Gandhi-Irwin Pact in Hindi: ब्रिटिश सरकार के असीमित अत्याचारों के बीच नमक सत्याग्रह जारी रहा। भारतीय राष्ट्रवादियों पर निरंतर अत्याचार के कोड़े बरसाये जा रहे थे। इस दौरान शांति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए, इसके लिए कई प्रयास भी किए गए। भारत की आज़ादी की मांग को देखते हुए एक समझौता करने के लिए लंदन में गोल मेज सम्मेलन के आयोजन का निर्णय लिया गया।
विभिन्न प्रतियोगी परीक्षा में इस अध्याय से प्रश्न पूछे जाते हैं। इसीलिए करियरइंडिया के विशेषज्ञ इस लेख में गांधी-इरविन समझौता का वर्णन विस्तार से कर रहे हैं। उम्मीदवार अपनी तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं।
प्रश्न : "गाँधी-इरविन समझौते को केवल नकारात्मक दृष्टि से देखना भी एक अपेक्षाकृत जटिल वास्तविकता का अतिसरलीकरण होगा। इस समझौते से राष्ट्र को होनेवाली उपलब्धि चाहे जितनी भी नगण्य रही हो, वायसराय को इस बात के लिए बाध्य होना पडा कि वह राष्ट्रीय नेता से नम्रता और समानता के एक नितांत नए आधार पर मिले।" समालोचनात्मक विवेचना कीजिए।
गांधी-इरविन समझौता
नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था, सरकार का जुल्म भी। भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार उस वायसराय लार्ड इरविन के शासनकाल में हो रहा था, जिसे यह काम पसन्द नहीं था। नरम दल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे। इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज़ शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में गोल मेज सम्मेलन करेंगे।
गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति
प्रधानमंत्री गोलमेज-सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। रैमजे मैकडोनाल्ड ने 19 जनवरी, 1931 को गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाई-भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी। वाइसराय इरविन ने उनके अभिप्राय को समझ कर गांधीजी और कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1931 को गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वाइसराय से मिलने को राजी हो गए।
गांधी-इरविन वार्ता
गोलमेज सम्मेलन से लौटे भारतीय दल द्वारा यह सुझाव दिया गया कि गांधीजी वायसराय को पत्र लिखकर मुलाक़ात का समय मांगें। 14 फरवरी को गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखा और भेंट करने के लिए समय मांगा। लार्ड इरविन सहमत हो गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन चल ही रहा था। चूंकि सरकार से बातचीत होने जा रही थी, तो उसकी उग्रता थोड़ी कम हो गई थी। लॉर्ड इरविन ने समय दिया और गांधीजी यह कहकर दिल्ली के लिए रवाना हुए कि अगर अस्थायी समझौते के लायक कोई गंभीर बातचीत हुई, तो कार्यसमिति के सदस्यों को बुला लेंगे। 17 फरवरी को गांधी-इरविन मिले। इस मिलन का ऐतिहासिक महत्त्व था। दोनों बराबरी के तौर पर मिले, न कि शासक और प्रजा की तरह। राष्ट्रीय आंदोलन ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से जो संघर्ष किया था वह रंग दिखा रहा था। इस दिन के बाद से कांग्रेस संगठन की प्रगति और मज़बूती अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी।
गांधीजी की छह शर्तें
