भारत की आजदी के लिए कई लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी दी है। जिन्हें कभी भूलाया नहीं जा सकता है। जिनकी नाम हमेशा के लिए अमर हो गया है। उनमें से एक हैं महात्मा गांधी और एक हैं भगत सिंह। इस दोंनो महान व्यक्तियों की विचारधारा भले ही अलग-अलग हो लेकिन इनका उद्देश्य एक ही था, भारत की ब्रिटिश शासन से आजादी। शुरुआत में अन्य युवाओं की तरह भगत सिंह भी गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन बाद में उन्होंने भारत तो आजाद कराने के लिए सशस्त्र संघर्ष की वकालत की। आइए इन दोनों महान व्यक्तियों की विचारधारा के बार में जाने और किस तरह इन्होंने अपने अपने स्तर पर आजादी के लिए योगदान दिया।
गांधी जी और उनकी विचारधारा
राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले गांधी जी भारत की स्वतंत्रता के आंदोलनों के प्रमुख नेता थे। उन्होंने कई स्वतंत्रता आंदलनों का नेतृत्व किया था। लाखों लोगों को अपने विचारों से प्रभावित किया और युवाओं को अपने सभी आंदोलनों से जोड़ा। उनके द्वारा चलाए आंदोलनों का केवल एक मक्सद था भारत की आजादी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी सारे मांगे रखी वह भारत की आजादी के साथ विदेश मेंस भारतीयों के सम्मान की भी बात करते थें।
गांधी जी केवल 24 वर्ष के थे जब वह मुस्लिम भारतीय व्यापारीयों के कानूनी प्रतिनिधि बनके दक्षिण अफ्रिका गए थे। दक्षिण अफ्रिका की उनकी यात्रा के दौरान उनके रंग के कारण उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा। उन्होंने दक्षिण अफ्रिका में एक प्रवासी वकील के तौर पर पहली बार अहिंसा सवनिय अवज्ञा का नियोजन किया। जब उन्हें उनके रंग के कारण ट्रेन की प्रथम श्रेणी में बैठने नहीं दिया गया तो उन्होंने इसके खिलाफ अवाज उठाई इसके बाद उन्हें प्रथम श्रेणी में जाने से नहीं रोका गया। डबरन कोर्ट के मजिस्ट्रेट उन्हें अपनी पगड़ी को उतारने का आदेश दिया। इस आदेश को दृढ़ता से मानने से इनकार कर दिया। ये घटना गांधी के जीवन में एक नया मोड़ लाई। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के खिलाफ जातिवाद, पूर्वाग्रह और अन्याय को देखने के बाद, गांधी ने समाज में अपनी जगह और ब्रिटिश साम्राज्य में अपने लोगों की स्थिति पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। इस घटना के बाद से उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने की अपनी मूल अवधि को बढ़ाया ताकि वह भारतीयों को वोट देने के अधिकार से वंचित करने वाले विधेयक का विरोध कर सकें। इस विधेयक पर पुनर्निचार करने के लिए गांधी ने ब्रिटिश औपनिवेशिक सचिव जोसेफ चेम्बरलेन को एक ज्ञापन भेजा। उनके इस कदम ने अफ्रिका में रह रहे भारतीयों की शिकायतों की ओर ध्यान आकर्षित किया। ये बात अलग है कि वोट वह उस विधेयक को पारित होने से रोकने में असमर्थ रहें। 1894 में उन्होंने नेटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना में सहायता की और भारतीय समुदाय को दक्षिम अफ्रिका में एकीकृत कर राजनीतिक ताकत बनाने का प्रयत्न किया।
1906 में एक अधिनियम लागू कर भारतीय आबादी को उपनिवेशों में पंजीकरण करने के लिए मजबूर किया गया। 11 सितंबर 1906 में गांधी जी ने जोहन्सवर्ग में आयोजित जन सभा में सत्याग्रह पद्धति को अपनाया। उन्होंने कानून की अवहेलना करने और उसके दंड को भुगतने के लिए आग्रह किया। इस कानून का विरोध करने वाले भारतीयों को जेल में डाल दिया गया। सरकार द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के साथ दुर्व्यवहार करने के की वजह से जनता में आक्रोश उत्पन्न हुआ। जिससे दक्षिण अफ्रिका के उस समय के नेता क्रिस्टियन स्मट्स गांधी के साथ समझौता करने के लिए मजबूर हुए।
