मैंग्रोव वनों को दुनिया का "सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्र" करार देते हुए, भारत मंगलवार को मिस्र के शर्म अल-शेख में पार्टियों के सम्मेलन (COP27) के 27वें शिखर सम्मेलन में जलवायु के लिए मैंग्रोव गठबंधन (MAC) में शामिल हो गया। इस गठबंधन को यूएई, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, जापान, स्पेन और श्रीलंका का समर्थन प्राप्त है।
केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री श्री भूपेंद्र यादव ने मैंग्रोव अलायंस फॉर क्लाइमेट (एमएसी) के शुभारम्भ के अवसर पर अपने विचार रखते हुए कहा कि मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय जंगलों की तुलना में चार से पांच गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित कर सकते हैं और नए कार्बन सिंक बनाने में मदद कर सकते हैं। उन्होने आगे कहा कि मैंग्रोव दुनिया के सबसे अधिक उत्पादक इकोसिस्टम में से एक हैं। यह ज्वारीय जंगल कई जीवों के लिए एक नर्सरी ग्राउंड के रूप में काम करता है, तटीय क्षरण से सुरक्षा देता है, कार्बन को अलग करता है और लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इसके अलावा यह जीव जंतुओं के लिए आश्रय स्थल के रूप में काम करता है।
ध्यान रहे कि मैंग्रोव दुनिया के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में फैले हुए हैं और 123 देशों में पाए जाते हैं। मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय में कार्बन के लिहाज से सबसे समृद्ध वनों में शामिल हैं। इनकी दुनिया के उष्णकटिबंधीय जंगलों में अनुक्रमित कार्बन में 3% हिस्सेदारी है। मैंग्रोव कई उष्णकटिबंधीय तटीय क्षेत्रों का आर्थिक आधार हैं। नीली अर्थव्यवस्था, या समुद्री जीवन आधारित अर्थव्यवस्था, को बनाए रखने के लिए, स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तटीय आवासों, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय देशों के लिए मैंग्रोव का स्थायित्व सुनिश्चित करना अनिवार्य है।
भारत में है दुनिया का सबसे बड़ा एकल मैनग्रोव जंगल
दुनिया के सबसे ज्यादा जोखिम में जी रहे 72 लाख लोगों को आशियाना देने वाला और विश्व का सबसे बड़ा एकल मैंग्रोव जंगल यानी सुंदरबन जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के खतरे से लगातार घिरता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बेरोजगारी में इजाफा हो रहा है। इसके अलावा चरम मौसमी घटनाओं के कारण संपत्ति को क्षति भी पहुंच रही है। साथ ही साथ समुद्र का जल स्तर बढ़ने से महत्वपूर्ण मैंग्रोव और जमीन का भी नुकसान हो रहा है। ऐसे हालात में अपने घरों और रोजी-रोटी पर खतरे को देखते हुए बड़ी संख्या में लाचार लोग दूसरे स्थानों पर पलायन कर गए हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की बढ़ती तीव्रता और आवृत्ति का मतलब है कि अनेक मामलों में अनुकूलन की हद को पहले ही छुआ जा चुका है। जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों की दलील है कि बेतहाशा नुकसान और क्षति की वित्तीय भरपाई उन लोगों से की जानी चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार हैं।
सुंदरबन क्या है?
