इतिहास- भारत में कैसे गहरायी वामपंथी विचारधारा

दुनिया के तमाम देशों में सरकारों का बनना, बिगड़ना कई बार विचारधाराओं के आधार पर होता है। यूके हो या रूस या फिर भारत, भिन्न विचारधाराएं कभी-कभी बड़े बदलाव कर बैठती हैं। बात अगर लेफ्ट यानि वामपंथी विचारधारा की करें, तो क्या आपने कभी सोचा है कि वामपंथी विचारधारा का उद्भव कैसे हुआ और किस तरह दुनिया के तमाम देशों में इसका वर्चस्व बढ़ा।

इतिहास- भारत में कैसे गहरायी वामपंथी विचारधारा

तो आइये हम आपको इतिहास के उन पन्नों पर ले कर चलते हैं, जब भारत में वामपंथी विचारधारा के उदय हुआ था।

इससे पहले यूपीएससी 2015 की परीक्षा में पूछा गया सवाल- "परवर्ती (late) 1920 एवं 1930 के दशकों में भारत में एक शक्तिशाली वामपंथी गुट विकसित हुआ जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को मौलिक दृष्टि से परिवर्तित करने की दिशा में योगदान दिया।" समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

रूस क्रांति के बाद भारत में असर

रूस की क्रान्ति के बाद सारे संसार में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा। भारतीय युवा पीढ़ी को उन सामाजिक आदर्शों की जानकारी थी जो सोवियत संघ से आ रही थी। कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल और ट्रेड यूनियन इंटरनेशनल की स्थापना हुई।

कुछ भारतीय क्रांतिकारी, जिनमें से एम.एन. राय प्रमुख थे, इन गतिविधियों में दिलचस्पी ले रहे थे। राय ने लेनिन के साथ मिलकर उपनिवेशों के प्रति कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की नीति तैयार करने में मदद की। उनके नेतृत्व में सात भारतीयों ने 17 अक्तूबर, 1920 को ताशकंद में 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी' की स्थापना की।

कलकत्ता से लाहौर तक बने वामपंथी समूह

भारत के विभिन्न भागों कलकत्ता, बंबई, मद्रास और लाहौर में कम्यूनिस्ट ग्रुप स्थापित किए गए। 1924 में सभी कम्युनिस्ट समूहों को मिलाकर कानपुर में 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया' (सी.पी.आई.) की स्थापना की घोषणा की गयी।

इसका उद्देश्य भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आधिपत्य से मुक्ति दिलाने के अलावा उत्पादन तथा वितरण के साधनों के समाजीकरण पर आधारित मज़दूरों-किसानों का गणतन्त्र स्थापित करना था। राष्ट्रीय संघर्ष से मज़दूरों का लगाव बढ़ा। सी.पी.आई. के महासचिव एस.सी.घाटे ने अपने सभी सदस्यों को कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए कहा। वे चाहते थे कि कांग्रेस अधिक क्रान्तिकारी और जनाधार वाले संगठन का रूप ग्रहण करे।

बिपन चन्द्र मानते हैं कि परवर्ती (late) 1920 एवं 1930 के दशकों में भारत में एक शक्तिशाली वामपंथी गुट विकसित हुआ जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को मौलिक दृष्टि से परिवर्तित करने के दिशा में योगदान दिया। मज़दूरों द्वारा की जा रही हड़तालों को जवाहरलाल नेहरू और वी.वी. गिरी जैसे नेताओं का समर्थन मिलने लगा। समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित वामोन्मुख नेताओं और कार्यकर्ताओं ने साइमन आयोग के बहिष्कार का समर्थन किया।

समाजवादी और साम्यवादी विचारों ने जड़ें जमायी

1930 के दशक में भारत में मज़दूर आन्दोलन सशक्त हुआ और देश के राजनैतिक चिंतन में समाजवादी और साम्यवादी विचारों ने जड़ें जमाई। राष्ट्रीय आन्दोलन का अब तक लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना था। इसमें अब सामाजिक और आर्थिक अंतर्वस्तु का प्रवेश हुआ। समाजवादी विचारों ने भारत की धरती पर पैर जमाने शुरू कर दिए थे। नेहरू और सुभाष बोस समाजवादी विश्वास की प्रेरणा के प्रतीक बन गए थे। समय के साथ वामपक्ष में दो ताकतवर दल उभरे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस समाजवादी पार्टी।

वामपक्ष का उदय

भारत में वामपक्ष के उदय के पीछे मुख्य प्रेरक शक्ति थी रूसी क्रांति। 7 नवंबर, 1917 को लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने ज़ार के तानाशाही शासन को उखाड फेंका था। इस तरह रूस में समाजवादी राज की स्थापना हुई।

