Explainer: जानिए क्या था भारत सरकार अधिनियम, 1919

Montagu Chelmsford Reforms in India, Government of India Act 1919 in Hindi: 1915-16 के बाद भारत संविधान सुधारों की मांग देश में जोर पकड़ती जा रही थी। इससे विवश होकर भारत सचिव एडविन मोंटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को घोषणा की कि उसका उद्देश्य धीरे-धीरे भारत में जिम्मेदार सरकार की शुरुआत करना है, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में।

Explainer: जानिए क्या था भारत सरकार अधिनियम, 1919

यदि आप भी किसी राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, तो इतिहास के विषय पर इस लेख से सहायता ले सकते हैं। इस लेख में भारत सरकार अधिनियम, 1919 की व्याख्या की जा रही है। इस पर विस्तृत चर्चा से पहले आइए यूपीएससी आईएएस परीक्षा में वर्ष 2014 और 2021 में पूछे गये प्रश्न पर डाले एक नजर-

2021 - भारत में 1858 के बाद हुए प्रमुख संवैधानिक सुधारों तथा समाज एवं राजनीति पर उनके प्रभाव की विवेचना कीजिए।

2014 - "मौन्तेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार प्रस्तावों ने 'द्विशासन' प्रणाली लागू की, किन्तु इसने जिम्मेदारियों की रेखाओं को धुंधला कर दिया।" समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

भारत सचिव एडविन मोंटेग्यू इस घोषणा के बाद, भारत के लिए जल्द-से-जल्द एक नए अधिनियम के निर्माण में लग गया। उस समय भारत का वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड था। नवंबर 1917 में मोंटेग्यू भारत आया। मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड ने भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श कर उत्तरदायी शासन की स्थापना के संबंध में उनके विचार एकत्र किए। अपनी योजना तैयार कर 8 जुलाई, 1918 को उन्होंने इसे प्रकाशित किया। यही रिपोर्ट 1919 के भारतीय शासन अधिनियम का आधार बनी। इसी के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 1919 में भारत के औपनिवेशिक प्रशासन के लिए एक नया शासन-विधान बनाया।

अधिनियम पारित होने के कारण

यह अधिनियम उस पर आधारित था जिसे लोकप्रिय रूप से मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के रूप में जाना जाता है। 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों से भारतीय संतुष्ट नहीं हो सके। इसने हिन्दू-मुसलिम के बीच की खाई को पटाने के बजाए इसे चौड़ा करने का ही काम किया। इसने न तो कांग्रेस को संतुष्ट किया और न ही मुसलिम लीग को। मुसलमानों में राष्ट्रीय जागरण हुआ और वे अँग्रेज़ विरोधी हो गए। ब्रिटिश सरकार ने सुधारों द्वारा उदारवादियों को खुश करने और क्रांतिकारियों को कुचलने की जो नीति अपनाई उसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई।

राष्ट्रवादियों की स्वशासन की मांग जोर पकड़ती जा रही थी, जिससे सुधारों की आवश्यकता पड़ी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने भारतीय सहयोग प्राप्त करने के लिए अनेक घोषणाएँ की थी, लेकिन युद्ध के बाद भारतीयों की आशाएं पूरी होती नहीं दिखी, जिससे उनमें असंतोष बढ़ा। एनी बेसेंट के स्वशासन आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने कडा कदम उठाया, जिससे राष्ट्रीय एकता बढ़ी। 1916 के कांग्रेस-लीग समझौता (लखनऊ पैक्ट) के बाद कांग्रेस की स्वराज की मांग को लीग ने समर्थन दिया। उपर्युक्त कारणों के कारण देश में सुधार अधिनियम बनाना ज़रूरी हो गया था।

