UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

इस आलेख में - भक्ति आंदोलन का आरंभ | भक्ति आंदोलन में शंकराचार्य एवं वेदांत | संत रामानुज, संत रामानंद, संत कबीर, संत वल्लभाचार्य, संत चैतन्य, संत तुकाराम, आदि संतों की भूमिका

यूपीएससी पाठ्यक्रम में भक्ति आंदोलन, मध्‍यकालीन भारत से जुड़े विषय:

  • भारत की सांस्कृतिक पंरपरा, 750-1200 दर्शनः शंकराचार्य एवं वेदांत, रामानुज एवं विशिष्टाद्वैत, मध्व एवं ब्रह्म-मीमांसा।
  • शंकराचार्य; वेदांत।
  • तेरहवीं एवं चौदहवीं शताब्दी का समाज, संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था भक्ति आन्दोलन।

मध्‍यकालीन भारत, भक्ति आंदोलन पर यूपीएससी में पूछे गए प्रश्न:

  • 2014 - मध्यकालीन भक्ति साहित्य के विकास में वैष्णव संतों के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
  • 2016 - "शंकर के अद्वैत सिद्धांत ने भक्तिवाद की जड़ों को ही काट दिया। " क्या आप इससे सहमत हैं?
  • 2017 - "भक्ति और सूफी आन्दोलनों ने एक ही सामाजिक प्रयोजन की पूर्ति की थी।" विवेचना कीजिए।
  • 2018 - श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन से भक्ति आंदोलन को एक असाधारण नई दिशा मिली थी। चर्चा करें।
  • 2019 - इस कथन का आंकलन कीजिए - "शकाराचार्य के दर्शन ने भारत के धार्मिक विचारों में क्रान्ति ला दी।"
  • 2019 - सूफी और भक्ति विचारों ने समय के उतार-चढ़ावों के मध्य भारतीय मानस को उदात्तता प्रदान की। स्पष्ट कीजिए।
  • 2020 - समस्त जाती और पंथों को जोड़ने वाले एक प्रेम धर्म को प्रचारित करना कबीर का जीवन लक्ष्य था। व्याख्या कीजिए।
  • 2022 - भारतीय समाज में जाति क्षेत्र तथा धर्म के समानान्‍तर 'पंथ' की विशेषता की विवेचना कीजिए।
UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

हमारे देश में हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। समाज में तरह-तरह के भेद-भाव विद्यमान थे। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं धर्मों के आधार पर बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्‍वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा रूढ़िवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस तरह की व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएं जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएं रूढ़िवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता और रूढ़िवादिता पर आधारित धर्मान्धता को चुनौती दी।

सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में सुधार का लक्ष्य

यह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध और क्रमिक रूप से चलने वाला आंदोलन नहीं था, बल्कि समय-समय पर संत, विचारक और समाज सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में सुधार उनका लक्ष्य था। इनमें से अधिकांश संत समाज की छोटी जातियों से आए थे। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार ढ़हाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया।

ईश्‍वर की प्राप्ति के लिए ज्ञान और तप का मार्ग छोड़ कर भक्ति का मार्ग अपनाना इस आंदोलन का विशेष गुण था। यद्यपि भक्ति-मार्ग के विभिन्न संतों के विचारों में पूर्ण समानता नहीं थी, तथापि अधिकांश एकेश्‍वरवाद में विश्‍वास रखते थे। उनका मानना था कि ईश्‍वर एक है, उसके नाम अलग-अलग हैं। वे मानते थे कि यदि पूर्ण श्रद्धा से ईश्‍वर की भक्ति की जाए तो मोक्ष की प्राप्ति होगी। अत: मनुष्य को ईश्‍वर के चरणों में पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को जीत कर ईश्‍वर की भक्ति में रम जाना चाहिए। उनका मानना था कि ईश्‍वर मंदिरों में नहीं, बल्कि लोगों के हृदय में बसते हैं। अगर सच्ची भक्ति हो तो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। परन्तु इसके लिए सांसारिक इच्छाएँ एवं प्रलोभनों का त्याग करना होगा। इसके अलावा भक्त को एक गुरु की आवश्यकता पड़ेगी जो कि भक्ति के मार्ग पर उसे दिशा-निर्देश देगा। गुरु के बिना ईश्‍वर की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती क्योंकि वही अत्मा को सुषुप्तावस्था से जागृत कर सकता है।