सुंदरबन बंगाल की खाड़ी में निचले इलाकों में बने टापुओं का एक समूह है और यह भारत से लेकर बांग्लादेश तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र अपनी अनोखी जैव विविधता तथा पारिस्थितिकीय महत्व के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। सुंदरबन में दुनिया का सबसे बड़ा एकल मैनग्रोव जंगल है जिसका कुल क्षेत्रफल 10200 वर्ग किलोमीटर है।
सुंदरबन का पारिस्थितिकी तंत्र महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं की एक व्यापक श्रंखला प्रस्तुत करता है। इनमें लाखों लोगों की चक्रवातों से रक्षा, वन्यजीवों को ठिकाना मुहैया कराना, भोजन और प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराना और कार्बन पृथक्करण करना शामिल है। सुंदरबन करीब 72 लाख (भारत के 45 लाख और बांग्लादेश के 27 लाख) लोगों को आशियाना भी देता है। इनमें दक्षिण एशिया के कुछ सबसे गरीब और बेहद जोखिमों से घिरे समुदाय भी शामिल हैं। यहां रहने वाली लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है।
रोजगार के अवसरों की कमी की वजह से सुंदरबन के रहने वाले ज्यादातर लोग रोजी-रोटी के लिए जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से यह संसाधन लगातार घटते जा रहे हैं इनमें से अधिकतर लोग सिर्फ रोटी के लिए कृषि गतिविधियां करते हैं, जिनमें मछली पकड़ना तथा केकड़े और शहद इकट्ठा करना शामिल है। सुंदरबन में रहने वाले लाखों लोग अपने पोषण संबंधी मूलभूत जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाते जिसकी वजह से उनके अंदर खून की कमी को पोषण तथा बच्चों के अविकसित रह जाने जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन की वजह से गरीबी, रोजी-रोटी के विकल्पों की कमी, जमीन पर निर्भरता, जमीन पर असमान स्वामित्व और सीमित सरकारी सहयोग जैसी और मुसीबतों का असर बढ़ जाता है।
सुंदरबन को भारत के विभाजन से पहले वर्ष 1875 में ही एक संरक्षित वन घोषित किया गया था और यूनेस्को ने सुंदरबन के भारत और बांग्लादेश में फैले हिस्सों को क्रमशः 1987 और 1997 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी। इस क्षेत्र को रामसर कन्वेंशन ऑन वेटलैंड्स में भी मान्यता दी गई थी। अपनी इस पहचान के बावजूद सुंदरबन जलवायु परिवर्तन के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है।
सुंदरबन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
वर्ष 2015 में सुंदरबन का कुल क्षेत्र वर्ष 1967 से 210 वर्ग किलोमीटर घट गया जबकि 1904 से इसमें 451 वर्ग किलोमीटर की कमी आ गई। गिरावट की यह प्रवृत्ति इस सच को समेटे हुए हैं कि क्या सुंदरबन के भारतीय और बांग्लादेशी हिस्सों को अलग-अलग माना जाता है या एक साथ समूहीकृत किया जाता है। सुंदरबन का क्षेत्र सिकुड़ने का सबसे प्रमुख कारण इसके किनारों पर समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी होना है। इसमें वैश्विक औसत के मुकाबले दोगुना से ज्यादा तेजी से वृद्धि हो रही है। सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों से जाहिर होता है कि सुंदरबन में पिछले 20 वर्षों के दौरान समुद्र के जलस्तर में हर साल औसतन 3 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है और पिछले 40 सालों के दौरान सुंदरबन ने अपने तटों के लगभग 12% हिस्से को खो दिया है। समुद्र का जल स्तर बढ़ने के साथ-साथ नदियों से बह कर सुंदरबन क्षेत्र में आने वाली तलछट में धीरे- धीरे गिरावट होने से भी यहां की जमीन सिकुड़ रही है।
इन कारकों के चलते सुंदरबन के कुछ द्वीपों की तटरेखा 40 मीटर प्रति वर्ष की ऊंची दर से समुद्र में समा रही है और अगर यही हाल रहा तो यह द्वीप अगले 50 से 100 वर्षों में पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। कुछ द्वीप पहले से ही जलमग्न हो चुके हैं और ऐसा अनुमान है कि समुद्र के जल स्तर में इसी रफ्तार से बढ़ोत्तरी जारी रही तो कई और द्वीप भी समुद्र में समा जाएंगे।
