Explainer: शिमला सम्मेलन को लॉर्ड वेवेल ने असफल क्यों घोषित किया गया?

Wavell Plan 1945: वेवेल के वायसराय बनने के बाद भारतीय नेताओं के परामर्श से नए संविधान की तैयारी के लिए वायसराय के कार्यकारी काउन्सिल का पुनर्गठन करने के प्रश्न पर वेवेल द्वारा शिमला में कांफ्रेंस बुलाया गया। 25 जून से 14 जुलाई तक चर्चाएं चलीं। वार्ता के बाद वेवेल ने अपनी योजना प्रस्तुत की, जिसे 'वेवेल योजना' कहा जाता है। इस लेख में वेवेल योजना की विस्तृत जानकारी दी जा रही है। प्रतियोगी परीक्षा में उपस्थित होने वाले उम्मीदवार परीक्षा की तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं।

सितंबर 1943 में वेवेल वायसराय बना। उसने चर्चिल को पत्र लिखकर कहा, "संभावित विश्व-जनमत और आम ब्रिटिश दृष्टिकोण को देखते हुए युद्ध के बाद अंग्रेज़ों के लिए भारत पर बलपूर्वक अधिकार जमाए रखना संभव नहीं होगा। बल्कि युद्ध समाप्त होने के पहले ही संधि-वार्ता आरंभ करना बुद्धिमानी होगी। यह तभी हो सकता है कि हम कांग्रेस को पहले ही किसी अन्य लाभप्रद दिशा में मोड़ दें, अर्थात उन्हें भारत की प्रशासनिक और संवैधानिक समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में लगा दें।" यह स्पष्ट था कि 'भारत छोड़ो' आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ यह अनुभव करने लगे थे कि सत्ता का समझौते के बाद हस्तांतरण कर दिया जाए। वेवेल चाहता था कि केंद्र में कांग्रेस और लीग के सहयोग से 'अस्थायी सरकार' बना ली जाए। इससे उसे दुहरा लाभ मिलता, एक ओर युद्ध प्रयासों में भारतीयों का अधिक सहयोग मिलता और दूसरी तरफ भारतीयों की शक्ति को आंदोलनों से हटाकर अपने लिए अधिक लाभप्रद दिशा में मोड़ देता। वायसराय का प्रस्ताव कांग्रेस की न्यूनतम मांगों को भी पूरा नहीं करता था। कांग्रेस की मांग थी कि एक 'सचमुच राष्ट्रीय सरकार' की स्थापना हो जाए जो असेंबली के प्रति उत्तरदायी हो तथा युद्ध के पश्चात स्वाधीनता प्रदान करने का तुरंत वादा किया जाए।

विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय

1945 के आने के साथ विश्वयुद्ध भी अपने अंतिम चरण में पहुंच गया था। मित्रराष्ट्रों की विजय लगभग निश्चित हो चुकी थी। सान फ्रासिस्को सम्मेलन की घोषणा हो चुकी थी, जहां दुनिया के भविष्य पर चर्चा की जानी थी। जापान पर परमाणु बम गिराए जाने की घटना से दुनिया में अशांति फैल रही थी। युद्ध के अपराधियों पर मुक़दमा चलाने की आवाज़ भी उठने लगी थी। भारत में कांग्रेस के अधिकांश प्रमुख नेता जेल के अंदर थे। पूरा राष्ट्र हताशा की स्थिति में शांत पड़ा हुआ था। गांधीजी जनता के मनोबल को बनाए रखने के लिए उन्हें रचनात्मक कार्यों से जोड़े रखने का भरपूर प्रयास कर रहे थे। वे लोगों को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाना चाह रहे थे। उनका मानना था कि दिल्ली जाने वाला ट्रंक रोड नहीं, बल्कि हरेक भारतीय गांव तक जाने वाली कच्ची पगडंडियां ही जनता को स्वराज तक पहुंचाएगी। देहातों की असहाय, गूंगी-बहरी, भूखी जनता का स्वशासन ही सही मायने में स्वराज है, न कि मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता या गोरों की जगह कालों के राज की स्थापना।

