने देखा कि ब्रिटिश हुक़ूमत को ऐसे कई भारतीय सहयोग देते हैं जिनका स्वार्थ ब्रिटिश राज के साथ बंधा हुआ है। उन्होंने इस पर प्रहार किया। उन्होंने लोगों से आह्वान किया, "उपाधियों का बहिष्कार करो।" गांधी जी ने भी बोअर युद्ध के दौरान एम्बुलेंस कॉर्प की सेवा के कारण 1915 में हासिल हुए कैसरे-ए-हिन्द की उपाधि वायसराय को वापस कर दिए और लिखा, "मैं ऐसी सरकार के प्रति न अपने सम्मानभाव को और न ही अपने प्रेम को सुरक्षित रख सकता हूं जो अपनी अनैतिकता को उचित ठहराने के लिए एक पर एक कुकर्म करती चली आ रही है"। जालियांवाला नर-संहार के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले ही अपनी नाइट की पदवी छोड़ चुके थे। हालाकि बहुत कम उपाधिधारियों ने उनकी बात मानी, 5,186 में से सिर्फ 24 सरकारी उपाधियाँ लौटाई गईं, फिर भी इस पर से लोगों की आस्था टूटने लगी। लोग अब इसे गर्व का विषय नहीं अपमान का चिह्न मानने लगे।
नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार
गांधीजी के आह्वान पर बंगाल में देशबंधु चितरंजन दास ने अपनी लाखों की वकालत छोड़ दी। अपना आलीशान बंगला और लाखों की संपत्ति देश को दान कर दिया। इलाहाबाद में नेहरू पिता-पुत्र ने वकालत छोड़कर सादगी का जीवन अपना लिया। पंजाब में लाला लाजपत राय ने वकालत छोड़ी और स्वराज के लिए सादगी भरा जीवन अपना लिया। मद्रास में राजाजी, सिंध में जयराम दौलतराम, महाराष्ट्र में गंगाधरराव पांडे और शंकरराव देव, बंबई में विट्ठलभाई पटेल और सरोजिनी नायडू, वर्धा में सेठ जमनालाल बजाज, गुजरात में वल्लभभाई पटेल, बड़ौदा महाराज के दीवान अब्बास तैयबजी और उनकी बेटी रेहाना तैयबजी अदि अनेक अनगिनत लोग थे जिन्होंने तन-मन-धन से अपना जीवन स्वराज के लिए समर्पित कर दिया। बिहार में राजेन्द्र प्रसाद और ब्रजकिशोर बाबू ने अपनी ज़मींदारी और वकालत छोड़ दी। किसानों के समान धोती और कुर्ता पहनने लगे।
असहयोग आंदोलन के द्वारा कांग्रेस की लोकप्रियता बढने लगी। पहले महीने में ही 10,000 छात्रों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्कूलों में भर्ती हो गए। शिक्षा का बहिष्कार पश्चिम में सबसे अधिक सफल रहा। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राज्यव्यापी हड़ताल की। उनकी मांग थी कि स्कूलों के प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़े। सी.आर. दास ने इस आंदोलन को बहुत प्रोत्साहित किया और सुभाष चंद्र बोस "नेशनल कॉलेज, कलकत्ता" के प्राधानाचार्य बन गये। जिन विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार किया था उन विद्यार्थियों के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था के लिए गांधीजी ने पांच शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। अहमदाबाद में 'गुजरात विद्यापीठ', पटना में 'राष्ट्रीय विद्यापीठ', वाराणसी में 'काशी विद्यापीठ', दिल्ली में 'जामिया मिलिया' और पूना में 'तिलक विद्यापीठ' की स्थापना हुई। ये पांचों संस्थाएं 1920 में आरंभ हुईं। आचार्य नरेंद्र देव, राजेन्द्र प्रसाद, डॉक्टर जाकिर हुसैन, सुभाष चन्द्र बोस ने नाममात्र के वेतन पर इन संस्थानों को अपनी सेवाएं अर्पित कीं।
विदेशी कपड़ों के बहिष्कार