कुछ दिनों बाद कार्यसमिति के सदस्यों को दिल्ली बुला लिया गया। नेहरू जी और अन्य लोग वहां तीन हफ़्ते रहे। शांति वार्ता के लिए गांधीजी की छह शर्तें थीं, आम रिहाई, दमन पर तत्काल विराम, सभी जब्त संपत्तियों की वापसी, राजनीतिक आधार पर सज़ा पाए सभी सरकारी कर्मचारियों की बहाली, नमक बनाने तथा शराब व विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देने की आज़ादी और पुलिस की ज़्यादतियों की जांच। पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई जो चार घंटे चली। कुछ दिनों तक रोज़ वार्ताओं का दौर चलता रहा, फिर एक सप्ताह तक वार्ताओं को स्थगित कर दिया गया। 27 फरवरी को फिर गांधीजी को बुलाया गया। कई दिनों तक वार्ता के कई दौर और कई लंबी बैठके हुईं। 1 मार्च को परिस्थितियां बहुत ही निराशाजनक हो गईं। 2 मार्च की वार्ता में कुछ सहमतियां बनीं। 3 मार्च को गांधीजी नमक पर रियायत पाने में सफल हुए। लेकिन बारडोली के किसानों की ज़मीन की वापसी को लेकर समस्या खड़ी हो गई। धरने को लेकर एक फार्मूले पर सहमति बनी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन एकमात्र शस्त्र
राजनीतिक क़ैदियों को छोड़ने का वादा किया गया। गांधीजी इस बात पर सहमत हुए कि गोलमेज सम्मेलन में होने वाली भविष्य की वार्ता भारत की संवैधानिक सरकार की योजना को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए। जिस बात के लिए सबसे अधिक आपत्ति थी वह यह कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोक दिया जाए। गांधीजी हमेशा यह स्पष्ट रूप से कहते आए थे कि सविनय अवज्ञा आंदोलन सदा के लिए बंद या छोड़ा नहीं जा सकता। उनके अनुसार जनता के हाथ में यही तो एकमात्र शस्त्र है। हां स्थगित करने के लिए वे ज़रूर तैयार हो गए थे। लॉर्ड इरविन को 'स्थगित करने' शब्द पर आपत्ति थी। गांधी जी इसे हटाने के लिए तैयार नहीं थे। अंत में 'सिलसिला बंद कर देना' शब्द का प्रयोग हुआ। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को अंतिम रूप से वापस नहीं लिया जा सकता क्योंकि यह जनता के संघर्ष का एकमात्र हथियार है।
कांग्रेस की कार्यकारी समिति के सदस्यों में असंतुष्टी
कांग्रेस की कार्यकारी समिति में जब इसकी चर्चा हुई, तो सदस्य असंतुष्ट दिखे। पटेल ने ज़ब्त संपत्ति पर घोषित किए गए फार्मूले पर आपत्ति जताई। नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता पर बिना किसी ठोस चर्चा के वार्ता की स्वीकृति पर रोष प्रकट किया। सदस्यों ने कहा वार्ता तोड़ देनी चाहिए क्योंकि वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन नहीं मिला था, केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था। गांधीजी ने समिति के एक-एक सदस्य से लगातार चर्चा की। उन्होंने प्रश्न उठाया, आखिर किस सवाल पर उन्हें वार्ता तोड़ देनी चाहिए - क़ैदियों की रिहाई के मुद्दे पर? भूमि ज़ब्ती के मुद्दे पर? धरने के मुद्दे पर? या और किसी मुद्दे पर? अनिच्छापूर्वक समिति ने समझौते को स्वीकार कर लिया।
समझौते पर हस्ताक्षर