दक्षिण अफ्रिका में 21 साल बिताने के बाद जब गांधी जी भारत वापस आएं तो उन्होंने भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की भावना जगाने का प्रयत्न किया। 1915 में उन्होंने अधिक भूमि-कर और भेदभाव के लड़ने के लिए किसानों और शहरी मजदूरों को संगठित किया। गोपाल कृष्ण गोखले ने गांधी जी को भारत की राजनीतिक परिदृश्य के परिचित होने के लिए और देश की जमीनी हकीकत से रूबरू होने के लिए भारत दौरे पर जाने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए उन्होंने भारत का दौरा किया।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गांधी जी भारतीयों की युद्ध में भर्ती के लिए सहमत थे। इस विचार को कई भारतीयों द्वारा खारिज किया गया लेकिन गांधी जी ने उन्हें युद्ध में शामिल होने के मनाया और इस बात का हवाला दिया कि युद्ध में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करने से सरकार भी आजादी की उनकी मांग को समेझेगी। इसके बाद उन्होंने 1918 में बिहार और गुजरात में चंपारण सत्याग्रह और खेड़ा सत्याग्रह शुरू किया। चंपारण में स्तयाग्रह की शुरुआत नील की खेती के खिलाफ की गई थी। खिलाफत आंदोलने के माध्यम से उन्होंने सभी मुस्लिम समर्थकों को आकर्षित किया और वह इसके बाद बहुसांस्कृति आधार वाले पहले नेता के रूप में उभरे। 1920 से उन्होंने कांग्रेस का नेतृत्व किया। गरीबी मिटाने के लिए उन्होंने कई राष्ट्रव्यापी अभियान चलाए। उन्होंने समानता का भी समर्थन किया और महिलाओं के अधिकारों का विस्तार किया, धार्मिक और जातीय सौहार्द का निर्माण किया, अस्पृश्यता को समाप्त किया और इन सब में सबसे मुख्य उन्होंने स्वराज शासन के लिए लड़ाई की। इसी के साथ उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं को चुन विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। इसी के साथ उन्होंने अदालतों और ब्रिटिश शिक्षण संस्थानों का भी बहिष्कार करने की बात की।
गांधी ने दिसबंर 1928 में कलक्ता कांग्रेस के प्रस्ताव के माध्यम से ब्रिटिश सरकार से भारत को स्वतंत्रता देने की बात की। 1930 में कांग्रेस ने भारत की स्वतंत्रता की घोषणा की लेकिन उनकी इस घोषणा को नकार दिया गया। उसी साल गांधी जी ने दांडी मार्च की शुरुआत की।
1939 में ब्रिटिश द्वारा जर्मनी के साथ युद्ध की घोषणा पर गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार से अपनी सहायता वापस ली। 1942 में तत्काल स्वतंत्रता की गांधी जी की मांग से तनाव बढ़ा और उसी साल उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की शूरू किया। 1947 में आखिरकार भारत को स्वतंत्रा प्राप्त हुई। अपनी इस स्वतंत्रता यात्र में उन्हें कई बार ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार किया गया था। 1947 में स्वतंत्रता के समय दो राष्ट बने एक भारत और एक मुस्लिम राष्ट यानी पाकिस्तान। गांधी जी ने धार्मिक सद्भावना को बढ़ाने के लिए कई अनशन किए। 30 जनवरी को हिंदू राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी जी की गोली मार कर हत्या कर दी गई।
गांधी जी ने अपने पूरे जीवन काल में सत्य और अहिंसा को ही स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए एकमात्र हथियार बनाया और इसके माध्यम से उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त की।
भगत सिंह और उनके विचार
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 में पंजाब के एक सिक्ष परिवार में हुआ था। उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है। वह एक ऐसे परिवार से थे जो ब्रिटिश राज के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहा था। एक किशोर के रुप में वह अराजकतावादी और मार्क्सवादी विचारधाराओं से प्रभावित हुए। उन्होंने अपने बचपन में कई घटनाएं होती हुई देखी थी जिससे वह प्रभावित हुए और उनके अंदर भी अपनी परिवार के अन्य सदस्यों कि तरह देश भक्ति की भावना पैदा हुई। ब्रटिश शासन से आजाद होने की बात उनके जीवन और दिमाग में इस तरह से बैठी की उन्होंने गोलियों की फसल लगाने के लिए खुदाई की। एक समय वह अपने पिता के साथ खेतों में गए वहां उन्होंने खुदाई करनी शुरू की तो उन्हें ये करते देख उनके पिता ने उनसे पूछा तो भगत सिहं ने जवाब देते हुए कहा कि गोलियां बो रहें है जब वह फसल की तरह उग जाएगी तो उसे काट लेंगे और इसके इस्तेमाल से भारत को स्वतंत्र बनाया जाएगा। इसके बाद 1919 में जब वह 12 साल के थे तो उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड जहां हुआ था उस जगह का दौरा किया। भगत सिंह भी भारत के उन युवाओं में से एक थें जिन पर गांधी जी का प्रभाव था। इसी प्रभाव के कारण वह गांधी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन में शामिल हुए और एक सक्रिय भूमिका निभाई। 