पानी का खारापन कृषि और सेहत के लिए खतरा है
सुंदरबन के ऐसे इलाके जहां भले ही जमीन समुद्र के पानी में नहीं डूबी हो लेकिन समुद्र के जल स्तर में इजाफे के साथ खारे पानी की बार-बार आने वाली बाढ़ तथा चरम मौसमी घटनाओं के कारण यहां की जमीन अनुत्पादक हो गई है। पानी और मिट्टी के बढ़ते खारेपन की एक और वजह तापमान और बारिश में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले बदलाव भी हैं। इसके अलावा सूखे मौसम में हिमालय से बहकर आने वाले मीठे पानी के प्रवाह में कमी भी इसका एक कारण है। पिछले 40 वर्षों के दौरान पहाड़ी क्षेत्र के ग्लेशियरों की लगभग 25% बर्फ खत्म हो गई है, जिसकी वजह से सुंदरबन होकर बहने वाली गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों को मीठे पानी की निरंतर और भरोसेमंद आपूर्ति पर सुस्पष्ट खतरा पैदा हो गया है।
सुंदरबन क्षेत्र में पानी और मिट्टी का खारापन नाटकीय रूप से बढ़ा है और ऐसे अनुमान लगाए जा रहे हैं कि इस क्षेत्र के अनेक हिस्सों का खारापन वर्ष 2050 तक महासागरों के खारेपन के स्तर के बराबर हो जाएगा। बांग्लादेश में वर्ष 1984 से 2014 के बीच खारेपन में 6 गुना बढ़ोत्तरी हुई है और कुछ क्षेत्रों में यह 15 गुना तक बढ़ा है। मिट्टी के खारेपन से फसलें बर्बाद हो जाती हैं और किसानों की रोजी-रोटी पर बहुत बुरा असर पड़ता है। एक शोध में अनुमान लगाया गया है कि समुद्र के जलस्तर में 1 मीटर की बढ़ोत्तरी होने से खारेपन के कारण होने वाले अपघटन के चलते कृषि को 597 मिलियन डॉलर का नुकसान होता है। खारे पानी के बार-बार आने की वजह से कुछ गांव अब खेती करने के लायक नहीं बचे।
जमीन की कमी या मिट्टी के खारेपन के कारण जब अनेक परिवार खेत में फसल उगाने में सक्षम नहीं होते हैं तो वे निर्वाह के लिए भी खेती नहीं कर पाते हैं और वे नकदी अर्थव्यवस्था के संपर्क में आ जाते हैं जिससे उनकी खाद्य सुरक्षा का खतरा बढ़ जाता है।नदियों और भूजल के खारेपन की वजह से पीने के ताजे पानी की उपलब्धता में भी गिरावट आई है। इससे मां-बच्चे की सेहत पर भी कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहे हैं। इनमें निर्जलीकरण, उच्च रक्तचाप, प्रसव से पहले होने वाली जटिलताएं और शिशु मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी शामिल है। सुंदरबन के भारत में स्थित इलाकों में बने पानी के कुओं से जुड़े डाटा के संग्रह में पाया गया कि 50 में से 17 कुओं के नमूनों में लवणता का स्तर पीने के लिए उपयुक्त नहीं था। खारे पानी का स्तर बढ़ने से उच्च रक्तचाप और बुखार के साथ-साथ सांस तथा त्वचा संबंधी बीमारियां भी होती हैं। सुंदरबन क्षेत्र में स्थित मौसूणी द्वीप के एक भेद्यता मूल्यांकन में पाया गया है कि 80% ग्रामीणों ने खारे पानी की वजह से त्वचा रोग का अनुभव किया। इसके अलावा बाढ़ के दौरान 42 फीसद परिवारों को मलेरिया और डेंगू बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों का सामना करना पड़ा। उत्सर्जन के उच्च परिदृश्य के तहत जलवायु परिवर्तन से बीमारी खासतौर से जल जनित रोगों की व्यापकता और भी ज्यादा होने की आशंका है।
मैंग्रोव और जैव विविधता हो रही है नष्ट