5 मार्च को दोपहर में वायसराय भवन में इरविन और गांधीजी द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इसे गांधी-इरविन समझौता या दिल्ली पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इरविन ने कहा, हमें इस मौक़े पर चाय पीकर एक दूसरे को बधाई देनी चाहिए। गांधीजी ने अपनी शाल से एक काग़ज़ की थैली निकालते हुए कहा, शुक्रिया, मैं नमक की कुछ मात्रा अपनी चाय में मिलाना चाहूंगा ताकि हमें प्रसिद्ध बोस्टन टी पार्टी का स्मरण हो जाए। इस पर दोनों हंस पड़े। समझौते के अनुसार सरकार ने सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का आश्वासन दिया था। आन्दोलन के दौरान ज़ब्त संपत्ति को लौटाने, दमनचक्र बंद करने, सभी अध्यादेश और मुक़दमे वापस लेने पर सरकार ने सहमति जताई थी। भारतीयों को नमक बनाने की छूट मिल गयी।
भारत के पूर्ण स्वराज्य का मार्ग
आन्दोलन के दौरान जिन लोगों ने नौकरी से त्यागपत्र दिया था उन्हें फिर से सरकारी नौकरी में वापस लेने की व्यवस्था की गई। गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लेने, बहिष्कार की नीति त्यागने और द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने पर सहमती दी। समझौता भारत के गजट में गृह विभाग की एक विज्ञप्ति के रूप में प्रकाशित हुआ। विज्ञप्ति में कहा गया था, सविनय अवज्ञा प्रभावी रूप से बंद किया जाएगा और इसके उत्तर में सरकार की तरफ़ से भी यथोचित क़दम उठाया जाएगा। कांग्रेस कार्यकारी समिति ने समझौते की शर्तों का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, समिति आशा करती है कि राष्ट्र समझौते की शर्तों का पालन करेगा क्योंकि यह कांग्रेस की विभिन्न गतिविधियों और इस मत से मेल खाती है कि कांग्रेस की तरफ़ से किए वादों के पूरे अनुपालन से ही भारत के पूर्ण स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
गांधी इरविन समझौते के बाद- प्रतिक्रया, विश्लेषण
गांधी-इरविन करार से कोई प्रसन्न नहीं था। काँग्रेस की स्वतंत्रता का प्रस्ताव और 26 जनवरी का वायदा, दोनों की समझौते की बातचीत के दौरान उपेक्षा की गई। नेहरू और वामपंथी नेता इससे दुखी हुए। गांधीजी के कुछ साथियों की राय थी कि लार्ड इरविन ने गांधीजी को वाइसराय भवन की भूल-भुलैया में फंसा लिया और समझौते को उन्होंने वाइसराय की निरी कपट भरी चाल बताया। कांग्रेस के सदस्यों को लगा कि सरकार ने कुछ नहीं दिया और सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया गया। उन्हें लगा कि गांधीजी सरकार से किसी भी महत्त्वपूर्ण मांग को नहीं मनवा सके। युवा वर्ग और देश के एक विशाल जान समूह का यह कहना था कि वे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को कारावास में नहीं बदलवा सके। 23 मार्च को इन तीनों वीरों को जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। देश में इसका तीव्र विरोध हुआ।
सरकारी अधिकारी चाहते थे समझौता सफल न हो
देश के सरकारी अधिकारी भी चाहते थे कि समझौता सफल न हो। भारत में अंग्रेज अधिकारियों और इंग्लैंड के टोरी अथवा अनुदार दल के राजनीतिज्ञों को, एक ऐसी पार्टी से समझौते की बात से आघात पहुंचा, जो स्पष्ट घोषणा कर चुकी थी कि उसका उद्देश्य अंग्रेजी राज को समाप्त करना है। सरकारी अधिकारी शासन की ताकत और क़ानून के ज़ोर से लोगों पर जुल्म ढा रहे थे। बहुत से कांग्रेसी नेता, खासकर वे जिनका झुकाव वामपंथ की ओर था, इस समझौते के ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि सरकार ने आंदोलनकारियों की कोई प्रमुख मांग नहीं मानी थी। सुभाषचन्द्र बोस ने वियना से एक विज्ञप्ति ज़ारी करके सिविल नाफ़रमानी के स्थगन की भर्त्सना की और इसे गांधीजी के राजनीतिक नेतृत्व तथा तरीक़ों की विफलता बताया।
राजनैतिक बंदियों के क्षमादान का प्रश्न