संतों ने किसी नये धर्म की स्थापना के बजाए समाज में प्रचलित धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया साथ ही इन आंदोलनकारी संतों ने अन्य पंथों या धर्मों के प्रति आदर का भाव रखते हुए विश्‍व-प्रेम और विश्‍व-बंधुत्व का संदेश दिया। इन संतों ने दोहा, गीत आदि छांदसिक कविताओं के माध्यम से सरल और स्थानीय भाषाओं में अपने-अपने मतों का प्रचार किया। फलत: भक्ति आंदोलन का काफी स्वागत हुआ। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद भारत में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच मतों, धारणाओं एवं आस्थाओं का आदान-प्रदान हुआ। परिणामस्वरूप कुछ ऐसे पंथ और अनेक ऐसे संत आए जो हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच के भेद-भाव को मिटाना चाहते थे।

पाठ्यक्रम : 14.1 दर्शनः शंकराचार्य एवं वेदांत

मध्यकाल में धार्मिक सुधार की भावना का विचारधारा के रूप में एक आंदोलन का रूप लेना कोई नई बात नहीं थी। एक धारणा के रूप में भक्ति मार्ग काफी पहले से प्रचलित था। भक्ति आंदोलन का आरंभ सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हो चुका था। हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गये थे : ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग एवं भक्ति मार्ग। मध्यकालीन भारत में ज्ञान मार्ग पर शंकराचार्य ने विशेष बल दिया था। उन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। वेदान्त दर्शन की विभिन्न शाखाओं में अद्वैत वेदान्त को विशिष्ट स्थान प्राप्त है. वेदान्त ज्ञानयोग का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अन्त' (अथवा सार)। वेद साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं। वेदान्त की तीन शाखाएँ हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य को क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है।

आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में कोचीन से कुछ मील दूर कालटी गांव में एक नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। शंकराचार्य जब 12 साल के थे तभी उन्होने वेदों का अध्ययन कर लिया था। 16 वर्ष की अवस्था तक उन्होने 100 से अधिक ग्रन्थों की रचना की थी। उसके बाद उन्होने अपनी मां से आज्ञा लेकर वैराग्य धारण कर लिया। 32 वर्ष की अल्पायु में 820 में आदि शंकराचार्य ने अपना शरीर त्याग दिया। अद्वैत वेदान्त में परम सत्ता के रूप में केवल एक तत्त्व ब्रह्म या आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया गया है. शंकराचार्य के अनुसार संसार में एक ही सर्वोच्च सत्ता है अन्य सारी घटनाएं उसी सत्ता का प्रतिबिम्ब हैं। हमारा अस्तित्व एक मिथ्या है। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। आत्मा-परमात्मा ही है, अलग नहीं। सांसारिक माया के कारण मनुष्य आत्मा-परमात्मा के एकत्व को न पहचानने की भूल करता है, जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है।

"अहं ब्रह्मास्मि" का सिद्धांत

यह जो विविध रूप जगत हमें दिखाई पड़ता है वह केवल भ्रम है। यह भ्रम हमें ईश्वर द्वारा बनायी गयी माया के कारण होता है। जीवात्मा का परमात्मा के मिलन से ही मोक्ष संभव है। इसकी प्राप्ति ज्ञान से संभव है। जीव को जब ज्ञान होता है उसकी अविद्या का नाश होता है। अविद्या के नष्ट होने पर उसे प्रतीत होता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। अद्वैत वेदान्तियों का यह मानना था की समस्त प्रपंच का विलय ब्रह्म या आत्मा में होता है. अद्वैत का अर्थ है जहां द्वैत का अभाव है. द्वैत माया है. अद्वैत परमार्थ है. सभी सांसारिक वस्तुएं माया मात्र हैं. अंत: सभी सांसारिक वस्तुओं के अभाव में आत्मा और ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है। शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है।

इस विचारधारा के साथ कठिनाई यह थी कि यह सामान्य लोगों की समझ से बाहर थी। इसके अलावा जातिप्रथा एवं रूढ़िवादिता के कारण पढ़ाई-लिखाई एवं अक्षरों का ज्ञान उस समय में समाज के ऊंचे तबके के लोगों तक ही सीमित था। अत: जनसाधरण इस दार्शनिक मार्ग को न तो अधिक समझ ही पाया और न ही यह आम जनता का लोकप्रिय समर्थन ही पा सका। फिर भी हम कह सकते हैं की आदि शंकराचार्य के वेदांत दर्शन का उपदेश ने हिन्दुओं के लिए एक नया दृष्टिकोण बनाया। उनके अद्वैत दर्शन ने समाज के वंचित और उपेक्षित लोगों को एक नयी राह दिखाई।

