भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। सन 1885 से लेकर 1947 अर्थात देश आजाद होने तक महिलाओं ने देश के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अपना अहम योगदान दिया है। आजादी के लिए विद्रोह में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रत महल जैसी वीरांगनाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया। करियर इंडिया के विशेषज्ञ आईओएफएस मनोज कुमार द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे इस लेख में भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका की विस्तृत चर्चा की गई है। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने वाले उम्मीदवार इतिहास के इस अध्याय में अपनी सर्वश्रेष्ठ तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं। भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका पर विस्तार से चर्चा करने से पहले प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गए सवालों पर डालिए एक नजर-
2016 : भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं ने कौन-सी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई?
2020 : "20वीं शताब्दी के प्रारंभ में अनेकों स्त्री संगठन अस्तित्व में आए जिन्होंने जन क्षेत्र में बहुत सक्रियता से कार्य किया तथा अपना ध्यान अधिक प्रत्यक्षता से स्त्रियों के राजनीतिक तथा कानूनी अधिकारों पर केन्द्रीत किया।" समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका 19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधार आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा हुआ है। साम्राज्य विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन अनेक चरणों से गुज़रा। 1857 के विद्रोह ने सबसे पहले औपनिवेशिक शासन को सबसे बड़ी चुनौती पेश की। इस विद्रोह में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रत महल जैसी वीरांगनाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया। लेकिन सही मायने में भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए पहला आंदोलन समाज में मौजूद अंधविश्वासों और सदियों से चली आ रही सती प्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा जैसी परंपराओं को समाप्त करने के उद्देश्य पर केंद्रित था।
1857 की क्रांति के बाद भारत में हो रहे परिवर्तनों ने नवजागरण की पृष्ठभूमि तैयार की। उस पृष्ठभूमि पर 19वीं शताब्दी के विभिन्न सुधार एवं पुनरुत्थान आंदोलनों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। महिलाओं की दशा सुधारने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, ताराबाई शिंदे, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडिता रमाबाई, जैसे अनेक समाज सुधारकों ने आन्दोलन चलाया। इन समाज सुधारकों के प्रयासों के कारण और आधुनिक मूल्यों और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से रूढिवादी मान्यताएं टूटने लगी थी। समाज के बंधन ढीले पड़े और स्त्रियों की दुनिया को घर-गृहस्थी के बाहर नया विस्तार मिला। महिलाओं में जागरूकता आई और वह अपने अधिकारों के प्रति पहले से अधिक सचेत हुईं। अब महिलाएँ अपने अधिकारों के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निबाहने लगीं।
भारतीय राजनीति में महिला (1885-1947)
नव जागरण के सद्प्रयासों से महिलाओं में परिवर्तन आया। इन परिवर्तित महिलाओं ने 1880 के दशक में अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना शुरू कर दिया। वह अपनी अधीनता की स्थिति के लिए जिम्मेदार कारकों पर प्रश्न करने लगीं। 1882 में ताराबाई शिंदे ने एक पुस्तक 'स्त्री-पुरुष तुलना' लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आलोचना की थी। उस ज़माने के हिसाब से यह एक बहुत बड़ा क़दम था। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से महिलाओं को एक राजनीतिक मंच मिला। कांग्रेस की स्थापना के कुछ वर्षों के भीतर ही महिलाएं इसके अधिवेशनों में भाग लेने लगीं। 1889 में कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में दस महिला प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हालाकि इस अधिवेशन में उन्हें प्रस्तावों पर बोलने और मत देने की आज्ञा नहीं दी गई, फिर भी इसने भविष्य में होने वाले अधिवेशनों में उनकी और अधिक सक्रिय भागीदारी का रास्ता खोल दिया।
सन 1890 के कलकत्ता अधिवेशन में उपन्यासकार स्वर्ण कुमारी घोषाल और पहली महिला स्नातक श्रीमती कादम्बिनी गांगुली ने न सिर्फ भाग लिया बल्कि अधिवेशन को संबोधित भी किया। इस घटना ने उत्प्रेरक का काम किया और अपने घरेलू कार्यों का निर्बहन करते हुए राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढने लगी। सावित्रीबाई फुले और पंडिता रमाबाई ने औपनिवेशिक पितृसत्तात्मक व्यवस्था का खुलकर विरोध किया। पं. रामाबाई ने ब्राह्मण होते हुए भी शुद्र पुरुष से विवाह किया और विधवा होते हुए भी सार्वजनिक जीवन को नहीं त्यागा, बल्कि चुनाव भी लड़ीं। रस सुंदरी देवी ने अपने खुद के प्रयत्नों से न सिर्फ शिक्षा अर्जित की बल्कि आत्मकथा लिखने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
