जब भी कोई आंदोलन बड़ा जन्म लेता है, तो उसकी लहर पूरे देश में दिखाई देती है। समाज के तमाम वर्गों के लोग निकलकर आगे आते हैं, राजनीतिक उथल-पुथल मचती है, सामाजिक बदलाव होते हैं और अंत में आंदोलन के प्रभाव भी दिखाई देते हैं। बात अगर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुए स्वदेशी आंदोलन की करें तो उसके कई आर्थिक परिणाम भारत को देखने को मिले थे। आज हम उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में चर्चा करने जा रहे हैं।
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क्या है साम्राज्यवाद?
साम्राज्यवाद विकसित पूंजीवाद की उपज है। हर औद्योगिक पूंजीवादी राष्ट्र बड़े कृषि क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में करके उन्हें हथियाना चाहता है। अपनी पूंजी की ज़रूरतें पूरी करने के उद्देश्य से औद्योगिक क्षेत्रों सहित किसी भी जगह वे जाने के लिए तैयार रहते हैं। नए-नए क्षेत्रों में जाने के लिए साम्राज्यवादी कोई भी खतरा मोल लेने को तैयार रहते हैं। विकसित शक्तियों के क्षेत्र में पिछड़े हुए क्षेत्रों को मिला लिए जाने की उनकी चाहत होती है।
इसलिए राजनीतिक तथ्य पर भी ध्यान देना ज़रूरी होता है। इसकी वजह से दमन शुरू होता है। भारत में कृषि ने साम्राज्यवाद के लिए आकर्षक स्थितियां प्रदान की और फौरन ही साम्राज्यवाद सामंतवाद के साथ तरह-तरह के समझौतों और संघर्ष संबंध के रूप में प्रकट हुआ। संघर्ष, साम्राज्यवाद की गहरी और मूल-भूत शक्तियों के खिलाफ, उपनिवेश-विरोधी मुक्ति के संघर्ष के रूप में प्रकट हुआ। प्रतिकिया स्वरुप और साम्राज्यवादी विस्तार के लिए एक राष्ट्रीय दमन की नीति विकसित हुई। इसलिए स्वदेशी आन्दोलन को साम्राज्यवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करना ज़रूरी हो जाता है। साम्राज्यवादियों की तरफ से सामाजिक सुधारों के द्वारा देश में आय के कुवितरण को ठीक किया जा सकता था।
देश के अन्दर ही पूंजी के संचालन के अधिक अच्छे तरीक़े खोजे जा सकते थे। स्वदेशी आन्दोलन ने कुछ हद तक प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद को सुधारने में मदद की। भारत में तो पूंजीवाद प्रतिस्पर्धात्मक से एकाधिकार की ओर बढ़ चुका था। इसलिए सिर्फ संरचनात्मक सुधारों द्वारा साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को रोकना संभव नहीं था, साम्राज्यवाद को सिर्फ साम्राज्यवाद-विरोधी क्रांति के द्वारा ही रोका जा सकता था। बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आन्दोलन साम्राज्यवाद-विरोधी क्रांति के रूप में उभरा और देश के राष्ट्रवादी आन्दोलन को नई दिशा दे गया।
स्वदेशी आन्दोलन का आर्थिक परिप्रेक्ष्य
स्वदेशी आन्दोलन वास्तव में बंगाल-विभाजन के विरोध के एक आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ। बंग-भंग के दो स्पष्ट उद्देश्य थे, एक हिंदू मुसलमान को लड़ाना और दूसरे नव-जाग्रत बंगाल को चोट पहुंचाना। स्वदेशी आन्दोलन के नेताओं ने भारतीय जनता से सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की। यह राजनीतिक आंदोलन के साथ-साथ बड़ा आर्थिक आंदोलन भी था। भारतीय उद्योग के शुद्ध आर्थिक साधन के रूप में स्वदेशी का उपदेश दिया गया। बहिष्कार तात्कालिक अन्याय से लड़ने का एक विशेष अस्त्र था।