असहयोग आन्दोलन के क़ैदियों को छोड़ने की बात तो कही गई थी, किंतु इस समझौते में नज़रबंद या सज़ा भुगत रहे बंदियों की रिहाई का कोई उल्लेख नहीं था। उन राजनैतिक बंदियों के क्षमादान का प्रश्न ज़रूर उठाया गया था, जिन्हें अध्यादेशों के अंतर्गत हिंसक कार्रवाइयों के लिए दण्डित किया गया था। वस्तुत: गांधीजी ने उन अध्यादेशों को वापस लेने की पैरवी की थी। लोगों को ऐसा प्रतीत होता था कि भगतसिंह और उनके सह कैदियों को बचाने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं किए गए। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड की सज़ा ख़त्म कर देने के मसाले पर इरविन ने गांधीजी के आग्रह को न केवल दृढतापूर्वाक अस्वीकार कर दिया बल्कि यह भी कहा कि वह उसे स्थगित करने को भी तैयार नहीं है। बंगाल में भी हज़ारों लोग अभी भी जेल में बंद थे। गढ़वाली सैनिकों, जिन्होंने पेशावर में निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था, की रिहाई का भी कोई उल्लेख नहीं था।
किसानों में बढ़ा असंतोष
आंदोलन के सिलसिले में नीलाम की गई ज़मीनों को उनके वास्तविक स्वामियों को लौटाने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। ग्रामीण इलाक़ों में किसानों का असंतोष बढ़ रहा था। क़ीमतों की गिरावट अपने रिकॉर्ड स्तर पर थी। मालगुज़ारी, लगान और ऋणों का बोझ असह्य होने लगा था। उत्तर प्रदेश में काश्तकारों की ज़मीन ज़ब्त कर ली गई थी। बेरहमी से बकाया लगान वसूला जाने लगा। गांधीजी ने कृषकों की समस्या के बारे में वायसराय को लिखा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। जो नाममात्र रियायतें दी गई थीं, वह भी तब प्रभावहीन हो गई जब बातचीत के बाद गांधीजी ने पुलिस ज़्यादतियों की जांच कराने और किसी तीसरे को बेच दी गई ज़मीनों की वापसी की मांग वापस ले ली। नौकरी से बर्खास्त किए गए सरकारी कर्मचारियों की पुनः नौकरी पर बहाल करने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। समझौते में औपनिवेशिक स्वराज्य का भी कोई आश्वासन नहीं था।
व्यापारी समूह के दवाब की भूमिका
इस समझौते को जहां कुछ इतिहासकारों ने उदारवादी नेताओं के दबाव के संदर्भ में व्याख्या की है तो वहीं कुछ विद्वानों ने बंबई के गवर्नर द्वारा वायसराय को दी गई इस रिपोर्ट के आधार पर कि "यदि गांधीजी समझदारी का रुख नहीं अपनाते, तो गांधीजी के अनेक अनुयायी व्यापारी उनसे नाता तोड़ने की बात सोच रहे थे", व्यापारी समूह के दवाब की भूमिका को प्रमुख कारण माना है। सुमित सरकार के शब्दों में कहें तो, "गाँधी-इरविन समझौते को केवल नकारात्मक दृष्टि से देखना भी एक अपेक्षाकृत जटिल वास्तविकता का अतिसरलीकरण होगा। ... इस समझौते से राष्ट्र को होनेवाली उपलब्धि चाहे जितनी भी नगण्य रही हो, वायसराय को इस बात के लिए बाध्य होना पडा कि वह राष्ट्रीय नेता से नम्रता और समानता के एक नितांत नए आधार पर मिले।" सरकार ने गांधीजी से समझौता इसलिए किया कि उसे लगता था कि इससे कांग्रेस कमज़ोर होगी। लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा। कांग्रेस की प्रतिष्ठा और बढ़ गई।