उन्होंने सनातन धर्म की रक्षा की. उन्होंने चार धामों में चार पीठों की स्थापना कर सारे देश को एक धर्म-सूत्र में बाँध दिया. उनके सभी भाष्य, काव्य, स्तोत्र, में एक समन्वय है. ये सभी रचनाएं उनके दर्शन को प्रस्तुत करती हैं, जो पूर्ण विकसित मानव का हमारे सामने उदाहरण प्रस्तुत करती हैं. इस तरह हम कह सकते हैं कि शकाराचार्य के दर्शन ने भारत के धार्मिक विचारों में क्रान्ति ला दी. सभी मनुष्य का यह अधिकार है कि वह मोक्ष की प्राप्ति करे. ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ भक्ति-भाव विद्यमान हो. अत: भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त और निष्काम हों. इस तरह से भक्ति और कर्म का समन्वय होगा और मनुष्य मोक्ष की सिद्धि प्राप्त कर परम कल्याण को प्राप्त करेगा. भक्तिवाद का भी अंतिम उद्देश्य तो मोक्ष को ही प्राप्त करना है. अत: इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि "शंकर के अद्वैत सिद्धांत ने भक्तिवाद की जड़ों को ही काट दिया." बल्कि इसने उनकी जड़ों में खाद-पानी डालने का काम किया.

पाठ्यक्रम : 14.1 दर्शनः रामानुज एवं विशिष्टाद्वैत

श्री शंकराचार्य जब उत्तरी भारत में सक्रिय थे उसी समय दक्षिणी भारत में वैष्णव संत अलवार और शैव संत नयनार ने मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति का रास्ता लोगों को दिखाया। इन लोगों ने मुक्ति के लिए इष्ट देवता के प्रति निष्ठा की शिक्षा दी। उन्होंने भक्ति को मोक्ष का सर्वश्रेष्ठ साधन माना। उन्होंने अपने विचार तमिल में कविताओं एवं छंदों के माध्यम से लोगों के सामने रखे। इनके विचार सर्वसाधारण की समझ में आते थे। शिव और विष्णु के प्रति समर्पित इनके छंद "तिरूमुरई' और "नलयिराप्रबंधम" में संकलित हैं।

ग्यारहवीं शताब्दी में श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं दक्षिण भारतीय भक्तिवाद के विचारों को वैष्णव संत रामानुज ने संयुक्त कर प्रस्तुत किया। उनके इस सफल प्रयास के कारण उन्हें मध्यकालीन भारत के भक्ति आंदोलन का संस्थापक कहा जाता है।

उनका जन्म तिरुपति के निकट 12वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुआ था। भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में आचार्य रामानुज का नाम सर्वोपरि है। वे सगुण ईश्‍वर के उपासक थे। उन्होंने विशिष्ट अद्वैतवाद की धारणा प्रतिपादित की। उनका मानना था कि कर्म का रास्ता लोगों को माया में उलझा देता है। इसलिए उसकी मुक्ति संभव नहीं है।

इसी तरह ज्ञान का मार्ग उसे इच्छाओं और सम्पत्ति की कामना से मुक्ति दिलाएगा, और यह मुक्ति भी अधूरी है। अत: उनके अनुसार सिर्फ भक्ति के द्वारा ही मोक्ष संभव है। जहां एक ओर वे श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद में विश्‍वास रखते थे वहीं दूसरी ओर इस मत को ग्रहण करने के लिए व्यक्ति में किसी खास प्रकार की योग्यता होना आवश्यक नहीं मानते थे। संत रामानुज का मानना था कि सर्वोच्च सत्ता की विशेषता उसकी दया में है। उनका कहना था कि मोक्ष परमात्मा की दया से संभव है। उनकी दया प्राप्ति के लिए हमें उनके (ईश्‍वर के) प्रति अनन्य भक्ति भाव से निष्ठावान होना चाहिए। इस मत के अनुसार ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है। वही सृष्टि की रचना करने वाले हैं, पालक हैं और संहारकर्ता हैं। जीवात्मा और जड़ जगत ईश्वर के ही भाग हैं। तीनों ही एक हैं। यह सत्य होते हुए भी उससे अलग है। जीवात्मा ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मोक्ष पा सकती है।