आन्दोलनकारियों के अनुसार भारतीयों की शिकायतों पर अँग्रेज़ तभी ध्यान देने को विवश होते जब उनकी जेब पर सीधा खतरा आता। स्वदेशी मैनचेस्टर पर एक आर्थिक दबाव उत्पन्न करता। अगस्त 1905 की तुलना में सितंबर 1906 में सूती थानों के आयात में 22 प्रतिशत, सूत की लच्छी और सूत में 44 प्रतिशत, नमक में 11 प्रतिशत, सिगरेटों में 55 प्रतिशत और जूतों में 48 प्रतिशत की कमी हुई।
मैनचेस्टर के कपड़ों की बिक्री में भारी गिरावट आई। 32,000 गांठों के स्थान पर केवल 2,500 गांठें ही उठीं। स्वदेशी के रुझान ने हथकरघा, रेशम की बुनाई और कुछ अन्य पारंपरिक दस्तकारियों में नवजीवन का संचार किया। कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला। स्वदेशी कपड़ा मिलें, माचिस, साबुन, चर्मशोधक और मिट्टी के बर्तन बनाने के कारखाने जगह-जगह खुले।
देश के हर कोने में खुली फैक्ट्रियां
पी.सी. राय ने 'बंगाल केमिकल फैक्टरी' की स्थापना की। दि बंगलक्ष्मी कॉटन मिल्स की स्थापना की गई। टैगोर की सहायता से स्वदेशी भंडार खुला। टाटा आयरन एंड स्टील ने सरकारी सहायता लेने से इंकार कर दिया। बैंक और बीमा कंपनियों को खोलने में अनेक ज़मींदारों और व्यापारियों ने मदद की। जहाजरानी संस्थान शुरू हुए। स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा के रूप में सहकारी भंडार खोले गए।
बंबई के मिल मालिक सस्ते दामों पर धोतियाँ देने लगे। स्वदेशी बुनाई कंपनी खोली गई। माध्यम वर्ग में अधिक खपत वाली वस्तुओं सिगरेट, जूते आदि के आयात में गिरावट आई। आधुनिक उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए एक समिति की स्थापना की गई, जिसका लक्ष्य था विद्यार्थियों को तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए जापान भेजने के लिए धनराशि जुटाना था।
उद्योगों के संरक्षक और उद्यमियों में अधिकांश व्यवसायी बुद्धिजीवी वर्ग से संबद्ध थे। उनके लिए पूंजी की कमी एक बहुत बड़ा अवरोध थी। ऐसे में व्यापारियों के लिए औद्योगिक उद्यमों में पूंजी लगाकर धन कमाने की अपेक्षा आयातित वस्तुओं की एजेंसी चलाकर धन कमाना आसान था। मिलें खोलने से अच्छा था कि पहले एक सुदृढ़ वितरण प्रणाली की स्थापना पर ध्यान दिया जाता। इन कारणों से, सुमित सरकार कहते हैं कि, "स्वदेशी आन्दोलन बंगाल की अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अंग्रेजों के शिकंजे के लिए गंभीर चुनौती कभी नहीं बना।"
स्वदेशी आन्दोलन का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
बंगाल-विभाजन का फैसला प्रशासनिक कारणों से नहीं, राजनीतिक कारणों से लिया गया था। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में राष्ट्रीय चेतना न सिर्फ विकसित हुई, बल्कि उसने जुझारू रुख अख्तियार कर लिया था। भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केंद्र बंगाल था। अंग्रेजों ने इस राष्ट्रीय चेतना पर आघात करने के उद्देश्य से बंगाल-विभाजन का निर्णय लिया। अंग्रेजों का उद्देश्य एक ऐसे केंद्र को समाप्त करना था, जहाँ से बंगाल और पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था। वे मानते थे कि अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताक़त थी, विभाजित होने से यह कमजोर पड़ जाती।
बंगाल के बंटवारे से उनके दुश्मन बंट कर कमजोर पड़ जाते। बंगाल विभाजन योजना में धार्मिक आधार पर विभाजन भी शामिल था। उनकी योजना थी हिन्दू-मुस्लिम के बंटवारे से राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना। यह भारतीय आन्दोलन पर एक सुनियोजित हमला था। राष्ट्रवादियों को विभाजन के पीछे अंग्रेजी हुकूमत के असली मंतव्य का पता चल गया, वे एकजुट होकर इसके विरोध में उठ खड़े हुए। विभाजन-विरोधी और स्वदेशी आन्दोलन शुरू हो गया। सारे बंगालियों के बंधुत्व के प्रतीक के रूप में हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक-दूसरे की कलाइयों में राखी बांधी।
