जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक भारत की 75 वर्षों की लंबी यात्रा में भारतीय विदेश नीति प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भारत केंद्रित विचार समेत समय के साथ में परिवर्तित होती रही है। भारत ने अमृत महोत्सव वर्ष तक जो लंबी यात्रा तय की है‚ वह स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत अपने प्रांतों को मजबूत करने‚ बुनियादी ढांचे के पुनÌनर्माण और गरीबी का मुकाबला करने से शुरू की थी‚ अब वह यात्रा रणनीतिक‚ कूटनीतिक एवं आर्थिक रूप से संपूर्ण विश्व के समक्ष मुख्य अभिकर्ता के रूप अपने निराशावादी दृष्टिकोण से आक्रामकतारूपी दृष्टिकोण के रूप में उभर कर आ रही है।
भारत की इस आक्रामकता को समझने के लिए हमें 1962 के इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे जब भारत‚ चीनी सेना के क्रूर हमले के लिए तैयार नहीं था और इसके परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री नेहरू के निराशावादी दृष्टिकोण के कारण बहुत ही अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था। सैन्य बुनियादी ढांचे में पर्याप्त प्रगति न होने के बावजूद इंदिरा गांधी के सत्ता में आने तक भारतीय नेतृत्व विदेश नीति को क्षेत्रीय आधिपत्य के प्रदर्शन करने के लिए पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लाभाषी मुसलमानों को मुक्त करने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया और अमेरिका के प्रतिशोध की आशंकाओं के बावजूद बांग्लादेश बनाकर पाकिस्तान की संप्रभुता को तोड़ दिया।
यह भारत के महान नीतिगत बदलाव को दर्शाता है‚ जिसे कई लोग 'फॉरवर्ड फॉरेन पॉलिसी' कहते हैं‚ जो क्षेत्रीय आधिपत्य की कुंजी है। 21वीं सदी में विश्व व्यवस्था पूरी तरह से बदल गई है‚ भारत की विशाल अर्थव्यवस्था अब भारतीयों को इस सपने को अगले स्तर तक उठाने के लिए और अधिक तीव्रगामी कार्यों को निरंतर आगे बढ़ा रही है। मोदी सरकार ने इस काल में विदेश नीति 'राष्ट्रहित' और 'राष्ट्रीय सुरक्षा' को ध्यान मे रखकर बनाई है।
परिणामतः मोदी सरकार की विदेश नीति में संतुलन‚ सामंजस्यता और योजनाबद्ध नीति का बेजोड़ समावेश देखने को मिलता है। एक तरफ जहां पिछले 10 माह से चल रहे रूस-यूक्रेन विवाद में तटस्थता की नीति के माध्यम से अपने परंपरागत मित्र रूस के साथ रिश्तों को सुगमता से मधुर बनाए रखा है‚ तो वहीं अमेरिका के साथ में भी भारत के रिश्तों को भी विभिन्न कूटनीतिक एवं सामरिक पहलों के माध्यम से नये स्तर पर ले जाने का कार्य हुआ है। इसके साथ-साथ में इस्रायल और ईरान के साथ 'दोस्ती' की नई शुरु आत‚ क्वाड कूटनीति‚ मिशन सागर आदि कुछ अनूठी पहल रही हैं।
वर्तमान परिवेश में भारत की विश्व में स्थिति को देखें तो आभास होता है कि संपूर्ण विश्व के समक्ष वैश्विक महामारी के दौरान एवं उपरांत में की गइÈ चिकित्सा कूटनीति एवं मानवीय सहायता पहलों के माध्यम से भारत 'अंतरराष्ट्रीय राजनीति का केंद्र' बनकर उभरा है। इस सभी के बीच में भारत ने अफ्रीकी देशों के साथ में जो औपनिवेशिक युग के पहले से सदियों पुराने राजनैतिक‚ सामजिक एवं आर्थिक संबंध को निरंतर कूटनीतिक रूप से सक्षम अंतरराष्ट्रीय भागीदार के रूप में स्वयं की छवि को अफ्रीकी देशों समेत विश्व के अन्य देशों के समक्ष मिशन सागर एवं मानवीय सहायता पहल कार्यक्रम के माध्यम से मजबूत किया है।