मैंग्रोव के जंगल चक्रवाती तूफान और समुद्री ज्वार से बचाने वाली एक महत्वपूर्ण कुदरती बाधा के तौर पर काम करते हैं और यह क्षेत्र में जैव विविधता के उच्च स्तरों को बरकरार रखने में भी मददगार साबित होते हैं। एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2000 से 2020 के बीच अपरदन की वजह से भारतीय इलाके वाले सुंदरबन के संरक्षित जंगल के 110 वर्ग किलोमीटर इलाके से मैंग्रोव गायब हो गए हैं। हालांकि पौधरोपण के जरिए 81 वर्ग किलोमीटर इलाके में मैंग्रोव को उगाया गया है। मगर यह मैंग्रोव के मौजूदा जंगल के बाहर हुआ है। इसके अलावा एक अन्य अध्ययन में वर्ष 1975 से 2020 के बीच मैनग्रोव के जंगलों के आच्छादन पर गौर किया गया है जिसमें यह पाया गया है कि मैंग्रोव के जंगलों का घनापन सालाना 1.3% की अनुमानित दर से घट रहा है।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि पिछले 22 वर्षों के दौरान मैंग्रोव जंगलों की सेहत में भी गिरावट आई है। ऐसा बढ़ते खारेपन, तापमान में बढ़ोत्तरी और मानसून से पहले और उसके बाद की अवधि में बारिश की मात्रा में गिरावट के कारण हुआ है। जहां मैंग्रोव को अपनी को सहनशीलता के लिए जाना जाता है, वहीं वे पानी और मिट्टी की लवणता में होने वाले बदलाव के प्रति संवेदनशील भी होते हैं। लवणता में इस बदलाव का नतीजा उच्च मूल्य वाली लकड़ी की प्रजातियों से आगे बढ़कर अब नमक के प्रति अधिक सहनशीलता रखने वाली मैनग्रोव प्रजातियों पर भी दिखाई दे रहा है। यह लकड़ी के स्टॉक की गुणवत्ता और संपूर्ण उपलब्धता में गिरावट ला रहा है और इससे अपनी रोजी-रोटी के लिए जंगलों पर निर्भर रहने वाले लोगों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि पिछले 30 वर्षों के दौरान सुंदरबन बायोस्फीयर रिजर्व की 3.3 अरब डॉलर मूल्य की पारिस्थितिकी सेवाओं का नुकसान हुआ है। इसमें से 80% हिस्सा मैंग्रोव से हासिल हुआ था।
बदलती हुई जलवायु में इस बात का अनुमान है कि सुंदरबन में उल्लेखनीय रूप से अपघटन का दौर उत्पन्न होगा जिसकी वजह से अनेक लुप्तप्राय प्रजातियों के ठिकाने नष्ट हो जाएंगे। इनमें बाघ और जहरीले सांप भी शामिल हैं। इसकी वजह से क्षेत्र में इंसानों और जंगली जीवो के बीच टकराव का खतरा बढ़ जाएगा। समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी के परिणाम स्वरूप कई स्थलीय और उभयचर प्रजातियों के निवास स्थानों को नुकसान पहुंच रहा है। मीठे पानी में रहने वाली मछलियों के ठिकाने भी सिकुड़ रहे हैं क्योंकि पानी ज्यादा खारा होता जा रहा है। इसकी वजह से मीठे पानी में रहने वाली अनेक छोटी और देशी जलीय जीव प्रजातियों पर खतरा उत्पन्न हो गया है। इससे मछुआरों की रोजी-रोटी पर बुरा असर पड़ा है। साथ ही साथ मानव स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़े हैं, क्योंकि मछली सुंदरबन के लोगों के लिए प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्वों का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। उदाहरण के तौर पर ऐसे क्षेत्रों, जहां मछली की प्रजातियों को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ हो वहां महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की गंभीर समस्या उत्पन्न होती है और यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जन स्वास्थ्य आपात स्थितियों के लिए निर्धारित सीमा से ज्यादा होती है।
मौसम की चरम स्थितियां और भी ज्यादा तीव्र और बार-बार उत्पन्न हो रही हैं
जहां सुंदरबन क्षेत्र हमेशा से ही चक्रवात और चरम मौसमी घटनाओं से प्रभावित रहा है, वहीं अब इन घटनाओं की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। पिछले 23 वर्षों के दौरान इस इलाके में 13 महाचक्रवात आ चुके हैं। वर्ष 1881 से 2001 के बीच बंगाल की खाड़ी से सटे सुंदरबन के इलाकों में चक्रवात की घटनाओं में 26% का इजाफा हुआ है। इसके अलावा शोध से यह भी जाहिर हुआ है कि वर्ष 2008 से 2018 के बीच मानसून सत्र के बाद अत्यधिक तीव्र चक्रवात उत्पन्न होने के सिलसिले में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वर्ष 2041 से 2060 के बीच मानसून के बाद आने वाले इन चक्रवातों की तीव्रता करीब 50% और बढ़ जाएगी।
