Explainer: रौलेट सत्याग्रह, कैसे बना यह एक राष्‍ट्रीय आंदोलन?

स्‍वतंत्रता संग्राम के दौरान किस तरह से रौलेट सत्‍याग्रह से लोग जुड़े और यह एक बड़ी मुहिम बनकर सामने आया, इस बारे में हम आगे पढ़ने जा रहे हैं। इस सत्‍याग्रह के बारे में आपको जानना इसलिए भी जरूरी है, क्‍योंकि यूपीएससी समेत कई परीक्षाओं में इसके बारे में विस्‍तृत प्रश्‍न आते हैं।

2015 में यूपीएससी में पूछा गया सवाल- "सर्वत्र मज़बूत विरोध के बावजूद रौलेट विधान को अस्तित्व में बनाए रखना राष्ट्र का अपमान है। राष्ट्रीय गौरव की सांत्वना के लिए उसका निरसन (repeal) करना आवश्यक है।" समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Explainer: रौलेट सत्याग्रह, कैसे बना यह एक राष्‍ट्रीय आंदोलन?

रौलेट सत्‍याग्रह विस्‍तार से

यह उस वक्‍त की बात है जब 1918 के अंत तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अखिल भारतीय स्तर पर जिन्ना, तिलक और एनी बेसेंट की तुलना में गांधीजी की दखलंदाज़ी कम ही रही थी। जिन्ना कांग्रेस में शीर्ष स्थान पाने के लिए तेज़ी से उभर रहा था। तिलक और बेसेंट होमरूल लीग आन्दोलन के तेज़ी से बढ़ते प्रभाव के कारण शीर्ष पर बने थे। एनी बेसेंट कान्ग्रेस की अध्यक्ष बन चुकी थीं। लेकिन 1919 में गांधीजी देश के राजनीतिक आकाश पर एक स्वर्णिम प्रकाश की तरह उभरे, तेजी से बढ़े और फैलते-फैलते सारे आकाश में छा गए। उस वर्ष गांधीजी ने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठाई थी, वह उस समय के प्रचलित आन्दोलन के तौर-तरीकों से बिलकुल जुदा थी।

यह एक शांत और धीमी आवाज़ थी, कोमल और मधुर आवाज़ थी, लेकिन उसमें फौलादी ताक़त थी। शांति और मित्रता की उनकी भाषा में शक्ति और कर्म की छाया थी, अन्याय के सामने सिर न झुकाने का संकल्प था। यह एक नई आवाज़ थी। लंबे-लंबे भाषणों से बिलकुल अलग। लोग रोमांचित थे, क्योंकि गांधी जी की राजनीति कर्म की राजनीति थी, बातों की नहीं। उस साल उन्होंने जो कुछ किया और कहा वह भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की दिशा और दशा तय कर रहा था। इसने पूरे देश की राजनीति का आचरण ही बदल डाला।

रौलेट सत्याग्रह की पृष्ठभूमि

1919 में जहां एक ओर, ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के समक्ष संवैधानिक सुधारों के गाजर को लटका दिया, वहीं दूसरी ओर, इसने सुधारों के खिलाफ किसी भी अप्रिय आवाज़ को दबाने के लिए खुद को असाधारण शक्तियों से लैस करने की छडी भी उठा ली। पहला महायुद्ध समाप्त हो गया था। गांधीजी ने युद्ध में ब्रिटिश को सैन्य सहायता की अपील की थी। इस युद्ध में भारत के वीरों ने बड़ी बहादुरी से भाग लिया था। इसलिए प्रथम महायुद्ध में ब्रिटिश के विजयी होने से लोगों के मन में यह आशा जगी थी कि भारत में शासन-व्यवस्था को उदार बनाया जाएगा। लेकिन जनता को ब्रिटिश सरकार द्वारा उपहार में जस्टिस सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में देशद्रोह के बारे में क़ानून बनाने के लिए एक समिति मिली। अंग्रेज़ आतंकवादी गतिविधियों को दबाने के नाम पर भारतीयों के मौलिक अधिकारों का हनन करना चाहते थे। रौलेट की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने जो बिल तैयार किया था उसका नाम दिया गया "रॉलेट बिल"

जॉंच कमेटी के रूप में बनी रौलेट कमेटी

रौलेट कमेटी को जाँच कमेटी के रूप में नियुक्त किया गया था और इसे भारत में राजद्रोह की जाँच करने और इससे निपटने के उपाय सुझाने का काम सौंपा गया था। अस्वस्थ गांधीजी को पता चला कि राजद्रोह समिति रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी है। बीमारी के बिछौने पर ही उन्होंने रौलट बिल की प्रति पढ़ी।

उन्होंने पाया कि नागरिकों की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए सरकार विधेयक पेश करने जा रही है। भारतीय नेताओं में शायद अकेले गांधीजी ने ब्रिटेन की संकट की घड़ी में बिना किसी शर्त के सहयोग देने का आग्रह किया था, क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन की ओर से सद्भावना का उचित प्रदर्शन होगा। अब उन्हें लगा कि रोटी के बदले पत्थर मिले हैं। युद्ध-काल में किसी भी तरह के संघर्ष से दूर रहने का उन्होंने हर संभव प्रयत्न किया था। अब शान्ति-काल में जो अन्याय किया गया, उसके विरोध में लड़ने के लिए वह तड़प उठे। उन्हें लगा, यदि शान्तिकाल में भारत को यही पुरस्कार मिलना था, तो होमरूल की आशा कैसे की जा सकती थी?

कैसे आया रौलेट विधेयक?