इस क्रान्ति से लोगों को यह विश्वास हुआ कि यदि आम जमता यानी मज़दूर, किसान और बुद्धिजीवी वर्ग संगठित होकर ज़ार जैसे शक्तिशाली साम्राज्य का तख्ता पलट सकते हैं, और ऐसी सामाजिक व्यवस्था कायम कर सकते हैं जिसमें एक आदमी दूसरे का शोषण नहीं करता हो, तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष करने वाली भारतीय जनता भी ऐसा कर सकती है।

समाजवादी सिद्धांत की तरफ लोगों का ध्यान गया। समाजवादी विचार तेज़ी से फैलने लगा। साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे युवकों को उस समय के विख्यात क्रांतिकारी नेता नरेन भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेन्द्र नाथ राय ने नई राह दिखाई। तब सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता की धूम मची हुई थी। इससे प्रेरित हो दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने दौर चल रहा था।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना

अक्तूबर 1920 में एम.एन. राय ने अवनी मुखर्जी, मुहम्मद अली और मुहम्मद शफ़ीक़ के साथ मिलकर ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया' की स्थापना की। 1922 में राय अपना मुख्यालय बर्लिन ले गए।

कुछ अप्रवासी भारतीय क्रांतिकारी, जिनमें वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त और बरकतुल्लाह प्रमुख थे, भी मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हो रहे थे। इस समूह ने 1922 में बर्लिन में 'इंडिया इंडिपेंडेंस पार्टी' की स्थापना की। दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का एक खुला सम्मेलन हुआ। इसके संयोजक सत्यभक्त थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी थे। और इसकी अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की थी।

पार्टी का औपचारिक गठन

इसमें 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' के औपचारिक गठन की घोषणा कर दी गई। इसने देश में बिखरे कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट किया। 1925-26 में बंगाल में 'लेबर स्वराज पार्टी' का गठन किया गया, जिसका नाम शीघ्र ही बदलकर 'किसान-मज़दूर पार्टी' रख दिया गया।

1926-27 के दौरान भारत के विभिन्न राजनीतिक केन्द्रों - कलकत्ता, बम्बई, पंजाब, मद्रास, और लाहौर में मजदूर किसान पार्टियों के उदय से कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को मजदूरों को संगठित करने में काफी मदद मिली। इंग्लैंड की पार्लियामेंट में कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में शापुरजी सकलतवाला को प्रवेश मिला।

1905-07 से ही हड़ताल में शरीक मज़दूर 'वंदे मातरम्‌' का नारा लगाने लगे थे। 'होम रूल' आंदोलन ने मज़दूर आंदोलन को बहुत प्रभावित किया था। असहयोग आन्दोलन में भाग ले रहे बहुत से नौजवान इसके तरीकों से खुश नहीं थे। गांधीवादी नीतियों से उन्हें असंतोष था। वे वैकल्पिक मार्गदर्शन के लिए समाजवादी विचारों की तरफ मुड़े।

मजदूरों को किया गया संगठित

अनेक राष्ट्रवादी आंदोलनकारी नेताओं ने असहयोग आंदोलन के दौरान मज़दूरों को संगठित किया और उनके संघर्ष का नेतृत्व भी किया। मदुरै के डॉ. पी.ए. नायडू, कोयंबटूर के एम.एस. रामास्वामी आयंगार, बंबई के जोसेफ बैपटिस्ट और एन.एम. जोशी, लाहौर के दीवान चमनलाल, एम.ए. खां, बंगाल में स्वामी विश्वानंद और सी.एफ़. एन्ड्र्यूज़ बिहार में, के अलावा आर.एस. निंबकार, एस.ए. डांगे, एस.एस. मिरजकर, के.एन. जोगलेकर आदि मज़दूर नेता जो उन दिनों असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय थे।

इस तरह हम कह सकते हैं कि असहयोग आंदोलन के दौरान ही मज़दूर संगठन मज़बूत हुए। नागपुर अधिवेशन में मज़दूरों की दशा सुधारने का प्रस्ताव पारित कर उनकी दशा सुधारने के लिए कार्यक्रम बनाने का निर्णय लिया गया।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन

31 अक्तूबर, 1920 को बंबई में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन किया गया। तिलक, एनी बेसंट और ऐंड्र्यूज इसके उपाध्यक्ष थे। बाद में अनेक राष्ट्रीय नेताओं चितरंजन दास, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस आदि ने इसके कार्यों में रुचि ली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनेक नेता 'एटक' में विभिन्न पदों को सुशोभित करते रहे। नेहरू और लाजपत राय एक ही समय में 'एटक' और कांग्रेस के अध्यक्ष थे।

वामपंथियों का आंदोलन और विस्तार

1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन के कारण जनआंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा। 1921 में जनआंदोलनों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक मज़दूर आंदोलन छिड़ा। प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के दौरान मज़दूरों की साम्राज्यवादी भावना ज़ोरदार ढंग से प्रदर्शित हुई। बंबई, कलकत्ता और मद्रास में मज़दूरों ने हड़ताल मनाई। असहयोग आंदोलन के अंतिम दिनों में दर्शनानंद और विश्वानंद ने ईस्ट इंडियन रेलवे में एक सशक्त हड़ताल का नेतृत्व किया था। ईस्ट इंडिया और नार्थ वेस्टर्न रेलवे के मज़दूरों की आम हड़ताल को तोड़ने के लिए प्रबंधकों ने ऐसी-ऐसी रियायतें दीं जिसकी मज़दूरों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

