संविधान दिवस के मौके पर हम आपके सामने कुछ ऐसे बिंदु प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आपको संविधान पर लेख लिखने, भाषण यानि स्पीच तैयार करने या फिर वाद-विवाद अथवा डिबेट के लिए तैयारी करने में कारगर साबित हो सकता है...
सामान्य अर्थ में संविधान का अर्थ कोई भी समझ सकता है कि समान विधान करने की प्रक्रिया ही एक संकलित पुस्तक में उल्लिखित है और इस पुस्तक को संविधान जैसा नाम 26 नवंबर 1949 को दिया गया। इसे प्रभावी 26 जनवरी 1950 से माना गया। इस विधिक ग्रंथ के बनने के बाद यह मान लिया गया कि आदर्श स्थिति में अब नागरिक जन्म के बाद समानता के उस पंक्ति में खड़ा होगा जहां ना कोई छोटा होगा ना बड़ा होगा मर जाती होगी ना रंग होगा ना लिंगभेद होगा कोई किसी के सार्वजनिक जगहों पर आने जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकेगा।
जीवन जीने का सभी को मूल अधिकार होगा। स्वास्थ्य का मूल अधिकार, आवास का अधिकार, भोजन का अधिकार, समानता का अधिकार होगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी, बिना वजह कोई किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेगा। लेकिन इसी संविधान के अनुच्छेद 368 के माध्यम से अब तक मूल संविधान में किए गए संशोधन यह बताते हैं कि अपने बनाए जाने के समय से लेकर आज तक भारत की काल परिस्थिति के अनुसार संविधान कभी भी आदर्श स्थिति में नहीं रहा। उसमें एक अपूर्णता को हमेशा महसूस किया गया और यह पूर्णता कहीं ना कहीं मानव के अधिकारों के रूप में चित्रित रही जिसे यदि सामान्य अर्थ में मानवाधिकार हनन कहकर समझा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी और इस तथ्य को तक ज्यादा मुखर रूप से समझा जा सकता है।
जब उसी संविधान के अनुच्छेद 32 में देश की सर्वोच्च न्यायालय में रिट के माध्यम से संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए लोगों ने दरवाजा खटखटाना जब आरंभ किया तो विलंबित मामलों के इतने संग्रह हो गए कि स्वयं मूल अधिकारों की सुरक्षा संरक्षा को देने वाला सर्वोच्च न्यायालय मानवाधिकार हनन का एक कारक बन बैठा। यही नहीं देश के हर राज्य के उच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपने अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए भारत के नागरिकों के इतने मामले विलंबित हो गए कि न्याय का दरवाजा स्वयं मानवाधिकार हनन का एक बड़ा कारक बन गया।
फिर भी, हम संविधान दिवस के दिन इस बात को महसूस करके किवी लंबित मामलों के होते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय मानवाधिकार के ही प्रहरी हैं इस बात पर संतोष करते हैं कि प्रजातंत्र में लोगों के अधिकारों की अनदेखी नहीं होती है। उन सब से आगे बढ़कर संसद में चीन मानव के नागरिकों के अधिकार को हनन होता देखकर जनप्रतिनिधि कानूनों की श्रंखला बनाते हैं संविधान में अनुच्छेद 368 में संशोधन करते हैं।
वह सभी संशोधन व सभी कानून कभी भी एक आदर्श स्थिति में समानता के अधिकार को स्थापित नहीं कर पाए स्वयं संविधान में इस बात की व्यवस्था दिखाई देती है। और यह मान लिया गया है कि भारत में रहने वाला नागरिक एक समान नहीं है।
वहां पर स्तरीकरण की पद्धति है और सभी को प्राकृतिक न्याय के विपरीत एक सामान्य स्थिति में लाने का प्रयास आरक्षण के द्वारा विशिष्ट आर्थिक योजनाओं के द्वारा शैक्षिक योजनाओं के द्वारा जो किया जा रहा है।
उससे समाज में मानवाधिकार हनन के नए प्रकार ज्यादा पैदा हुए हैं एक संप्रदायिकता वैमनस्यता मानसिक विकृति आदि को जन्म मिला है लेकिन फिर भी एक घर की परिभाषा में चारदीवारी के अंदर फटे हाल भूखे नंगे विपन्नता से ग्रस्त रहने वाले लोगों के तेरा ही या बात सदैव से काफी समझी गई है कि इस देश को संविधान द्वारा आच्छादित किया गया है। और उस संविधान की प्रस्तावना के प्रथम शब्द हम की एक विशद व्याख्या है।
वह बात अलग है कि हम में एक स्तरीकरण दिखाई देता है जाति पर आधारित विभिन्न दिखाई देता है धर्म पर आधारित विभेद दिखाई देता है, लेकिन उस हमको एक आदर्श स्थिति में स्थापित करने से हम हर दिन कोसों दूर हो गए हैं जो हमारे सामने संविधान दिवस के सच को सामने लाता है।