संत रामानुज के भक्ति आंदोलन के सिद्धांत धार्मिक सुधार तक ही सीमित थे, इसमें समाज सुधार के प्रति रुचि नगण्य थी। बल्कि उनका सिद्धांत वर्ग के बीच अंतर का अनुमोदन करता था। इन दो अलग-अलग वर्ग के व्यक्तियों के लिए मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्होंने अलग-अलग मार्ग बताए : भक्ति :- उच्च कुल में जन्मे व्यक्ति के लिए श्रद्धा या निष्ठा के द्वारा मोक्ष प्राप्ति तथा प्रपत्ति :- निम्न कुल में जन्मे व्यक्ति को, उनके अनुसार आत्म समर्पण के द्वारा ही मोक्ष संभव था। हालाकि उच्च जातियों के अधिकारों को उन्होंने क़ायम रखा फिर भी हम यह मान सकते हैं कि उन्होंने निचले तबके के लोगों के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया, चाहे वह भेद-भाव मूलक आत्म समर्पण द्वारा ही क्यों न बताया गया हो। उस युग में सामाजिक समानता की दिशा में उठाया गया यह पहला महत्वपूर्ण क़दम था। उनके सम्प्रदाय ने लाखों शूद्रों और अछूतों को अपना अनुयायी बनाया। आचार्य रामानुज मानव कल्याण की भावना से ओत-प्रोत, प्रेम और उदारता की महान मूर्ति थे। आचार्य रामानुज ही ऐसे संत थे जिन्होंने छुआछूत की भावनाओं को अलग रखकर निम्न वर्ग के व्यक्ति के लिए ईश्वर भक्ति के निषेध को अनुचित माना। यहां तक कि उन्होंने दलितों को ईश्वर भक्ति के लिए मंदिर में प्रवेश को भी सही ठहराया।

पाठ्यक्रम :14.1 मध्व एवं ब्रह्म-मीमांसा

संत निम्बार्काचार्य एवं संत मध्वाचार्य आचार्य रामानुज के समकालीन थे। आचार्य मध्व ने द्वैत वेदान्त का प्रचार किया. मध्वाचार्य ने कहा कि ईश्‍वर एवं आत्मा पृथक हैं, किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत्‌ का स्रष्टा, पालक और संहारक है। भक्ति से प्रसन्न होनेवाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। अपने कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य दुःख भोगता है. ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनन्दभोग करता है। मध्व जीव और जगत्‌ को ब्रह्म का शरीर नहीं मानते। वे लक्ष्मी-नारायण के भक्त थे। उनके अनुसार विष्णु भौतिक संसार के कारण कर्ता हैं। भगवान प्रकृति को लक्ष्मी द्वारा सशक्त बनाते हैं और उसे दृश्य जगत में परिवर्तित करते हैं। उनका मानना था कि गुरु की सहायता से एवं ईश्‍वर के प्रति प्रेम से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

मीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है जिसमें वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गयी है। वेदान्त को 'उत्तरमीमांसा' भी कहा जाता है। उत्तर मीमांसा को 'ब्रह्ममीमांसा' भी कहा जाता है। किसी विषय पर गहराई से किए गये विचार-विमर्श को मीमांसा कहते हैं। वेद ने जिन कर्मों को करने के लिये कहा है, उनको करना और जिनको करने से मना किया है, उनको न करना "धर्म" है। पूर्वमीमांसा में धर्म का विचार है और उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। मध्वाचार्य ने भी 'जैमिनीय न्यायमाला विस्तार' नामक एक भाष्य रचा है। कर्मकांड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकांड का अधिकार उसके उपरान्त आता है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन मीमांसा में नहीं है। यह केवल वेद एवं उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है।

संत निम्बार्क : द्वैताद्वैत

संत निम्बार्क मराठा क्षेत्र में भक्ति आंदोलन के संस्थापक थे। उन्होंने कृष्ण भक्ति पर बल दिया। उनके विचार काफी क्रंतिकारी थे। वे धार्मिक कर्मकाण्ड (व्रत, उपवास, आदि) में विश्‍वास नहीं रखते थे। ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को उन्होंने नकारा। वे मानते थे कि सिर्फ भक्ति या श्रद्धापूर्ण निष्ठा से ही मोक्ष संभव है। उन्होंने कहा कि जीवन में दु:ख के बाद सुख एवं सुख के बाद दु:ख का क्रम चलता रहता है अत: आदमी जब सुख में रहे तो उसे भगवान को भूलना नहीं चाहिए तथा दु:ख में उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए।

निम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र​ शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद विपरीत​ स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी​ आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही धर्म हैं। किसी एक को​ उपादेय तथा अन्य को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से​ सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की​ कल्पना करना उचित नहीं है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न​ रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है।