1922 तक बड़े-बड़े सैंकड़ो मज़दूर संगठन बन चुके थे। पहला संगठन 'लेबर स्वराज पार्टी' था। मुज़फ्फर अहमद, नज़रूल इसलाम, हेमंत कुमार सरकार और कुछ अन्य लोगों ने मिलकर इस संगठन की स्थापना बंगाल में की थी। मज़दूर आंदोलन राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की मुख्य-धारा से जुड़ा हुआ था। उनकी सभाओं में 'वंदे मातरम्‌' गाया जाता, खादी का प्रयोग होता।

इतिहास- भारत में कैसे गहरायी वामपंथी विचारधारा

कांग्रेस लेबर पार्टी का गठन

टाटा उद्योग में सितंबर 1922 में कामगार वर्ग द्वारा एक स्वतःस्फूर्त हड़ताल हुई। जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन अपनी मान्यता प्राप्त करने के लिए इस अवसर का लाभ उठाया और इसका नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। फलस्वरूप स्वराजियों के समर्थन से सी.आर. दास और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ के नेतृत्व में एक कंशीलिएशन बोर्ड की स्थापना हुई।

1925 में इस यूनियन को मान्यता मिल गई और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ इसके अध्यक्ष बने। उस समय गांधीजी जमशेदपुर आए थे। उन्होंने कहा था, "पूंजी और श्रम के बीच सामंजस्य होना चाहिए।" कामगारों को समझाते हुए उन्होंने यह भी कहा था, "व्यापार में मंदी के समय वे अपने मालिकों को सांसत में न डालें।" अनेक बाधाओं के बावज़ूद श्रमिक आंदोलन चलता रहा।

1929 में बंबई में 'कांग्रेस लेबर पार्टी' नामक संगठन बनाया गया। उसी वर्ष पंजाब में 'कीर्ति किसान पार्टी' की स्थापना हुई। 1923 से ही 'लेबर किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान' मद्रास में काम कर रही थी। मद्रास के समुद्र तट पर सिंगारवेलु द्वारा आयोजित सभा में 1923 में पहला मई दिवस मनाया गया था।

लाहौर में निकाला गया जुलूस

1925 में नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे की हड़ताल में लाहौर में एक जुलूस निकाली गई थी, जिसमें कामगार अपने ही ख़ून से लाल किए गए झंडे लेकर निकल पड़े थे।

1925 में बंबई की कपड़ा मिलों में बोनस को लेकर हुई हड़ताल के कारण उत्पादन ठप्प पड़ गया था। सरकार द्वारा बिठाए गए जांच आयोग ने श्रमिक विरोधी फैसला दिया था। एम.एन. जोशी ने श्रमिकों को हड़ताल बंद करने की सलाह दी थी। लेकिन पुलिस के दमन और गोलियों के बावज़ूद भी श्रमिकों ने हड़ताल ज़ारी रखी।

भुखमरी से विवश होकर लौटे काम पर

बाद में भुखमरी से विवश हो वे काम पर लौटे। बंबई के कपड़ा उद्योग क्षेत्र में ही श्रमिकों के सतत संघर्ष और हड़ताल के कारण सरकार को साढ़े तीन प्रतिशत का उत्पादन शुल्क हटाने का फैसला लेने पर विवश होना पड़ा।

1928 में इन सभी प्रांतीय संगठनों को मिलाकर एक नया संगठन बनाया जिसका नाम 'वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी' रखा गया। इसकी इकाइयां दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भी स्थापित की गईं। इसका उद्देश्य कांग्रेस के अंतर्गत काम करते हुए इसको क्रांतिकारी रुझान वाली पार्टी बनाना था। इस संगठन में मुख्य रूप से किसानों और मज़दूरों को शामिल किया गया। वे पहले स्वतंत्रता हासिल करना चाहते थे, फिर उनका अंतिम लक्ष्य था समाजवाद।

1927-29 के दौर में मज़दूर वर्ग के संघर्ष के उभार में इस पार्टी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

युवकों के सैकड़ों अधिवेशन

1927 के बाद देश में युवक संगठन स्थापित किए गए। युवकों के सैकड़ों अधिवेशन हुए। जिन आर्थिक और सामाजिक बुराइयों से देश पीड़ित था उससे छुटकारा पाने के लिए क्रान्तिकारी हल निकालने की सिफारिश की गई। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने पूरे देश का दौरा किया। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और ज़मींदारी प्रथा की उन्होंने आलोचना की। समाजवादी विचारधारा को अपनाने की सलाह दी।