बहिष्कार आन्दोलन में सबसे अधिक सफल था विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का कार्यक्रम। विदेशी-वस्त्र बहिष्कार-समिति के अध्यक्ष स्वयं गांधीजी थे, और इसके मंत्री थे जयरामदास दौलतराम। लोगों ने सरल जीवन को अपनाना शुरू कर दिया। लोग एक जगह इकट्ठा होते और विदेशी कपड़ों की होली जलायी जाती। गांधी जी जगह-जगह की यात्रा कर लोगों से अपील करते कि आप लोग पूरा कपड़ा न सही, विरोध जताने के लिए अपनी पगड़ी, दुपट्टा या टोपी को ही उतार दीजिए। इन कपड़ों की होली जलायी जाती। इसका नतीजा यह हुआ कि 1920-21 में जहां एक अरब दो करोड़ रुपये मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह घट कर 57 करोड़ हो गया। इस अवधि में आर्थिक बहिष्कार काफ़ी तीव्र रहा। ब्रिटिश सूती थानों के आयात में भारी गिरावट आई। व्यापारी वर्ग का समर्थन मिलने से कांग्रेस की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। असहयोग आंदोलन को व्यापारी वर्ग का समर्थन मिला। राष्ट्रवादी स्वदेशी आंदोलन से कपड़ा उद्योग को लाभ हुआ। इसने न सिर्फ़ मिल मालिकों के प्रभाव को बढ़ाया बल्कि उनके माल की बिक्री भी बढ़ाई। हां, इस दौरान पूंजी और श्रम के बीच के संबंधों को नियमित करने के लिए कई श्रमिक आंदोलन भी हुए।
शराबखाने पर धरना
मादक पदार्थों के विरुद्ध भी यह आन्दोलन हुआ। शराब की दूकानों पर महिलाओं ने धरना देना शुरू कर दिया। स्वरूपरानी नेहरू (मोतीलाल नेहरू की पत्नी), मीठू बहन (सर जहांगीर पिटीट की पुत्री), कस्तूरबा गांधी, दाभाई नौरोजी की तीनों पौत्रियां आदि शराब की दूकानों पर धरना देने लगीं। कल तक जो महिलाएं घर से बाहर नहीं निकली थीं, असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ी थीं।
सेना में भर्ती होने से इंकार
मुहम्मद अली ने ब्रिटिश इन्डियन आर्मी में काम कर रहे मुसलमानों से अपील की कि वे ब्रिटिश सेना छोड़ दें। उनके आह्वान का सकारात्मक असर पडा। इसके अलावा लोगों ने ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने से भी इनकार करना शुरू कर दिया। प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन का बहिष्कार किया गया। हालाकि इस दौरान कुछ दंगे भी हुए।
रचनात्मक काम : चरखा और खादी
विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के साथ रचनात्मक काम भी हाथ में लिए गए। राष्ट्रीय आन्दोलन के क्रिया-कलापों में चरखे और हाथ से सूत कातना, खादी पहनना अपनाया गया जिसके कारण खादी का ख़ूब प्रचार हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी योजनाबद्ध कूटनीति से भारत का कपड़ा बनाने का गृह उद्योग बिलकुल चौपट कर दिया था। ब्रिटिश सरकार ने अच्छी तरह समझ लिया था कि भारत जैसे विशाल देश को सिर्फ़ सैन्य-शक्ति से ही काबू में नहीं किया जा सकता। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे भारत के आर्थिक स्वावलंबन को ख़त्म कर देने पर तुल गए। उन्होंने ऐसे आर्थिक प्रबंध किए कि भारत अपनी ज़रूरतों को पूरी करने के लिए इंगलैंड पर निर्भर हो। भारतीयों का कपड़ा उद्योग को नष्ट कर ब्रिटिशों ने उनपर अपनी मिलों का बना कपड़ा लाद दिया। इस तरह बहुत ही कुटिलता से उन्होंने यहां का आर्थिक और राजनीतिक नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। गांधीजी को लगा कि यदि कल-कारखानों के स्थान पर घर-घर में चरखा चलेगा, तब प्रत्येक आदमी आर्थिक स्वावलंबन को प्राप्त करेगा।
विदेशी मिलों का कपड़ा न पहनकर गांधीजी और आश्रमवासियों ने हाथ से बुना खुरदरा और मोटा कपड़ा पहनना शुरू कर दिया। खादी के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने देश का व्यापक दौरा किया। यह नियम बना दिया गया कि जो 1200 गज सूत जमा करेगा वही कांग्रेस का सदस्य बन पाएगा। कांग्रेस अधिवेशन में चरखे चलते, सूत काते जाते। 1921 की बम्बई कांग्रेस महासमिति की बैठक तक 20 लाख चरखे चलने लगे थे। इस प्रकार खेतिहर मज़दूरों और छोटे किसानों की आमदनी में वृद्धि हुई। खादी के प्रचार-प्रसार के कारण लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों का, निर्यात के अभाव में, बंद होना शुरू हो गया। ब्रिटेन की समृद्धि को धक्का लगा। आज़ादी की ओर हमारा कदम बढ़ने लगा।