सुधार योजना पर प्रतिक्रिया

तिलक ने रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और इसे "अयोग्य और निराशाजनक-एक धूप रहित सुबह" कहा। श्रीमती एनी बेसेंट ने इसकी आलोचना करते हुए कहा, "यह योजना प्रस्तुत करना इंग्लैण्ड की शान के खिलाफ है और इसे स्वीकार करना भारत की शान के खिलाफ।" कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में इस योजना को "निराशाजनक और असंतोषप्रद" बताया गया। मुस्लिम लीग ने भी कुछ इसी तरह के विचार व्यक्त किए। कांग्रेस ने तुरंत उत्तरदायी शासन की मांग की।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में उदारवादी कांग्रेस से अलग होकर 'लिबरेशन फेडरेशन' की स्थापना की और इस सुधार योजना को स्वीकृति दे दी।

गांधीजी ने कहा था, "मोंटफोर्ड सुधार... केवल भारत की संपत्ति को और कम करने और उसकी दासता को लंबा करने का एक तरीका था।" दिसंबर, 1919 में ब्रिटिश संसद ने मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना को पास कर दिया। यही योजना भारत सरकार अधिनियम, 1919 बना, जिसे 1920 में लागू कर दिया गया। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।

अधिनियम के प्रावधान

भारत सरकार अधिनियम, 1919 द्वारा भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अभिन्न अंग रखते हुए यह निश्चय किया गया कि भारत में स्वशासी संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास होगा और ब्रिटिश संसद संवैधानिक प्रगति के पथ का निर्धारण करेगी। इसके लिए भारतीयों को प्रशासनिक मामलों से संबद्ध करना, स्वायत्त शासन का विकास करना, प्रान्तों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करना और धीरे-धीरे उन्हें केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की व्यवस्था की गई।

गृह सरकार - इंडिया काउंसिल

भारत के शासन का जो भाग इंग्लैण्ड में काम करता था गृह सरकार कहलाता था। सम्राट, मंत्रिमंडल, संसद, भारत मंत्री और उसकी काउन्सिल इसके मुख्य अंग थे। भारत मंत्री का पद सबसे महत्त्वपूर्ण था। भारत सरकार के विधायी, प्रशासकीय और आर्थिक मामलों पर उसका पूर्ण नियंत्रण था। वह ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।

1919 के अधिनियम के अंतर्गत भारत सचिव की शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। भारत सचिव की परिषद् में भारतीय सदस्यों की संख्या दो से बढाकर तीन कर दी गई, जिनका कार्य भारत सचिव को परामर्श देना था। परिषद् का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया। भारतीय मामलों का अंतिम नियंत्रण और निर्देश गृह सरकार के हाथ में था। दूसरे शब्दों में कहें, तो भारत का शासन व्हाईट हॉल से होता था, न कि दिल्ली से। इस अधिनियम द्वारा एक त्रुटि ज़रूर दूर की गई कि इसके खर्च का भार अब भारतीय राजस्व पर नहीं था।

हाई कमीशन

इस अधिनियम के अंतर्गत एक हाई कमीशन (उच्च आयुक्त) की व्यवस्था की गई जिसकी नियुक्ति भारत सचिव की स्वीकृति से गवर्नर जनरल करता। उसका वेतन भारत में होने वाली आय से दिया जाता। उसका काम भारतीय व्यापारियों की देखभाल, इंग्लैण्ड में भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं का ध्यान रखना और भारतीय शासन से संबंधित सामग्री की खरीददारी करना था। इस नए पद से भारतीयों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, बल्कि यह संस्था भारतीयों के स्वशासन के रास्ते में एक बाधा ही साबित हुआ।

अखिल भारतीय स्तर पर सरकार के लिए अधिनियम में किसी उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना नहीं की गई थी। यहाँ ऐसे मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएं आदि को शामिल किया गया था।

केन्द्रीय सरकार

केन्द्रीय स्तर पर कार्यपालिका सरकार, गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद् से मिलकर बनती थी। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में छः सामान्य सदस्य थे, जिनमें से तीन भारतीय थे। ये सदस्य केन्द्रीय विधान सभा के प्रति नहीं, गवर्नर जनरल और भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी थे।