1927 में मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसका सुभाषचंद्र बोस ने समर्थन किया। प्रस्ताव था कि कांग्रेस का अंतिम लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वराज प्राप्त करना है। भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद भी समाजवाद की तरफ झुके। उन्होंने शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी। देश भर में जगह-जगह हड़तालें हुईं। ज़्यादातर हड़तालें आर्थिक मांग को लेकर होती थी, लेकिन सारे मुद्दे 'राष्ट्रीय सम्मान' के मुद्दे से जुड़ जाते थे। इस तरह आर्थिक और राष्ट्रीय संघर्ष में समन्वय बढ़ता गया। इससे ब्रिटिश हुक़ूमत का चिंतित होना लाजिमी था। उन्हें मज़दूरों के संघर्ष में 'बोल्शेविक क्रांति' की झलक दिखने लगी।

पूरे विश्‍व में आर्थिक संकट

तीसरे दशक के दौरान सारा विश्व महान आर्थिक मंदी में डूबा हुआ था। सारे संसार में भयंकर आर्थिक संकट पैदा हुआ। इसके विपरीत रूस में तस्वीर बहुत आशाजनक थी। पंचवर्षीय योजनाओं के पूरा होने से वहाँ के उत्पादन में चौगुनी वृद्धि हुई थी। इस प्रगति ने कम्युनिस्ट नमूने के समाजवाद और आर्थिक योजनाओं के लाभ की ओर लोगों का ध्यान खींचा।

परिणाम यह हुआ कि समाजवादी विचारों ने आम जनता और नेता दोनों को नए तरीके से सोचने के लिए प्रेरित किया। भारत में इस दौर में मज़दूर आन्दोलन सशक्त हुआ और देश के राजनैतिक चिंतन में समाजवादी और साम्यवादी विचारों ने जड़ें जमायीं। इस दौरान समाजवादी विचार और अधिक लोकप्रिय हुआ।

1927-28 से साम्यवादी मज़दूर नेताओं ने वामपंथी कांग्रेसी नेताओं के सहयोग से राष्ट्रवादी मज़दूर आंदोलन को मज़बूत बनाना शुरू कर दिया था। उस दौरान बड़ी-बड़ी रेल हड़तालें हुईं।

1928 में 203 हड़तालें हुईं। इनमें 5,06,851 लोगों ने भाग लिया और 3,16,47,404 कार्य-दिवस की क्षति हुई। सत्याग्रह भी उनके संघर्ष के हथियार थे। आम सभाओं में वे कहते उनका संघर्ष स्वराज के लिए जंग है। वे पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे। उन दिनों एन.एम. जोशी के नेतृत्व वाली बंबे टेक्स्टाइल लेबर यूनियन, गिरनी कामगार महामंडल और शेतकारी कामगार पार्टी काफी सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। इन्हीं दिनों एशिया की सबसे बड़ी यूनियन 'गिरनी कामगार यूनियन' का जन्म हुआ।

वामपंथी व लड़ाकू ताकतों का प्रभाव

इसके नेतृत्व में एक बहुत बड़ी हड़ताल हुई थी जिसका नेतृत्व एस.ए. डांगे और एस.एच. झाबवाला ने किया था। उन्होंने मज़दूरों से अपील की कि वे गांधीजी द्वारा सुझाए हुए अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता अपनाएं और औपनिवेशिक सत्ता के काले क़ानून को मानने से इंकार कर दें। समय के साथ मज़दूरों के बीच वामपंथी व लड़ाकू ताकतों का प्रभाव बढ़ता गया और संविधानिक मज़दूर संघ वादियों का प्रभाव ख़त्म होता गया। 1929 में एटक अधिवेशन के समय दोनों खेमों के बीच की दूरी स्पष्ट दिखी। नेहरूजी के समर्थन से वामपंथी खेमे की जीत हुई। संविधानवादी खेमा एटक से अलग हो गया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिए जाने के कारण वामपंथियों में नाराज़गी थी। गांधीजी ने उन्हें बताया कि आन्दोलन को वापस लेना समय का तकाज़ा था। इसका मतलब साम्राज्यवाद से समझौता या राजनीतिक अवसरवादी ताक़तों के सामने समर्पण नहीं है। वामपंथी खेमे को प्रसन्न करने के लिए लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में राजगोपालाचारी जैसे नेताओं के विरोध के बावजूद गांधीजी ने नेहरू का समर्थन किया। 1930 के दशक में वामपंथ काफी मज़बूत हो गया था।

कांग्रेस के अंदर सोशलिस्ट ग्रुप

कांग्रेस के अन्दर सोशलिस्ट गुट, जिसके नेता नेहरू थे, दिन-ब-दिन जोर पकड़ता जा रहा था। यह गुट गांधीजी की नीतियों के खिलाफ था। इस गुट ने साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लिए गांधीजी की रणनीति के विकल्प के रूप में सशक्त रणनीति सुझाई थी। लेकिन गांधीजी के विशाल व्यक्तित्व के कारण यह गुट अपने को बंधा हुआ पाता था। नेहरू और समाजवादी गुट ने राष्ट्रीय हितों को तवज्जो दिया।