देश में स्थिति विकट बनी हुई थी। हर जगह हिंसा और नफ़रत का अलाव सुलग रहा था। भारतीय अर्थव्यवस्था युद्ध की मांगों के कारण पूरी तरह तबाह हो चुकी थी। एक भयानक अकाल से बंगाल नष्ट हो चुका था। बेईमानों ने युद्ध के दौरान बेहिसाब मुनाफ़े कमाए थे। ग़रीब और ग़रीब हो गया था। अंग्रेज़ों की सरकार किसी क़ीमत पर युद्ध जीतना चाहती थी, इसलिए उसने जनकल्याण के किसी भी काम पर तवज्जो नहीं दी थी। वातावरण में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। 'हिटलर जैसा रवैया' रखने वाला चर्चिल गांधीजी की लोकप्रियता से चिढ़ता रहता था और उसने तो वेवेल से यहाँ तक पूछ डाला था कि 'गाँधी अब तक मरा क्यों नहीं?' मार्च 1945 में उसने वेवेल से कहा था, जब तक हो सके भारत के मामले को वह लटकाए रखे। वह चाहता था कि भारत - पाकिस्तान, हिन्दुस्तान और प्रिन्सिस्तान में बाँट जाए।

गतिरोध समाप्त करने का प्रयास

पाकिस्तान के प्रश्न पर हुई गांधी-जिन्ना वार्ता असफल हो चुकी थी। जन-आंदोलनों ने भारत में ब्रिटिश राज का चलते रहना असंभव कर दिया था। अंग्रेजों के बर्बरतापूर्ण दमनात्मक कार्रवाइयों के भय ने कांग्रेसी नेताओं को बातचीत और समझौते की नीति पर चिपके रहने को बाध्य कर दिया था। अँग्रेज़ यह प्रयास करते आए थे कि कांग्रेस और लीग केन्द्रीय सरकार के तत्कालीन गठन में भाग लें। ऐसे में तब के वायसराय लॉर्ड वेवेल को लगा कि अकाल से तबाह और असंतोष की आग में जल रहे भारत की तत्कालीन परिस्थितियों से भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों का सहयोग के बिना जूझना असंभव है। उसने केन्द्रीय विधान सभा के कांग्रेस दल के नेता भूलाभाई देसाई के कहा, "राजनीतिक गतिरोध समाप्त करने के लिए मैं आपकी सहायता चाहता हूं। परिस्थितियाँ बहुत विषम हैं। यदि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संसदीय दल मिलकर राष्ट्रीय सरकार रचें, तो मैं उसका स्वागत करूंगा।" भूलाभाई को लगा कि प्रस्ताव अच्छा है, और इससे कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों की रिहाई की संभावना बढ़ जाएगी। उन्होंने लीग के विधान सभा के उपनेता नवाबज़ादा लियाक़त अली ख़ान से मुलाक़ात की। लियाक़त अली को भी लगा कि केन्द्र में कांग्रेस और लीग की सरकार न सिर्फ़ ज़रूरी है, बल्कि संभव भी है। उन्होंने यह बात जिन्ना को भी बताई।

Explainer: शिमला सम्मेलन को लॉर्ड वेवेल ने असफल क्यों घोषित किया गया?

'भूलाभाई-लियाक़त अली' करार

भूलाभाई गांधीजी से भी सेवाग्राम जाकर मिले और इस विषय पर उनसे चर्चा की। गांधीजी ने कहा कि चाहे उनकी सोच जैसी भी हो वे इस प्रस्ताव के विरुद्ध नहीं हैं। इस प्रकार केन्द्र में अंतरिम सरकार बनाने वाली 11 जनवरी, 1945 को 'भूलाभाई-लियाक़त अली' करार हुआ। भूलाभाई ने वायसराय को इस करार के बारे में बताते हुए तुरंत कार्रवाई का अनुरोध किया। इसी बीच जिन्ना का एक वक्तव्य अख़बारों के द्वारा गांधीजी की जानकारी में आया। इसमें कहा गया था कि गांधीजी कांग्रेस कार्यसमिति को एक ओर रखकर मिश्र-मंत्रिमंडल बनाना चाहते हैं। गांधीजी इस पर विरोध दर्ज़ करते हुए भूलाभाई से कहा, "इसका ध्यान रखा जाए कि कांग्रेस कार्य-समिति की इजाज़त के बिना कुछ भी न किया जाए।" बाद में लियाक़त अली ने इस बात से इंकार कर दिया कि उसके और भूलाभाई के बीच कोई करार हुआ है। जिन्ना ने भी घोषणा कर दी कि न तो उससे कोई सलाह ली गई है न ही वह किसी तरह से इसमें शरीक़ था।