1922 में चौरी चौरा घटना के बाद जैसे ही ये आंदोलन बंद हुआ तो भगत सिंह का गांधीवाद से भरोसा उठ गया और वह सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्ष की ओर बढ़ने लगे। इसके बाद उन्होंने अग्रेजों को भारत की जमीन से निकालने के लिए हिंसक विचारधारा की वकालत की। 1926 के दौरान उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी युवा संगठन, नौजवान भारत सभा की स्थापना की। इसी अलावा वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में भी शामिल हुए, जो बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन बना। इस एसोसिएशन में राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्र शेखर आजाद और अशफाक उल्ला खान शामिल थे। लगातार भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता को देख ब्रिटिश सरकार परेशान होने लगी और उसे फंसाने के प्रयास करने लगी। और मौका मिलते ही उन्हें 1926 में हुई बमबारी के लिए मई 1927 में गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के करीब 5 हफ्तों के बाद उन्हें 60,000 रुपये की जमानत पर रिहा किया गया। यहां से रिहा होने के बाद उन्होंने अमृतसर में प्रकाशित होने वाले उर्दू और पंजाबी अखबारों में लिखने और उन्हें संपादित करने का कार्य किया। इसके साथ दिल्ली में प्रकाशित होने वाले अर्जुन अखबार और कीर्ति किसान पत्रिका में भी लिखा। एचएसआरए द्वारा दिल्ली में एक भारतीय बैठक का आयोजन किया गया था। इसमें वह एस सचिव थे लेकिन बाद में इसके नेता बने।
साइमन कमीशन के खिलाफ हुए अहिंसक विरोध में लाला लाजपत राय की मृत्यु के बाद उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से बदला लेने की कसम ली, उनके साथ इस कसम में राजगुरु, सुखदेव थापर और चंद्रशेखर आजाद जैसे अन्य क्रांतिकारियों भी शामिल हुए। लाला लाजपत राय की मृत्यु के लिए जिम्मेदार स्कॉट को मारने के लिए एक साजिश रची। इन घटनाओं के बाद से वह देश को आजाद करने के लिए लगातार आगे बढ़ते रहें। 17 दिसंबर 1928 में लाहौर जिला पुलिस मुख्यालय के बाहर राजगुरू और सिंह द्वारा जॉन पी. सॉन्डर्स की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। ये हत्या एक गलत पहचान की वजह से हुई थी। गांधी और कांग्रसे के कई नेताओं ने इस घटना की निंदा की गई। इसके बाद अपने अन्य साथी बटुक-श्वर दत्त के साथ उन्होंने क्राति के नारे लगाते हुए केंद्रिय विधान सभा में दो बम फेंके और आत्मसमर्पण किया। इस घटना के लिए उन्हें 14 साल का आजीवन कारावास मिला।
अप्रैल 1929 में लाहौर में बम कारखाना खोजने के बाद एचएसआरए के दूसरे सदस्यों को भी गिरफ्तार किया गाया। सौंडर्स की हत्या के मामले पर फैसला न हो जाने तक बम मामले की आजीवन कारवास की सजा को टाला गया और उन्हें दिल्ली जेल से मियांवली जेल में शिफ्ट किया गया। मियांवली जेल में यूरोपीय और भारतीयों कैदियों के साथ हो रहे भेदभाव के लिए भगत सिंह ने आवाज उठाई और अन्य भारतीय कैदियों के साथ भूख हड़ताल की। इसी के साथ उन्होंने खाने, कपड़ों और प्रसाधन सामग्री की मांग की और साथ ही राजनीतिक कैदियों के लिए दैनिक अखबार और किताबों की भी मांग रखी। जेल में उन्होंने 116 दिन की भूख हड़ता रखी। उनके इस कदम से भापरतीयों के बीच उनकी लोकप्रियता और बढ़ी।
सौंडर्स की मृत्यू के मामले में उन्हें दोषि सिद्ध किया और 24 मार्च 1931 कि तिथि को फांसी देने की सजा सुनाई गई। फांसी कि तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को उन्हें शाम 7:30 बजे उनके साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी दी गई।
भगत सिंह फांसी से पहले एक अंतिम पत्र में लिखा कि- "मुझे युद्ध छेड़ते हुए गिरफ्तार किया गया है। मेरे लिए कोई फाँसी नहीं हो सकती। मुझे तोप के मुँह में डाल दो और मुझे उड़ा दे।"
उनकी लोकप्रियता को स्वीकार करते हुए जवाहरलाल नेहरु ने कहा- "वह एक स्वच्छ सेनानी थे जिन्होंने खुले मैदान में अपने दुश्मन का सामना किया ... वह एक चिंगारी की तरह थे जो कुछ ही समय में एक ज्वाला बन गई और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गई और हर जगह व्याप्त अंधकार को दूर कर दिया।"