Joshimath UPSC: उत्तराखंड के जोशीमठ में पहाड़ों के दरकने से लोगों में काफी खौफ है। भू-धंसाव से उत्पन्न भयावह स्थिति फिर पुराने घाव हरे करने को तैयार है। हिमालयी क्षेत्रों को हर साल ऐसे ही संकट का सामना करना पड़ता है। प्रकर्तिक आपदाओं का इतिहास नया नहीं है। साढ़े तीन हजार साल पहले हिमालय पर मानव के पदार्पण के साथ ही उसे हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकी‚ उसकी सक्रिय विवर्तनिकी और विकट मौसमी चरम स्थितियों से जूझना पड़ा होगा परंतु इस सब का विरोधाभासी पहलू यह भी है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही हिमालय में आपदाओं की संख्या और आकार में कमी की बजाय कई गुना वृद्धि हुई है। चाहे जितना भी नजरअंदाज करें परंतु विकास के प्रचलित मॉडल के औचित्य पर यह प्रश्न चिह्न है।
जोशीमठ में जो हो रहा है‚ उसकी भूमिका पिछली आधी सदी से भी अधिक समय से बन रही थी। असल में उत्तराखंड सहित हिमालय के क्षेत्रों में पिछले दशकों में जो हो रहा है‚ वो विकास नहीं‚ वृद्धि है‚ अनियोजित-अनियंत्रित वृद्धि। विकास का तो मानवीय पहलू है‚ यह वैज्ञानिक और सुनियोजित तौर पर मानव की जीवन शैली का स्तर उठाने की क्रिया शैली है। यह जो वृद्धि है‚ बेतरतीव वृद्धि है। जोशीमठ के भूस्खलन की समस्या पर गठित मिश्र समिति की जो रिपोर्ट 1976 में सरकार के सुपुर्द की गई थी‚ उस पर अमल न करके हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है।
जोशीमठ का सवाल इसलिए बड़ा है क्योंकि यह ऐतिहासिक‚ पौराणिक और सांस्कृतिक नगर है। यह इसलिए भी बड़ा है क्योंकि यह संकट लगभग चालीस हजार लोगों की जिंदगी‚ जीवनचर्या और उनके भविष्य पर है। परंतु जोशीमठ ही बर्बाद हो रहा हो‚ ऐसा नहीं है। जोशीमठ जैसी स्थिति की जद में उत्तराखंड के कई कस्बे और सैकड़ों गांव हैं। उत्तराखंड ही नहीं‚ बल्कि संपूर्ण हिमालय की सैकड़ों बस्तियों में यह संकट मंडरा रहा है। यह भी तथ्य है कि सभी पर मंडरा रहे इस संकट के कारण भी कमोबेश एक जैसे हैं।
भूस्खलन के मलबे पर बसा शहर
यह बात सभी को ज्ञात हो गई है कि वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही बता दिया था कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलबे में बसा हुआ कस्बा है। यहां भूस्खलन की घटनाओं का इतिहास बहुत पुराना है। इतिहास में संदर्भ आता है कि सातवीं ईस्वी में कत्यूरवंशी राजाओं ने इस नगरी को अपनी राजधानी बनाया था। लेकिन दसवीं सदी में यहां भूस्खलन होने के कारण कत्यूरियों ने यहां से अपनी राजधानी अन्यत्र विस्थापित कर दी थी। 1939 में स्विस वैज्ञानिक प्रो. हेम तथा प्रो. गानसर नें भी अपनी पुस्तक 'सेंट्रल हिमालया' में लिखा है कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलबे में बसा हुआ है। भूस्खलन की घटनाओं के बाद तत्कालीन गढ़वाल आयुक्त महेश चन्द्र मिश्र की अध्यक्षता में बनी एक कमेटी ने 1976 में उत्तर प्रदेश सरकार को एक रिपोर्ट जमा की थी।
इसमें सुझाव था कि जोशीमठ में निर्माण कार्यों को बहुत नियंत्रित करने की आवश्यकता है। वहां मलबे में स्थित बड़े-बड़े शिलाखंडों से छेड़छाड़ न करने की सलाह भी थी। ब्लास्टीङ्ग्स और पेड़ों के कटान पर पूर्ण प्रतिबंध की सिफारिश भी की गई थी। ये सब सुझाव ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। जोशीमठ में बेहिसाब निर्माण कार्य किए गए‚ ढलानों पर अंधाधुंध छेड़छाड़ की गई। सेना और आईटीबीपी के बड़े प्रतिष्ठान स्थापित किए गए। औली नया पर्यटन हब बन गया‚ वहां भी ढलानों पर छेड़छाड़ की गई। जोशीमठ में घरेलू जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं की गई। जो प्रोजेक्ट्स सरकारों ने हालिया सालों में इस क्षेत्र में प्रारंभ किए और जो निर्माणाधीन हैं‚ वे अस्थायी ढालों के लिए भी अपशगुनी साबित हुए हैं।