चक्रवात की आवृत्ति और गंभीरता में बढ़ोत्तरी आंशिक रूप से समुद्र की सतह के तापमान में इजाफे के लिए जिम्मेदार है। यह 1980 से 2007 तक भारतीय सुंदरबन में 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से बढ़ी। यह वैश्विक स्तर पर महसूस की गई 0.06 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक वार्मिंग की दर से करीब 8 गुना ज्यादा है। सुंदरबन क्षेत्र में भूमि की सतह का तापमान पिछली शताब्दी में लगभग एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और वर्ष 2100 तक इसके 3.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने का अनुमान है।
निचले इलाके में बसे होने के कारण और मैंग्रोव से मिलने वाली सुरक्षा में कटौती होने से सुंदरबन को चक्रवातों के कारण बेहद विनाशकारी नुकसान हो सकता है। पिछले तीन वर्षों के दौरान सुंदरबन चार बड़े चक्रवाती तूफानों का सामना कर चुका है जिसमें करीब 250 लोग मारे गए और लगभग 20 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2020 में आए साइक्लोन एम्फन ने भारतीय सुंदरबन के लगभग 28% हिस्से को नष्ट कर दिया और इसकी वजह से 12 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। इस चक्रवात की वजह से भारत के 24 लाख और बांग्लादेश के 25 लाख लोगों को अपना घर द्वार छोड़ना पड़ा। हालांकि उनमें से अनेक लोग बाद में लौट आए मगर 28 लाख से ज्यादा मकान क्षतिग्रस्त हो गए और शरण स्थलों की कमी की वजह से हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा और लंबे वक्त तक दूसरे स्थानों पर रहने को मजबूर होना पड़ा।
एम्फन के बाद सरकार ने अनुमान लगाया कि एक लाख से ज्यादा किसानों को इस चक्रवात से बहुत भारी नुकसान हुआ क्योंकि खारा पानी उनके खेतों और तालाबों में भर गया जिसकी वजह से उनकी मछलियां मर गईं और उनके खेत उपज के लायक नहीं रहे। इस विनाश के बाद जानवरों और इंसानों के लिए भोजन की कमी होने लगी। नतीजतन इंसानों और बाघों के बीच टकराव बढ़ गया क्योंकि इंसानों ने मछली, केकड़े, शहद और जलाने के लिए लकड़ी की तलाश में जंगलों के और अंदर जाना शुरू कर दिया।
रोजी-रोटी पर हो रही है जबरदस्त चोट
लगभग 50 लाख लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए सुंदरबन पर निर्भर हैं। विश्व बैंक के मुताबिक सुंदरबन में लगभग 80% परिवार अक्षम कृषि, मछली पालन और जलीय कृषि उत्पादन विधियां अपनाकर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता और रोजगार के वैकल्पिक अवसरों में कमी का मतलब है कि बदलती हुई जलवायु की परिस्थितियों के लिहाज से आजीविका का मामला बेहद संवेदनशील है।
लवणता या खारापन खेती-किसानी के लिए खतरा है।
मछलियों की मात्रा में गिरावट की वजह से मछुआरों पर बुरा असर पड़ रहा है। मैंग्रोव प्रजातियों के संयोजन में बदलाव की वजह से जंगलों पर आधारित आजीविका पर भी बुरा असर पड़ रहा है। मैंग्रोव प्रजातियों का संयोजन लकड़ी और शहद उत्पादन के मूल्य को भी गिरा रहा है। भारतीय सुंदरबन में स्थित तीन गांवों का अध्ययन करने से यह पता चला है कि 62% श्रमिक अपनी मौलिक आजीविका खो चुके हैं और उन्हें अपनी रोजी-रोटी के लिए और भी ज्यादा अनिश्चितता पूर्ण आमदनी वाले कार्यों पर निर्भर होना पड़ रहा है
हालांकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते आजीविका पर गंभीर खतरा उत्पन्न होने के बावजूद कुछ लोग खतरे वाले इलाकों में अब भी रह रहे हैं क्योंकि दूसरे स्थानों पर जमीन की कीमतें बहुत ज्यादा हैं। साथ ही वहां रोजगार के अवसरों की भी कमी है। रोजगार के अवसरों की कमी की वजह से दूसरे लोगों को अन्य स्थानों पर जाने की जरूरत होती है। यह कभी-कभी अस्थाई होता है तो कभी स्थाई भी होता है।