1919 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बिल (रौलेट विधेयक) पेश किया गया था जो भारत की रक्षा विनियम अधिनियम 1915 का विस्तार था। यह बिल वही था जिसे आधिकारिक तौर पर अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम कहा जाता था, लेकिन लोकप्रिय रूप से रॉलेट एक्ट के रूप में जाना जाता था। गांधीजी दिल्ली आए।

उन्होंने लेजिस्लेटिव काउंसिल में विधेयक पर हुई बहस के तहत भारतीय नेताओं के इस भयानक क़दम को वापस लेने के लिए दिए गए भावपूर्ण भाषण सुने। जिन्ना, जो काउंसिल का 1909 से ही सदस्य था, ने इस विधेयक का ज़ोरदार विरोध करते हुए कहा, "शांतिकाल में ऐसा दमनकारी क़ानून बनानेवाली सरकार निरी असभ्य और जंगली सरकार है। आप लोगों को यह बता देना मेरा कर्तव्य है कि अगर यह क़ानून बन गया, तो आप देश के इस किनारे से उस किनारे तक ऐसी नाराज़गी और आन्दोलन पैदा कर देंगे जैसा कि आपने देखा नहीं है।" सर तेज बहादुर सप्रू ने कहा, "यह बिल सैद्धांतिक दृष्टि से ग़लत, व्यावहारिक दृष्टि से दोषपूर्ण और अति व्यापक है"।

विट्ठलभाई पटेल ने कहा, "यदि यह बिल पास हो जाए तो संवैधानिक सुधारों के लिए किए जानेवाले हमारे वैधानिक आंदोलन का गला ही घुट जाएगा"। वायसराय मंत्रमुग्ध होकर भारतीय नेताओं की दलीलें सुन रहा था। गांधीजी को एक क्षण के लिए लगा कि शायद वायसराय प्रभावित हो रहा है। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सभी निर्वाचित भारतीय सदस्यों ने बिल के खिलाफ मतदान किया, लेकिन वे अल्पमत में थे और आधिकारिक नामांकित व्यक्तियों द्वारा आसानी से खारिज कर दिए गए। रौलेट एक्ट पारित होने के साथ बहस समाप्त हो गयी। गांधीजी ने इसे "वैधानिक औपचारिकताओं का नाटक" कहा।

रौलेट बिल क़ानून बना

राज पर जिन्ना की चेतावनी या गांधीजी की अपील का असर नहीं हुआ। काउंसिल तो मनोनीत लोगों से बनी थी। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल ने चुन कर आये सभी भारतीयों का कड़ा विरोध होने पर भी रौलेट विधेयक पास कर दिया। इस विधेयक द्वारा सरकार का उद्देश्य युद्धकालीन भारत रक्षा अधिनियम (1915) के दमनकारी प्रावधानों को स्थायी कानून द्वारा प्रतिस्थापित करना था। इस विधेयक में ब्रिटिश नीति का एक ऐसा प्रस्ताव था जिसमें क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए खास क़ानून पास करने की व्यस्था की गई थी। प्रेस पर सख्त नियंत्रण था और सरकार आतंकवाद या क्रांतिकारी रणनीति के रूप में विचार करने के लिए अधिकारियों द्वारा चुनी गई किसी भी चीज़ से निपटने के लिए कई तरह की शक्तियों से लैस थी। इसका साफ़ मतलब था कि अब अधिक स्वतंत्रता के बदले अधिक दमन होने वाला था।

22 मार्च, 1919 को वायसराय के हस्ताक्षर हो जाने बाद यह क़ानून बन गया जिसका नाम था 'Anarchical & Revolutionary Crime Act, 1919' (अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919)। जिस तरह से बिल पास किया गया था उसने गांधीजी की आंखें खोल दीं। गांधीजी ने लिखा थाः "सच में कोई सो गया हो तो उसे आप जगा सकते हैं, लेकिन अगर कोई सोने का बहाना मात्र कर रहा हो तो उसके कान पर ढोल बजाने से क्या होगा?"

विधेयक के प्रावधान - न वकील, न अपील, न दलील

1914-18 के विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था और बिना जाँच के कारावास की अनुमति दे दी थी। अब सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली समिति की संस्तुतियों के आधार पर इन कठोर उपायों को जारी रखा गया। रौलट बिल में देशद्रोह की व्याख्या इतनी व्यापक रखी गई थी कि किसी प्रकार का आंदोलन या विरोध देशद्रोह में गिना जाता। अन्याय के प्रति आवाज़ उठाना गुनाह माना जाता। बिना वारंट के तलाशी, गिरफ़्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने की शक्ति थी। ऐसे अपराध की कड़ी सज़ाएं रखी गयी थी।

अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार नहीं था। मुकदमे के फैसले के बाद किसी उच्च न्यायालय में अपराधी को अपील करने का भी अधिकार नहीं था। जजों को बिना जूरी की सहायता से सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। इन केसों को बंद कोर्टों में चलाने का प्रावधान था, ताकि किसी को इसका पता भी न चले। ग़ुलामी की बेड़ियां और सख़्त करने की यह चाल थी। उन दिनों इस बिल का वर्णन आम तौर पर इन शब्दों में किया जाता था, "न वकील, न अपील, न दलील"।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन करने का प्रावधान था। भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य को कुचलने की अंगरेज़ों की यह कुचाल थी। यह नग्न तानाशाही था। भारतीयों ने इसे 'काला बिल' या 'काला क़ानून' कहना शुरू कर दिया था।

गांधीजी ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाली

जब भारतीयों ने युद्ध में अपने योगदान के लिए एक पुरस्कार के रूप में स्वशासन की दिशा में एक बड़ी प्रगति की उम्मीद की, तो उन्हें बहुत ही सीमित दायरे के साथ मोंटफोर्ड सुधार दिए गए और चौंकाने वाला दमनकारी रोलेट एक्ट। भारतवासी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे कि देखें गांधी जी क्या क़दम उठाने को कहते हैं। हालाकि जनवरी से गांधीजी बीमार थे। बीमारी के बाद अभी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए थे और बिस्तर पर पड़े थे। लेकिन रौलेट विधेयक कानून बन चुका था।