जब बंगाल के विभाजन की हुई सरकारी घोषणा
बंगाल विभाजन से न केवल बंगालियों में रोष उत्पन्न हुआ वरन् सम्पूर्ण राष्ट्र ने इसे अपना अपमान समझा। 16 अक्तूबर, 1905 ई. में बंगाल का विभाजन जब सरकारी घोषणा की गई तो राष्ट्रीय नेताओं ने सशक्त शब्दों में इसका विरोध किया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा, "बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह गिरा। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।" भारतीय जनता ने बंगाल के विभाजन के विरोध में देश भर में अनेक सभाओं का आयोजन किया।
गृह सचिव राइसले ने कहा, "यदि हमने इस विरोध को अभी नहीं दबाया तो हम बंगाल को कभी विभाजित नहीं कर पाएंगे। विरोध को न दबा पाने का मतलब होगा एक मज़बूत ताक़त को और मज़बूत होने का मौक़ा देना।" सरकार ने भी क्रूरतापूर्वक दमन चक्र चलाया जिसका उत्तर जनता ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके तथा स्वदेशी आन्दोलन चलाकर दिया। स्वदेशी आन्दोलन व बहिष्कार का सन्देश पूरे देश में फैल गया। तिलक ने विशेषकर पुणे और बंबई में इस आन्दोलन का प्रचार किया। लाला लाजपत राय ने पंजाब और उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में इस आन्दोलन को पहुँचाया। सैयद हैदर रज़ा ने दिल्ली में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। चिदंबरम पिल्लै ने मद्रास प्रेसिडेंसी में इसको नेतृत्व प्रदान किया। बिपिन चन्द्र पाल ने अपने जोशीले भाषणों से इस आन्दोलन को गति प्रदान की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इसे अपने कार्यक्रमों में प्रमुखता दी।
हर विदेशी चीज का बहिष्कार हुआ
स्वदेशी आन्दोलन में संघर्ष की जितनी भी धाराएं फूटीं उनमें सबसे अधिक सफलता मिली विदेशी माल के बहिष्कार आन्दोलन को। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी। विदेशी वस्तुओं को लोगों ने हाथ लगाने से मना कर दिया। विदेशी जूतों की जगह विद्यार्थियों और छात्रों ने नंगे पांव स्कूल जाना शुरू कर दिया। विलायती कागजों पर लिखने के बजाए छात्रों ने परीक्षा देने से इंकार कर दिया। कई मरीजों ने विदेशी दवा लेने से मना कर दिया।
मोचियों, धोबियों और रसोइयों ने अंग्रेजों और विदेशी माल का व्यवहार करने वाले भारतीय मालिकों के यहाँ काम करने से मना कर दिया। मिठाई बनाने वालों ने विदेशी चीनी का मिठाइयों में इस्तेमाल करना बंद कर दिया। पुजारियों ने विदेशी चीजों से पूजा न करने की क़सम खाई। स्त्रियों ने विदेशी चूड़ियों का इस्तेमाल छोड़ दिया। विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों के सामने धरना दिया जाने लगा। बहिष्कार को प्रभावशाली बनाने के लिए सामाजिक और धार्मिक दबाव डाले गए। विदेशी सामान बेचने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया गया।
स्वदेशी साम्राज्य विरोधी आंदोलन का हथियार
विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वालों को सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में शामिल नहीं किया जाता था। रेल, पटसन उद्योग और प्रेस से जुड़े श्रमिकों ने बहिष्कार के समर्थन में हड़ताल किया। 1906 तक बहिष्कार आन्दोलन पूरे बंगाल में फैल चुका था। इस आन्दोलन के कारण विशाल जनसभाओं और प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई। इससे लोगों में राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ। स्वराज के लिए लोगों के दिल में हलचल तेज़ हुई।