विषयों की सूची

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन की शुरुआत की। केन्द्रीय और प्रांतीय विषय अलग कर दिए गए। रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक-तार, संचार, क़ानून और प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय सूची में शामिल किए गए थे। प्रांतीय सूची में सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएं, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि। केंद्र और प्रान्तों के बीच राजकीय आय का बंटवारा हुआ।

केन्द्रीय व्यवस्थापिका

एक द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था पेश की गई थी, जिसमें उच्च सदन या राज्य सभा (Upper House or Council of State) और निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा (Lower House or Central Legislative Assembly) शामिल थी।

उच्च सदन या राज्यसभा

उच्च सदन या राज्यसभा में 60 सदस्य थे, जिनमें से 26 वायसराय द्वारा मनोनीत सदस्य थे और 34 निर्वाचित सदस्य। निर्वाचित सदस्यों में से 20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य का निर्वाचन होना था। मनोनीत सदस्यों में से 20 सदस्य सरकारी और 6 गैर सरकारी सदस्य होते थे। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इसमें केवल पुरुष सदस्य थे। मताधिकार अत्यन्त सीमित थे। जो लोग 10,000 से 20,000 रूपए वार्षिक आय पर कर चुकाते थे या 750 से 5,000 तक भूमि कर चुकाते थे उन्हें ही मताधिकार प्राप्त था। इसके अलावा विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों को, म्यूनिसिपल कमेटियों और जिला बोर्ड के प्रधानों को और विशेष प्रकार की उपाधियों से विभूषित व्यक्तियों को मताधिकार प्रदान किया गया। ये शर्तें इतनी कड़ी थीं कि 1925 में 1,500 व्यक्ति ही राज्य सभा के चुनाव के लिए मतदान कर सके। वायसराय सदन की बैठक बुला सकता था, इसे स्थगित या भंग भी कर सकता था।

निम्न सदन या केंद्रीय विधान सभा

निचले सदन या केंद्रीय विधान सभा में 145 सदस्य थे। इनमें से 105 निर्वाचित सदस्यों में से 53 सामान्य, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष वर्गों (यूरोपियन-9, ज़मींदार-7, व्यापारिक संगठन-4) के लिए आरक्षित थे। 40 मनोनीत सदस्यों में से 26 सरकारी और 14 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थे। प्रान्तों में स्थानों का विभाजन जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि महत्त्व के अनुसार किया जाता था। महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया लेकिन मताधिकार सीमित था। मुसलमानों, यूरोपियनों और सिखों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया था। ज़मींदारों और व्यापारियों के लिए विशेष चुनाव क्षेत्र नियत था। सभी प्रान्तों में सदस्यों की संख्या सामान नहीं थी।

केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था। विधायिका पर वायसराय का पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया था। कोई भी विधेयक तब तक अधिनियम नहीं बन सकता था जब तक दोनों सदन इसे पास न कर दे और गवर्नर जनरल की स्वीकृति न मिल जाए। प्रांतीय विषयों पर विचार करने के लिए गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति ज़रूरी थी। विधान सभा भारतीयों के लिए कोई विधान जारी नहीं कर सकती थी और ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं कर सकती थी। गवर्नर जनरल कानूनों को रद्द कर सकता था, पुनर्विचार के लिए विधान सभा के पास वापस भेज सकता था और ब्रिटिश सम्राट के विचार के लिए रख सकता था।

यदि कोई कानून दोनों सदनों द्वारा पास नहीं हो पाता था, तो गवर्नर जनरल अपनी अनुमति से उसे पास कर सकता था। विधान सभा वित्तीय क्षेत्र में बहुत से विषयों पर कानून पास नहीं कर सकती थी। विधान परिषद बजट को अस्वीकार कर सकती थी लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर इसे बहाल कर सकता था। गवर्नर मंत्रियों को किसी भी आधार पर बर्खास्त कर सकता था। विधायकों को बोलने की आजादी थी।

प्रांतीय सरकार-द्वैध शासन की शुरुआत

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन (Dyarchy) यानी, दो-कार्यकारी पार्षदों और लोकप्रिय मंत्रियों, की शुरुआत की। इस प्रणाली में प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् को दो भागों में बंटा गया था। पहले भाग में गवर्नर और उसकी कार्यकरिणी परिषद् के सदस्य थे। दूसरे भाग में गवर्नर और उसके मंत्रिगण थे। गवर्नर प्रांत का कार्यकारी प्रमुख था।

विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया था: 'आरक्षित' जिसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भूमि राजस्व, सिंचाई, आदि जैसे विषय शामिल थे, और शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क, आदि जैसे 'हस्तांतरित' विषय शामिल थे। आरक्षित विषय का प्रशासन गवर्नर चार सदस्यीय कार्यकरिणी परिषद् के सदस्यों की सहायता से चलाया करता था। जिन विषयों में गलती हो जाने से ब्रिटिश सरकार का कोई अहित न होता हो उन्हें हस्तांतरित सूची में रखा गया था।

द्वैध शासन (Diarchy) को 9 प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे। गवर्नर को दोहरी भूमिका थी। हस्तांतरित विषयों को गवर्नर मंत्रियों की सलाह से करता था, जबकि वह इस सलाह को मानने को बाध्य नहीं था। मंत्रियों को विधायिका के प्रति जिम्मेदार होना था और यदि विधायिका द्वारा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जाता, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता, जबकि कार्यकारी पार्षद विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीं थे। प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।

सुधारों से लाभ

1919 के अधिनियम ने प्रांतों में द्वैध शासन की शुरुआत की, जो वास्तव में भारतीय लोगों को सत्ता हस्तांतरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। द्वैध शासन देश में सोलह वर्ष चला। 1935 के अधिनियम से प्रान्तों में द्वैध शासन की जगह स्वायत्तता स्थापित कर दी गई। 1919 के अधिनियम के लागू हो जाने से भारतीयों को प्रशासन के बारे में सूचना मिली और वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए। भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना पैदा हुई और यह स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित हुआ।

चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के प्रति समझ बढ़ी। भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत हुई। लोगों को प्रशासन करने का अधिकार मिला जिससे सरकार पर प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया। भारतीयों को प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने हेतु तैयार किया। अधिनियम द्वारा पहली बार प्रांतीय और केंद्रीय बजट को अलग किया गया। साथ ही प्रांतीय विधानसभाओं को अपने बजट बनाने के लिए अधिकृत किया गया।

भारत के लिए एक उच्चायुक्त नियुक्त किया गया, जिसे छह साल के लिए लंदन में अपना कार्यालय संभालना था और जिसका कर्तव्य यूरोप में भारतीय व्यापार की देखभाल करना था। अब तक भारत के राज्य सचिव द्वारा किए गए कुछ कार्यों को उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिया गया था। भारत के राज्य सचिव, जो भारतीय राजस्व से अपना वेतन प्राप्त करते थे, अब ब्रिटिश राजकोष द्वारा भुगतान किया जाना था, इस प्रकार 1793 के चार्टर अधिनियम में एक अन्याय को समाप्त कर दिया। द्वैध शासन का महत्त्व इस बात में भी है कि यह अंतिम लक्ष्य (स्वराज्य) की ओर जाने वाले मार्ग का पहला पडाव था।

सरकार की परिकल्पना

अधिनियम में अखिल भारतीय स्तर पर किसी भी ज़िम्मेदार सरकार की परिकल्पना नहीं की गई। प्रत्येक सदन में सदस्यों का बहुमत होना था जो सीधे चुने गए थे। इसलिए, प्रत्यक्ष चुनाव की शुरुआत की गई, हालांकि संपत्ति, कर या शिक्षा की योग्यता के आधार पर मताधिकार बहुत सीमित था। एक अनुमान के अनुसार, केंद्रीय विधायिका के लिए मतदाताओं की संख्या लगभग पंद्रह लाख तक बढ़ा दी गई थी, जबकि भारत की जनसंख्या लगभग 26 करोड़ थी। त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रणाली और सीमित मताधिकार के कारण ये सुधार लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके। इसके अलावे एक अलग चुनावी प्रणाली ने सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया।

सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को मुसलमानों के अलावा सिखों, ईसाइयों और एंग्लो-इंडियन के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के साथ विस्तारित किया गया था। हालांकि केंद्र और प्रांतों के बीच विषयों का सीमांकन किया गया था फिर भी संरचना एकात्मक और केंद्रीकृत बनी रही। केंद्र में, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं था। इससे दोनों के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती थी। प्रांतीय क्षेत्र में द्वैध शासन विफल रहा। केंद्रीय विधानमंडल के पास सरकार को बदलने की कोई शक्ति नहीं थी। कानून और वित्तीय नियंत्रण के क्षेत्र में भी इसकी शक्तियां सीमित थीं। केंद्र में विषयों का विभाजन संतोषजनक नहीं था। प्रांतों को केंद्रीय विधायिका के लिए सीटों का आवंटन प्रांतों के 'महत्व' पर आधारित था - उदाहरण के लिए, पंजाब का सैन्य महत्व और बॉम्बे का व्यावसायिक महत्व।

प्रांतों के स्तर पर, विषयों का विभाजन और दो भागों का समानांतर प्रशासन तर्कहीन था और इसलिए अव्यावहारिक था। सिंचाई, वित्त, पुलिस, प्रेस और न्याय जैसे विषय 'आरक्षित' थे। प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाहों पर कोई नियंत्रण नहीं था। महत्वपूर्ण मामलों पर भी अकसर मंत्रियों से सलाह नहीं ली जाती थी; वास्तव में, उन्हें राज्यपाल द्वारा किसी भी मामले पर खारिज किया जा सकता था जिसे बाद वाला विशेष मानता था।

गवर्नर को अप्रतिबंधित शक्तियाँ प्राप्त थीं, वह अपनी परिषद और मंत्रियों के निर्णय के विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था प्रशासन से संबंधित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण मामले राज्यपाल पर निर्भर थे। मंत्रियों को उत्तरदायित्व तो सौंपा गया था लेकिन गवर्नर को इतने विस्तृत अधिकार मिले थे कि मंत्री नाममात्र के मंत्री थे। हालांकि भारतीय नेताओं को पहली बार इस अधिनियम के तहत एक संवैधानिक ढांचे में कुछ प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हुआ, लेकिन जिम्मेदार सरकार की मांग की पूर्ति नहीं हुई।

परिणाम और उपसंहार

तथ्य यह है कि 1919 के अधिनियम के अंतर्गत केन्द्रीय सरकार का रूप भारत के स्वतंत्र होने तक केवल मामूली परिवर्तनों के साथ लागू रहा। उदार साम्राज्यवादी इतिहासकार मोंटफोर्ड सुधारों को लेकर काफी उत्साहित दिखते हैं। वे मानते हैं कि ये सुधार मूलत: अंग्रेजों की नेकनीयती के प्रमाण हैं। उन विचारकों द्वारा मांटेग्यू को सुधार के लिए जेहाद करनेवाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह घोषणा पुरानी ब्रिटिश नीति से अलग थी। भारत के सांविधानिक विकास के इतिहास में इन सुधारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रतिनिधि सरकार की बात करती थी।

हालांकि मताधिकार सीमित था फिर भी इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की व्यावहारिक समझ विकसित हुई। इस अधिनियम द्वारा भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। केंद्र में जहाँ द्विसदनीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था हुई, वहीं केंद्र की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान था।

इन तथ्यों के बावजूद यह स्पष्ट है कि सुधारों की वास्तविक योजना राष्ट्रवादियों की मांगों की तुलना में अत्यंत नगण्य थी। कैंब्रिज इतिहासकारों का यह मानना कि 1919 के एक्ट से निर्वाचक मंडलों की संख्या में विस्तार हुआ और राजनिज्ञों को अधिक जनतांत्रिक शैली अपनाने के लिए बाध्य होना पडा, अपूर्ण है। दरअसल यह योजना भारतीयों के लिए वस्तुतः झगड़े की जड़ सिद्ध हुई। सुधार की प्रक्रिया की सूक्ष्मता से जांच करने पर पता चलता है कि इसमें नया कुछ भी नहीं था।