बंग-भंग आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी
1905-06 के बंग-भंग आन्दोलन के दौरान बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियों की भागीदारी देखी गई। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में बंगाली हिन्दुओं और बंगाली मुस्लिमों ने एक-दूसरे के हाथों में राखियाँ बाँधी। स्वदेशी बहिष्कार के आन्दोलन में महिलाओं ने रैलियाँ की और जुलूसें निकली। धरने में शामिल हुईं। अपने हाथों की चूड़ियाँ तोड़कर अपना विरोध प्रकट किया। रसोई-बंदी दिवस मनाया। पिकेटिंग किया और विदेशी सामानों का बहिष्कार किया। स्वदेशी मेला लगाना शुरू किया। श्रीमती सरला देवी घोषाल उस दौर की सबसे जुझारू महिला थीं। 1895 में उन्होंने 'भारती' नामक पत्रिका के संपादक का पदभार ग्रहण किया। इसके द्वारा वह महिलाओं को जागृत करने का प्रयास करने लगीं। सरला देवी ने लक्ष्मी भंडार खोला। स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेकर महिलाओं ने राष्ट्रवादी आन्दोलन को मज़बूत बनाया। उन्होंने आन्दोलन के लिए धन के साथ-साथ अपने जेवर भी दिए। वेदाकुमारी और आज्ञा देवी ने महिलाओं को संगठित कर विदेशी कपड़ों की होली जलाई।
1907 में कुमुदनी मित्रा ने 'सुप्रभात' नामक पत्र निकालना शुरू किया जिसमें मां काली, भारत माता और क्रान्ति के संबंधों को दोहराया गया था। 1909 में लाहौर में महिलाओं ने अपना अलग 'महिला खंड' की स्थापना की। सुशीला देवी ने स्यालकोट में स्त्रियों को स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। कामिनी राय 'बंग महिला समिति' में शामिल हुई और समाज सुधार के लिए अनेक काम किए। वह एक कन्या पाठशाला भी चलाती थीं। उन्होंने 'अघोरी कामिनी नारी समिति' की स्थापना की जिसके तहत उन्होंने चाय बागान मालिकों द्वारा महिला श्रमिकों के शोषण के विरुद्ध अभियान चलाया। 1910 के बाद से क्रांतिकारी महिलाएं महिला अधिकारों के मुद्दों पर होने वाले आन्दोलनों में अधिक सक्रिय नज़र आईं। 1913 में कुमुदनी मित्रा ने बुडापोस्ट में संपन्न इंटरनेशनल विमेंस कांफ्रेंस में भारतीय स्त्रियों का प्रतिनिधित्व किया। 1917 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षा थीं एनी बेसेंट और मंच पर उनके अलावा सरोजिनी नायडू और अली बंधुओं की मां बी अम्मा भी मौजूद थीं।
राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की समस्याओं को मिली प्रमुखता
गांधीजी ने 15 अप्रैल 1917 को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा। हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इनमें से आधी औरतें थीं। ये औरतें घूंघट और पर्दे में गांधीजी से मुखातिब थीं। औरतों ने अपने ऊपर हो रहे जुल्म की कहानी उन्हें सुनाई। उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें पानी लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है। उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है। उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है। उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए दिन-रात यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है।
गांधीजी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभालने के साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की समस्याओं को प्रमुखता दिया जाने लगा। गांधीजी की प्रेरणा से सभी वर्गों के लोगों ने आज़ादी के संघर्ष में बढ़-चढ कर भाग लिया। महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं। इसका कारण यह था कि गांधी जी की सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की नीति महिलाओं के स्वभाव के अनुकूल थी। गांधीजी यह मानते थे की भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को जन आन्दोलन बनाने के लिए महिलाओं की भागीदारी बहुत ही महत्वपूर्ण है। गांधीजी के आह्वान पर महिलाओं ने न केवल शांतिपूर्ण आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, बल्कि क्रांतिकारी गतिविधियों में भी सक्रिय भूमिका निभाई।
महिलाओं को मताधिकार मिला
1919 में एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू और हीराबाई टाटा ने संयुक्त प्रवर समिति के सामने महिलाओं के लिए मताधिकार की मांग रखी जिसका परिणाम यह हुआ की उन्हें उसी वर्ष महिलाओं को मताधिकार मिला। 1920 के दशक में असहयोग आन्दोलन के दौरान महिलाओं के अंदर जो राष्ट्र चेतना जगी उसने यह साबित किया कि महिलाएं स्वाधीनता के लिए और अपने अधिकारों के लिए सभी प्रकार के बंधनों बाहर निकल कर लड़ाई लड़ सकती हैं। वे न सिर्फ राजनीतिक लडाइयां लड़ रही थीं बल्कि गांधीजी के रचनात्मक, खादी और चरखे के, कार्यक्रमों में भी अपनी पूरी भागीदारी निभा रही थीं। असहयोग के राष्ट्रीय आन्दोलनों में स्त्रियों का सम्मिलित होना भारतीय स्त्रियों की मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। भारतीय घरेलू महिलाएं राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही थीं। सिर्फ हिन्दू महिलाएं ही नहीं मुस्लिम महिलाएं भी असहयोग आन्दोलन से जुड़ीं। अली बंधुओं की मां बी अम्मा ने विभिन्न जगहों का दौरा कर हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रचार किया। 1922 में शिमला में उन्होंने 'ऑल इंडिया लेडीज़ कांफ्रेंस' में शामिल 6000 महिलाओं को संबोधित करते हुए कहा कि यदि पुरुष गिरफ्तार हो जाएं तो आन्दोलन की बागडोर महिलाओं को संभाल लेना चाहिए।
राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं की अधिक सक्रियता
1920 के बाद भारतीय महिलाओं ने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न संगठन स्थापित करना शुरू कर दिया जिसके कारण राजनीतिक क्षेत्रों में उनकी और अधिक सक्रियता नज़र आने लगी। इसके पहले भी ऐसे प्रयास हुए थे, जैसे कि 1901 में सरला देवी ने 'भारतीय स्त्री महामंडल' की स्थापना की थी और 1908 में 'महिला परिषद्' संपन्न हुआ था। लेकिन ये प्रयास नाकाफी थे। 1917 में एनी बेसेंट ने 'भारतीय महिला संघ' की स्थापना की थी और सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में 'राष्ट्रीय स्त्री संघ' की स्थापना हुई। 'भारतीय महिला संघ' कुछ जाति और वर्ग तक सीमित रहा और मद्रास से बाहर इसका प्रसार न हो पाया। 1920 के दशक में अखिल भारतीय महिला संगठनों की स्थापना के प्रयास किए गए। 1925 में मेहरीबाई टाटा की पहल पर 'नेशनल कौंसिल ऑफ इंडिया' की स्थापना हुई। यह संगठन भी उच्च वर्ग के विशिष्ट लोगों तक सिमटा रहा और अखिल भारतीय रूप धारण नहीं कर पाया। इस पर मुख्यतः औद्योगिक घराने का प्रभुत्व था।
'अखिल भारतीय महिला संघ' की स्थापना
1927 में 'अखिल भारतीय महिला संघ' की स्थापना की गई। इस संगठन में महिला मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती थी, जिस कारण यह अखिल भारतीय पहचान बनाने में सफल रहा। बंगाल में उर्मिला देवी और बासंती देवी के नेतृत्व में खादी कर की अवहेलना की गयी। 1929 में शारदा एक्ट या हिन्दू बाल-विवाह निषेध क़ानून जैसे कानूनी सुधार हुए। उसी वर्ष उर्मिला देवी की अध्यक्षता में 'नारी सत्याग्रह समिति' का गठन किया गया। मद्रास के पूर्वी गोदावरी ज़िले में दुबरी सुबासम ने 'सेविका' नाम से एक स्त्री संघ की स्थापना की। लतिका घोष ने साइमन कमीशन के बहिष्कार में महिलाओं की एक रैली का आयोजन किया था। उन्होंने 'महिला राष्ट्र संघ' की भी स्थापना की। 1942 में बंगाल में महिलाओं ने 'महिला आत्मरक्षा समिति' का गठन किया। तेभागा आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने 'नारी वाहिनी दल' बना कर शस्त्रों से अंग्रेजों का मुकाबला किया।
पहला महिला किसान सभा
1931-32 के कोल आन्दोलन में आदिवासी महिलाओं ने बहुत ही सक्रियता से भाग लिया। माकी मुंडा नाम की महिला अपने बच्चे को गोद में लेकर फरसा से अंग्रेजों से अपनी अंतिम सांस तक लड़ती रहीं। 1932 में मणिपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व रानी गिडाल्यू ने किया था। उनकी वीरता से अंग्रेजों के छक्के छूट गए। उनके सर पर भारी इनाम रखा गया। वह पकड़ी गईं और उन्हें जेल भेजा दिया गया। भारत की आज़ादी तक वह जेल की काल-कोठारी में ही रहीं। आज़ादी की लड़ाई में महिला किसानों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने किसान सभा का गठन किया, जो देश का पहला महिला किसान सभा था। वामपंथी आन्दोलन में भी महिलाओं ने भाग लिया। उषा डांगे ने बंबई कपड़ा मिल हड़ताल में महिला कामगारों को संगठित कर हड़ताल में भाग लिया। 1941 में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन की छात्राओं के नेतृत्व में 20,000 छात्राओं का जुलूस निकाला गया।
अहिंसावादी नीति का अनुसरण
महिलाओं के आन्दोलनों में दोनों तरह के आयाम देखने को मिलते हैं, गांधीजी की अहिंसावादी नीति का अनुसरण एक तरफ तो दूसरी तरफ क्रांति का मार्ग। अनेकों ऐसी वीरांगनाएं थीं जिन्होंने निडरता के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में अपना योगदान दिया था। सूर्यसेन के नेतृत्व में कल्पना दास और प्रीति लता वाडेकर ने क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। इसके अलावा सुनीति चौधरी, शान्ति घोष और बीना दास ने भी क्रांतिकारी आन्दोलनों का मोरचा संभाला। लीला नाग ने 'दीपावली संघ' की स्थापना की। इस संगठन में महिलाओं को बन्दूक और बम चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। महिला क्रांतिकारी श्रीमती ननीबाला देवी 'युगांतर पार्टी' की सदस्य थी, जो क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जानी जाती थी।