करार की प्रति पर भूलाभाई और लियाक़त अली दोनों के हस्ताक्षर थे। लियाक़त अली ने इसमें भी पेंच लगा दी और कहा, "जो प्रति मुझे दी गई थी उस पर भूलाभाई के हस्ताक्षर थे, और जो मुझसे ली गई उस पर मेरे हस्ताक्षर थे। वे अच्छी तरह जानते हैं कि कोई करार नहीं हुआ है। केवल प्रस्ताव ही रखे गए थे जो चर्चा के आधारमात्र थे।" इस प्रकार समझौता जन्म लेने के पहले ही अपनी मौत मर गया। कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य जब रिहा हुए, तो उनकी बैठक हुई। उन्होंने इस करार को पसन्द नहीं किया। भूलाभाई के काम करने के ढंग को उन्होंने ग़लत समझा। जुलाई में जब शिमला सम्मेलन हुआ तो उन्हें उसमें शामिल नहीं किया गया। इससे भूलाभाई को काफ़ी आघात पहुंचा। कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन जो समझौता उन्होंने किया था, वही केन्द्र में राष्ट्रीय सरकार बनाने के लिए लॉर्ड वेवेल के प्रस्ताव की नींव बना।

नेताओं की जेल से मुक्ति

लॉर्ड वेवेल को भारत की स्थिति और आगे की संभावनाओं पर चर्चा के लिए लंदन बुलाया गया। जब वह लंदन में था, तभी 22 मई, 1945 को यूरोप का युद्ध समाप्त हुआ। लेबर पार्टी ने गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और 23 मई को ब्रिटेन की सम्मिलित सरकार का अंत हो गया। चर्चिल के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार ने ब्रिटेन के आम चुनावों के लिए 5 जुलाई की तारीख़ निश्चित कर दी। टोरियों को आसीन चुनावों मे मद्देनज़र यह लगा कि भारत की वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता। गांधीजी के अहिंसक संग्रामों ने इंग्लैंड में उनके प्रति सद्भावना काफी बढ़ाई थी। इसलिए वहां के राजनीतिक दल भारत के प्रति अपने रुख को नरम कर इसका लाभ उठाना चाहते थे। प्रधानमंत्री चर्चिल ने भारत में संवैधानिक सुधारों की दिशा में नए प्रयास आरंभ किए। प्रधानमंत्री के परामर्श पर 14 जून को वायसराय लॉर्ड वेवेल ने घोषणा की कि 1935 के भारतीय सरकार अधिनियम के ढांचे के भीतर रहकर वैधानिक परिवर्तन करने का प्रयत्न किया जाएगा।

इस घोषणा के अनुसार सरकार ऐसी राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्रयत्न करेगी जो वायसराय की कार्यकारिणी परिषद का स्थान ले सके। उस कार्यकारिणी में हिन्दुओं और मुसलमानों के बराबर सदस्य होंगे। 14 जून को हुई इस घोषणा के साथ कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों को चौंतीस महीने के कारावास के बाद मुक्त कर दिया गया। इसके साथ ही वायसराय लार्ड वेवेल ने 25 जून को शिमला में एक सम्मेलन के आयोजन की घोषणा भी की, जिसमें सभी दलों के नेताओं को वार्तालाप के लिए निमंत्रित किया जाएगा।

अंग्रेजों का दमन से दूटा मनोबल!