नेहरू ने अपने समर्थकों को स्पष्ट कर दिया था कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की लड़ाई शुरू करने से पहले अंग्रेजों को खदेड़ना ज़रूरी है। इसके लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में कांग्रेस का साथ देना ज़रूरी है। यह लड़ाई कांग्रेस के साथ ही मिलकर लड़ना होगा, क्योंकि कांग्रेस ही एक मात्र जनसंगठन है।

सरकारी प्रतिक्रिया

ब्रितानी शासक वर्ग ने महसूस किया कि साइमन विरोधी प्रदर्शन में जो स्वतः स्फूर्त उत्साह देखा गया था, वह वामपंथी दिशा में बढ़ रहा है। सरकार ने हड़तालों के कारणों की जांच और हड़तालों के बढ़ाते प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से 1928 में 'ह्विटली कमीशन' को भारत भेजा। इस आयोग को भारत में आकर मालिक-मज़दूर रिश्तों में सुधार और मज़दूर कल्याण के कामों को बेहतर बनाने के उपायों का सुझाव देना था।

सरकार की दृष्टि में वामपंथी आन्दोलन को शक्ति देने वाले ये ही मुख्य स्रोत थे। सरकार का विचार था कि मज़दूर वर्ग को यह समझाकर गुमराह कर दिया जाए कि समाजवाद और क्रान्ति के बारे में बोलने वाले नेताओं की तुलना में मज़दूरों के कल्याण की चिंता सरकार को अधिक है। लेकिन मज़दूर उनके धोखे में नहीं आए। ह्विटली कमीशन के भारत पहुँचने पर उसके विरुद्ध भारत में प्रदर्शन किए गए और सभाएं हुईं।

वामपंथियों का प्रभाव कम करने के लिए सरकार ने 8 अप्रैल, 1929 को 'श्रमिक विवाद अधिनियम' बनाया। इसका उद्देश्य हड़तालों और श्रमिकों के राजनीतिक कार्यों पर अंकुश लगाना था। इसके तहत डाक, रेलवे, पानी, बिजली जैसी सार्वजनिक उपयोगी सेवाओं में हड़ताल शुरू करने के पहले एक महीने पहले लिखित नोटिस देना ज़रूरी कर दिया गया। इसके विरोध में सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंका था।

पठान मजदूरों की भर्ती

1928 में हुई हड़तालों में भाग लेने वाले मज़दूरों की बर्खास्तगी और उनकी जगह पठान मज़दूरों की भर्ती के विरोध में 1929 में गिरानी कामगार संघ और रेल मज़दूरों के संयुक्त आवाहन पर एक आम हड़ताल हुई।

20 मार्च, 1929 को कम्यूनिस्ट पार्टी, मज़दूर किसान पार्टी और ट्रेड यूनियन कांग्रेस के 33 प्रमुख नेताओं को ब्रितानी राज के खिलाफ क्रान्ति करने के षडयंत्र के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इन नेताओं में मुज़फ्फर अहमद, डांगे, पी.सी. जोशी भी थे।

श्रमिक नेताओं पर मेरठ षडयंत्र का मुक़दमा चलाया गया। अभियुक्तों को कड़ी सजाएं दी गईं। वामपंथियों को कुचलने के लिए उनके ऊपर तरह-तरह के फर्जी मुक़दमें चलाए गए। सोवियत रूस से भारत में प्रवेश करने की कोशिश में कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया गया और राजद्रोह के मामले में फंसाकर उनपर पेशावर षडयंत्र केस में मुक़दमे चलाए गए और लंबी सजाएं दी गईं।

कानपुर बोल्शेविक षडयंत्र केस में एम.एन. राय, मुज़फ्फर अहमद, मालिनी गुप्ता, शौक़त उस्मानी और एस.ए. डांगे पर मुक़दमा चलाया गया और चार साल की सज़ा दी गई। 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके संबद्ध संगठनों को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। इससे श्रमिक आन्दोलन को आघात पहुंचा। पर श्रमिक आन्दोलन नहीं रुका। उन्होंने फिर से संगठित करने के प्रयास शुरू कर दिया। मेरठ राजद्रोह कांड ने राष्ट्रीय महत्त्व धारण कर लिया। जवाहरलाल नेहरू, एम्.ए. अंसारी और एम.सी. छागला जैसे राष्ट्रवादी नेता सामने आए और कैदियों को बचाने के अनेक प्रयास किए।

भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में फूट

भारत में साम्यवादी विचारधारा के विकास का प्रभाव ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर भी पडा। यह दो गुटों सुधारवादी (जेनेवा एमस्टर्डम गुट) और क्रांतिकारी (मास्को गुट) में बंट गया। सुधारवादी गुट का मुख्यालय एमस्टर्डम में था। यह गुट कांग्रेस को अंतर्राष्ट्रीय फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन से संबद्ध कराना चाहता था। जबकि दूसरा क्रांतिकारी गुट इसे मास्को से संचालित लाल अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ से जोड़ना चाहता था। नागपुर में आयोजित एटक के दसवें सत्र में कम्युनिस्टों ने ILO से अलग होने और साम्राज्यवाद के खिलाफ लीग के साथ जुड़ने का आह्वान किया। उदारवादी और सुधारवादी समूह इस विचार के खिलाफ थे। इस कारण से एन.एम. जोशी इससे अलग होकर ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन की स्थापना की।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर वामपंथियों का प्रभाव बना रहा। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में कांग्रेस में वामपंथी शक्तियां मज़बूत हुईं। 1931 में संगठन में एक फूट पड़ी। ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अलग इसके वामपक्ष की स्थापना की गयी, जो 'रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस' के नाम से प्रसिद्ध हुई। 1934 में कांग्रेस समाजवादी दल ने श्रमिक संघों की एकता के लिए प्रयास किया। इसका लाभ हुआ और 1935 में तीनों श्रमिक संघों को मिलाकर ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की गई।

श्रमिक आन्दोलन

1928 में व्यापक श्रमिक आन्दोलन देखने को मिलते हैं। बंगाल में लिलुआ रेल कार्यशाला में एक लंबा और कड़ा संघर्ष चला। हड़ताल को तोड़ने के लिए पुलिस द्वारा गोलीबारी भी हुई। मज़दूर किसान पार्टी के नेतृत्व में जूट मिलों में हड़तालें हुईं। श्रमिकों को राष्ट्रवादी समर्थन भी मिलता था।

दिसंबर 1928 में कलकता के कामगार वर्ग ने राजनीति में अपनी भागीदारी और राजनीतिक प्रौढ़ता का प्रदर्शन किया जब मज़दूर किसान पार्टी के नेतृत्व में हज़ारों की संख्या में कामगार कांग्रेस अधिवेशन के स्थान तक जुलूस बनाकर पहुंचे और न सिर्फ़ अपनी मांगे रखीं बल्कि पूर्ण स्वराज की मांग करने वाले प्रस्ताव को भी स्वीकार किया।

बंगाल के श्रमिक आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस ने गहरी रुचि दिखाई। जुलाई में साउथ इंडियन रेलवे में उग्र हड़ताल हुई। इसके नेता सिंगारवेलु और मुकुंदलाल सरकार को जेल की सज़ा हुई। सबसे प्रसिद्ध हड़ताल कपड़ा मिल मज़दूरों की थी। बड़े कपड़ा उद्योगपतियों का यही प्रयत्न रहता था कि सरकार द्वारा लंकाशायर और जापान के विरुद्ध चुंगी को संरक्षण देना अस्वीकार कर देने पर जो भार पड़ा था, उसे मज़दूरों के सिर पर थोप दें।

इससे मज़दूरों के पारिश्रमिक में कटौती होती थी। इसके विरोध में ज़बरदस्त हड़ताल हुई और हड़ताल तभी समाप्त हुई जब मिल मालिकों ने 1927 की मज़दूरी बहाल कर दी। इसकी प्रतिक्रिया में पूंजीपतियों और सरकार, दोनों की तरफ़ से प्रत्याक्रमण हुआ। परिणामस्वरूप अगले वर्ष एक बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ।

सरकार की दमनात्मक कार्रवाई हुई और अधिकांश मज़दूर नेता गिरफ़्तार कर लिए गए। मज़दूरों के बढ़ते रोष को देखकर अखिल भारतीय कांग्रेस ने एक श्रमिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की। सुभाषचन्द्र बोस ट्रेड यूनियनों के नेताओं के जेल में रहने के कारण अनुपस्थिति को देखकर श्रमिकों पर अपना प्रभाव जमाने लगे। इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि अब धीरे-धीरे श्रमिक आंदोलनों में उतार आ रहा था।

1928 के अंत तक मज़दूर नेता कांग्रेस के प्रति एकता और संघर्ष की नीति अपनाए हुए थे। वे कांग्रेस की आलोचना भी करते थे और उसके साथ एक साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे के निर्माण का प्रयास भी करते थे। दिसंबर 1928 भारतीय कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी मुख्यधारा से अलग-थलग रहने लगे। वे नेहरू और सुभाष पर वैचारिक आक्रमण भी करने लगे। श्रमिकों में कांग्रेस की रुचि सीमित ही रही थी।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान गांधीजी शीर्ष भूमिका निभा रहे थे। उनका आम हड़ताल जैसे हथियार का प्रयोग करने का इरादा नहीं था। इसे वह अत्यंत विभाजक और खतरनाक मानते थे। इधर आर्थिक परिस्थिति भी श्रमिक आन्दोलन के प्रतिकूल होती जा रही थी। परिणामस्वरूप कामगारों की मालिकों के साथ सौदेबाज़ी की क्षमता कमज़ोर पड़ती गई।