द्वितन्त्रीय सरकार का मतलब

हालांकि प्रांतीय शासन के क्षेत्र में भारत-सचिव की शक्तियों में कुछ कमी गई लेकिन इससे भारतीय प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ। इस अधिनियम में इतनी कमियां थी कि इससे भारतीयों को घोर निराशा हुई। यह भारतीयों की आकांक्षाओं को धूल-धूसरित कर रहा था। पी.ई. रॉबर्ट्स ने अपन मत रखते हुए कहा था, "दोहरी कार्यपालिका का द्वैध शासन लगभग हर सैद्धांतिक आपत्ति के लिए खुला था।" इस द्वितन्त्रीय सरकार का मतलब था - राज्यों में एक तरह का दुहरा शासन। द्वैध शासन एक गलत पद्धति थी।

प्रशासन को दो भागों में विभाजित कर देना ही सही नहीं था। यह अधिनियम भारतीयों की स्वशासन की मांग को पूरी तरह से अस्वीकार कर रहा था। अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष को प्रोत्साहित किया। हस्तांतरित विषय की दशा महत्त्वहीन बनी रही। गवर्नरों को हस्तांतरित विभागों के क्षेत्र में इतने व्यापक अधिकार प्रदान किए गए थे कि वे मंत्रियों के परामर्श की अवहेलना कर स्वेच्छापूर्वक कार्य करते थे। शासन की वास्तविक शक्ति मंत्रियों के हाथ में नहीं रह कर गवर्नर के हाथ में थी। ऊपर से मंत्री गवर्नर की इच्छा के अनुसार अपने पद पर रह सकता था। इसलिए मंत्रियों का अधिकांश ध्यान गवर्नर को प्रसन्न करने पर लगा रहता था।

गवर्नर मंत्रियों की सलाह मानने को बाध्य नहीं था। वह दैनिक छोटे-छोटे प्रशासकीय विषयों में हस्तक्षेप करता था। गवर्नर का निर्णय अंतिम होता था। उसके अधिकांश निर्णय विभागीय सचिवों की तरफ पक्षपातपूर्ण होते थे। बिपिन चन्द्र ठीक ही कहते हैं कि "सुधार रोटी का मात्र एक टुकड़ा था जिसके ज़रिए नरमपंथी राष्ट्रवादी मत को संतुष्ट करना और उन्हें जुझारू राष्ट्रवादियों से अलग कर देना था।"

भारत की एकता कैसे हुई नष्ट

पर्याप्त कोशिश और बलिदान के बाद भारत में जो एकता स्थापित हुई थी, वह 1919 अधिनियम के कारण नष्ट हो गई। जो सांप्रदायिक संस्थाएं पहले से काम कर रही थीं, उन्हें इस योजना से बल मिला। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए जो वर्ष 1922 से 1927 तक जारी रहे। 30 सदस्यों का चुनाव पृथक मुसलमान निर्वाचन मंडल के द्वारा चुना जाता था, जो केवल मुसलमान होंगे। सिखों को भी सांप्रदायिक राजनीति के अंतर्गत विशेषाधिकार प्रदान किए गए। सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल किया गया। मुसलमान और सिखों को जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक महत्व के आधार पर प्रांतीय विधान मंडलों में स्थान प्रदान किया गया।

स्वराज पार्टी की स्थापना

वर्ष 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को छोड़कर पर्याप्त संख्या में सीटें जीती। जबकि पार्टी बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को अवरुद्ध करने में सफल रही। इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया। प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दो स्वतंत्र भागों में बँटवारा राजनीति के सिद्धांत व व्यवहार के विरूद्ध था। उस समय मद्रास के मंत्री रहे के.वी.रेड्डी ने व्यंग्य भी किया था- 'मैं सिंचाई मंत्री था किंतु मेरे अधीन सिंचाई विभाग नहीं था।' इस तरह के अस्वाभाविक और अव्यावहारिक विभाजन से शासन को सुचारू रूप से चलाना संभव नहीं था। नौकरशाही के अधिकारियों और लोकप्रिय मंत्रियों के दृष्टिकोणों में मौलिक विरोध बना रहा।