संत रामानंद और उनके अनुयायी

संत रामानुज के अनुयायियों में सबसे महत्वपूर्ण नाम है संत रामानंद। उनका जन्म 14वीं शताब्दी में इलाहाबाद के निकट एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भक्ति आंदोलन को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। यह कहना कदापि ग़लत नहीं होगा कि उत्तरी भारत के भक्ति आंदोलन के वे अगुआ थे। भगवान विष्णु के एक दूसरे अवतार राम उनके आराध्य देव थे एवं उन्होंने राम पंथ को प्रतिपादित किया। उस काल के विचारकों में वे पहले थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से और ज़ोरदार ढ़ंग से जातिप्रथा के विरुद्ध एवं स्त्रियों की समानता के लिए आवाज़ उठाई। उन्होंने अपने निकटतम शिष्यों में निम्न जाति के कई लोगों को स्वीकार कया। जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि उनके बाद भी हमें कई धार्मोपदेशक निम्न जाति के भी देखने को मिलते हैं। यह स्थापित प्रथा में एक क्रांतिकारी बदलाव था। संत रामानंद के विचारों ने लोगों के दिमाग में जागृति की लहर पैदा की।

संत रामानंद विचार से कट्टरपंथी थे, किन्तु आचार से दयालु और उदार। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी दो दलों में बंट गए। एक दल में संत नाभा दास और तुलसी दास जैसे वर्णाश्रम धर्म में विश्‍वास रखने वाले संत थे तो दूसरे दल में कबीर दास जैसे संत थे जो आडम्बरपूर्ण धार्मिक प्रथाओं का विरोध करते थे। नान्हा, पीपा, धन्ना, साईं दास, रैदास, गुरु नानक आदि उनके अन्य प्रसिद्ध शिष्य हैं। ये सभी रामानंद परंपरा के उदारवादी संत थे।

तेरहवीं एवं चौदहवीं शताब्दी का भक्ति आन्दोलन और संत कबीर दास

निर्गुणपंथी संत कबीरदास का जन्म 1440 ई. के लगभग हुआ था। कबीरदासजी भक्त संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्‍वास, कुरीतयों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम और रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों धर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई। वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे।

UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

संत कबीर भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्‍वास प्रकट किया। एकेश्‍वरवाद के समर्थक संत कबीरदास का मानना था कि ईश्‍वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचारों को व्यक्त किया। फलत: बड़ी संख्या में सभी धर्मों एवं जातियों के लोग उनके अनुयायी हुए। संत कबीर के अनुयाई कबीरपंथी कहलाए। उनके उपदेशों का संकलन बीजक में है। इस तरह हम कह पाते हैं कि समस्त जाति और पंथों को जोड़ने वाले एक प्रेम धर्म को प्रचारित करना कबीर का जीवन लक्ष्य था।

इस परंपरा में संत कबीर के साथ जो अनेक संत और महात्मा जन्मे उनमें गुरु नानक देवजी, रैदास, धन्ना, सुन्दर दा, दादू दयाल, मलूक दास और धरणी दास के नाम काफी प्रचलित हैं। गुरु नानक देवजी का जन्म तलवंडी (नानकाना साहिब) में 1469 में हुआ था। उन्होंने भी एकेश्‍वरवाद का उपदेश दिया। संत कबीरदास और गुरु नानक देवजी दोनों का मानना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। पुजारी वर्ग कर्मकाण्ड पर अधिक ज़ोर देकर भेद पैदा करते हैं। इन दोनों महात्माओं का मानना था कि जाति प्रथा उचित नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए।

इन समान विचारों के बावज़ूद दोनों महापुरुषों में मूलभूत अंतर था। संत कबीर एक आलोचक थे। उनका विश्‍वास था कि समाज की रूढ़िवादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। जबकि गुरु नानक देवजी एक रचनात्मक प्रतिभा वाले व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी शक्ति केवल निन्दा में ही नहीं लगाई। उन्होंने समाज सुधार का एक रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उन्होंने लंगर का एक प्रस्ताव रखा जिसमें विभिन्न जाति के लोग साथ-साथ भोजन कर सकें। उन दिनों उठाया जाने वाला यह क़दम निश्चित तौर से क्रान्तिकारी था। उनका विचार था कि एक नई धारणा का प्रचार किया जाए तो निश्चित रूप से हिन्दू एवं इस्लाम दोनों पंथों के लोग अंतत: एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएंगे।

UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

गुरु नानक देवजी ने संत कबीर की तुलना में अपने सम्प्रदाय को प्रभावशाली ढ़ंग से एक संगठनात्मक रूप दिया। संत कबीर ने कोई संस्था नहीं बनाई। अत: उनके बाद उनके विचारों को उतना महत्व नहीं मिला जितना उनके जीवनकाल में था। गुरु नानक देवजी ने गुरु प्रथा पर आधारित संस्‍था चलाई। जिस कारण सिख समुदाय को हमेशा एक गुरु का नेतृत्व मिलता रहा और उन्होंने गुरु के आदेशों का पालन भी किया। गुरु नानाक देवजी के उपदेशों ने एक नए धर्म की स्थापना का आधार तैयार किया जो आनेवाले समय में गुरु गोविंद ‍सिंहजी के नेतृत्व में सिख धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। उनके विचारों का संकलन गुरु ग्रंथ साहिब में किया गया।