क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान महिलाएं हथियारों को अपने घर में छुपाकर रखती थी। वह क्रांतिकारियों को घर में शरण देती थी और उन्हें प्रोत्साहित करती थी। महिलाओं की यह घरेलू भूमिका क्रांतिकारी गतिविधियों को संरक्षण प्रदान करती थी। बंगाल की कल्पना दत्ता क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। 1930 के चटगाँव शस्त्रागार लूट में उन्होंने सूर्य सेन का साथ दिया। उनकी इस गतिविधि के लिए उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। 1939 में वह जेल से रिहा हुईं। जेल से बाहर आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गईं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्हें घर में नज़रबंद कर दिया गया था लेकिन वह भूमिगत तरीके से पार्टी तथा आज़ादी के लिये लगातार संघर्ष करती रहीं।
'झाँसी की रानी रेजिमेंट'
आज़ाद हिन्द फ़ौज की महिला रेजिमेंट को 'झाँसी की रानी रेजिमेंट' का नाम दिया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज, 1942 में, भारतीय राष्ट्रीयवादियों द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया में जापानी सहायता से औपनिवेशिक भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी दिलवाने के उद्देश्य से बनायी गयी थी। इंडियन नेशनल आर्मी की इस महिला रेजिमेंट का नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने किया था। आजाद हिंद फौज में सरस्वती राजमणि ने अपनी सहेली दुर्गा के साथ मिलकर अंग्रेजों के कैंप की जासूसी की और कई महत्वपूर्ण सूचनाएं आजाद हिंद फौज तक पहुंचाईं। उन्होंने भेष बदलकर ब्रिटिश कैंपों और कंपनी के अधिकारियों के घर में घरेलू सहायक का काम किया। धीरे-धीरे वह शत्रु के गढ़ में रहते हुए अंग्रेज सरकार की महत्वपूर्ण योजनाएं और सैन्य खुफिया सूचनाएं जुटाकर आज़ाद हिन्द फौज तक पहुंचाने का काम किया। उन्हें आईएनए की झांसी रानी ब्रिगेड में लेफ्टिनेंट का पद दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राजमणि को कोलकाता में ब्रिटिश सैन्य अड्डे पर जासूसी के लिए भेजा गया। उनकी सूचनाएं आजाद हिंद फौज के बहुत काम आईं।
अपने राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व के दौरान महात्मा गाँधी ने सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत व विधवाओं के शोषण का मुखर विरोध किया। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलनों ने महिलाओं को देश के प्रति कुछ कर गुज़रने का न केवल एक उद्देश्य दिया बल्कि उन्हें एक नई दिशा भी दिखाई। गांधीजी ने महिलाओं को सार्वजनिक गतिविधियों में शरीक़ किया ताकि वे बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ सकें। जालियांवाला बाग़ काण्ड की पहली बरसी पर 'राष्ट्रीय स्त्री सभा' की स्थापना की गयी। भारतीय राष्ट्रीय संघर्ष में गांधीजी के कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप 1930 के नमक सत्याग्रह और उसके साथ हो रहे सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं ने भाग लेकर अपनी शक्ति का परिचय दिया। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। शराब की दुकानों पर धरना दिया। मादक पदार्थों के विरुद्ध जो आन्दोलन हुआ उसमें शराब की दूकानों पर महिलाओं ने धरना देना शुरू कर दिया। स्वरूपरानी नेहरू (मोतीलाल नेहरू की पत्नी), मीठू बहन (सर जहांगीर पिटीट की पुत्री), कस्तूरबा गांधी, दाभाई नौरोजी की तीनों पौत्रियां आदि शराब की दूकानों पर धरना देने लगीं।
आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई कस्तुरबाई ने
तेरह वर्ष की उम्र में 1882 में गांधीजी का विवाह कस्तूरबाई से हुआ। बा और बापू एक आदर्श और असाधरण दंपती थे। एक आदर्श पत्नी के अलावा कस्तूरबाई साहसी और निर्भीक महिला थीं। वह 1897 में गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रिका गईं। वहां बापू द्वारा रंगभेद के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे आंदोलन में बढ-चढ कर भूमिका निभाई और गिरफ़्तार हुईं। उन्हें तीन महीने की सश्रम कारावास की सज़ा सुनायी गयी। इसके बाद वहां के प्रवास के दौरान वह कई बार जेल गईं। बा ने गांधी जी को निरंतर और निःस्वार्थ समर्थन दिया था। चंपारण सत्याग्रह के दौरान भी वह गांधीजी के साथ चंपारण में जन-जागरण का काम कर रही थीं। आज़ादी की अंतिम लड़ाई 'भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान भी वह गिरफ्तार हुई और पुणे के यरवदा जेल में रहीं। भारत की आज़ादी की लड़ाई में बापू का कदम-कदम पर साथ देने वाली कस्तूरबा गांधी का 22 फरवरी 1944 को निधन आगा ख़ां महल जेल में हुआ। वहीं उनका अंतिम संस्कार भी हुआ। गाँधी ने बा के बारे में स्वीकार किया था कि उनकी दृढ़ता और साहस खुद गाँधीजी से भी उन्नत थे।
सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू की भूमिका
सरोजनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष थीं। वह न सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं, बल्कि बहुत अच्छी कवयित्री भी थीं। कविताओं के लिये उन्हें 'भारत कोकिला' (Nightingale of India) कहा जाता है। गांधीजी व सभी अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नमक सत्याग्रह की अगुवाई सरोजिनी के कंधों पर उन्होंने धरसाना नमक सत्याग्रह के दौरान सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया था। पुलिस के सैकड़ों जवान उन पर और अन्य सत्याग्रहियों पर टूट पड़े और डंडे बरसाने लगे। पुलिस सत्याग्रहियों पर लोहे की नोक वाली लाठियों से प्रहार कर रहे थे। सरोजिनी नायडू को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस आन्दोलन का लक्ष्य केवल नमक छीनना नहीं था, बल्कि दुनिया को बताना था कि ब्रिटिश शासन का आधार हिंसा और क्रूरता है।