युवा पुरुषों और महिलाओं को आसपास के शहरों में या फिर 1000 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर बसे राज्यों में जाना पड़ा, जहां उन्हें निर्माण स्थलों और फैक्ट्रियों में दिहाड़ी मजदूर या ठेके पर काम करने वाले कामगारों के तौर पर अनिश्चित अस्तित्व का सामना करना पड़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक मोटे तौर पर भारतीय सुंदरबन के 60% पुरुष मजदूर रोजी रोटी के लिए दूसरे स्थानों पर चले गए हैं। विस्थापन की वजह से गरीबी भी बढ़ी है क्योंकि एक कम कुशल श्रमिक परिवार के सदस्यों के लिए इतना धन बचाने में काफी वक्त लगता है कि वह उसे अपने घर भेज सके।
विस्थापन : एक आखिरी हल
एक अनुमान के मुताबिक 15 लाख लोगों को सुंदरबन को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर स्थाई रूप से रहना पड़ेगा, क्योंकि बढ़ता हुआ समुद्र का जलस्तर उनका इस क्षेत्र में रहना और रोजी-रोटी कमाना नामुमकिन बना देगा। चूंकि इनके मजबूरन विस्थापन के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है लिहाजा ये लोग 'जलवायु शरणार्थी' हैं। हालांकि अभी इस श्रेणी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी गई है। इसके अलावा अत्यधिक गरीबी न सिर्फ पर्यावरणीय खतरों के प्रति उनकी जोखिमशीलता को बढ़ाती है बल्कि वह इसमें योगदान भी करती है।
पिछले 25 वर्षों के दौरान भारतीय इलाके में स्थित सुंदरबन के चार द्वीप बेडफोर्ड, लोहाचारा, कबासगाड़ी और सुपरीभंगा पहले ही गायब हो चुके हैं, जिसकी वजह से 6000 परिवारों को दूसरे स्थानों पर आशियाना तलाशना पड़ा। लोहाचारा दुनिया का ऐसा पहला बसा हुआ द्वीप था जो समुद्र में समा गया। इसके पड़ोस में स्थित घोरमारा द्वीप पहले से ही आधा डूब चुका है। वर्ष 2011 की जनगणना में जहां इस द्वीप पर 40000 लोग रहते थे वहीं अब मात्र 5000 लोग ही इस पर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
इसकी वजह से विस्थापित हुए अनेक लोगों को वर्ष 1980 और 1990 के दशकों के दौरान सरकारी कार्यक्रमों के माध्यम से मिली सहायता के जरिए बगल के सागर द्वीप में बसाया गया। हालांकि 20,000 की आबादी वाले इस द्वीप की जनसंख्या बढ़ रही है और इसके क्षेत्रफल का 1/6 हिस्सा गायब हो गया है, लिहाजा यहां जमीन और संसाधन बहुत तेजी से कम हो रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक सुंदरबन के जलमग्न इलाकों से मजबूरन सागर द्वीप पर गए 31 परिवारों को हुए कुल नुकसान का आकलन करें तो यह 7742.225 करोड़ रुपए रहा। इसमें से 98% हिस्सा जमीन को हुई क्षति के तौर पर शामिल है। वर्ष 2002 में यह अनुमान लगाया गया था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्ष 2020 तक 69000 से ज्यादा लोग सुंदरबन छोड़ देंगे। वर्ष 2018 तक ही करीब 60000 लोगों ने सुंदरबन छोड़ दिया था।
क्यों पर्याप्त नहीं है अनुकूलन
जलवायु अनुकूलन जलवायु परिवर्तन के मौजूदा या संभावित प्रभावों के प्रति सामंजस्य बनाने की प्रक्रिया है। हालांकि यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों के अनुकूल बन पाना संभव नहीं है और कुछ मामलों में तो अनुकूलन की स्थिति अपनी अधिकतम सीमा को पहले ही छू चुकी है।
तूफान और चक्रवातों से बचाव के लिए दीवारें और तटबंध बनाना जलवायु अनुकूलन का एक प्रमुख उपाय है। हालांकि इन उपायों को अपनाने के बावजूद लहरों, तूफानी हवाओं और चक्रवात से लैस प्राकृतिक आपदाएं कुछ ही घंटों में पिछले कई सालों की मेहनत को बर्बाद कर देती हैं। वर्ष 2009 में आए साइक्लोन आलिया की वजह से सुंदरबन के 778 किलोमीटर क्षेत्र में बनाए गए तटबंध क्षतिग्रस्त हो गए थे और उन्हें दोबारा बनाने के लिए 5032 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। मगर मात्र 10 वर्षों के बाद ही साइक्लोन एम्फन ने उन्हें फिर से क्षतिग्रस्त कर दिया। साइक्लोन आलिया ने समुद्र के बढ़ते जलस्तर को रोकने के लिए बनाए गए तटबंधों को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद तीन बार दीवार बनाने की कोशिश की गई लेकिन उन सभी को समुद्र की ताकत ने तहस-नहस कर दिया।