गांधीजी को लगने लगा कि अब इस विधेयक के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष छेड़ना ज़रूरी हो गया है। औपनिवेशिक शासकों ने गाँधी जी की झोली में एक ऐसा मुद्दा डाल दिया जिससे वे कहीं अधिक विस्तृत आंदोलन खड़ा कर सकते थे। इस घटना के बाद गांधीजी का यह विश्वास पक्का हो गया कि सरकार जनता की भावनाओं की ओर से पूरी तरह उदासीन है। इस सरकार को लोकमत की ज़रा-सी भी परवाह नहीं है। अनुभव और लोकप्रियता ने गांधी जी को अदम्य साहसी बना दिया। इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाली। उन्हें लगा कि जब वैधानिक उपायों से रौलेट विधेयकों के विरोध का कोई परिणाम नहीं निकला और वे पास हो गये, तो रौलेट कानूनों को रद्द कराने के लिए सत्याग्रह के अस्त्र का प्रयोग करना ज़रूरी हो गया है। महात्मा गाँधी ने कहा कि "यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम मुक्ति केवल संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त करेंगे न कि अंग्रेजों द्वारा हमें प्रदान किये जा रहे सुधारों से"।

आन्दोलन के लिए कारण और सत्याग्रह सभा

उस समय भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सभी स्तरों पर गहरा आक्रोश था। युद्ध के दौर में एक तरफ जहां विदेशी आयात लगभग बंद हो गया था वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन की युद्धकालीन आवश्यकताएं बढ़ गई थीं। इसकी भरपाई भारत में उत्पादन बढाकर किया गया। इससे यहाँ का उद्योग व्यापार कुछ संपन्न हुआ और भारतीय पूंजीपति औद्योगिक नीति में एक बड़े परिवर्तन की आशा कर रहे थे, जो उन्हें नहीं मिला।

विश्वयुद्ध के दौरान लाखों की संख्या में भारतीय सैनिकों की भर्ती की गई थी। इतनी बड़ी सेना के रख-रखाव में भारी खर्च आ रहा था। भारी रक्षा व्यय का बोझ आम जनता को उठाना पड रहा था। सैनिकों के लिए भारी मात्रा में खाद्यान्न बाहर जा रहा था, जिसके कारण देश में खाद्यान्न में कमी आ गई थी। इसके परिणामस्वरूप आवश्यक सामानों की मूल्यवृद्धि हो रही थी। हर तरफ ज़रूरी सामानों की कमी हो गई थी। ऊपर से प्रकृत्ति का कहर भी देशवासियों को झेलना पडा। अकाल और महामारी के कारण देश में काफी जन-धन की हानि हुई। पीपुल्स बैंक का दिवाला पिट गया था। कारखानों की बंदी और बेरोज़गारी बढ़ी। किसान लगान और कर के भारी बोझ से दबे हुए थे।

सत्याग्रह सभा का गठन

जनैतिक क्षेत्र में भी जनता का मोहभंग हुआ। युद्ध के बाद लोगों को यह स्पष्ट हो गया कि सरकार उपनिवेशवाद की समाप्ति के लिए तैयार नहीं है। रूस में क्रान्ति हो चुकी थी और यह तथ्य उजागर हुआ था की आम जनता में अपार बल और शक्ति है। सुधारों के लिए जो प्रयत्न हुए थे वह काफी निराशाजनक थे। सुधारों को लेकर गांधीजी की शुरूआती प्रतिक्रया अनुकूल थी, लेकिन इन सब परिस्थियों के बीच ब्रिटिश शासन ने रौलेट एक्ट के रूप में एक अत्याचारी क़ानून दे दिया था। इसने गांधीजी की ऑंखें खोल दी। आन्दोलन खड़ा करने के लिए देश में वातावरण तैयार था। गांधीजी ने कहा था, "वे नागरिक सेवा के आघात करने वाले साधन हैं, हमारे गले पर अपनी गिरफ्त को मज़बूत बनाए रखने के लिए। मेरे विचार से विधेयक हमारे लिए एक खुली चुनौती है।" अखिल भारतीय स्तर पर रॉलट एक्ट का विरोध करने के लिए एक अनूठा और व्यावहारिक ढंग गांधीजी ने सुझाया, वह था सत्याग्रह। 24 फरवरी 1919 को बंबई में एक सत्याग्रह सभा का गठन हुआ।

एक प्रतिज्ञा-पत्र तैयार किया गया। इस बिल के विरोध में सभी भारतीय नेताओं ने अभूतपूर्व एकता दिखाई। फरवरी में गांधी जी ने रौलेट विधेयकों के विरोध में प्रतिज्ञापत्र का प्रारूप तैयार करके प्रकाशित कर दिया। प्रमुख लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया थाः "यदि ये विधेयक कानून बन गए तो जब तक इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा तब तक हम इन तथा अन्य ऐसे कानूनों को भी, जिन्हें इसके बाद नियुक्त की जाने वाली समिति उचित समझेगी, मानने से नम्रतापूर्वक इनकार कर देंगे। हम यह प्रतिज्ञा भी करते हैं कि इस संघर्ष में दृढ़ता से सत्य का पालन करेंगे और किसी की जानमाल को हानि नहीं पहुंचाएंगे।"

महात्माजी का राजाजी से परिचय

सत्याग्रह सभा काफ़ी नहीं था। सिर्फ़ दिल्ली और मुंबई की जनता से यह आन्दोलन प्रभावकारी नहीं होने वाला था। पूरे देश में अवज्ञा के लिए जनता को जगाना होगा। दक्षिण को इस आन्दोलन में शामिल करना बहुत ही ज़रूरी हो गया था। इसलिए गांधीजी कस्तूरी रंगा के निमंत्रण को स्वीकार कर कस्तूरबा और महादेव देसाई के साथ मद्रास गए। उन्हें राजगोपालाचारी के घर ठहराया गया। इस प्रकार महात्माजी का परिचय राजाजी से हुआ। गांधीजी दिन-रात रौलट एक्ट के विरोध के तौर-तरीक़े के बारे में सोचते रहते थे। एक दिन वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस काले क़ानून के विरोध में सारे देश में हड़ताल होनी चाहिए। उन्होंने अपने विचार से राजाजी को अवगत कराया। सत्याग्रह आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है। स्वमान का रक्षण करना धर्मयुद्ध है। इसलिए सारे देश को एक दिन की हड़ताल करनी चाहिए। उस दिन उपवास और प्रार्थनाएं होनी चाहिए। राजाजी को यह प्रस्ताव पसंद आया। अंततः इस सत्याग्रह के तहत चुने गए विरोध के रूपों में उपवास और प्रार्थना के साथ एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का पालन, और विशिष्ट कानूनों के खिलाफ सविनय अवज्ञा, और गिरफ्तारी और कारावास को शामिल किया गया।