अपने इस प्रयास में सरोजिनी नायडू सफल हुईं। सरकार की दमनकारी नीति से लोग झुकने के बजाए सत्याग्रह पर और भी दृढ़ हो गए। सारे देश में लोग या तो नमक बनाते या नमक कारख़ानों पर हमला बोलते। 3 दिसंबर, 1940 को विनोबा भावे के नेतृत्व में हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लेने के कारण पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्हें शीघ्र ही जेल से रिहा कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए प्रमुख नेताओं में वह भी शामिल थीं। उन्हें पुणे के आगा खाँ महल में रखा गया था। 10 महीने के बाद जेल से वह रिहा हुई तथा फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया तथा मार्च 1949 तक वह इस पद पर बनी रहीं एवं अपने कार्यकाल के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई।
राजनैतिक रूप से सक्रिय रहीं अरुणा अफसर अली
अरुणा आसफ अली का जन्म हरियाणा के एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। वह परिवार और स्त्रीत्व के तमाम बंधनों को अस्वीकार करते हुए आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं। अरुणा आसफ अली 1930 में नमक सत्याग्रह के दिनों से ही राजनैतिक रूप से सक्रिय थीं। इस आन्दोलन में अँग्रेज हुकूमत ने उन्हें एक साल के लिए जेल में कैद कर दिया। गाँधी-इर्विंन समझौते के बाद जब सत्याग्रह के कैदियों को रिहा किया जा रहा था, तब भी उन्हें रिहा नहीं किया गया। ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सभी प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद, 9 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में, उन्होंने राष्ट्रीय ध्वजारोहण समारोह का नेतृत्व किया। उस समारोह में बहुत बड़ी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई थी और पुलिस ने उस पर नियंत्रण हेतु लाठी, आँसू गैस तथा गोली चलायी। इससे उनका हौसला टूटा नहीं बल्कि वे और दृढ़ हुईं। उन्होंने उस सभा का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।
सितंबर 1942 में दिल्ली प्रशासन की तरफ से उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिये कहा गया था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें पकड़ने वाले के लिए 5000 रु. का ईनाम भी रखा गया था। उन्होंने लंबे समय तक भूमिगत रहकर काम किया। इस कारण उनका घर, संपत्ति, गाड़ी आदि को नीलाम कर दिया गया। इसके बावजूद भी अरुणा आसफ अली आंदोलन के लिये प्रचार करती रहीं, पत्रिकाओं में लेख लिखती रहीं तथा लोगों से मिलती रहीं। उन्होंने राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर 'इंकलाब' नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया। 1998 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
पक्की राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता सेनानी थीं भीकाजी कामा
एक पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी कामा ने अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण की थी, लेकिन उनका स्वभाव और रहन-सहन अँग्रेजियत से कोसों दूर था। वह एक पक्की राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं। उन्होंने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। वह जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में भारत का तिरंगा राष्ट्रध्वज फहराने के लिए सुविख्यात हैं। इस अवसर पर उन्होंने कहा था, 'हिंदुस्तान की आजादी का परचम लहरा रहा है। अँग्रेजों, उसे सलाम करो। यह झंडा हिंदुस्तान के लाखों जवानों के रक्त से सींचा गया है। सज्जनों, मैं आपसे अपील करती हूँ कि उठें और भारत की आजादी के प्रतीक इस झंडे को सलाम करें।'
महिला संगठन की संस्थापक थीं सरला देवी
उच्च शिक्षा प्राप्त सरला देवी की भाषाओं, संगीत और लेखन में गहरी रुचि थी। वह रविंद्रनाथ टैगोर की भतीजी भी थीं। 1904 में, उन्होंने महिलाओं द्वारा उत्पादित स्वदेशी हस्तशिल्प को लोकप्रिय बनाने के लिए कोलकाता में 'लक्ष्मण भानुर' की शुरुआत की। इस तरह वह भारत में पहली महिला संगठन की संस्थापक थीं। 1910 में सरला ने 'भारत स्त्री महामंडल' की स्थापना की थी। जिसे कई इतिहासकार महिलाओं के लिए पहला अखिल भारतीय संगठन मानते हैं। इसकी लाहौर, इलाहाबाद, दिल्ली, कराची, अमुतसर हैदराबाद, कानपुर बंकुश, हजारीबाग, मिदनापुर और कोलकाता में कई शाखाएं थीं। इसने महिलाओं के लिए शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया। खादी के प्रचार के लिए उन्होंने गांधीजी के साथ पूरे भारत का दौरा किया। 1930 में उन्होंने कोलकाता में लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा सदन की स्थापना की थी।
भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका
डॉ. सुशीला नय्यर प्यारेलाल की बहन थीं। महादेव देसाई के बाद गांधीजी के सचिव बने प्यारेलाल पंजाबी परिवार से थे। मां के तमाम विरोध के बाद ये दोनों भाई-बहन गांधीजी के पास आने से खुद को नहीं रोक पाए थे। डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद सुशीला महात्मा गांधीजी की निजी डॉक्टर बनीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह कस्तूरबा गांधी के साथ मुंबई में गिरफ्तार कर ली गईं। पूना में कस्तूरबा गांधी के आखिरी दिनों में सुशीला उनके साथ रही थीं।
शाही परिवार से ताल्लुक रखने वाली राजकुमारी अमृत कौर पंजाब के कपूरथला के राजा सर हरनाम सिंह की बेटी थीं। उनकी पढ़ाई इंग्लैंड में हुई थी। 1932 में 'अखिल भारतीय महिला सभा' की स्थापना में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी। उसी वर्ष मताधिकारों के लिये बनी लोथियन समिति के विरोध में आवाज़ उठाई तथा सार्वभौम वयस्क मताधिकार की मांग की। नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रियता से भाग लिया। शिमला में उनपर 15 बार लाठीचार्ज किया। उनके इस संघर्ष के कारण कालका में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने शिक्षा के माध्यम से महिलाओं तथा दलित समाज को सशक्त बनाने का बीड़ा उठाया था। आज़ाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनने का सौभाग्य भी राजकुमारी अमृत कौर को मिला। वह अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संगठन की अध्यक्ष भी रही थीं।
एक संपन्न, कुलीन घराने से ताल्लुक रखने वाली और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी आजादी की लड़ाई में शामिल थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में बंद किया गया था। वह एक पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध महिला थीं और विदेशों में आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। स्वतंत्र भारत की वह पहली महिला मंत्री थीं। वह संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष थीं। वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत थीं, जिन्होंने मास्को, लंदन और वॉशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
कमला नेहरू जवाहरलाल नेहरू की धर्मपत्नी थीं। आज़ादी के आन्दोलन में वह धरने-जुलूस में शामिल हुईं, भूख हड़ताल की और जेल गईं। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की। उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने 1942 में 'बानरी सेना' का गठन किया था।
असम की कनकलता वहाँ की महिलाओं के समूह का प्रतिनिधित्व करती थीं। वह 'वीर बाला' के नाम से मशहूर थीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह गोहपुर पुलिस चौकी पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने के लिये पहुँची। उनका उद्देश्य पुलिस चौकी पर लगे यूनियन जैक को उतार कर भारतीय झंडा फहराना था। थाने के दरोगा की धमकी देने पर भी वह नहीं मानी और झंडा लेकर आगे बढ़ती रहीं। आखिरकार वह पुलिस की गोली का शिकार हुईं और शहीद हो गईं।
अनुसूयाबाई काले ने 'भगिनी मंडल' की स्थापना की। वह अखिल भारतीय महिला सभा की सक्रिय सदस्य थीं। केंद्रीय प्रांत विधानमंडल की सदस्य थीं लेकिन नमक सत्याग्रह के बाद गाँधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने अपना पद त्याग दिया और उनकी रिहाई के लिये प्रदर्शन करने लगीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह काफी सक्रिय रहीं। महाराष्ट्र के अश्ती तथा चिमूर में आदिवासियों के साथ किये गए सरकार के दमन के विरुद्ध उन्होंने आवाज़ उठाई। उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। अश्ती तथा चिमूर में हुए विद्रोह में 25 लोगों को दी गई फांसी की सजा से उनके प्रयासों से बचाया जा सका।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन में काफी सक्रिय रहीं थीं। अपने राजनीतिक संघर्ष के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें भी गिरफ्तार किया गया। जेल से छूटने के बाद वह अमेरिका गईं तथा वहाँ के लोगों को भारत में ब्रिटिश हुकूमत की सच्चाई के बारे में बताया। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी तथा भारतीय दस्तकारी परिषद की स्थापना में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। 1955 में इन योगदानों के लिये उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ होने के बाद जब सभी मुख्य कॉन्ग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए तब ऊषा मेहता ने गुप्त तरीके से आंदोलन को चलाया। उन्होंने आंदोलन के दौरान होने वाली सभी घटनाओं को रेडियो प्रसारण के माध्यम से जनता तक पहुँचाया। इस रेडियो का प्रसारण मुंबई में विभिन्न स्थानों पर छिपाकर किया जाता था तथा हर अगले दिन का प्रसारण किसी दूसरे स्थान से होता था। इसे कॉन्ग्रेस रेडियो के नाम से प्रसारित किया जाता था। इससे स्थानीय स्तर पर आंदोलन कर रहे सत्याग्रहियों को हौसला मिलता था।