तिलक स्वराज कोष
अप्रैल में विजवाड़ा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि तिलक स्वराज कोष के लिए एक करोड़ रुपए की राशि एकत्रित की जाए, कांग्रेस में एक करोड़ सदस्यों की भरती की जाए और 20 लाख चरखे लगाए जाएं। एक करोड़ सदस्यता का लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुंचा दी गई। स्वराज फंड ने न सिर्फ़ अपना लक्ष्य पूरा किया बल्कि उसके आगे निकल गया। चरखे और खादी का खूब प्रचार और प्रसार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक ही बन गई।
आन्दोलन की विशेषता
गांधी जी के सिद्धांत में शांतिवाद के साथ स्फूर्ति और कर्मण्यता थी। वे नेताओं को वे एक जगह टिक कर बैठने नहीं देते थे। उन्हें गावों में भेजते थे। ये लोग गांधी जी के कर्म-सिद्धांत के संदेश-वाहक होते थे। इन संदेश-वाहकों के क्रिया-कलापों से किसानों की आंखें खुल गईं। उस समय के अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को इसकी सफलता पर संदेह था। उस समय के प्रमुख नेताओं में से सिर्फ़ मोतीलाल नेहरू का समर्थन मिला था। किंतु आम कांग्रेसियों और जन-साधारण के ऊपर गांधी जी का जादू-सा प्रभाव था। मुसलमानों का भी अभूतपूर्व सहयोग मिला। अली बंधुओं के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी से भी ज़ोरदार समर्थन मिला।
यह बात तो तय थी कि हिंसात्मक संघर्ष से भारत ब्रिटिश-सरकार के ख़िलाफ़ चाहे कितना भी ज़ोर लगा लेता, उसके ताक़त की बराबरी नहीं कर सकता था। इस अंदोलन ने भारत के लोगों को अपने पर भरोसा रखना और अपनी शक्ति बढ़ाना सिखाया। यह एक शांतिपूर्ण विद्रोह था, लेकिन शासक वर्ग के स्थायित्व के लिए बहुत खतरनाक था। लोग निडर होकर ब्रिटिश हुक़ूमत से आंख मिलाने लगे। असहयोग आंदोलन ने गांधीजी को देश का प्रमुख नेता बना दिया। इस आंदोलन ने देश को राष्ट्रीय स्वतंत्रता और पददलितों के शोषण के अंत का लक्ष्य दिया।
अबतक भारत का राष्ट्रीय आंदोलन धनिक वर्ग का अंदोलन था। गांधीजी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया। वे आम जनता का प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी भारत की आत्मा और मर्यादा के प्रतीक बन गए थे। वे जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। वे आम जनता को ऊंचा उठाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब, निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग उठी। एक बड़े हित के लिए लोग मिलकर काम करने लगे। उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधी जी ने उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे अब देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन था। इस काल में अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक देखा जाने लगा। उसे महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न पहुंचता हो, आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त परिवर्तन था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई उड़ान दी।
सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया
असहयोग आन्दोलन ने देश में नई ऊर्जा भर दी थी। आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ता जा रहा था। विद्यार्थियों, वकीलों, किसानों, मज़दूरों, आदि द्वारा अनेकों आदोलन चलाए जा रहे थे। अब तक सरकार यह मानती आ रही थी कि दमन से विद्रोह की आग भड़केगी। जो लोग मारे जाएंगे उन्हें शहीद का दर्ज़ा दे दिया जाएगा। इसलिए समझाने-बुझाने की नीति अपनाई जा रही थी। लेकिन 1921 के आख़िरी महीने में सरकार ने दमन का रास्ता अपना लिया। स्वयंसेवी संगठनों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया और इसके सदस्यों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। सबसे पहले सी.आर. दास गिरफ़्तार किए गए। इसके ख़िलाफ़ बंगाल में भयंकर विरोध हुआ। देश के अन्य भागों में भी कामो-बेश यही हाल था। हज़ारों लोगों ने गिरफ़्तारियां दीं। दो महीने के भीतर 30 हज़ार से ज़्यादा लोग जेल के अन्दर थे। लगभग सभी बड़े नेता गिरफ़्तार कर लिए गए थे, केवल गांधीजी ही जेल के बाहर थे। बैठकों और सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कांग्रेस और ख़िलाफ़त कमेटी को गैर-कानूनी घोषत कर उनके कार्यालयों पर छापे मारे जाने लगे।
फूट डालने की नीति
अंग्रेजों ने आन्दोलन के प्रभाव को कम करने के लिए फूट डालने की नीति अपनाई। लॉर्ड एस.पी. सिन्हा और तेजबहादुर सप्रू जैसे कुछ अँगरेज़ परस्त भारतीयों को सरकारी पद दिया गया। देशी रियासतों से सक्रिय सहयोग पाने के लिए नरेंद्र मंडल का गठन किया गया। आन्दोलन के विरोध में प्रचार करने के लिए अमन सभा की स्थापना की गयी। हिन्दू-मुस्लिम एकता को भंग करने के लिए साम्प्रदायिक दंगे भड़काए गए।
चौरी-चौरा कांड- सत्याग्रह आन्दोलन स्थगित
गांधीजी के अहिंसा का जादू चमत्कार दिखा रहा था। सारा देश उत्साह से भरा हुआ था। इसी बीच 5 फरवरी 1922 में उत्तरप्रदेश के चौरी चौरा नामक जगह पर उत्तेजना की एक घटना घट गई। उस घटना से एकाएक सारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन का सारा दृश्य ही बदल गया। एक स्वयंसेवक दस्ते ने अनाज की बढ़ती क़ीमत और शराब की बिक्री के विरोध में स्थानीय बाज़ार में धरना दिया और उसके बाद एक शांत अहिंसक जुलूस निकाला गया। पुलिस चौकी के पास से जुलूस गुज़रने लगा। जुलूस का मुख्य हिस्सा थाने के सामने से आगे निकल गया था। जो पीछे रह गए थे, कुछ पुलिसवालों ने उन पर ताना मारा, 'फटीचर फ़ौज' कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई। उस जुलूस में कुछ युवक भी थे। उनसे यह ओछा मज़ाक़ बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने भी कुछ सुना दिया। पुलिस ताव में आ गई। स्वयंसेवकों के नेता व एक भूतपूर्व सैनिक भगवान अहीर को पुलिस ने पीटा और विरोध करने वाले लोगों पर थानेदार ने गोली चलाने का हुक्म दे दिया। गोली चली और एक सत्याग्रही वहीं शहीद हो गया। जब गोला-बारूद ख़त्म हो गया तो, पुलिस ने थाने में घुसकर अंदर से किवाड़ बंद कर लिया। इतने में जुलूस लौट आया। इस शांत समुदाय से वह निरीह मौत सहन नहीं हुआ। अहिंसक भीड़ उत्तेजित हो गई। इन लोगों ने पुलिस से बदला लेने के लिए उस पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में 22 पुलिसवाले जल गए। इसे चौरी-चारा काण्ड कहा जाता है।
इस घटना का समाचार गांधीजी को मिला। उन्हें लगा कि असयोग का अहिंसक आन्दोलन अगर बेकाबू होकर हिसंक हो गया तो सत्याग्रह का शक्तिपुंज नष्ट हो जाएगा। सरकार तो ऐसी किसी ग़लती की ताक में रहती ही है। वे जानते थे कि हिंसक भीड़ को ज़्यादा हिंसा से अंकुश में लाना तो सत्ताधारी के लिए बहुत सुलभ है। वह इस नतीजे पर पहुंचे कि देश का वातावरण अभी जन-सत्याग्रह के उपयुक्त नहीं है। उन्हें लगा कि अहिंसक आंदोलन में हिंसा भड़के उसके पहले ही सत्याग्रह को स्थगित कर देना अच्छा रहेगा। कांग्रेस की कार्यकारिणी के जो सदस्य जेल से बाहर थे, उनसे उन्होंने सलाह मशविरा किया। 24 फरवरी को दिल्ली में महासमिति की बैठक हुई। नागरिक अवज्ञा स्थगित करके एक रचनात्मक कार्यक्रम पर सहमति हुई। चौरी-चौरा कांड पर खेद प्रकट किया गया। सत्याग्रह-स्थगन का प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया गया।