हड़ताल का दिन घोषित

रौलेट क़ानून बन जाने के बाद 23 मार्च को गांधीजी ने एक छोटे-से वक्तव्य द्वारा 30 मार्च, 1919 को हड़ताल का दिन घोषित कर दिया। पांच दिन बाद, 27 मार्च को जिन्ना ने इस काले क़ानून' के खिलाफ इम्पीरियल काउंसिल से इस्तीफा दे दिया। गांधीजी के पास समय कम था, और तैयारियां पूरी नहीं हो पाई थीं, इसलिए इस दिन को बदलना पड़ा और 6 अप्रैल को हड़ताल का दिन रखा गया। तार द्वारा इसकी सूचना सभी को भेजी गई।

'सत्याग्रह सभा' के नाम से जो नया संगठन बनाया गया था, उस संगठन में कुछ चुने हुए लोग थे जो क़ानून को भंग कर अपने आपको गिरफ़्तार कराने के लिए तैयार थे। उस समय भारत में यह बिलकुल नया विचार था। सत्याग्रह के नाम पर जहां एक ओर बहुत से लोग उत्तेजित हुए वहीं दूसरी ओर कई पीछे भी हटे। दोनों होमरूल लीग, कुछ अखिल भारतीय इस्लामी समूहों और सत्याग्रह सभा ने सत्याग्रह के आयोजन में गांधीजी का सहयोग देने का आश्वासन किया। जमनादास द्वारकादास, शंकरलाल बैंकर, उमर सोभानी और बी.जी. हर्निमन जैसे बंबई के होमरूल के कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रह सभा के लिए धन जुटाया। तिलक किसी केस के सिलसिले में लंदन में थे। उनके कुछ सहयोगी जैसे एन.सी. केलकर और जी.सी. खपर्डे इससे अलग ही रहे। अब्दुल बारी ने सत्याग्रह का समर्थन करने का निर्णय लिया। स्वयं गाधीजी जनता को सत्याग्रह का अर्थ समझाने के लिए देश-व्यापी दौरा पर निकल पड़े। बंबई, दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ और दक्षिण भारत का दौरा समाप्त कर वे 4 अप्रैल को बंबई (मुंबई) पहुंचे। गांधीजी को इतना समय नहीं था कि वे पंजाब की यात्रा कर पाते। ऐसा प्रतीत होता है कि संगठनात्मक तैयारी सीमित और अपर्याप्त थी।

सत्याग्रह आंदोलन

भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की अब तक की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका था। जनता को गांधीजी के द्वारा एक दिशा मिल गई थी; अब वे अपनी शिकायतों को केवल मौखिक अभिव्यक्ति देने के बजाय कार्यात्मक रूप से व्यक्त कर सकते थे। अब से, किसानों, कारीगरों और शहरी गरीबों को संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। अब राष्ट्रीय आंदोलन का झुकाव स्थायी रूप से जनता की ओर हो गया। गांधीजी का कहना था कि अंग्रेजों से मुक्ति तब मिलेगी जब जनता जागृत होगी और राजनीति में सक्रिय होगी। कुछ ही दिनों में यह बिल देश के कोने-कोने में "काले बिल" के नाम से पुकारा जाने लगा। सभी वर्ग के लोगों ने इसकी निंदा की। गांधी जी के आह्वान पर देश के देश के कोने-कोने में रौलेट बिल के विरोध का स्वर गूंज उठा। सबसे पहले गांधी जी ने वायसराय के पास एक अपील भेजी - एक नम्र अपील, पर उसमें चेतावनी भी थी।

जब उन्होंने देखा कि सभी वर्गों के विरोध के बावज़ूद ब्रिटिश हुक़ूमत रौलेट बिल को क़ानून का रूप देने तुली हुई है, तो उन्होंने क़ानून बनाने के बाद के पहले रविवार को ही सारे देश में शोक मनाने, हड़ताल करने, हर तरह का काम बंद रखने और सभाएं करने की अपील की। अपील में कहा गया था रविवार 6 अप्रैल 1919 को सारे देश में - गांव-गांव, शहर-शहर में - सत्याग्रह दिवस मनाया जाए। इसे प्रार्थना और उपवास दिवस के रूप में मनाया जाए। इस अपील में एक प्रकार की धार्मिकता का भाव था। इसका परिणाम भी वैसा हुआ जैसा पहले कभी नहीं सुना गया था। समूचा भारत हड़ताल पर था। महानगरों में कोई काम-काज नहीं हुआ। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे ईनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया।

स्वामी श्रद्धानंद

आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद ने सत्याग्रह के कार्यक्रम में लगान की नाअदायगी का अह्वान करने का सुझाव दिया था, जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया। तार पहुंचने में देरी के कारण दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंदजी ने 30 मार्च को ही हड़ताल कर दी। उन दिनों में दिल्ली के हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गजब का भाईचारा था। आर्यसमाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद और हकीम साहब ने जामा मस्जिद में एक विशाल सभा का आयोजन किया। हिन्दू-मुसलमान एक होकर हड़ताल में शामिल हुए। दिल्ली शहर ठप्प हो गया। लोगों के प्रदर्शन को पुलिस सहन न कर पाई और निःशस्त्रों पर गोली चलाई गई। अनेकों लोग शहीद हुए। अनगिनत घायल हुए। स्वामी श्रद्धानंद ने चांदनी चौक में गुरखों की संगीनों का सामना करने के लिए आपनी छाती आगे कर दी। ये संगीनें उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकीं।