स्वदेशी साम्राज्यविरोधी आन्दोलन का एक राजनीतिक हथियार और स्वराज की उपलब्धि के लिए आत्मनिर्भरता का एक प्रशिक्षण था। स्वदेशी से स्वावलंबन की दिशा में देश आगे बढ़ा। स्वदेशी आन्दोलन ने 'आत्म-निर्भरता' का नारा दिया। सरकार के खिलाफ संघर्ष चलाने के लिए जनता में स्वावलंबन की भावना भरना बहुत ज़रूरी था। स्वावलंबन और आत्म-निर्भरता का प्रश्न स्वाभिमान, आदर और आत्मविश्वास से जुड़ा था। इस दिशा में अनेक क्षेत्रों में काई प्रयास किए गए। शिक्षा के क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा और देशी भाषाओं में शिक्षा देने पर अधिक बल दिया गया।
शिक्षण संस्थान स्थापित हुए
राष्ट्रीय शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया गया। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गयी। दुखद बात यह है कि, जैसा कि सुमित सरकार मानते हैं, "राष्ट्रीय शिक्षा में नौकरियों के अवसर नगण्य थे, अतः यह विद्यार्थी समुदाय को आकर्षित करने में असफल रही।"
बाद के दिनों में कुछ विद्यालयों ने तब के राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना योगदान दिया और क्रांतिकारियों के भरती केंद्र बने। बंगाल विरोधी आन्दोलन ने शिक्षा संस्थाओं के अतिरिक्त स्वदेशी उद्योगों की स्थापना के भी प्रयत्न किये जिससे व्यापारिक जनता तथा श्रमिकों में भी राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी उद्योगों की ज़रुरत महसूस हुई। स्वदेशी कल-कारखाने स्थापित किए गए। कपड़ा मिलें, साबुन, माचिस के कारखाने, चर्म उद्योग, बैंक, बीमा कंपनियां अस्तित्व में आईं।
देश के हर व्यक्ति में जागृत हुई नई चेतना
स्वदेशी आन्दोलन के कार्यक्रम और गतिविधियाँ बहुआयामी थीं। इसने समाज के बहुत बड़े तबके को अपने दायरे में लिया। आम जनता का बहुत बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय राजनीति में भागीदार बना। राष्ट्रीय राजनीति का सामाजिक दायरा बढ़ा। जमींदार, निम्न माध्यम वर्ग, छात्र, महिलाएं सब इसमें शामिल हुईं। पहली बार मज़दूर वर्ग की आर्थिक कठिनाइयों को राजनीतिक स्तर पर उठाकर उसे राजनीतिक संघर्ष से जोड़ा गया। विदेशी मालिकों के कारखाने में जायज़ मांगों के लिए हड़तालें होने लगीं। स्वदेशी आन्दोलन ने जितने किसानों को आन्दोलन के लिए तैयार किया या उनमें राजनीतिक चेतना जगाई वह अपने आप में स्वदेशी आन्दोलन की बहुत बड़ी सफलता थी।
सुमित सरकार मानते हैं कि 'समितियों' अथवा 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक' आन्दोलन का उदय स्वदेशी युग की बड़ी उपलब्धियों में से एक है। ये समितियां सदस्यों को प्रशिक्षण देकर राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए तैयार कराती थीं। इस समय के दौरान बड़ी मात्रा में राष्ट्रवादी साहित्य की रचना की गयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर के स्वदेशी गीतों ने जनता के क्रोध और पीड़ा को अभिव्यक्ति दी। बंगाली प्रतिरोध करने, दुःख झेलने और त्याग करने के लिए संगठित होकर एक व्यक्ति के रूप में खड़े हो गए।
बौद्धिक वर्ग हुआ जागृत