इधर जेल जीवन से आज़ाद हुए नेताओं ने यह मान लिया था कि अंग्रेज़ों के दमन के कारण देश की जनता का मनोबल टूट चुका होगा, लेकिन यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि लोग उनके स्वागत के लिए पूरे दिल और जान से खड़े थे। उनके दिलों में ब्रिटिश विरोधी भावना और भी प्रबल हो चुकी थी। वे कुछ कर गुज़रने के लिए अधीर थे। नेहरूजी का स्वागत करने के लिए अल्मोड़ा जेल के बाहर बड़ी भारी संख्या में लोग मौज़ूद थे। यही हाल मौलाना आज़ाद के स्वागत के लिए बांकुड़ा जेल के बाहर था। बंबई में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के समय नेताओं के स्वागत के लिए भारी बारिश के बावज़ूद पांच लाख की भीड़ इकट्ठी हो गई थी।

लीग की स्थिति

हालांकि गांधी-जिन्ना वार्ता टूटने से लीग और कांग्रेस की असेंबली पार्टियों के बीच सहयोग पर प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जनवरी 1945 में लीग की स्थिति कमज़ोर पड़ गई। कांग्रेसी विधायकों के जेल से रिहा होते ही पश्चिमोत्तर प्रांत में लीग की सरकार गिर गई। कांग्रेस कार्य समिति के निर्णय के अनुसार डॉ. ख़ान के मंत्रिमंडल ने 1939 में इस्तीफ़ा दे दिया था। 1943 में प्रान्त के गवर्नर ने सरदार औरंग़ज़ेब ख़ा के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की सरकार बनवा दी। उसे उस समय 50 सदस्यों को विधान सभा में सिर्फ़ 20 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। कांग्रेसी सदस्य 'भारत छोड़ो' आन्दोलन के सिलसिले में जेल में बन्द थे। सरदार औरंग़ज़ेब ख़ा ने भ्रष्टाचार की सारी हदें पार कर दी और लोगों के बीच काफ़ी अप्रिय हो चुका था। कांग्रेस के सदस्य जब जेल से छूट कर आए तो विधान सभा में मुस्लिम लीग अल्पमत में आ गई। वहां डॉ. ख़ान साहब के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। 1944 में ही पंजाब में ख़िज़्र हयात ख़ान की यूनियनिस्ट पार्टी वालों ने जिन्ना से संबंध तोड़ लिया था। मार्च 1945 में बंगाल में निज़ामुद्दीन सरकार गिर गई। सिंध और असम में भी लीग ने कांग्रेस के समर्थन से जैसे-तैसे सरकार संभाले रखी थी।

शिमला कॉन्फ़्रेन्स

जब इंग्लैण्ड में चुनावों के लिए केवल एक महीना रह गया तब अंतत: जून 1945 में चर्चिल ने वेवेल को भारतीय नेताओं के साथ संधि-वार्ता करने की अनुमति दे दी। कंजर्वेटिव दल के सदस्य भारत से संबंधित समस्या के किसी समाधान पर पहुंचने पर ईमानदार दिखना चाहते थे। भारतीय नेताओं के परामर्श से नए संविधान की तैयारी के लिए वायसराय के कार्यकारी काउन्सिल का पुनर्गठन करने के प्रश्न पर वेवेल द्वारा शिमला में कांफ्रेंस बुलाया गया। इस संधि-वार्ता का उद्देश्य सांप्रदायिक समस्या को सुलझाना और संवैधानिक गतिरोध को दूर करना था। वायसाराय लॉर्ड वेवेल ने गांधीजी को भी शिमला बुलाया। हालाकि गांधीजी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे, फिर भी लॉर्ड वेवेल के बुलावे पर शिमला गए लेकिन उन्होंने विचार-विमर्श में भाग नहीं लिया। गांधीजी ने निमंत्रित लोगों की लिस्ट देखी तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना आजाद निमंत्रित ही नहीं किए गए है। उन्होंने वायसराय को पत्र लिखा, "मैं तो कांग्रेस का 1934 से सदस्य ही नहीं हूं। मैं कांग्रेस के पक्ष से कोई राय नहीं रख सकता। व्यक्तिगत तौर पर अगर आपको मेरी राय की ज़रूरत हो तो वहाँ रहूंगा लेकिन कांग्रेस की राय जानने के लिए बेहतर हो कि आप कांग्रेस अध्यक्ष को आमंत्रित करें।" वायसराय की तरफ़ से मौलाना आज़ाद को तुरंत निमंत्रण भेजा गया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी नेताओं को रिहा कर दिया गया था। जिन नेताओं को कल तक राजद्रोही कहा जाता था, उन्हें सम्मानपूर्वक स्पेशल ट्रेन से वायसराय से विचार-विमर्श के लिए वातानुकूलित श्रेणी द्वारा शिमला भेजा गया।