सरकार का दमन-चक्र

ब्रिटिशों ने इस सत्याग्रह को 'राजद्रोह' की संज्ञा दी। इससे निपटने की हरसंभव कोशिश की। सरकार ने दमन-चक्र तेज़ कर दिया। इस घटना से सारे देश में रोमांच फैल गया। सारे उत्तर भारत में जबरदस्त हड़ताल हुई। लाहौर, अमृतसर, अंबाला, जलंधर में आन्दोलन की आग तेज़ हो गई। जिन्ना के, जिसने इम्पीरियल काउंसिल से इस्तीफा दे दिया था, इस्तीफे से वैसा हंगामा नहीं मचा जैसा गांधीजी की अपील पर हुआ था। विरोध से भी आगे बढकर इस क़ानून का उल्लंघन करने के लिए तैयार देश ने गांधीजी की अपील को सुना और उन्हें महात्मा कहकर सम्मानित किया। गांधीजी का देश के क्षितिज पर नक्षत्र की भाँति उदय हो चुका था! गांधीजी वह जगह ले चुके थे, जिसका हमेशा से ही जिन्ना खुद को हक़दार मानता था, और जिसके लिए वह काफी समय से प्रयास कर रहा था और लगभग वहाँ पहुँच ही गया था।

देशभर में सत्याग्रह दिवस मनाया गया

जिस दिन बंबई में हड़ताल का आयोजन हुआ उस दिन को यानी 6 अप्रैल को देश भर में सत्याग्रह दिवस के रूप में मनाया गया।। यह अपने ढंग का पहला अखिल भारतीय प्रदर्शन था। लोगों पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। सभी वर्ग के लोगों ने इसमें भाग लिया। इसकी सफलता पर लोग स्तंभित थे। पूरे देश में एक नए वातावरण का सृजन हुआ। लगभग सारा भारत हड़ताल पर था। महानगरों में कोई काम पर नहीं गया। न जहाज़ों पर काम हुआ, न बैंकों में, यहाँ तक कि डाकघर में भी कोई कम-काज नहीं हुआ। सारा कारोबार ठप्प हो गया।

लोगों में अदम्य उत्साह था। उस दिन, 6 अप्रैल को, गांधीजी मुंबई में थे। उन्होंने स्वयं इस कार्यक्रम का संचालन किया। चौपाटी पर एक मस्जिद में सरोजिनी नायडू और गांधीजी के भाषण हुए। हालाकि थोड़ा खून-खराबा भी हुआ। गांधीजी ने तुरन्त उपद्रवकारियों तथा स्थानीय अधिकारियों, दोनों की ज्यादतियों की भर्त्सना की और कहा कि अधिकारियों ने तो मक्खी मारने के लिए हथौड़े का प्रयोग किया। पंजाब में उत्तेजना बहुत बढ़ी और वहां के नेताओं का विचार था कि वहां गांधीजी की उपस्थिति से शान्ति स्थापना में बड़ी सहायता मिलेगी।
अगले दिन, 7 अप्रैल की शाम को गांधीजी पंजाब जाने के लिए महादेव देसाई के साथ दिल्ली के लिए ट्रेन से रवाना हुए। 30 मार्च को हुए प्रदर्शन को सरकार ने सख्ती से, बेगुनाह प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला कर कुचल दिया था। इधर सरकार ने गांधीजी को पंजाब पहुंचने ही नहीं दिया। अभी वह दिल्ली भी नहीं पहुंचे थे कि रास्ते में 8 अप्रैल को पलवल के पास ट्रेन को रोककर उन्हें पंजाब जाने से रोक दिया गया। गांधीजी ने महादेव देसाई को दिल्ली भेजा ताकि वे स्वामी श्रद्धानंद की सहायता कर सकें। गांधीजी ने जब सरकारी आदेश मानने से इंकार किया, तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस गांधीजी को एक मालगाड़ी में बैठाकर वापस बंबई ले गई।

लोग भड़क उठे

गांधीजी को पुलिस ने पकड़ ली है, यह समाचार सुनते ही लोग भड़क उठे। गांधीजी रेवाशंकर झवेरी के घर मोटर से जा रहे थे, लेकिन उत्तेजित लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया और पायधूनी ले गए। गांधीजी को देखकर लोग नाच रहे थे। वंदेमातरम्‌ और अल्लाहो अकबर की ध्वनि सारे शहर में गूंज रही थी। गांधीजी ने लोगों से शांत रहने की अपील की। सारी भीड़ जुलूस बनकर चलने लगी। एक घुड़सवार दस्ते ने भीड़ पर अक्रमण कर दिया। कई लोग कुचले गए। अनेकों घायल हुए। गांधीजी किसी तरह से निकल कर पुलिस कमिश्नर के दफ़्तर गए। गांधीजी ने पुलिस बर्बरता की शिकायत की। लेकिन कमिशनर गुस्से से आगबबूला था। उसने गांधीजी से कहा, जनता बेकाबू जानवर की तरह व्यवहार कर रही थी। उन्हें लाठी-भाले से ही काबू किया जा सकता था। अमृतसर और अहमदाबाद में भी दंगे हो रहे हैं। ये दंगे आपकी ग़लत सीख के परिणाम हैं। गांधीजी ने कहा, मैं तो दिल्ली से आगे उत्तर कभी गया नहीं, अमृतसर के लोगों ने तो मुझे न देखा है, न सुना है। आपके आरोप बेबुनियाद हैं। शाम को चौपाटी की सभा में गांधीजी ने लोगों से शांत रहने की अपील की। सत्याग्रही में असली हिम्मत चाहिए, जो आक्रमण में भी उत्तेजित न हों और धैर्य से अपना प्रतिकार करे।