व्यापार संघ पर साम्यवादी प्रभाव

वामपंथी प्रभाव के कारण व्यापार संघ में क्रान्तिकारी भावना का संचार हुआ। साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीय संगठन की चौथी कांग्रेस ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से अनुरोध किया कि वह भारत में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिए प्रयास शुरू करे। लेकिन इस दिशा में कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किए गए। कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल ने भारतीय साम्यवादियों को व्यापार संघ आन्दोलन को वर्ग के आधार पर गठित करने की निर्देश दिया।

मज़दूरों और किसानों के संगठन

मज़दूर और किसान दोनों ही शोषित वर्ग थे। दोनों को एक आधार पर खड़ा करने की ज़रुरत थी। इसके लिए उनका एक संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस की गयी। साम्राज्यवाद का विरोध करने के कारण सरकार वामपंथियों पर कड़ी निगरानी रखती थी। इसलिए एम.एन. राय ने 'प्रजा पार्टी' के गठन का सुझाव दिया। इसमें किसान, मज़दूर, श्रमजीवी, मध्यवर्ग सभी सम्मिलित होते। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बंगाल में 'पेजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी', बंबई में 'कामगरी शेतकरी पार्टी', पंजाब में 'किरती किसान पार्टी', संयुक्त प्रदेश में 'मज़दूर किसान पार्टी' की स्थापना हुई। ये सभी पार्टियां वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थीं। इनकी गतिविधियों से वामपंथियों का प्रभाव किसानों और मज़दूरों में बढ़ने लगा।

साम्यवादियों का आरोप

साम्यवादियों का आरोप था कि कांग्रेसी नेताओं का लक्ष्य सरकार पर जनता का दबाव डालकर भारतीय पूंजीपतियों और ज़मींदारों के हित में औद्योगिक और व्यावसायिक रियायतें प्राप्त करना रहा है। कांग्रेस किसानों, मध्यम वर्ग की निचली श्रेणी के लोगों और औद्योगिक मज़दूरों के आर्थिक और राजनैतिक असंतोष के बहाने उसे बंबई, अहमदाबाद और कलकत्ते के मिल-मालिकों और पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाती है, उनसे उनके फ़ायदे के लिए काम करवाती है। ये पूंजीपती परदे के पीछे बैठकर कांग्रेस-कार्यसमिति को पहले एक सार्वजनिक आंदोलन चलाने का हुक्म देते हैं और जब वह आंदोलन विशाल और संकट-जनक रूप धारण कर लेता है, तो वे उसे स्थगित करने या गौण बना देने को कहते हैं।

कम्युनिस्टों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। बहुत से विद्वानों ने इसे 'वामपंथी भटकाव' की संज्ञा दी है। 'वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी' को भंग कर दिया गया। कम्युनिस्ट राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग-थलग पड गए। 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी को सरकार द्वारा गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन बहुत से कम्युनिस्टों ने अपने को सविनय अवज्ञा आन्दोलन से अलग नहीं रखा। 1935 में पी.सी. जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी का पुनर्गठन हुआ। अपने पुराने विचारों को छोड़कर कम्युनिस्टों ने नया रुख धारण किया। राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में शामिल हुए। 1938 में कम्युनिस्ट पार्टी ने घोषणा की कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत की जनता का केन्द्रीय जनसंगठन है जो साम्राज्य के विरोध में खड़ा है।"

उपसंहार

बीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक आधुनिक भारतीय इतिहास में एक से अधिक तरीकों से एक महत्वपूर्ण मोड़ है। जहां एक ओर, इस अवधि ने राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय जनता के प्रवेश को चिह्नित किया, वहीं दूसरी ओर, इस अवधि ने राष्ट्रीय परिदृश्य पर मुख्य राजनीतिक धाराओं के बुनियादी स्फटिकीकरण (crystallization) को देखा। इस चरण के दौरान भारतीय राजनीतिक विचारकों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव भी पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट था।

मार्क्स और समाजवादी विचारकों के विचारों ने कई समूहों को समाजवादियों और कम्युनिस्टों के रूप में अस्तित्व में आने के लिए प्रेरित किया। इन विचारों के परिणामस्वरूप कांग्रेस के भीतर एक वामपंथी दल का उदय हुआ, जिसका प्रतिनिधित्व जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस करते थे। सोवियत क्रांति से प्रेरित और गांधीवादी विचारों और राजनीतिक कार्यक्रम से असंतुष्ट इन युवा राष्ट्रवादियों ने देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के लिए कट्टरपंथी समाधानों की वकालत शुरू कर दी।