सुचेता कृपलानी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास की प्राध्यापिका थीं। 1936 में आचार्य जे.बी. कृपलानी से उनका विवाह हुआ। उसके बाद वह सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगीं और अपनी नौकरी छोड़ दी। उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल गईं। जेल से निकलने के बाद वह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत होकर प्रचार-प्रसार करती रहीं। 1943 में जब कॉन्ग्रेस में महिला विभाग की स्थापना की गई तब सुचेता कृपलानी को उसका सचिव बनाया गया। उसके बाद उन्होंने महिला कॉन्ग्रेस के प्रचार तथा उसमें लोगों को जोड़ने के लिये लगातार प्रयास किये। 1946 में उन्हें असेंबली का अध्यक्ष चुना गया। भारत विभाजन के समय वह गाँधीजी के साथ मिलकर दंगे से प्रभावित क्षेत्रों में गईं। 1958 से लेकर 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की महा सचिव रहीं। वह उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सदस्य तथा बाद में लोकसभा की सदस्य भी रहीं। वर्ष 1963 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं।
महिला विदेशी नागरिकों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
अनेक महिला विदेशी नागरिकों ने भी भारत को स्वतंत्रता दिलाने में अपना योगदान दिया। उनमें से एक थीं सुप्रसिद्ध थियोसोफिस्ट व शिक्षा विशेषज्ञ एनी बेसंट। वह मूलतः आयरिश थीं। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत इंग्लैंड में हुई थी। 1893 में वह थियोसॉफिकल सोसायटी के आमंत्रण पर काम करने भारत आईं। उन्होंने मद्रास के उपनगर अडियार में अपना दफ़्तर खोला। फिर वह यहीं बस गईं और यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए जीवन भर काम किया। हिन्दू धर्म से प्रभावित एनी बेसेंट ने भारतीयों को अपनी मान्यताओं के लिए सम्मान करना सिखाया। भारत में एनी बेसेंट ने साप्ताहिक पत्र 'कामनवेल्थ' का 2 जनवरी, 1914 से एवं दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' का 14 जुलाई, 1914 से प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन पत्रों के द्वारा एनी बेसेंट ने भारतीयों में स्वतन्त्रता एवं राजनीतिक भावना को जागृत किया।
1914 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शमिल हो गयीं। उन्होंने भारत में आयरलैण्ड की तरह सितम्बर, 1916 में मद्रास (अडयार) में 'होमरूल लीग' की स्थापना की तथा जॉर्ज अरुंडेल को लीग का सचिव नियुक्त किया। एनी बेसेंट के सहयोगियों में बी.पी. वाडिया तथा सी.पी. रामास्वामी अय्यर शामिल थे। जवाहर लाल नेहरू, वी. चक्रवर्ती, जितेंद्रलाल बनर्जी जैसे नेताओं ने भी लीग की सदस्यता ग्रहण की। देश की पढ़ी-लिखी जनता इस आंदोलन की ओर खिंची चली आई। इसने देश के राजनैतिक जीवन में जोश और उत्साह का संचार किया। आंदोलन के प्रबल जन-समर्थन से ब्रिटिश शासन मुश्किल में फंस गया। यह होमरूल लीग आंदोलन का ही प्रभाव था कि 1917 में सल्तनत को यह कहना पड़ा कि भारत साम्राज्य का एक अविच्छिन्न अंग है। इसे क्रमशः उत्तरदायी शासन प्रदान किया जाएगा। प्रशासन के हर विभाग में भारतीयों का उत्तरोत्तर समावेश किया जाएगा। 1917 के कोलकाता कांग्रेस की वह अध्यक्ष थीं।
सिस्टर निवेदिता का वास्तविक नाम मारग्रेट नोबल था। उन्हें भारत के व्यक्तित्वों और आजादी की लड़ाई ने प्रभावित किया था। स्वामी विवेकानंद के जीवन और दर्शन के प्रभाव में जनवरी, 1898 में वह भारत आईं। उन्होंने यहाँ की महिलाओं की शिक्षा और उनके बौद्धिक उत्थान की जरूरत को महसूस किया और इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम भी किया। प्लेग की महामारी के दौरान उन्होंने पूरी लगन से रोगियों की सेवा की और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। भारतीय इतिहास और दर्शन पर उनका बहुत महत्वपूर्ण लेखन है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की बेहतरी की प्रेरणाओं से संचालित है।
मिस अस्थर फैरिंग जनवरी 1917 में अपने शैक्षणिक कार्यों की तैयारी के लिए साबरमती आश्रम पधारीं। वह डेनिश मिशनरी सोसाइटी की सदस्या थीं। उन्हें डेनिश मिशनरी सोसायटी ने दक्षिण भारत में लड़कियों की शिक्षा के हितों को बढावा देने के लिए काम पर लगाया था। आश्रम की गतिविधियों से वह काफ़ी प्रभावित हुईं। एस्थर का आश्रम आना उनके लिए एक गहन अनुभव था। गांधी जी में उन्हें एक आदर्श व्यक्ति मिल गया था। वह खादी कपड़े पहनने लगीं और शाकाहारी बन गईं। उन्होंने चंपारण में और बाद में रॉलेट विधेयक के विरुद्ध छेड़े गये गांधीजी के राजनीतिक संघर्षों के साथ अभिन्न नाता जोड़ लिया।