दूसरी जगहों में भी दंगे

गांधीजी को शाम तक पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में बम्बई, अहमदाबाद, नडियाद और दूसरी जगहों में दंगे हो गए हैं। उपद्रवों का सबसे अधिक प्रभाव अमृतसर, लाहौर, गुजरांवाला और पंजाब के अनेक छोटे नगरों में, गुजरात के वीरगाम, अहमदाबाद और नाडियाड में, दिल्ली, बंबई और कलकता में पड़ा। अहमदाबाद में यह ख़बर फैल गई कि गांधीजी गिफ़्तार हो गए हैं। लोग बेकाबू हो गए। एक सार्जेंट को मार डाला गया। ट्रेन की पटरियां उखाड़ दी गईं। वीनमगाम में एक सरकारी अधिकारी की हत्या कर दी गई। अहमदाबाद में सरकार द्वारा मार्शल लॉ लगा दिया गया। सारे शहर में सशस्त्र सैनिक तैनात कर दिए गए। सरकार जुल्म ढा रही थी। गांधीजी अहमदाबाद गए। पुलिस कमिश्नर से मिले। दंगों के लिए क्षमा मांगी। सारा दोष अपने सिर लिया। एक आम सभा कर लोगों को समझाया और शांत रहने की अपील की। अहमदाबाद शहर से मार्शल लॉ उठा लिया गया। गांधीजी ने मज़दूरों से अपना गुनाह क़बूल करने को कहा और पुलिस कमिश्नर से क्षमा कर देनी की गुजारिश की। दोनों पक्षों ने उनकी बात नहीं मानी। उनके अपने ही प्रान्त के लोग अहिंसा के सिद्धांत को भूल जाएंगे, इसकी तो गांधीजी को स्वप्न में भी आशंका नहीं थी। गांधीजी क्षुब्ध हो गए। उन्हें लगा अहमदाबाद के मज़दूर सत्याग्रह के अर्थ को समझ नहीं पाए। उन्होंने कहा था, "यदि मेरे शारीर में खंजर उतरता चला जाता, तो भी मुझे इतनी पीड़ा नहीं हुई होती।" वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लोगों के अन्दर हिंसा के छिपे आवेग को सही-सही आंकने में उनसे भूल हो गई है।

सत्याग्रह स्थगित - लोग शांतिपूर्ण आंदोलन के रहस्य को नहीं समझ सके

बड़ी उम्मीदों से उन्होंने आन्दोलन शुरू किया था। उन्होंने सोचा था कि भारतीय जनता बलिदान के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करेगी जिससे ब्रिटिश सरकार दमनकारी कानून को रद्द करने के लिए राज़ी हो जाएगी। लेकिन इसके उलट देश के अपने ही लोग वहशीपन पर उतारू हो गए। गांधीजी को लगा कि भारत के लोग अभी भी शांतिपूर्ण आंदोलन के रहस्य को नहीं समझे हैं। वह मानते थे कि समाज द्वारा आंदोलन के इस बुनियादी तत्व को आत्मसात किए बिना देशव्यापी हड़ताल का आह्वान कर उन्होंने ग़लती कर दी है। अहमदाबाद से गांधीजी नाड़ियाद गए। वहां की बर्बादी देख कर वे दंग रह गए। तब एक सभा में उन्होंने अपनी हिमालयन स्तर की ग़लती को सार्वजनिक कर दिया। गांधीजी का मानना था कि क़ानून के सविनय भंग के लिए लोगों को पूरा प्रशिक्षण नहीं मिला है, इसलिए आंदोलन चालू रखना ग़लत होगा। उसी व्यक्ति को क़ानून का सविनय भंग करने का अधिकार है जो स्वेच्छा से क़ानून का पालन करता हो। अधिकांश लोग तो सज़ा के डर और सरकार के भय से क़ानून का पालन करते हैं।

जो व्यक्ति समझदारी और स्वेच्छा से क़ानून का पालन करता है उसे क़ानून की नीति, अनीति के भेद की सूक्ष्म शक्ति प्राप्त होती है। देश का आम नागरिक अभी सत्याग्रह के इस सूक्ष्म लेकिन गहरे महत्व के अंतर को समझ नहीं पाया है। प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने तीन दिन का उपवास व्रत रखा और रौलट बिल के विरोध में किए गए सत्याग्रह को स्थगित कर दिया। बंबई में उन्होंने सविनय सत्याग्रह और अहिंसक लड़ाई का बुनियादी प्रशिक्षण आरंभ कर दिया। कुछ लोग रौलट बिल के विरोध के आंदोलन के बंद किए जाने से निराश हुए। कई लोगों ने उन्हें उलाहना भी दिया। शायद तब वे गांधीजी के उद्देश्य को समझ नहीं पाए थे। जिस दिन गांधीजी ने तीन दिन के व्रत की घोषणा की थी, वह दिन 13 अप्रैल, 1919 का था!

13 अप्रैल को जालियावाला बाग ह्त्या-कांड

रौलेट सत्याग्रह आंदोलन पंजाब के अमृतसर में जोर पकड़ रहा था। शुरुआत में प्रदर्शनकारियों ने कोई हिंसा नहीं की। भारतीयों ने अपनी दुकानें और सामान्य व्यापार बंद कर दिया और खाली सड़कों ने अंग्रेजों के विश्वासघात पर भारतीयों की नाराजगी को दिखाया। 9 अप्रैल को, दो राष्ट्रवादी नेताओं, सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने रौलट-एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया। इसके कारण अमृतसर के साथ पंजाब के लोगों में रोष फैल गया था। गुस्साये लोगों ने रेलवे स्टेशन, टाउन हॉल सहित कई बैंकों और अन्य सरकारी इमारतों पर हमले किये और आग लगा दी। स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई कि सेना को बुलाना पड़ा। ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी थे जिनके पास मार्शल लॉ लागू करने और व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी थी। 13 अप्रैल सन 1919 का दिन बैसाखी का पारंपरिक त्यौहार का दिन था। बैसाखी का त्यौहार मनाने के लिए गुरुद्वारे में इकठ्ठा हुए थे। इस गुरूद्वारे के पास में ही एक बगीचा था जिसका नाम था जलियांवाला बाग़। वहाँ गाँव के लोग अपने परिवार वालों के साथ, तो कुछ अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गए थे। वहाँ विरोध प्रदर्शन के लिए एक शांतिपूर्ण सभा भी हो रही थी।

जनरल डायर ने वहाँ उपस्थित लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लगभग 10 मिनिट तक भीड़ पर गोलियां दागी, जिससे वहां भगदड़ मच गई। इसके चलते लगभग 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और 1500 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। पंजाब पर मार्शल लॉ लाद दिया गया। अमृतसर हत्याकांड पर जांच की हंटर समिति ने सर्वसम्मति से डायर के कार्यों की निंदा की। कमांडर जनरल डायर पर लंदन की ब्रिटिश पार्लियामेंट में केस चला और उसको नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया। पंजाब की इस जालियांवाला बाग कांड ने लोगों में स्वराज पाने की लगन को और अधिक गहरा किया।