1930 के दशक में वामपंथियों ने अत्यंत बहादुर और उग्र साम्राज्य विरोधी की अपनी लोकप्रिय छवि को कायम की और समाजवाद और समाजवादी विचारों को लोकप्रिय बनाने में उनका प्रमुख योगदान रहा। इसके बावजूद यह वामपक्ष राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवादी विचारों और समाजवादी दल का वर्चस्व कायम नहीं कर सका। कांग्रेस का नेतृत्व प्रभावशाली था और वामपंथी ग़लत मुद्दों पर उनसे लड़ लेते थे। बार-बार इस लड़ाई में उन्हें पीछे हटाना पड़ता था। कई बार तो वे अलग-थलग पड़ जाते थे। इनके तर्क कि कांग्रेस साम्राज्यवाद से समझौता करना चाहती है, पूंजीपतियों का समर्थन करती है, आदि आरोपों का जनमानस पर कोई असर नहीं हुआ और कांग्रेस ने भी इसका जबरदस्त तरीके से खंडन किया।

बिपनचंद्र के अनुसार, "वामपंथी भारतीय यथार्थ का अध्ययन करने में असफल रहे।" नेहरू इसके अपवाद थे। बातचीत करके समस्या सुलझाने की कांग्रेस की नीतियों को वामपंथी समझौते का प्रयास मानते थे। संवैधानिक सीमा के भीतर रहकर की जाने वाली कोशिशों को वे संघर्ष से मुंह मोड़ने की संज्ञा देते थे। बिपनचंद्र कहते हैं कि "वामपंथियों ने भारतीय सामाजिक वर्गों तथा उनके व्यवहार के अतिसरलीकृत विश्लेषण का रास्ता अख्तियार कर लिया था। राष्ट्रीय आन्दोलन को अनुशासित तरीके से संचालित और निर्देशित करने के सारे प्रयास को ये लोग आन्दोलन पर अंकुश लगाना मानते थे।"

वामपंथी अहिंसा की तुलना में सशस्त्र संघर्ष को श्रेष्ठ पद्धति मानते थे। इनको भ्रम था कि इनके आह्वान पर जनता किसी भी तरह के संघर्ष के लिए हमेशा तैयार है। जनता के बीच अपने समर्थन का वे सही आकलन नहीं कर पाए। सबसे ऊपर गांधीवादी रणनीति को समझने में वामपंथी हमेशा असमर्थ रहे। वामपंथी संयुक्त रूप से काम करने में भी असफल रहे। उनका संयुक्त मोर्चा कायम करने का प्रयास भी निरर्थक रहा। इनके भीतर सैद्धांतिक मतभेद भी बहुत गहरे थे।

नेहरू और बोस बहुत दिनों तक साथ काम नहीं कर सकते थे। नेहरू और समाजवादी आपस में राजनीतिक तालमेल नहीं बिठा सके। बोस समाजवादियों से अलग हो गए। 1935 के बाद कांग्रेस समाजवादी और कम्युनिस्ट साथ मिलकर काम करने की कोशिश तो ज़रूर की लेकिन जल्दी ही एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। बिपनचन्द्र के अनुसार, "एक असलियत यह है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संगठित राष्ट्रीय आन्दोलन में मज़दूर वर्ग के अपेक्षाकृत अधिक क्रांतिकारी गुट तक ने हिस्सा नहीं लिया।" नेहरू ने भी माना है, "मज़दूरों के उन्नत वर्ग में राष्ट्रीय कांग्रेस को लेकर झिझक थी। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं पर विश्वास नहीं किया। उसकी विचारधारा को बुर्जुआ और प्रतिक्रियावादी माना।"

लेकिन इनके महत्त्व को कम करके भी नहीं आंकना चाहिए। वामपंथियों को भारतीय समाज और राजनीति पर एक बुनियादी प्रभाव डालने में अभूतपूर्व सफलता मिली। इनके प्रयासों से किसानों और मज़दूरों के संगठन बने। कांग्रेस की विचारधारा में इन्होंने पैठ बनाई और कांग्रेस की निर्णयों को प्रभावित किया। समाजवादी दृष्टिकोण रखने वाले नेहरू तथा बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। समाजवादी नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्धन और जयप्रकाश नारायण कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति में शामिल किए गए।

बोस ने पट्टाभि सीतारामैया को अध्यक्ष पद के चुनाव में पराजित किया। कांग्रेस का वामपंथ की तरफ झुकाव बढ़ा। वामपंथियों के कारण ही कांग्रेस यह मानने लगी थी कि, "भारतीय जनता की दरिद्रता और मुसीबतों की जड़ सिर्फ उपनिवेशवादी शासन नहीं है बल्कि भारतीय समाज का आंतरिक सामाजिक और आर्थिक ढांचा भी है, इसलिए यथाशीघ्र इसको आमूलचूल बदलने की ज़रुरत है।" वर्गीय मुद्दों पर गांधीजी के भी विचारों में क्रमशः परिवर्तन हुआ। अतः हम कह सकते हैं कि परवर्ती (late) 1920 एवं 1930 के दशकों में भारत में जो शक्तिशाली वामपंथी गुट विकसित हुआ उसने राष्ट्रीय आन्दोलन को मौलिक दृष्टि से परिवर्तित करने की दिशा में योगदान दिया।

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