इतिहास के प्रश्न पत्र में कबीरदास के जीवन से जुड़े सवाल अकसर पूछे जाते हैं। हमने भी यूपीएससी परीक्षा के प्रश्न पत्र से एक सवाल उठाया और उसका उत्तर देने के प्रयास यहां किया है। कबीर के दोहे जानना जितने जरूरी हैं उतना ही जरूरी सामाजिक परिवर्तन लाने, जाति और पंथोंं को जोड़ने में उनके योगदान को याद रखना है। चलिए रुख करते हैं कबीरदास के जीवन की ओर...
यूपीएससी में प्रश्न : समस्त जाती और पंथों को जोड़ने वाले एक प्रेम धर्म को प्रचारित करना कबीर का जीवन लक्ष्य था, व्याख्या कीजिए।प्रश्न : समस्त
कबीरदास का जीवन परिचय
निर्गुणपंथी समाज सुधारक संत कबीरदास का जन्म बनारस के लहरतारा में 1400 ई. के उनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। वे संत रामानंद के शिष्य थे। वे भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने आत्म-चिंतन एवं लोक-निरीक्षण से ज्ञान प्राप्त किया, उसी को निर्भयतापूर्वक अपनी साखियों और पदों में अभिव्यक्त किया। उनकी रचनाएं उनके शिष्यों ने "बीजक" नाम से एकतित्र की थी।
कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में मौज़ूद हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 200 पद और 250 साखियां हैं। शोध के उपरान्त विद्वानों ने उनके द्वारा रचित तिरसठ ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
कबीर के प्रमुख ग्रंथ- अगाधमंगल, अनुरागसागर, अमरमूल, अक्षरखंद की रमैनी, अक्षरभेद की रमैनी, उग्रगीता, कबीर की बानी, कबीर-गोरख की गोष्ठी, कबीर की साखी, बीजक, ब्रह्मनिरूपण, मुहम्मद्बोध, रेखता, विचारमाला, विवेकसागर, शब्दावली, हंसमुक्तावली, ज्ञानसागर, आदि।
कबीरदास ने समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहां मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है। रूढि के विरोधी कबीर इसे कैसे मानते। इसलिए काशी छोड़ मगहर चले गए और वहीं उन्होंने देह त्याग किया। उन्होंने सिद्ध किया कि "एक जीव ते सब जग उपज्या कौन भला कौन मंदा"।
समाज सुधारक थे कबीर
वे संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्वास, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम-रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों धर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई। वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे। वे भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्वास प्रकट किया। एकेश्वरवाद के समर्थक कबीर का मानना था कि ईश्वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। कबीर दास जी के अनुयाई कबीरपंथी कहलाए।
संत कबीर का मानना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ़ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। पुजारी वर्ग कर्मकांड पर अधिक ज़ोर देकर भेद पैदा करते हैं। उनका यह भी मानना था कि जाति प्रथा उचित नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। वे एक आलोचक थे। उनका मानना था कि समाज की रूढिवादिता एवं कट्टर्वादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। कबीर को अपने समाज में जो मान्यता मिली वह प्रमाण है कि वे अपने परिवेश की ही उपज थे। वह समय भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। इस आधुनिकता का बीज यहां की परंपरा से ही अंकुरित हुआ था। वर्णव्यवस्था की परंपरा से जकड़ा समाज जाति-पाति से मुक्ति की आवाज उठा रहा था। सामाजिक अन्याय के प्रति रोष इस संत की रचनाओं में व्याप्त है।
संत कबीर दास महान चिन्तक, विचारक और युगद्रष्टा थे। वे ऐसे समय में संसार में आए जब देश में नफरत और हिंसा चारों तरफ फैले हुए थे। हिंदु-मुसलमान, शासक-प्रजा, अमीर गरीब में देश-समाज बंटा हुआ था, गरीबी और शोषण से लोग त्रस्त थे। ऐसे समय में संत कबीर ने धर्म की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि अत्याचारियों से समझौता करना और जुल्म सहना गलत है। उन्होंने समाज में उपस्थित भेदभाव समाप्त करने पर बल दिया। दोनों समुदाय को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। उन्होंने कहा था, 'वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए। कोई हिंदू कोई तुर्क कहावं एक जमीं पर रहिए।'
धार्मिक कुरीतियों के विरोधी थे कबीर
कबीर की सामाजिक चेतना उनकी आध्यात्मिक खोज की परिणति है। उनकी रचनाओं का गहन अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि वे धर्मेतर अध्यात्म का सपना देखने वाले थे। ऐसा अध्यात्म जो मनुष्य सत्ता को ब्रह्मांड सत्ता से जोड़ता है। उन्होंने धर्म की आलोचना की। वे जब हिंदू या मुसलमान की आलोचना करते हैं तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कोई नया धर्म प्रवर्तन करना चाहते थे। धर्म के नाम पर व्याप्त आडम्बर का वे सदा विरोध करते रहे। धार्मिक कुरीतियों को उन्होंनें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया। साधक के साथ-साथ वे विचारक भी थे। उनका मानना था कि इस जग में कोई छोटा और बड़ा नहीं है। सब समान हैं। ये सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिस्थिति की देन है। हम सब एक ही ईश्वर की संतान है।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'समस्त जाति और पंथों को जोड़ने वाले एक प्रेम धर्म को प्रचारित करना कबीर का जीवन लक्ष्य था'. आज भी इस संसार में हिंसा, आतंक, जातिवाद आदि के कारण निर्दोष लोगों पर अत्याचार हो रहे हैं। ऐसी भयावह परिस्थिति में कबीर जैसे युगप्रवर्तक की आवश्यकता है जो समाज को सही राह दिखाए। कबीर तो सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। पर आज वह सेतु भग्नावस्था में है। इसके पुनः निर्माण की आवश्यकता है। कबीर के विचार समाज को नई दिशा दिखा सकते हैं।