अमृतसर-कांग्रेस

यह एक अजीब संयोग था कि जिस साल जालियांवाला हत्या-कांड हुआ उसी साल दिसंबर के महीने में कांग्रेस का अधिवेशन भी अमृतसर में हुआ। मोतीलाल ने तो पंजाब में ही डेरा डाल रखा था, इसलिए उन्हें ही अध्यक्ष चुना गया। स्वामी श्रद्धानंद स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इस अधिवेशन में कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया गया। इसका कारण यह था कि बहुत सी बातों की जांच की गई थी और उसके रिपोर्ट का इंतज़ार था। फिर भी एक बात तो साफ थी ही कि कांग्रेस अब पहले वाली कांग्रेस नहीं रह गई थी। उसमें सामूहिक और जन-व्यापकता आ गई थी।

उस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक भी मौज़ूद थे। वे किसी भी तरह से समझौते के लिए तैयार नहीं थे। वह आख़िरी अधिवेशन था जिसमें उन्होंने भाग लिया था। अगले अधिवेशन के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। उस अधिवेशन में गांधी जी भी उपस्थित थे। अब तक गांधीजी जब भी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेते तो प्रेक्षक के रूप में लेते। लेकिन चंपारन सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह, स्वराज सभा, रौलट बिल और जालियांवाला बाग कांड के बाद स्थिति बदल चुकी थी। वे जनता के बीच लोकप्रिय हो चुके थे। दिसंबर में, जिन क़ैदियों पर हिंसा का अभियोग नहीं था, उन्हें आम माफ़ी प्रदान कर जेल से रिहा कर दिया गया था। अधिवेशन में बहुत से ऐसे नेता भी भाग ले रहे थे जो सीधे जेल से आए थे और सैनिक क़ानून के दिनों में उन्होंने षडयंत्र में शामिल होने के आरोप के कारण लंबी सज़ा हुई थी लेकिन माफ़ कर दिए जाने के कारण बाहर आए थे। प्रसिद्ध अली बंधु, लाला लाजपत राय और लाला हरिकिशन लाल आदि छूट कर आए थे।

मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार पर कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव

अमृतसर का नरसंहार एक दुखद लेकिन निर्णायक घटना थी। भारतीयों को लगाने लगा कि ब्रिटिश सरकार से उम्मीद करना बेकार है। इस घटना ने कई अंग्रेजों को भी अपराधबोध से ग्रसित कर दिया था। उनमें इस नृशंसता के लिए पश्चाताप का भाव पैदा हुआ। सरकार को लगा कि शासन में कुछ सुधार कर भारतीयों को बहला-फुसला लिया जाएगा। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने एडविन मांटेग्यू और लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड (वायसराय) के मातहत एक समिति का गठन किया, ताकि यह समिति भारत को संविधान देने और शासन साझेदारी के उपाए सुझाए। इस समिति ने कुछ रियायतें देने का वादा किया था। 'उत्तरदायी सरकार' लाने की समस्याओं का समाधान के लिए 'द्विशासन' का एक अनोखा उपाय इस समिति ने सुझाया था, जिसके तहत प्रांतीय सरकारों के कुछ विभाग जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय निकाय मंत्रियों को सौंप दिए गए थे जो विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी थे, जबकि अन्य विषयों को 'आरक्षित' रखा गया था।

कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में इन रियायतों पर भी चर्चा हुई। पिछले वर्ष कांग्रेस अपने दिल्ली अधिवेशन में इन सुधारों के प्रति अलोचनात्मक रवैया अपना चुकी थी। इस कारण नरमदलीय तत्व कांग्रेस से अलग होकर सप्रू, जयकर और चिंतामणि ने नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की थी। हालांकि गांधीजी को ये सुधार पसंद तो नहीं थे, लेकिन अमृतसर कांग्रेस के समय उनका मानना था कि सरकार के प्रयास को सद्भाव से देखना चाहिए। अगर कांग्रेस इन सुधारों को मान लेती है, तो आगे की मांगों में सुविधा होगी। लोकमान्य तिलक और देशबंधु चितरंजन दास को यह सुधार ज़रा भी मान्य नहीं था। महामना निष्पक्ष थे। कांग्रेस दो पक्षों में बंट गई। गांधीजी इस मतभेद से क्षुब्ध थे। उन्हें लगा कि यदि वे अधिवेशन छोड़कर अहमदाबाद चलें जाएं तो कांग्रेस की दुविधा टल जाएगी। लेकिन अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू और मालवीयजी ने गांधीजी के चले जाने के प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया। गांधीजी ने देशबंधु, लोकमान्य और जिन्ना से काफ़ी चर्चाएं की। जिन्ना और गांधीजी पिछले कुछ समय से एक-दूसरी की मदद कर रहे थे। अपने खिलाफ राज द्वारा अदालत की मानहानि का दावा कर देने पर गांधीजी ने जिन्ना की मदद माँगी थी। उन दिनों जिन्ना इंगलैंड में अपनी पत्नी रत्ती के साथ छुट्टियां मना रहा था। जिन्ना को गांधीजी की चिट्ठी मिली जिसमें गांधीजी ने उससे भारत आने का निवेदन किया था। कांग्रेस के इस अमृतसर अधिवेशन में चेम्सफोर्ड सुधारों के मत पर जिन्ना ने गांधीजी के रुख का समर्थ करते हुए अपने भाषण में उन्हें महात्मा गांधी' कहा था। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।

जयराम-दौलतराम ने एक संशोधन सुझाया, जो सबको मान्य था और समस्या का समाधान हो गया। प्रस्ताव में रौलट एक्ट को निराशाजनक बताते हुए एक समझौतासूचक धारा जोड़ दिया गया। इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसमें महत्त्वपूर्ण बातें थीं, जालियांवाला बाग स्मारक फंड एकत्रित करना, हाथ कताई और हाथ बुनाई को प्रमुखता देना और कांग्रेस का संविधान तैयार करना। अब तक गांधीजी कांग्रेस के कार्य से अलग-थलग थे। पर अब वे कांग्रेस में फंसने लगे थे। प्रस्ताव में पारित तीनों काम गांधीजी के मत्थे आ पड़ा।