गुरु नानक देवजी के बाद इस सम्प्रदाय का विशदीकरण किया गुरु अर्जुन दासजी ने मसनद के द्वारा। उनके समय में सिखों एवं मुग़लों के बीच मतभेद उभरे। इस संघर्ष के कारण सिखवाद ने आक्रामक तेवर अपना लिया एवं अकाली पंथ का उदय हुआ। बाद में सिख पंथ में ही एक उदासीन वर्ग का उदय हुआ। सिखपंथ को विकास या प्रगति प्रदान करने के लिए आर्थिक ढ़ांचा भी था जिसका कबीरपंथियों में सदा अभाव रहा। इसके कारण गुरु नानक देव एवं सिखपंथ को संत कबीर दास की तुलना में काफी फ़ायदा मिला।

संत वल्लभाचार्य और संत चैतन्य महाप्रभु

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृष्ण पंथ के अगुआ थे संत वल्लभाचार्य (1479-1531) और पूर्वी भारत में संत चैतन्य महाप्रभु (1485-1533)। दोनों का भक्ति मार्ग में विश्‍वास था। दोनों ने ही श्रीकृष्ण एवं राधा के बीच प्रेम को ईश्‍वर के प्रति निष्ठा के मॉडल के रूप में अपनाया। संत वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में दक्षिण भारत के एक तेलुगु परिवार में हुआ था। इनके पिता काशी में आकर बस गए थे। उनका मानना था कि ब्रह्म और आत्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा भक्ति के माध्यम से अपने बंधनों से छुटकारा पा सकती है। भक्त को वसुदेव के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि वही मनुष्य को पापों से छुटकारा दिला सकता है। उन्होंने कृष्ण को अपना आराध्य देव बनाया। वे नृत्य-गान और भ‍क्ति के द्वारा भगवान को रिझाने का प्रयास करने लगे। उन्होंने विशेष रूप से भगवान की प्रतिमा पूजा पर बल दिया। वे विजयनगर सम्राट कृष्णदेव राय की सभा में राज पंडित के रूप में रहते थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्कें हैं "सुबोधिनी" एवं "सिद्धान्त रहस्य"। संत वल्लभचार्य की मृत्यु के पश्‍चात् दुर्भाग्यवश उनके पंथ में कुछ अवांछनीय प्रथा का प्रवेश हो गया।

दूसरी ओर संत चैतन्य महाप्रभू के सम्प्रदाय ने दृढ़ अनुशासन के द्वारा नैतिकता का स्तर बनाए रखा। वे सरल, आडम्बर रहित भक्ति में विश्‍वास रखते थे। उनका यह भी मानना था कि ईश्‍वर के प्रति प्रेम, भक्ति, भजन और नृत्य द्वारा परम आनंद की एक एंसी स्थिति उत्पन्न होगी जिसमें ईश्‍वर का साक्षात्कार होगा। उनका कहना था कि भगवान श्रीकृष्ण की उपासना एवं गुरु की सेवा से कोई भी व्यक्ति ईश्‍वर से एकीकृत हो सकता है। आध्यात्मिक उत्साह के कारण इस सम्प्रदाय में संकीर्तन का विकास हुआ। संत चैतन्य ने भी ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डी स्वरूप तथा जाति प्रथा की निन्दा की एवं अपने पंथ में निम्न वर्ग यहां तक कि मुसलमानों को भी सम्मिलित किया।

रसखान का कृष्णपंथ में बहुत ही सक्रिय योगदान रहा है। अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के भी कई दोहे श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। संत चैतन्य ने न सिर्फ़ भक्ति आंदोलन में सुधार किया बल्कि बंगाल की सामाजिक व्यवस्था में भी सुधार के प्रयास किए।

संत तुकाराम, संत दादू दयाल, संत सूरदास

चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच अन्य संत व धर्मोपदेशक जैसे संत नामदेव, व संत तुकाराम ने महाराष्ट्र में, संत ज्ञनेश्‍वर व संत दादू दयाल ने गुजरात में तथा बाद में गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास एवं मीराबाई ने भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाया। गोस्वामी तुलसी दास ने रामपंथ को बढ़ावा दिया। संत सूरदास संत वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने ब्रजभाषा में "सूरसागर" लिखा। उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया। राजस्थान की मीराबाई एक संत ही नहीं कवयित्री भी थीं। हालाकि उनके बड़े अनुयायी नहीं हुए फिर भी उनके भक्ति-गीत बहुत ही महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय हैं।

UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

महाराज छत्रपति शिवाजी के समकालीन संत तुकाराम महाराष्ट्र क्षेत्र में सक्रिय थे। उन्होंने भगवान बिठोवा की अर्चना को लोकप्रिय बनाया। उनका मंदिर पंढ़ारपुर में है। बाद में बिठोवा भगवान को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाने लगा। संत तुकाराम ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। संत तुकाराम के ही उपदेशों का प्रभाव था कि महारज शिवाजी मुस्लिम प्रजा के प्रति काफी उदार भाव रखते थे।

निर्गुण भक्ति की परंपरा में संत कबीर दास और गुरु नानक देवजी के साथ एक और नाम है संत दादू दयाल का। उन्होंने नैतिक शुद्धता पर बल दिया। उन्होंने भक्ति के द्वारा समाज सेवा एवं मानवतावादी दृष्टिकोण लोगों के सामने प्रस्तुत किए। विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों को भ्रातृत्व और प्रेम में बांधकर एक करने की कामना से उन्होंने एक अलग पंथ का निर्माण किया जो "दादू पंथ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। "दादू ग्रंथावली" में उनकी संकल्पनाएं संग्रहीत हैं।

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

मध्यकालीन भारत के भक्ति आन्दोलन के उपदेशकों की शिक्षा के प्रभाव का हम आकलन करें तो पाते हैं कि, ऐसे आंदोलन पूर्वकाल में भी हुए थे पर मध्य काल में हुए भक्ति आंदोलन द्वारा हिन्दू धर्म एवं समाज सुधार पर विशेष बल दिया गया। खासकर जातिप्रथा के विरुद्ध तो एक ज़ोरदार आवाज़ उठी। साथ ही इस आंदोलन के द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता की वकालत भी की गई। इस काल में भक्ति आंदोलन का वैष्णव पंथ काफी लोकप्रिय हुआ। इस सम्प्रदाय का अंग न होते हुए भी गुरु नानक देवजी आदि संत भी इसके उपदेशों और विचारों से प्रभावित हुए। हालाकि इस काल के उपदेशक अलग-अलग सीख दे रहे थे, फिर भी उन सब में कई बातें सामान्य थीं, जैसे इष्ट देव का होना, मोक्ष की प्राप्ति, जाति प्रथा का विरोध, निचले तबके के लोगों एवं स्त्रियों के उत्थान के प्रति सजगता।

अत: हम यह कह सकते हैं कि उन दिनों एक क्रान्तिकारी विचारधारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें न सिर्फ़ कमज़ोर तबके के लोगों को समाहित किया गया बल्कि उसमें स्त्रियाँ भी शामिल थीं। उत्तर भारत में परिवर्तन की बयार चतुर्दिक् बह रही थी। पंजाब में गुरु नानक देवजी, रास्थान में भक्त मीराबाई, महाराष्ट्र में संत तुकाराम, बंगाल में चैतन्य महाप्रभू, उत्तर प्रदेश और बिहार में संत रामानंद उल्लेखनीय हैं। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में एक नई जागरूकता का आविर्भाव हुआ। किन्तु भौगोलिक रूप से (दुर्भाग्यवश) यह आंदोलन अखिल भारतीय रूप न ले सका। ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त संतों के प्रयास क्षेत्रीयता में ही सिमटकर / संगठित होकर रह गए।

एक तो सामाजिक एकता का अभाव था, समाज जाति एवं वर्ग में विभाजित था, जिसका प्रभाव सम्प्रदायों पर भी पड़ता रहा। दूसरे किसी भी भक्त संत को शासक वर्ग का संरक्षण नहीं मिला। इस काल में न तो कोई खारवेल था और न ही कोई चंद्रगुप्त, न तो कोई अशोक था और न ही कोई कनिष्क, जो इस काल के भक्त संतों और उनके आंदोलन को संरक्षण प्रदान करता। आम तौर पर सुल्तान अपनी हिन्दू प्रजा के धार्मिक क्रिया-कलापों में दख़लअंदाजी न देने की तटस्थ नीति अपनाते थे।

इसके अलावा, संत रामानुज के बाद ब्राह्मणों ने इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान नहीं किया। समाज के निम्न वर्ग के लोग न तो अच्छी तरह से संगठित थे न ही उनके पास पर्याप्त संसाधन था, सिवाय सिखों के पंथ के, कि वे अपने पंथ को एक संगठनात्मक ढ़ाँचा प्रदान कर पाते। एक बार ये संत जब दृश्य से हट गए तो उनका प्रभाव क्षीण होता गया।