गांधीजी द्वारा आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा से सारा देश स्तब्ध रह गया। सुभाषचंद्र बोस ने अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए कहा था, "यह राष्ट्र के दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं था ...।" नेहरू, चित्तरंजन दास और लाजपत राय भी स्तब्ध रह गए। गांधीजी पर आरोप लगाया गया कि इस आन्दोलन को बुर्जुआवर्ग और ज़मींदार-सामंतवार्ग के विशुद्ध वार्गस्वार्थों के लिए बंद कर दिया गया। इन वर्गों के स्वार्थ के लिए देश के स्वार्थ की बलि दे दी गयी। गांधीजी मानते थे कि प्रमुख नेताओं के जेल चले जाने से जनता दिशाहीन और हिंसक हो गयी थी और हिंसा के आधार पर सरकार का मुकाबला नहीं किया जा सकता था। संघर्ष को अहिंसक रखकर ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर विजय प्राप्त की जा सकती थी।
असहयोग आंदोलन की उपलब्धियां
एकाएक सत्याग्रह-संघर्ष बंद कर देने से बहुत से कार्यकर्ताओं को निराशा हुई। लेकिन अल्प इतने ही काल में ही इस आन्दोलन ने अनेक उपलब्धियां हासिल की। इस आंदोलन ने पहली बार देश की जनता को इकट्ठा किया। इसने यह दिखाया कि हिंदुस्तान की आम जनता आधुनिक राष्ट्रवादी राजनीति को आगे ले जाने में समर्थ है। इस आन्दोलन ने बताया कि भारतीय जनता त्याग और बलिदान के मार्ग पर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। इसने दमनकारी सत्ता को बता दिया कि देश की गुलामी भारत के हर निरक्षर, गरीब और आम जनता को भी सताती है। इस आन्दोलन ने बताया कि मज़दूर, किसान, दस्तकार, व्यापारी, व्यवसायी, कर्मचारी, पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, सभी लोग देश की आज़ादी के संघर्ष में जुड़ गए हैं। इस आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी भी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस आंदोलन ने जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित कराया। ... और सबसे ऊपर यह कि इस आन्दोलन से जो कुछ भी हासिल हुआ, वह आगामी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करने में सहायक हुआ।
स्थगन के द्वारा गांधीजी ने चेतावनी दी थी कि वह सत्याग्रह के पवित्र सिद्धान्त की बलि देकर स्वराज नहीं लेंगे। वह एक सशस्त्र शक्ति के विरुद्ध अस्त्रहीन संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। वह जानते थे कि हिंसा की बागडोर ढ़ीली करने के बाद कौन जीतेगा? चौरीचौरा की घटना और उसके परिणामों ने उस समय के शीर्ष नेताओं को अहिंसा पर एक प्रणाली के रूप में सोचने के लिए विवश किया।
हमें उस समय की परिस्थिति को ध्यान में रखकर असहयोग के इस महान प्रयोग के महत्त्व को आंकना चाहिए। पुराने और अनुभवी कांग्रेसी नेताओं को इस नए कार्यक्रम की सफलता पर शुरू से ही संदेह था। वे इससे अलग-थलग रहे। जवाहरलाल नेहरू को भी इस तरह के कार्यक्रम की सफलता के प्रति आशंका थी। "क्या एक बड़े संघर्ष को शुरू करने का यही ढंग है? मुझे तो उम्मीद थी कि बड़े-बड़े जोशीले भाषण होंगे।" किसी भी राजनैतिक कार्यक्रम की सफलता के लिए उपयुक्त राजनैतिक संगठन होना चाहिए। गांधी जी का मानना था कि देश को वार्षिक समारोहों और लच्छेदार भाषण करने का मंच प्रदान करने वाली कांग्रेस की ज़रुरत नहीं है। बल्कि जनता के सतत सम्पर्क में रहने वाले और जीवन्त लड़ाई कर सकने की योग्यता वाले कांग्रेस की आवश्यकता थी। गांधीजी ने विधान में परिवर्तन कर कांग्रेस को सशक्त बनाया।