यदि संविधान के अनुच्छेदों के प्रकाश में एक सामान्य विश्लेषण किया जाए तो आज देश में भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन करने के बाद भी एक सामान्य भाषा का भाव है भाषा को छिन्न-भिन्न करके एक प्रतिस्पर्धा एक वैमनस्यता का माहौल बनाया गया है। जिन अनुच्छेदों के आधार पर हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए था वह आज तक नहीं बन पाई। जो बताता है कि भारत में लोगों के मन में भाषा के आधार पर क्षेत्र के आधार पर धर्म के आधार पर जो वैमनस्यता है जो हीन भावना है। वह 70 साल बाद भी पल्लवित हो रही है लेकिन इन सब से मानवाधिकार की स्थापना को बल मिलने के बजाय मानवाधिकार हनन की प्रक्रिया को ज्यादा ताकत मिली है।
यह जानने के बाद भी की एक समुद्र में रहने वाले सभी जलचर एक सतह पर कभी भी एक साथ नहीं रह सकते हैं। एक काल्पनिक और आदर्श स्थिति के कल्पना में भारतीय संविधान में सदैव ही सभी लोगों को सामाजिक आर्थिक आधार पर समान बनाने की जो कवायद चल रही है। उससे सिर्फ एक संघर्ष की स्थिति ही सदैव बनी रहती है संविधान में दिए गए प्रावधानों के अनुरूप कभी भी या व्यवस्था दिखाई ही नहीं देती है कि व्यक्ति के जीवन में कभी वह स्थिति भी आएगी जब उसके जीवन में आर्थिक विपन्नता नहीं होगी, जब उसे आरक्षण की जरूरत नहीं होगी।
यह व्यक्ति के जन्म लेने की तरह एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था है जिसमें यदि व्यक्ति को एक बार आरक्षित मान लिया गया तो वह अपने पूरे जीवन काल में आर्थिक रूप से शैक्षिक रूप से सक्षम होने के बाद भी आरक्षण का लाभ स्वयं लेता है अपने परिवार को देते अपनी पीढ़ी को देता है। इसके कारण भारत में कभी भी वास्तविकता के धरातल पर उन लोगों के बीच में भी समानता नहीं दिखाई देती जिन को आधार बनाकर आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई है।
एक तरफ शैक्षिक स्तर पर जनजातियों का विश्लेषण अलग है और संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से घोषित किए जाने वाले जनजातियों की एक लंबी श्रंखला है, देश की स्वतंत्रता के समय सिर्फ 212 जनजातीय समूह इस देश में चिन्हित किए गए थे।
आज देश में 700 से ज्यादा जनजातीय समूह रहे यदि जनजातीय समूहों को परिभाषा के धरातल पर विश्लेषण किया जाए तो यह एक हास्यास्पद स्थिति लगती है कि स्वतंत्रता के 70 साल बाद देश जनजातीय भारत की तरफ ज्यादा बढ़ा है। जो हमारे संवैधानिक त्रुटियों का ही परिणाम है संविधान के अनुच्छेद 342 में जिन लोगों को चिन्हित करके जनजाति बनाया गया। उनके कभी भी जनजातीय श्रेणी से बाहर रखने के कोई प्रयास नहीं हुए, जबकि मीणा, भील, गोंड, थारू जैसी जनजातियों में आर्थिक स्थिति के आधार पर शैक्षिक स्थिति के आधार पर लोग अब बहुत आगे जा चुके हैं।
यही कारण है कि संविधान दिवस की व्याख्या करने में कभी इस बात का विश्लेषण किया ही नहीं गया किस संविधान में प्रतिदिन होने वाले संशोधन और संविधान के अनुच्छेदों के प्रकाश में पढ़ने वाले सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या से लोगों के मानवाधिकार हनन का कार्य ज्यादा हो रहा है।
आज संविधान में संशोधन से ज्यादा इस बात की आवश्यकता है कि अनुच्छेदों में जो कुछ लिखा है उस पर वास्तविक अर्थ में कार्य किया जाए। केवल आभासी न्याय प्रक्रिया के अंतर्गत इस बात को बताना कि आज कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है, उच्च न्यायालय जा सकता है, सिर्फ एक गाल बजाने जैसा है 10 साल 20 साल तक न्याय ना मिलना भी मानवाधिकार हनन है संविधान को बनाने का उद्देश्य जिस संप्रदायिकता विहीन समाज का निर्माण था जिस धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण था।
उसको तलाशना जरूरी है जिस तरीके से धर्म संविधान के अनुच्छेदों का सहारा लेकर देश में जनसंख्या असंतुलन पैदा कर रहे हैं देश में अपने धर्म के प्रचार के आधार पर समाज को आधुनिक दिशा की ओर ले जाने के बजाय कट्टरपंथ की ओर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।
जिस तरह से संविधान के अनुच्छेदों के प्रकाश में धर्मों की स्थापना और उनकी शिक्षा के लिए देश के राजस्व का अनावश्यक उपयोग हो रहा है उससे इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि मानवाधिकार हनन को रोकने के लिए सबसे पहले संविधान के अनुच्छेदों का विश्लेषण किया जाना चाहिए उन अनुच्छेदों को या तो समाप्त कर दिया जाए या उन अनुच्छेदों का उपयुक्त संशोधन किया जाए जो सही तरह से विश्लेषक होकर समाज को देश को अस्थिर कर रहे हैं संविधान दिवस पर संविधान के अनुच्छेदों के माध्यम से किस तरह नागरिकों का मानवाधिकार हनन हो रहा है आज इस बात के विश्लेषण और विमर्श की सबसे ज्यादा आवश्यकता है और यही विमर्श हमें सच्चे संविधान दिवस को मनाने और उसे स्थापित करने की ओर ले जा सकता है