हिन्दू धर्म के समानान्तर पंथ चलाने का प्रयास

एक अन्य कारण यह था कि इनमें से कई संतों ने हिन्दू धर्म के समानान्तर पंथ चलाने का प्रयास लक्षित नहीं किया। उन्होंने ब्राह्मणवादी कुछ मूल-भूत धारणाओं पर प्रहार ज़रूर किया पर पूरे के पूरे ढ़ांचे को बदलने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। जिन कुप्रथाओं को बदलने का प्रयास वे कर रहे थे वे हमारी संस्कृति में काफी गहरी जड़ें जमा चुकी थीं, जिन्हें उखाड़ना आसान नहीं था। अत: रूढ़िवादी समाज में एक बड़ी सफलता प्राप्त करना आसान नहीं था। मध्यकालीन यूरोप के सुधारकों की तरह ये सुधारक कुप्रथाओं के विरुद्ध जनता के बीच अपनी आवाज़ बुलन्द करने के लिए शस्त्र लेकर उठ खड़े नहीं हुए थे।

हिन्दू धर्म में प्रचलित मान्यता रही है कि जो भी हो रहा है वह ईश्‍वर की मर्ज़ी से हो रहा है। नियतत्ववाद और यतित्ववाद के कारण भी इस आंदोलन का व्यापक प्रसार नहीं हो पाया। सांसारिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में यह आंदोलन आंशिक रूप से ही सफल हुआ एवं समाज में अधिक दिनों तक व्यापक रूप से बना नहीं रह सका। फिर भी यह पृथक् एवं छोटी इकाई के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता रहा। ये सभी कारक सम्मिलित रूप से इस आंदोलन के अखिल भारतीय रूप न ले पाने की व्याख्या करते हैं और अंत में यह कहना होगा कि इस आंदोलन के नेताओं के बीच शायद ही कोई तालमेल था।

तुगलक असफल तो अकबर को मिली सफलता

इसका मतलब यह नहीं कि य‍ह आंदोलन बेअसर रहा। यह सही है कि जाति प्रथा की समाप्ति नहीं हुई, फिर भी इसने जाति प्रथा के सिद्धांत को चुनौती तो अवश्य ही दी। अन्तरजातीय भोजन एवं अन्तरजातीय विवाह की दृढ़ता में निश्चित रूप से कमी आई। तत्कालीन परिस्थितियों पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि उन्होंने सार्थक प्रयास किये और उनकी छोटी सफलता भी काफी बड़ी एवं प्रशंसनीय है। सीमाओं के बावज़ूद इस आंदोलन की उपलब्धियाँ विलक्षण थीं। उन संतों के उपदेश समाज में शांतिपूर्वैक वातावरण का आधार तैयार क‍र रहे थे। पूजा एवं धर्म का सरलीकरण हो रहा था। जाति व्यवस्था की रूढ़िवादिता में शिथिलता आ रही थी।

UPSC - मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल

इन संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण येगदान दिया। इन लोगों ने अपने उपदेश आम लोगों की बोलचाल की भाषा में दिये। गुरु नानक देवजी ने पंजाबी में, चैतन्य महाप्रभू ने बांग्ला में, मीराबाई ने राजस्थानी में, संत तुकाराम ने मराठी में, विद्यापति ने मैथिली में, चंडीदास ने बांग्ला में, एकनाथ स्वामी ने मराठी में, शंकर देव ने असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में असमी भाषा में, अपने-अपने उपदेश दिए एवं इन भाषाओं को लोकप्रिययता दिलाई। बिहार एवं उत्तर प्रदेश के संतों ने ब्रजभाषा एवं अवधी का प्रयोग किया। इन संतों के प्रयासों से इन भाषाओं को एक अलग पहचान मिली।

इन लोगों के प्रयासों के कारण हिन्दू-मुसलमानों के बीच एक बेहतर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ। मध्यकालीन भारत में जब मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने धार्मिक सहनशीलता की नीति का प्रयोग किया तो इस्लामी रूढ़िवादिता के कारण असफल रहा किन्तु उसके दो शताब्दियों के बाद इसी तरह के प्रयोग में अकबर को असाधारण सफलता मिली। बीच की ये दो शताब्दियां धार्मिक आंदोलन का काल थीं। इन संतों ने सहनशीलता व उदारता का एक वातावरण तैयार कर दिया था जिसकी पृष्ठभूमि में मुग़ल पूरे देश पर राज कर सके जिसमें दोनों वर्गों के बीच एक बेहतर आपसी समझ-बूझ का माहौल था।

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English summary
Here is the detailed essay on Medieval India - A Period of Religious Tolerance that can help you in preparing for UPSC exam. Get answers of questions asked in UPSC on Religious Tolerance.
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