वेवेल योजना

25 जून से 14 जुलाई तक चर्चाएं चलीं। वार्ता के बाद वेवेल ने अपनी योजना प्रस्तुत की, जिसे 'वेवेल योजना' कहा जाता है। वायसराय ने अपने भाषण में स्वराज का उल्लेख नहीं किया। एक नई एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल की स्थापना का प्रस्ताव भी उसने पेश किया। इसमें स्वयं वायसराय और कमाडर-इन-चीफ़ के अतिरिक्त सभी विभाग भारतीयों को सौंपने की योजना रखी गई। वायसराय ने अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करने का भी आश्वासन सिया। युद्ध जीत लेने के बाद नए संविधान पर विचार-विमर्श के लिए द्वार खुले रहेंगे, ऐसा कहा गया। रक्षा मामलों को छोड़कर शेष सभी मामले भारत को दिए जाएँगे। सीमान्त और कबीलाई क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी विदेशी मामले भारतीयों के पास होंगे। भारत मन्त्री का भारतीय शासन पर नियन्त्रण रहेगा, परन्तु वह भारत के हित में कार्य करेगा।

भारत में ब्रिटेन के वाणिज्यिक तथा अन्य हितों की देखभाल के लिए एक उच्चायुक्त की नियुक्ति की जाएगी। पुनर्निर्मित परिषद को 1935 के अधिनियम के ढांचे के भीतर एक अंतरिम सरकार के रूप में कार्य करना था (अर्थात केंद्रीय विधानसभा के लिए जिम्मेदार नहीं)। लेकिन वायसराय ने यह घोषणा ज़रूर कर दी कि परिषद् में हिंदू और मुसलमान, दोनों गुटों को एक स्तर (पैरिटी) का महत्त्व दिया जाएगा। यानी सवर्णों और मुसलमानों को सामान प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। यह सरासर अन्याय था। देश की अस्सी प्रतिशत जनता को बीस प्रतिशत के बराबर तौला जा रहा था। गांधीजी के विरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद ने वायसराय के पैरिटी वाले सुझाव को स्वीकार कर लिया। इसका मतलब स्पष्ट था, कांग्रेस सवर्ण हिंदू संस्था मान ली गई और मुस्लिम लीग मुस्लिम प्रतिनिधि संस्था स्वीकार हो गई।

वेवेल योजना के अनुसार विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों को कार्यकारी परिषद में नामांकन के लिए वायसराय को एक संयुक्त सूची प्रस्तुत करनी थी। यदि संयुक्त सूची संभव नहीं होती, तो अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत की जानी थीं। वायसराय काउन्सिल में, भारतीयों का चयन, सभी दलों द्वारा तैयार की गई सूचियों में से, वायसराय द्वारा किया जाना था। जिन्ना ने कोई लिस्ट नहीं सौंपी। उसने कहा कि उसे अपनी पार्टी में बात करनी होगी। उसे पन्द्रह दिनों का समय दिया गया। कांग्रेस ने अपनी लिस्ट सौंप दी। पन्द्रह नामों की कांग्रेस द्वारा सौंपी गई लिस्ट, जिसमें तीन मुस्लिम लीग के सदस्य (1. जिन्ना, 2. नवाब मोहम्मद इस्माइल खां, 3. लियाक़त अली) भी थे, जिन्ना को मान्य नहीं था। इसमें कांग्रेस के पांच सदस्य थे, जिसमें से दो मुस्लिम थे (4. मौलाना आज़ाद, 5. आसफ़ अली, 6. नेहरू, 7. सरदार पटेल, 8. राजेन्द्र प्रसाद)। इसके अलावा हिन्दू महा सभा के एक (9. श्यामा प्रसाद मुखर्जी), एक हिन्दू (10.गगन बिहारी मेहता), एक ईसाई (11. राजकुमारी अमृत कौर), एक सिख (12. नाम बाद में दिया जाएगा), एक पारसी (13. सर आरदेशिर दलाल), एक अनुसूचित जाति (14. मुनिस्वामी पिल्लै) और जनजाति (15. राधानाथ दास) के सदस्यों का भी प्रतिनिधित्व दिया गया था।