इस अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि इसमें प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरशाही मंत्रियों की अवहेलना तो करती ही थी, कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा भी नहीं की जाती थी। गवर्नर जनरल की विशेष शक्तियां कार्यपालिका और विधान सभा के क्षेत्रों में अत्यंत व्यापक और शक्तिशाली थीं। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक शक्ति देने का प्रस्ताव तो मात्र एक बहाना बनाया था, वास्तविक शक्ति तो अभी भी अंग्रेजों के ही हाथों में ही थी। मोतीलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था, 'ऐसा लगता है जैसे जो कुछ एक हाथ से दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।'

'परम स्वशासन' की अभिव्यक्ति

लॉर्ड कर्जन ने टिपण्णी की थी, "जब मंत्रिमंडल ने 'परम स्वशासन' की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया तो उन्होंने संभवतः 500 वर्षों की एक मध्यवर्ती अवधि पर विचार किया।" इन सुधारों के साथ 'द्विशासन' प्रणाली लागू तो हो गई लेकिन वास्तविक प्रशासनिक शक्तियां वायसराय के हाथों में ही केंद्रित थी। शिक्षा और सफाई जैसे कम महत्त्व वाले विभागों की ज़िम्मेदारी प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित सदस्यों में से चुने गए मंत्रियों को सौंपी गई थी, जबकि वित्त, पुलिस और सामान्य प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग कार्यकारी परिषद् के सदस्यों के लिए आरक्षित कर दिए गए थे। स्थानीय व्यय को स्थानीय रूप से अर्जित और प्रबंधित राजस्व से ही चलाने का उत्तरदायित्व था। वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था, भारतीय जनता के प्रति नहीं।

वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान रखा गया था, परंतु भारत के सदस्यों को प्रशासन के कम महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। भारत के सदस्य वायसराय के प्रति उत्तरदायी थे तथा वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। इसका मतलब यह था कि महत्त्वपूर्ण विभागों का नियंत्रण उन नौकरशाहों के हाथ में था, जो ब्रितानी सरकार और उसकी संसद के प्रति ज़िम्मेदार थे। केन्द्रीय सरकार का चरित्र पहले जैसा बना रहा। वह पहले की तरह संसद के प्रति ज़िम्मेदार रही। विधान मंडल का, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद् पर, न कोई नियंत्रण था, न ही उनके बारे में बोलने का अधिकार।

भारतीय राजनीतिज्ञों को संरक्षण

केन्द्रीय सरकार को प्रान्तों पर नियंत्रण रखने के सभी अधिकार प्राप्त थे। सुमित सरकार कहते हैं, "बड़ी चालाकी से भारतीय राजनीतिज्ञों को संरक्षण की चूहा-दौड़ में डाल दिया गया था जिससे संभवत: उनकी विश्वसनीयता कम होती थी।" इन सुधारों के संबंध में काफी विवाद रहा है कि इनमें लन्दन (भारत सचिव) का योगदान अधिक था या दिल्ली (वायसराय) का। भारत सचिव और गवर्नर जनरल का प्रांतीय सरकारों पर नियंत्रण पहले की अपेक्षा कुछ ढीला था। कार्यकारिणी के एक क्षेत्र में आंशिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत था और दूसरे क्षेत्र में पूर्ण उत्तरदायित्व का समावेश था। इसलिए यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि "मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार प्रस्तावों ने 'द्विशासन' प्रणाली लागू की, किन्तु इसने जिम्मेदारियों की रेखाओं को धुंधला कर दिया।"

नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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English summary
Montagu Chelmsford Reforms in India, Government of India Act 1919 in Hindi: After 1915-16, the demand for constitutional reforms in India was gaining momentum in the country. This compelled the Secretary of State for India, Edwin Montagu, to announce on 20 August 1917 that his aim was to gradually introduce responsible government in India, but as an integral part of the British Empire.
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