असहयोग आन्दोलन पर नकारात्मक भाव रखते थे टैगोर
कुछ लोगों को 'असहयोग' नाम ही नकारात्मक लग रहा था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर इस सारे कार्यक्रम को नकारात्मक (निगेटिव) मानते थे। न तो असहयोग कार्यक्रम नकारात्मक था और न ही उसके नेता गांधीजी नकारात्मक नेता थे। बल्कि कहीं अधिक वे रचनात्मक थे। असहयोग आन्दोलन के साथ-साथ उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण, राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना, शराबबंदी, खादी, ग्राम पंचायतों की स्थापना आदि के रूप में राष्ट्र के निर्माण में सहायक तथा समाज को शुद्ध करके उसका बल बढ़ाने वाली अनेक गतिविधियाँ भी जारी कर दी थी।
कुछ लोग, जैसे मालवीयजी, श्रीनिवास शास्त्री और देशबंधु स्कूल कॉलेज के बहिष्कार को अनावश्यक और हानिकाकर मानते थे। उन्हें लगा कि स्थापित संस्थाओं को तोड़ा जा रहा है। लेकिन गांधीजी के कार्यक्रम में उन संस्थाओं की जगह नई संस्थाओं का निर्माण भी था। साबरमती के अपने सत्याग्रह आश्रम में उन्होंने एक राष्ट्रीय पाठशाला खोली थी। काकासाहब कालेलकर उसके आचार्य थे। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ने वाले शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीय विद्यापीठ में सम्मिलित होने के लिए कहा गया। शिक्षालयों के बहिष्कार की लहर आने पर भारत में जगह-जगह नए-नए स्कूल-कॉलेज खुले। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ बना।
अदालतों का बहिष्कार करने वाले वकीलों और मुवक्किलों को अपने मुकदमे पंचायत में ले जाने का आग्रह किया गया। सेना और पुलिस से इस्तीफ़ा देने वालों को कांग्रेस और ख़िलाफ़त-समिति के स्वयंसेवक दलों में भर्ती होने के लिए कहा गया। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने वालों को गांव के लोगों द्वारा बुने गए कपड़े पहनने के लिए तथा खादी और कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देने के लिए कहा गया। इस तरह यह नकारात्मक नहीं, रचनात्मक आंदोलन था।
सिर्फ 24 लोगों ने ही उपाधियों का किया बहिष्कार
असहयोग को अनुशासन व आत्म-त्याग के एक साधन के रूप में पेश किया गया था। हालाकि उच्च और मध्य वर्गों से जो अपील की गई थी उसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ, सिर्फ 24 लोगों ने ही उपाधियों का बहिष्कार किया, फिर भी सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों के त्याग से आरंभ करके आंदोलन को सामूहिक सविनय अवज्ञा और करबंदी तक पहुंचाने के बीच में कई सीढियां रखी गई थीं। हर ज़िले या प्रांत को उसके अनुशासन और संगठन की स्थिति के ही अनुसार एक बाद दूसरा कदम उठाने की अनुमति दी जाती थी। पूरा नियंत्रण गांधीजी के हाथ में था। यदि आंदोलन के ज़रा सा भी उग्र रूप धारण करने की संभावना दिखी कि आंदोलन बंद कर दिया जाएगा, ऐसी हिदायत थी। असहयोग ब्रिटिश राज्य से किया जा रहा था, लेकिन अंग्रेज़ों से नफ़रत या बुरा व्यवहार करने की मनाही थी। गांधीजी ने आत्म-शुद्धि पर बार-बार ज़ोर दिया। आंदोलन के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। सितंबर के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने कहा, "यदि देश ने असहयोग के कार्यक्रम को सही ढंग से अपनाया तो एक साल में स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है"। गांधीजी का मानना था कि सदियों से सोई हुई जनता को जगाने, उन्हें निडर बनाने और कमर सीधी करके खड़ा करने में एक साल का समय बहुत काफी है।