यहां पर जिन्ना फिर से अड़ गया। उसने मांग कर दी कि एक ओर अकेले मुसलमान सदस्य और दूसरी ओर अन्य सारे लोगों का प्रतिनिधित्व एक साथ होगा। उसका तर्क था कि मुस्लिम लीग को यदि पचास प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिलेगा तभी मुसलमानों के हितों का रक्षण होगा। जिन्ना की इच्छा नहीं थी कि अंतरिम सरकार में मुस्लिम मंत्री सहयोग दें। उसे आशंका थी कि यदि अंतरिम सरकार सफल हो गई, तो पाकिस्तान की मांग ढीली पड़ जाएगी। उसने अंतरिम सरकार में मुसलमानों की सूची देने से इंकार कर दिया। जिन्ना की मांग थी कि सभी मुसलमान सदस्यों को चुनने का एकमात्र अधिकार लीग को ही हो।

सम्मेलन असफल रहा

14 जुलाई को जब कांफ़्रेंस की अन्तिम बैठक हुई, तो वेवेल ने घोषणा की कि मुस्लिम लीग की लिस्ट के बिना उसने लिस्ट को अंतिम रूप दे दिया है। उसने यह विश्वास भी व्यक्त किया कि एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल की यह लिस्ट सबको मान्य होगी। लेकिन जो मुस्लिम नाम उसने सुझाए थे, वह जिन्ना को स्वीकार्य नहीं था। कांग्रेस द्वारा मांगने के बावज़ूद यह लिस्ट कांग्रेस को नहीं दिखाई गई। वेवेल ने इस लिस्ट को सम्मेलन द्वारा बहस और पास करने के लिए भी नहीं रखा और घोषणा कर दी कि सम्मेलन असफल रहा और यथास्थिति बनी रहेगी। शिमला सम्मेलन असफल रहा। गांधीजी ने वेवेल को लिखा, "मुझे यह देख कर दुख होता है कि जो सम्मेलन इतने प्रसन्न और आशापूर्ण वातावरण में शुरू हुआ था, वह असफल हो गया।" इस सम्मेलन की असफलता में लॉर्ड वेवेल का भी कम हाथ नहीं था। उसने ही तो पैरिटी का सिद्धांत बनाया था। उसके ही प्रोत्साहन पर जिन्ना ने इतना कड़ा रुख अपना लिया था।


जिन्ना को बढ़ावा

जिन्ना की मांगों के कारण सम्मेलन को भंग करके वेवेल ने वस्तुतः जिन्ना को ही बढ़ावा दिया। जिन्ना ने कहा था, "वेवेल योजना मुस्लिम लीग के लिए एक मोहजाल और मृत्युदंड का वारंट था। ... अनुसूचित जातियां, सिख और ईसाई आदि दूसरे सारे अल्पसंख्यक समुदायों का वही लक्ष्य है जो कांग्रेस का है।" शिमला सम्मेलन के बाद मुसलमानों को लगने लगा कि ताक़त जिन्ना के पास है। पंजाब में जो ज़मीं खिज्र हयात के पास थी वह जिन्ना की ओर खिसक गई। जिन्ना ने आरोप लगाया कि, "कांग्रेस के हिन्दू राज में मुसलमानों का वही हाल होगा जो जर्मनी में यहूदियों का हुआ था। मैं कभी भी मुसलमानों को हिन्दू का गुलाम नहीं बनने दूंगा। जब समय आएगा तो मैं हिचकूंगा नहीं और एक भी कदम वापस नहीं खींचूंगा। गांधीजी और कांग्रेस ने हमें रौंदने की पूरी कोशिश की, लेकिन इस धरती का कोई भी आदमी मुस्लिम लीग को नहीं कुचल सकता। जब क़ुरबानी देने का समय आएगा, तो सबसे पहले मैं अपने सीने पर गोली खाऊंगा।" इसका असर मुस्लिम समुदाय पर हुआ। अपनी ताक़त का भान होते ही जिन्ना ने अपने तौर-तरीक़े में वृद्धि कर दी। वह ज्यादा निरंकुश होता गया। लोगों पर उसने रौब जताना शुरू कर दिया। वह अधिक रूढ़िवादी भी दिखने की कोशिश करता। अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ने के लिए उसने 'डॉन' नामक दैनिक अखबार निकला।