समझौते ने गांधीजी और कांग्रेस को सरकार के समकक्ष ला दिया। विंस्टन चर्चिल ने खुले आम कहा था कि इस घिनौने और अपमानजनक तमाशे से उन्हें नफरत हो गयी कि कभी जो इंग्लैंड के इनर टेम्पुल का बैरिस्टर था, वही अब राजद्रोही फकीर बन कर सम्राट के प्रतिनिधि से बराबरी की हैसियत से सन्धि-वार्ता करने के लिए वाइसराय-भवन की सीढ़ियों पर अर्धनग्न स्थिति में लम्बे कदम भरता हुआ जा रहा था। वायसराय के साथ बराबरी में बैठकर एक सन्धि करने के कारण गांधीजी की वरिष्ठता और बढ़ गई थी। उसी वर्ष बाद में लन्दन में उन्हें सम्राट जॉर्ज पंचम के महल बकिंघम पैलेस में आयोजित स्वागत-समारोह में शामिल होने का निमंत्रण मिला।
यह समझौता महत्वपूर्ण था
समझौते की शर्तों के तहत जब कांग्रेसी कार्यकर्ता जेल छूटकर अपने-अपने गाँव या शहर गए तो उनका तेवर विजेताओं वाला था और वे उत्साह से भरे-पूरे थे। कांग्रेस को एक नई ऊर्जा मिल गई थी और लोग पूरे जोश से स्वाधीनता के संघर्ष के लिए तैयार थे। भारत को स्वतन्त्रता भले ही सोलह वर्षों के बाद मिली हो, लेकिन उसकी बुनियाद गांधी-इरविन वार्ताओं में निहित थी, और समझौता उन्हीं वार्ताओं की परिणति था। गांधीजी के आत्मकथा लेखक फिशर ने सही ही कहा है कि 'इस समझौते की शर्तें इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थीं, जितना कि स्वयं यह समझौता था।' यह बराबरी का समझौता था। यह स्वतन्त्रता की अनकही स्वीकृति का परवाना था।
सुमित सरकार के अनुसार, "गांधीजी के रवैये में परिवर्तन की इस ऐतिहासिक पहेली को केवल उदारवादी नेताओं के दबाव के सन्दर्भ में ही नहीं समझा जा सकता। न ही इस तर्क को गंभीरता से लिया जा सकता है कि गांधीजी इरविन के व्यवहार पर मंत्रमुग्ध हो गए थे या यह कि केंद्र में उत्तरदायी सरकार देने का गोलमेज सम्मलेन का अस्पष्ट-सा वादा अचानक उन्हें आकर्षक लगाने लगा था।"
सत्याग्रह-आन्दोलन का उद्देश्य
प्रेस के साथ एक साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा था, "इस तरह के समझौते में किसी एक पक्ष को विजयी मानना संभव नहीं है। अगर इस तरह की कोई विजय हुई है तो दोनों पक्षों की हुई है।" वाइसराय के साथ समझौता करने में गांधीजी के उद्देश्य को उनकी सत्याग्रह की नीति के माध्यम से ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। सत्याग्रह- आन्दोलन का उद्देश्य 'संघर्ष', 'विद्रोह' और 'अहिंसात्मक युद्ध' ही नहीं है बल्कि सत्याग्रह का उद्देश्य विरोधी के हाथों कष्ट सहन कर उन मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को जन्म देना है, जो दोनों के मन का मिलन संभव कर दें।
गांधीजी इस समझौते को कांग्रेस और सरकार के पारस्परिक संबंधों में एक नए अध्याय का आरंभ मानते थे। उनका कहना था, "सत्याग्रह में एक वक़्त आता है जब सत्याग्रही अपने विरोधी से समझौते की चर्चा करने से इंकार नहीं कर सकता। उसका उद्देश्य तो अपने विरोधी को प्रेम से जीतना है। हमारे लिए ऐसा वक्त उस समय आ गया था जब प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद कांग्रेस की कार्य समिति को रिहा कर दिया गया था।
वायसराय ने भी हमसे अनुरोध किया था कि हम लड़ाई का रास्ता छोड़कर उन्हें बताएं कि हम क्या चाहते हैं। हमने समझौता इसलिए नहीं किया कि हम कमज़ोर हो गए थे, बल्कि इसलिए किया कि वह ज़रूरी हो गया था। इसलिए ऐसी लड़ाई में विरोधी से समझौता न तो अधर्म है और न ही अपनों से विश्वासघात ही, उलटे वह एक स्वाभाविक और आवश्यक कदम है जिसे उपयुक्त समय पर उठाना होता है।"
कराची में कांग्रेस की बैठक