इस आन्दोलन के दरम्यान आम कांग्रेसियों और जन-साधारण के ऊपर गांधीजी का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। ऐसा लगता था जैसे गांधीजी ने उनपर कोई जादू कर दिया हो। 1919-20 में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए। गांधीजी के साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने अपने को न्यौछावर कर दिया। लोगों को लगा कि वे किसी शिखर से उतरे मानव नहीं बल्कि देश के करोड़ों लोगों में से ही प्रकट हुए हैं। उनकी भाषा, उनकी बोली, उनके हाव-भाव लोगों को आकर्षित करते। आन्दोलन के दौरान मुसलमानों ने भी कम उत्साह नहीं दिखाया। वैभवशाली जीवन जीने वाले देश के नेताओं ने सादगी का जीवन अपना कर उदाहरण प्रस्तुत किया।
असहयोग आंदोलन का प्रभाव और उपसंहार
1920 में गांधीजी द्वारा एक वर्ष के भीतर स्वराज लाने के वादे ने आशाओं और आकांक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। यह नतीज़ा निकालना भी एक भूल होगी कि यह पहला असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ पूरे देश में बिजली-सी लहर पैदा की। लोगों में अभूतपूर्व उत्साह पैदा हुई। जनता में, उसकी आर्थिक समस्यायों और राजनीतिक मसलों, विशेषकर साम्राज्यवाद का विरोध, की चेतना जगाने में निश्चय ही इस आंदोलन की देन है। यहां तक कि सीधे-सादे ग्रामीणों ने भी यह महसूस करना शुरु किया कि उनकी तकलीफ़ों को दूर करने की सबसे अच्छी दवा स्वराज है। राष्ट्रीय संघर्ष में हिस्सा लेकर उन्होंने स्वाधीनता के एक नये बोध का अनुभव किया। राज के डर पर विजय पा ली गयी थी। साधारण लोगों ने, स्त्रियों और पुरुषों ने, धनिक और ग़रीब ने, सरकार की अवज्ञा करके दंड के रूप में तकलीफ़ें बर्दाश्त करने की इच्छा और क्षमता दिखाई।
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार अधिक तीव्र और सफल रहा। खादी पर बल देना गांवों की आवश्यकताओं का एक वास्तविक मूल्यांकन था। इसका एकाएक स्थगित कर दिए जाने का बहुत महत्व नहीं था, क्योंकि वह केवल अस्थाई ही हो सकता था। गांधी जी ने स्वयं व्याख्या की, "जो संघर्ष 1920 में शुरु हुआ वह निर्णयात्मक संघर्ष है, चाहे वह एक महीना या एक साल चले, चाहे कई महीनों या कई वर्षों तक।"
1922 तक गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित कर दिया और अब यह व्यावसायिकों व बुद्धिजीवियों का ही आंदोलन नहीं रह गया था, अब हजारों की संख्या में किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। ग़रीबों विशेषकर किसानों के बीच गाँधी जी की अपील को उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण प्रयोग से बहुत बल मिला।
असहयोग आन्दोलन से राष्ट्रवाद बना व्यापक
इस आंदोलन ने उस समय के राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक बनाया। इस सफ़लता का राज गांधीजी द्वारा सावधनीपूर्वक पुनर्गठित किया गया संगठन था। भारत के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नयी शाखाएँ खोली गयी। रजवाड़ों में राष्ट्रवादी सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए 'प्रजा मंडलों' की एक श्रृंखला स्थापित की गई। गाँधी जी ने आम जनता को संदेश देने के लिए शासकों की अंग्रेजी भाषा की जगह मातृभाषा का चयन किया। इन अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर हिस्सों तक फ़ैल गया और अब इसमें वे सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे अछूते थे।