यह सब बताता है कि अफ्रीकी देशों के साथ प्रगाढ़ होते संबंध भारत की अफ्रीकी महाद्वीप के प्रति रुचि दिखाते हैं। भारत और अफ्रीका महाद्वीप के ऐतिहासिक संबंधों ने हाल के वर्षों में पुनरुधार का अनुभव किया है। परिणामतः 2019-20 में /भारत-अफ्रीका व्यापार बढ़कर लगभग 66.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है‚ जिसमें लगभग 8 भारतीय आयात अफ्रीका से और लगभग 9 प्रतिशत अफ्रीका का आयात भारत से हुआ है। अफ्रीका में भारत के सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्यमों का निवेश बढ़ रहा है‚ जिससे यह अफ्रीका में 8वां सबसे बड़ा निवेशक बन गया है। हाल के वर्षों में भारत ने ऋण और निवेश के अलावा कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए प्रोजेक्ट मौसम‚ मिशन सागर आदि के माध्यम से अ£ीका को पर्याप्त सहायता भी दी है।
वैक्सीन मैत्री पहल के तहत भारत ने अफ्रीका के 42 देशों को मेड इन इंडिया कोविड टीकों की लगभग 24.7 मिलियन खुराक की आपूर्ति की वहीं चीन के विपरीत भारत मानव संसाधन विकास‚ प्रशिक्षण और कौशल विकास‚ आईटी‚ आईटीईएस‚ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी अपनी मुख्य दक्षताओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है‚ जो अफ्रीका में विनिर्माण क्षमता और बुनियादी ढांचे के विकास पर प्रमुख रूप से ध्यान केंद्रित करता है। जबकि अफ्रीका के साथ जुड़ाव का चीन का आÌथक मॉडल आकर्षक लग रहा है‚ और हाल के वर्षों में इसने भरपूर लाभांश भी दिया है‚ अफ्रीका में लोकतांत्रिक प्रथाओं‚ प्रक्रियाओं‚ संस्थानों और लोगों से लोगों के जुड़ाव के लिए भारत के समर्थन का आकर्षण अधिक है।
इसके अलावा अफ्रीका में 3 मिलियन से अधिक मजबूत भारतीय प्रवासी भी भारत के लिए अफ्रीकी देशों के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण रणनीतिक संपत्ति साबित हो रहे हैं। अफ्रीका में आधा दर्जन से अधिक देश रवांडा सहित सबसे तेजी से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं‚ सेनेगल‚ और तंजानिया‚ इसे दुनिया के विकास ध्रुवों में से एक बनाते हैं। पिछले एक दशक में अफ्रीका में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद लगभग दोगुना हो गया है। अफ्रीकी महाद्वीप की आबादी एक अरब से अधिक है‚ जिसकी संयुक्त जीडीपी 2.5 ट्रिलियन डॉलर है‚ जो इसे बहुत बड़ा बाजार बनाती है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत अफ्रीका के साथ संबंध मजबूत करने की दिशा में लगातार प्रयास कर रहा है।
इस सब के बावजूद अफ्रीका महाद्वीप में चीन का आर्थिक प्रभाव भारत से कहीं अधिक है। अफ्रीकी देशों के बीच भारत की विशाल सामाजिक पूंजी मूर्त संबंधों में तब्दील नहीं हुई है और अफ्रीका में चीन के वाणिज्यिक और निवेश पद चिह्न बहुत पहले ही भारत से आगे निकल गए हैं। आज 10 हजार से अधिक चीनी व्यवसाय अफ्रीका महाद्वीप पर काम कर रहे हैं और चीन अफ्रीका का शीर्ष वाणिज्यिक भागीदार है‚ आज वैश्विक परिवेश में चीन इन दिनों तेजी से अपने कर्ज और लालच के जाल में दुनिया के गरीब देशों को फंसा रहा है। चीन की इस डेट ट्रैप डिप्लोमेसी के चक्कर में कई देश बर्बाद होने की ओर बढ़ रहे हैं।
इस सब से पता चलता है कि अफ्रीका महाद्वीप में चीन की कूटनीतिक पहलों को यदि भारत को रोकना है तो उसे नम्य नीति की तुलना में आक्रामक कूटनीति का प्रदर्शन करना होगा। नीतिगत रूप से कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे। सर्वप्रथम अपने सामरिक अभिसरण को सक्षम बनाना होगा। अपने वैश्विक प्रभाव का उपयोग अफ्रीका को वैश्विक रणनीतिक मानचित्र पर स्थान हासिल करने में मदद करने के लिए करना होगा। वहीं‚ चीन की दान कूटनीति की तुलना में भारत को मानवीय सहायता पहल के माध्यम से‚ जो अफ्रीकी जनमानस के साथ में प्राचीन समय से आत्मीय जुड़ाव रहा है‚ उसको तीव्रता के साथ मजबूती देनी होगी। साथ ही‚ अमृत महोत्सव काल में वैश्विक परिवेश में चीन समेत अन्य वैश्विक महाशक्तियों के समक्ष स्वयं को कूटनीतिक आक्रामकता के साथ में मजबूती से रखना होगा एवं अफ्रीकी देशों समेत विश्व के अन्य देशों के साथ में अपने संबंधों को नये सिरे से मधुरता प्रदान करनी होगी।