लवण प्रतिरोधी फसलें उगाना भी अनुकूलन का एक और तरीका है इसमें कुछ कामयाबी भी मिली है लेकिन यह एक अस्थाई समाधान साबित हो सकता है, क्योंकि बीजों की कम उपलब्धता, खेती किसानी की जानकारी और अपेक्षाकृत कम उपज के रूप में कुछ बाधाएं भी खड़ी हैं।
अनुकूलन की पद्धतियों से उनके कारण होने वाली पारिस्थितिकी की क्षति में और तेजी आ सकती है। उदाहरण के तौर पर लवणता का बढ़ता स्तर चावल तथा अन्य फसलों की खेती से रोकता है। इसकी वजह से कुछ किसान झींगे की खेती की और रुख करते हैं जिसके लिए खारे पानी की जरूरत होती है और यह ज्यादा मुनाफे वाला भी हो सकता है। हालांकि जमीन को झींगा फार्म में तब्दील करने से पानी के लवणीकरण में और तेजी आती है जबकि मुनाफा अक्सर निजी निवेशकों को ही होता है। श्रमिको, मुख्य रूप से महिलाओं को कम आमदनी मिलती है और उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे संक्रमण होने, आंखों की रोशनी कम होने और त्वचा रोग जैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
सुंदरबन के लोगों के लिए उनकी जिंदगी उनकी जमीन पर निर्भर करती है, जिस पर वे रहते हैं, अपना भोजन पैदा करते हैं और अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। यहां रहने वाले कुछ लोगों को पहले से ही कई बार अपना ठिकाना बदलना पड़ा है। यहां के एक नागरिक का कहना है "यहां के लोग बहुत सख्तजान हैं लेकिन वे और कितना सहनशील हो सकते हैं?" सुंदरबन के लिए नजरिया काफी धूमिल है। 'प्रबंधित वापसी' यानी समय के साथ जोखिम वाले क्षेत्रों से योजनाबद्ध तरीके से विस्थापन एकमात्र व्यावहारिक विकल्प हो सकता है।
नुकसान और क्षति के लिए वित्तपोषण क्यों है जरूरी
हानि और क्षति एक शब्द है जिसका इस्तेमाल इस बात का वर्णन करने के लिए किया जाता है कि किस तरह से जलवायु परिवर्तन पहले से ही गंभीर और कई मामलों में दुनिया भर में अपरिवर्तनीय प्रभाव पैदा कर रहा है। खासतौर से जोखिम से घिरे कमजोर समुदायों के लिए इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जलवायु के प्रभावों के ताजातरीन आकलन के मुताबिक नुकसान और क्षति को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जिनमें आय और भौतिक संपत्ति तथा मृत्यु, गतिशीलता और मानसिक भलाई से जुड़े नुकसान सहित गैर आर्थिक क्षतियां शामिल हैं।
सुंदरबन के लोगों के लिए आर्थिक और गैर आर्थिक नुकसान जैसे कि भूमि, आजीविका, स्वास्थ्य और संस्कृति की होने वाली हानि इस क्षेत्र के बर्दाश्त करने की सीमा से ज्यादा है। वर्ष 2009 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली पर्यावरण की क्षति और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की वार्षिक अनुमानित सालाना लागत 1290 करोड़ रुपए है जो वर्ष 2009 के सुंदरबन के सकल घरेलू उत्पाद के 10% हिस्से के बराबर है।
प्रदूषणकारी तत्वों के वैश्विक उत्सर्जन में सुंदरबन का बहुत छोटा सा योगदान है उदाहरण के तौर पर संपूर्ण बांग्लादेश कुल वैश्विक उत्सर्जन के मात्र 0.56% के बराबर हिस्से के लिए जिम्मेदार है, मगर उसे जलवायु परिवर्तन के भीषण नतीजों का सामना करना पड़ रहा है। विश्व के तमाम विकासशील देशों और जोखिम से घिरे समुदायों के साथ-साथ सुंदरबन भी जोर देकर गुजारिश कर रहा है कि उसे कुदरत के इस बेतरतीब रौद्र रूप की इतनी बड़ी कीमत चुकाने को मजबूर न किया जाए।