मीराबेन का वास्तविक नाम मेडलिन स्लेड था। उनका जन्म एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश परिवार में 1892 में हुआ था। उनके पिता विलायत के नौसेना के कमांडर एडमिरल सर एडमंड स्लेड थे। मेडलिन पिता की रईसी की ज़िन्दगी न अपनाकर वह नाना-नानी के गांव की ज़मीन पर पली-बढीं। बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी सीख ली थी और उन्हें जानवरों से बेहद प्यार था। कपड़े-लत्ते, आभूषण-श्रृंगार का उन्हें कोई शौक नहीं था। वह बीथोवन की बहुत बड़ी भक्त थीं। बीथोवन संगीत में वह इतना रमी कि सांसारिक मोह से बिल्कुल ही कट गईं। उनमें श्रद्धाभक्ति भर गई। वह स्विट्जरलैंड के रोमां रोलां की भी बहुत बड़ी प्रशंसक थीं। रोमां रोलां ने मेडलिन को बताया कि वह गांधीजी की जीवनी लिख रहे थे। मेडलिन ने गांधीजी का नाम सुना ही नहीं था। इस माध्यम से मेडलिन का परिचय गांधी जी से हुआ। मेडलिन ने पूछा, "ये कौन हैं?" रोलां ने सहजता से कहा, "ये दूसरे यीशू हैं।
अच्छाई और पवित्रता के मामले में गांधी यीशू से कमतर नहीं हैं। इस युग में गांधी उम्मीद के मसीहा हैं। युद्ध पिपासा के उन्माद से ग्रस्त इस दुनिया के लिए वे विवेक की आवाज़ हैं।" रोमां रोलां की बातों ने मेडेलीन को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी को लेकर गांधीजी के बताए रास्तों पर चलने की ठान ली। मैडलिन ने गांधी जी से पत्रव्यवहार किया। बताया कि वे उनकी राह पर चलने के लिए साबरमती आश्रम रहने को तैयार हैं। शुरु में तो गांधी जी ने उन्हें हतोत्साहित किया पर वे अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं। अंत में गांधी जी ने उनकी बात मानी। 1925 में वह भारत आईं और साबरमती आश्रम में रहने लगीं। गाँधीजी ने उन्हें अपनी बेटी माना और मीराबेन नाम दिया। मीराबहन ने पेरिस से लाए अपने कपड़े जला डाले। खादी का सपाट चोंगा बनवा लिया। अपने सुंदर बाल कटवा लिए। अपने उच्च-वर्गीय लालन-पालन को तिलांजलि दे दी। अपने परिवार को त्याग दिया। वर्ष 1931 में वह गाँधीजी के साथ दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में लंदन गयी थीं। वह गाँधीजी के विचारों को इंग्लैंड, अमेरिका, फ्राँस, जर्मनी तथा स्विट्ज़रलैंड में स्थित समाचार पत्रों को भेजती थीं।
लंदन से वापस भारत आने के बाद वह खादी के प्रचार प्रसार में लग गयीं तथा इसके लिये पूरे देश की यात्रा की। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मीराबेन को भी गाँधीजी के साथ गिरफ्तार किया गया था और उन्हें आगा खाँ महल में क़ैद किया गया जहाँ वो 21 महीने तक रहीं। उन्होंने ऋषिकेश में एक आश्रम की स्थापना की तथा जीवन के अंतिम समय तक वह वहीं रहीं। उन्होंने अपने आश्रम का नाम 'पशुलोक' रखा था। पशुलोक जब विशाल संस्था बन गई तो मीरा बहन ने उसे उत्तर प्रदेश सरकार को दान दे दिया और ख़ुद केदारनाथ के पास 'गोपाल आश्रम' बनाकर रहने लगीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह उत्तरप्रदेश सरकार की 'ग्रो मोर फूड' अभियान की सलाहकार रहीं। जीवन के अंतिम वर्षों में वह वियना के पास एक जंगल में अस्ट्रिया देश में रहने लगीं। 1983 में उनकी मृत्यु हो गई। 1982 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
समाज को उन्नति में महिलाओं की भूमिका
एक फ्रांसीसी लेखक ने कहा है, "यदि किसी समाज के विकास का अनुमान लगाना है, तो उस समाज में महिलाओं की भागीदारी को देखना आवश्यक है।" ऊपर के विवेचनों में हमने देखा है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका ने समाज को उन्नति की ओर अग्रसर किया। गांधीजी के आह्वान पर असंख्य महिलाएं घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हुई। महिलाओं ने अपने घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों को निभाते हुए देश की स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रभक्ति की भावना से पूरी तन्मयता से भाग लिया। इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश को स्वतंत्र कराया। स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं ने राष्ट्रवादियों को विविध प्रकार से प्रोत्साहन भी दिया। बारदोली सत्याग्रह के दौरान सरदार वल्लभभाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि वहाँ की महिलाओं ने ही दी थी।
महिलाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में अपने आपको विविध आयामों के साथ प्रस्तुत किया। कइयों ने तो शस्त्रों को भी उठाया और साम्राज्यवादी ताकतों से डटकर मुकाबला किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने पहली बार स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को समझा। मताधिकार, शिक्षा, राजनीति जैसे अनेक क्षेत्रों में उन्हें अपेक्षित सफलता भी मिली। आज़ादी के बाद भी उन्होंने नए राष्ट्र के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुचेता कृपलानी पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। विजयलक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। इंदिरा गांधी देश की पहली महिला प्रधान मंत्री बनीं और लौह स्त्री के रूप में प्रसिद्धि पाई।
नोट: हमें आशा है कि हमारे पाठकों और परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।