इंग्लैंड के चुनाव के बाद

जुलाई 1945 में इंग्लैंड में आम चुनाव हुए। चर्चिल की टोरी पार्टी हार गई। लेबर पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और लेबर पार्टी की सरकार बनी। क्लिमेंट एटली प्रधानमंत्री बने। इंग्लैंड में ऐसी उम्मीद की गई कि जितनी जल्दी संभव हो उतनी जल्दी इंग्लैंड के शासक भारत को सत्ता सौंप देने का प्रयास करेंगे। लेकिन शीघ्र ही यह एहसास हो गया कि सरकार तो बदल गई लेकिन दृष्टिकोण नहीं। विदेश सचिव बेविन साम्राज्यवादी था और भारत छोड़ने का विचार नापसंद करता था। लेकिन विश्व पटल पर तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था और उसका असर भारत पर भी दिख रहा था। नाज़ी जर्मनी का ध्वंस हो चुका था। अगस्त 1945 में हिरोशिमा की घटना के बाद जापान ने भी समर्पण कर दिया था। पूर्वी यूरोप में कम्यूनिस्टों के नेतृत्व में सरकारें बन रही थीं। चीन में क्रांति आगे बढ़ रही थी। वियतनाम और इंडोनेशिया में साम्राज्यवादी विरोध की लहर बह रही थी।

ब्रिटेन की सेना युद्ध से थक चुकी थी। वहां की अर्थ-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन का पीछे हटना तय था। एटली सरकार ने वेवेल को नए सिरे से बातचीत करने का आदेश दिया। 21 अगस्त 1945 को नए चुनावों की घोषणा की गई। यह भी कहा गया कि चुनावों का कराया जाना आंदोलनकारियों को संवैधानिक गतिविधियों का अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में पहला कदम है। 19 सितंबर को वेवेल ने 'शीघ्र ही पूर्ण स्वशासन के लक्ष्य की प्राप्ति' के वादे को दुहराया। चुनावों के बाद विधायकों और भारतीय रजवाड़ों के साथ 'संविधान निर्मात्री सभा' के गठन पर बातचीत करने का वादा किया गया। साथ ही यह भी कहा गया कि एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल जिसे सभी प्रमुख दलों का समर्थन प्राप्त होगा, को स्थापित करने की दिशा में नए सिरे से प्रयास किए जाएंगे।

वेवेल योजना पर हुई संधि-वार्ता के टूटने की घोषणा ने लीग को आभासी वीटो दे दिया। शिमला सम्मेलन का परिणाम यह निकला कि अब से बाद की होने वाली राजनीति में सवर्ण हिन्दू और मुसलमान समान संख्या का सूत्र दाखिल हो गया। दूसरी और प्रमुख बात यह हुई कि स्वाधीनता के जन्म के समय धार्मिक विभाजन के सिद्धान्त को सरकार की मान्यता प्राप्त हो गई। वेवेल की इस योजना ने लीग की स्थिति को मजबूत किया, जैसा कि 1945-46 के चुनावों से स्पष्ट था। जहां एक ओर इससे जिन्ना की स्थिति को बढ़ावा मिला वहीँ दूसरी ओर इसने चर्चिल की रूढ़िवादी सरकार के असली चरित्र को उजागर किया। चर्चिल अगर चाहता तो अस्सी प्रतिशत बहुमत वाली प्रजा को शासन सौंपकर सत्ता से अलग हो जाता। मुस्लिम लीग अपनी गैरजिम्मेदारी में देश की आज़ादी के साथ खिलवाड़ करती रही और वायसराय कांग्रेस को धोखा देता रहा। एशिया के मानचित्र पर पाकिस्तान की रूप-रेखा उभर चुकी थी।

नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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Read all about Why the shimla conference was declared a failure by Lord Wavell. Wavell Yojna, Wavell scheme, upsc notes, history notes
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