दर्जनों कस्बों पर अंदेशा का साया
यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि जोशीमठ अकेला नहीं है‚ जो ध्वस्त होने की कगार पर है। पूरे हिमालय विशेषकर उत्तराखंड में दर्जनों कस्बे हैं‚ जो टाइम बम पर बैठे हैं। उत्तराखंड का केस इसलिए भी विशेष है क्योंकि भूविज्ञानियों के अनुसार संपूर्ण हिमालय में उत्तराखंड क्षेत्र ही है जहां आठ से अधिक विराटता के भूकंप आने की सर्वाधिक संभावना है। इसी कारण भूवैज्ञानिक इस क्षेत्र को सेंट्रल सिस्मिक गैप की संज्ञा देते हैं‚ और कोढ़ में खाज यह कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भवन निर्माण में साधारण मानकों का भी पालन नहीं हुआ है। देहरादून‚ हल्द्वानी जैसे इलाकों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। 2015 के निपल भूकंप में देखने में आया कि भूकंप का केंद्र भले ही उत्तर में पहाड़ों में रहा हो‚ लेकिन अधिकांश विध्वंस तराई क्षेत्रों में हुआ।
मतलब यह तय है कि बड़े भूकंप की दशा में देहारादून‚ कोटद्वार‚ ऋषिकेश‚ हल्द्वानी‚ रामनगर‚ चंपावत आदि शहरों में व्यापक विध्वंस की संभावना है। 26 जनवरी 2000 को गुजरात के भुज शहर में जो भूकंप आया था‚ उसमें बड़ी संख्या में स्कूली छात्र-छात्रा हताहत हुए थे। उत्तराखंड के पहाड़ों में स्कूल-कॉलेज सबसे अधिक संवेदनशील हैं। अधिकांश स्कूल असुरक्षित स्थान पर और घटिया निर्माण के कारण बहुत ही असुरक्षित हैं। लचर स्वास्थ्य सेवाएं‚ आपदा से निपटने की जानकारी का अभाव‚ वस्तियों की अनियंत्रित और अनियोजित वृद्धि‚ उत्तराखंड को कुल मिला कर बहुत असुरक्षित क्षेत्र बनाते हैं।
सैकड़ों गांव हैं‚ जिनके लिए विभिन्न अध्ययनों और सर्वे में सिफारिश की गई है कि इनको तत्काल सुरक्षित स्थानों पर पुनर्वासित किया जाए। हमने अपने अध्ययनों में पाया है कि दर्जनों कस्बे और सैकड़ों गांव भूस्खलन संभावित स्थितियों की जद में हैं। सुदूर पूर में काल से लेकर पश्चिम में कालिंदी (यमुना) तक बीस-बाईस नदी घाटियों में कई बस्तियां हैं‚ जो प्राकृतिक तौर पर भी और मानवीय क्रियाकलाप से भी भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील स्थितियों में हैं। पिछले बाईस वर्ष में उत्तराखंड में चालीस-पैतालीस हजार किमी अतिरिक्त सड़कों का निर्माण हुआ है।
सड़कों के निर्माण में मानकों की व्यापक अनदेखी होती है। मेरा आकलन है कि पिछले दो दशक में अकेले सड़कों के निर्माण के कारण ही कम से कम तीन हजार गांव-कस्बे भूस्खलन की विभीषिका के मुहाने पर आ गए होंगे। इसके अलावा‚ बांध परियोजना और रेलवे परियोजना के दुष्परिणाम अलग से होंगे। कुल मिलाकर उत्तराखंड बेहद अनियोजित विकास के कारण अपूरणीय क्षति के कगार पर खड़ा है। इस बात की भी संभावना नजर नहीं आती कि जोशीमठ की त्रासदी से सबक लेकर अब सरकारें कुछ बड़े कदम उठाएंगी। जब हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं लिया 2021 की ऋषिगंगा आपदा से कोई सबक नहीं लिया तो जोशीमठ से क्या सबक लेंगे।