बंगाल के विभाजन से बौद्धिक वर्ग में जागृति उत्पन्न हुई। कांग्रेस के बुद्धिजीवियों में उग्रता की भावना तीव्र हुई तथा वे पूर्णतया सरकार विरोधी हो गये। लाल-बाल-पाल राष्ट्रीय जन-नेता के रूप में उभरे। बंगाल के विभाजन के बाद ही कांग्रेस उदारवादियों तथा उग्रराष्ट्रवादियों में विभाजित हो गयी। इसके अतिरिक्त देश में उग्रराष्ट्रवादी आन्दोलन भी प्रारम्भ हो गये। ब्रिटिश शासन के अत्याचारों के विरोध में देश के नवयुवकों ने संगठित होकर क्रांतिकारी गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दी। बंगाल-विभाजन विरोधी आन्दोलन को मिले व्यापक जन-समर्थन से ब्रिटिश सरकार घबरा गयी, अतः हिन्दू और मुसलमानों को लड़ाने के लिए मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन देना आरम्भ कर दिया। अन्य शब्दों में, "फूट डालो तथा राज्य करो" की नीति को शुरू किया। बंगाल-विभाजन के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया होने के कारण ब्रिटिश सरकार को इसे 1911 ई. में रद्द करना पड़ा, जिससे कांग्रेस के उग्रराष्ट्रवादियों की प्रतिष्ठा बढ़ी।
यदि गहराई से देखा जाए तो बंगाल-विभाजन से ही पाकिस्तान का बीजारोपण हुआ। मुस्लिम लीग के 1906 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुए, उनमें से एक यह भी था कि बंगाल-विभाजन मुसलमानों के लिए अच्छा है और जो लोग इसके विरुद्ध आंदोलन करते हैं, वे गलत काम करते हैं और वे मुसलमानों को नुकसान पहुंचाते हैं। बाद में लीग के 1908 के अधिवेशन में भी यह प्रस्ताव पारित हुआ कि कांग्रेस ने बंगाल-विभाजन के विरोध का जो प्रस्ताव रखा है, वह स्वीकृति के योग्य नहीं।
मुसलमानों ने लिया बंगाल के बंटवारे का पक्ष
बंगाल विभाजन से पहले, दोनों समुदायों के कई सदस्यों ने सभी बंगालियों के लिए राष्ट्रीय एकता की वकालत की थी। विभाजन के बाद दोनों समुदायों ने अपने-अपने राजनैतिक मुद्दे विकसित कर लिए। मुस्लिमों ने भी अपनी समग्र संख्यात्मक शक्ति के बल पर विधानमंडल में वर्चस्व हासिल किया। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुओं और मुसलमानों के लिए दो स्वतंत्र राज्यों के निर्माण की माँग उठने लगी, अधिकांश बंगाली हिन्दू अब हिंदू बहुमत क्षेत्र और मुस्लिम बहुमत क्षेत्र के आधार पर होने वाले बंगाल के बंटवारे का पक्ष लेने लगे।
कुल मिलाकर बंगाल-विभाजन और स्वदेशी आन्दोलन के दूरगामी परिणाम सामने आये जिनके कारण भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक नई दिशा मिली। कर्जन के छ: वर्ष के लम्बे शासनकाल ने स्वाधीनता आन्दोलन की दिशा वास्तविक रूप में बदल दी। स्वदेशी आन्दोलन उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारतीयों का पहला सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन था। इसी के साथ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की नई चेतना का विकास हुआ। स्वदेशी आन्दोलन वास्तव में भारत में आधुनिक राजनीति की शुरुआत थी। भारत की आर्थिक नीव रखने में भी यह बहुत कारगर साबित हुए।
स्वदेशी आन्दोलन ने बैठकों, जनसभाओं, यात्राओं, प्रदर्शनों आदि के माध्यम से जनता के एक बड़े तबके को आधुनिक राजनीतिक विचारधारा से परिचित कराया। स्वदेशी आन्दोलन ने समाज के उस बड़े तबके में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया, जो उससे पहले राष्ट्रीयता के बारे में अनभिज्ञ था। इस आन्दोलन ने औपनिवेशिक विचारधारा और अंग्रेजी हुकूमत को आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में काफी क्षति पहुंचाई। यह संघर्ष राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव बना। इस पर भावी संघर्ष की इमारत खड़ी होने वाली थी।