व्यापारी वर्ग का समर्थन मिलने से कांग्रेस की आर्थिक स्थिति में निश्चय ही सुधार हुआ। कांग्रेस के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए। भारतीय उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली कि उनके अंग्रेज प्रतिद्वन्दी आज जो लाभ पा रहे हैं, स्वतंत्र भारत में ये चीजें समाप्त हो जाएँगी। जी.डी. बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन किया। इस प्रकार गाँधीजी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी उद्योगपति दोनों ही थे।
1917 और 1922 के बीच भारतीयों के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं को गाँधी जी से जोड़ लिया। इनमें महादेव देसाई, वल्लभ भाई पटेल, जे.बी. कॄपलानी, सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, गोविंद वल्लभ पंत और सी. राजगोपालाचारी शामिल थे। गाँधी जी के ये घनिष्ठ सहयोगी विशेषरूप से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न धर्मिक परंपराओं से आए थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने और इसके लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।
गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय- हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। चाहे थोड़े समय के लिए ही क्यों नहीं, इन आंदोलनों ने निश्चय ही हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढाने में मदद की।
स्कूल कॉलेजों को छोड़ना पड़ा
विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चले गए। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्य-दिवसों का नुकसान हुआ था। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवध के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया।
आंदोलन के दौरान जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाले अछूतोद्धार, राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना, अदालतों का बहिष्कार, पंचायतों में आपसी झगड़ों का निपटारा, स्वयंसेवकों का संगठन, शराब की दूकानों पर धरना, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, खादी का प्रचार वाले जैसे कई कार्यक्रम थे, जिसने जन-आंदोलन के लिए लोगों को तैयार किया। गांधीजी ने इन कार्यक्रमों को चलाए जाने के साथ ही इस बात की भी सतर्कता रखी कि कहीं सामाजिक और आर्थिक विद्रोह की ज्वालाएं न भड़क उठें। इसलिए उन्होंने करबंदी में सरकार को कर देने की मनाही के बावज़ूद किसानों को यह सलाह दी कि वे अपने ज़मींदारों को बराबर कर देते रहें। मज़दूरों को सलाह दी कि अपने मालिकों से छुट्टी लेकर ही हड़ताल में शरीक हों।
1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की नींव हिल गई। गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन के मार्फ़त स्वराज की मांग अपना असर दिखा रहा था। तभी तो किसी ने कहा है, "हममें से बहुत से जिन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमों में काम किया था, 1921 में एक प्रकार के नशे में जीते रहे। हममें उत्साह और आशावाद भरा था ....। हमें स्वाधीनता का आभास होने लगा जिस पर हमें गर्व था।" गांधीजी के लिए स्वराज का अर्थ था राजनैतिक स्वतंत्रता और जनतंत्रीय शासन-प्रणाली। वे सादा चरित्र और पवित्रता का गुण-गान करते थे। उन्होंने भारतीय जनता की रीढ़ की हड्डी को शक्ति प्रदान की। उन्हें चरित्रवान बनाया। पिछड़ी और निराश जनता ने उनके नेतृत्व में अपनी आत्मशक्ति को पहचाना और गर्व से सर उठाकर जीना सीखा। जनता एक देशव्यापी अनुशासित, अहिंसक और संयुक्त आंदोलन में भाग लेने लगी। महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने बहुत सही लिखा है कि 'असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।'