गांधीजी को फंड इकट्ठा करने का अनुभव तो अफ़्रीका से ही था। कुछ ही दिनों में पांच लाख से ज़्यादा रुपया फंड के नाम आ गया। कांग्रेस के संविधान बनाने का काम भी उन्हें मिला था। अब तक कांग्रेस गोखलेजी के बनाए कुछ नियमों पर चल रहा था। कांग्रेस का कार्यक्षेत्र बढ़ चुका था। अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित होते उसके अनुपालन की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसलिए ज़रूरी था कि कांग्रेस का पक्का संविधान तैयार किया जाए। गांधीजी ने लोकमान्य और देशबंधु से आग्रह किया कि वे अपने प्रतिनिधियों को संविधान समिति में नामित करें। लोकमान्य ने केलकर और देशबंधु ने आई.वी. सेन को नामित किया। एकमत से कांग्रेस का संविधान तैयार हुआ और 1920 की नागपुर कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया।

रौलेट सत्याग्रह का परिणाम और उपसंहार

गांधीजी ने इस सत्याग्रह के लिए लोगों से प्रार्थना और उपवास करने की अपील की थी। इस आह्वान में एक धार्मिकता का भाव था। इसका परिणाम भी ऐसा हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस अपील ने प्रत्येक देशवासी के मर्म को गहराई में जाकर स्पर्श किया था। यह पहला मौक़ा था जब देश के सभी वर्गों के लोग मिलकर खड़े हुए थे। इस विषय पर 'महात्मा गाँधी के जीवन और दर्शन' की चर्चा करते हुए रोमां रोला कहते हैं, "भारत ने अपने आपको ढूंढ लिया था।"

सत्याग्रह का अर्थ है सत्य पर डटे रहना। जो सत्याग्रही होता है, वह विनीत होता है। जो विनीत होता है वह अत्यंत शक्तिशाली होता है। इस आन्दोलन द्वारा गांधीजी के सत्याग्रह रूपी शक्तिशाली अस्त्र से न सिर्फ भारतीय बल्कि ब्रिटिश हुकूमत का भी सामना हुआ। इसका प्रभाव विलक्षण और चमत्कारिक था। इससे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका निबाहने वाला राष्ट्रीय नायक मिल गया। गांधीजी भारत तथा दुनिया में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। उन्होंने रौलेट सत्याग्रह के द्वारा अपने महत्त्वपूर्ण औजार 'सत्याग्रह' की परीक्षा कर ली थी, और उन्हें विश्वास हो गया था कि अब इस सिद्धांत को और व्यापक स्तर पर अमल में लाने की घडी आ चुकी है। उन्होंने अधिकांश भारत को मानसिक रूप से इतना तैयार कर लिया था कि अहिंसक-विरोध प्रदर्शन की संभावना बन गई थी।

रौलेट विधेयक के कारण खुद गांधीजी में भी परिवर्तन आया। सम्राट का यह विनम्र और स्वामिभक्त नागरिक, एक विद्रोही बन चुका था। वे ब्रिटिश राज के प्रति अपनी निष्ठा त्याग चुके थे। समूचे भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए भयंकर नरसंहार ने उनके सामने एक ही विकल्प छोड़ा था, जो था - 'संघर्ष'!

जब हण्टर समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो गांधीजी को लगा कि वह लीपापोती करने की कोशिश से अधिक कुछ न थी। ब्रिटिश संसद में पंजाब पर हुई। बहस सुनने के बाद एक भारतीय संवाददाता ने गांधीजी को लिखा था : "हमारे मित्रों ने अपना अज्ञान प्रकट किया, हमारे शत्रुओं ने अपनी तिरस्कारपूर्ण ढिठाई।" 1919 की घटना, रॉलेट एक्ट, जालियावाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और कुछ नहीं मिलने वाला है। मांटेग्यू-चेम्सफॉर्ड सुझाव भी एक छलावा मात्र ही था। इसका मकसद दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि जनता को राहत देना। दुखपूर्वक, गांधीजी को यह मानना पड़ा कि जिस शासन-प्रणाली को वह सुधारने की कोशिश करते रहे थे, उसका तो अन्त ही करना पड़ेगा। उन्होंने कहा था, "सर्वत्र मज़बूत विरोध के बावजूद रौलेट विधान को अस्तित्व में बनाए रखना राष्ट्र का अपमान है। राष्ट्रीय गौरव की सांत्वना के लिए उसका निरसन (repeal) करना आवश्यक है।" इस क़ानून का आखिरकार निरसन हुआ। दमनकारी कानून समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने मार्च 1922 में रॉलेट एक्ट, प्रेस एक्ट और बाईस अन्य कानूनों को निरस्त कर दिया।

पंजाब के अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर पर्दा डालने में लगी थी। ब्रिटिश संसद ने डायर के कारनामों को उचित करार दिया था। 'मॉर्निन्ग पोस्ट' ने जनरल डायर को अच्छी-खासी रकम भेंट देने के लिए 30 हज़ार पौंड का कोष जुटाया था, चंदा देने वालों में से एक था रुडयार्ड किपलिंग। यह सब देखकर गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था भी चूर-चूर हो गई।

उनका अब मानना था कि ऐसे 'शैतानी' शासन से असहयोग करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। लेकिन 13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी। इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया। गांधीजी ने जब देखा था कि पूरा माहौल हिंसा की चपेट में है, तो 18 अप्रैल 1919 को उन्होंने आन्दोलन वापस ले लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों के कहर से डर गए थे। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए थे। अमृतसर में जो हुआ उससे गांधी ने घोषणा कर दी कि 'शैतानी शासन' के साथ सहयोग अब असंभव था। इस घटना के बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेज़ों की जड़ उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा, जो "रॉलेट सत्याग्रह" से भी अधिक व्यापक था! अब असहयोग आंदोलन का रास्ता तैयार था।

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English summary
Read all about the Rowlatt Satyagraha of 1918. This explainer will help you in different competitive exams including UPSC and SSC.
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