गांधी-इरविन समझौते को मंजूरी देने के लिए 29 मार्च को कराची में कांग्रेस की बैठक हुई। 23 मार्च को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। युवा जुझारू वर्ग में आक्रोश और नाराजगी व्याप्त थी। उनका मानना था कि इस मुद्दे को लेकर गांधीजी को समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए था। नौजवान भारत सभा ने करांची कांग्रेस के ठीक पहले करांची रेलवे स्टेशन पर गांधीजी के विरुद्ध एक प्रदर्शन आयोजित किया था। उनको काले झंडे दिखाए गए थे।
करांची कांग्रेस के अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल थे। वे उन दिनों भारत के सबसे लोकप्रिय और शक्तिशाली व्यक्ति थे। कांग्रेस ने प्रस्ताव पास कर क्रांतिकारियों की वीरता और बलिदान की प्रशंसा की, साथ ही किसी भी तरह की राजनीतिक हिंसा का समर्थन न करने की अपनी बात भी दोहराई। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने 'दिल्ली समझौते' को अपनी मंजूरी दी और गांधीजी को गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने के लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। पूर्ण स्वराज के अपने लक्ष्य को दोहराया।
कराची अधिवेशन में वामपंथियों को प्रसन्न करने के लिए मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति से संबंधित एक प्रस्ताव भी पारित किया गया। इसके अलावे लोकतांत्रिक मांगे (नागरिक स्वतंत्रता, क़ानूनी समानता, व्यस्क मताधिकार, निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, और धर्म निरपेक्षता) थी। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने यह भी घोषणा की कि जनता के शोषण को समाप्त करने के लिए राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ आर्थिक आज़ादी भी ज़रूरी है। बिपन चन्द्र ठीक ही कहते हैं कि करांची कांग्रेस जहां एक ओर समझा-बुझाकर मतभेदों को समाप्त कर देने में गांधीवादी दर्शन की राजनैतिक सफलता का द्योतन करता है, तो दूसरी ओर कांग्रेस के कार्यक्रम में परिवर्तनकारी, समाजवादी प्रवृत्तियों के प्रभावशाली ढंग से आने का सूत्रपात होता है।
सरकारी रवैया
इंग्लैंड में टोरी-प्रधान राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आ चुकी थी। विश्व में आर्थिक संकट गहराया हुआ था। नई सरकार के समक्ष लंकाशायर और ब्रिटिश व्यापारियों के हितों की रक्षा करना प्रमुख लक्ष्य था। भारत-सचिव सैमुएल होर था। अप्रैल में लॉर्ड इरविन की वायसराय पद से छुट्टी हो गई। नए वायसराय के रूप में लॉर्ड इरविन की जगह लॉर्ड विलिंगडन ने बंबई में पद ग्रहण किया, जो कट्टर टोरी था। उसने गांधीजी को मिलने के लिए नहीं बुलाया। उसका मानना था कि 'गांधीजी ख़ुराफ़ाती जीव हैं', उन्हें तो कालापानी भिजवा दिया जाना चाहिए। गांधीजी का जड़मूल से विनाश होगा तभी सलतनत बच पाएगी।
मई में यह दिशा-निर्देश दे दिए गए थे कि 'जहां कहीं भी समझौता टूटे, एकदम प्रहार किया जाए और प्रहार कड़ा हो'। अंग्रेज़ सरकार ने सारे देश में सरकारी सख़्ती लगानी शुरू कर दी। देश में आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। ग्रामीण असंतोष बढ़ता गया। कीमतों की गिरावट, महंगाई, मालगुजारी, लगान और कर्जों के बोझ से स्थिति असह्य हो गई थी। आर्थिक दबावों के कारण देश में नीचे से भी दबाव उत्पन्न हो रहा था, जिसके कारण समझौता खटाई में पड़ने लगा। दोनों पक्ष एक दूसरे को समझौता भंग करने का आरोप लगाने लगे। समझौते के हस्ताक्षर मिटने लगे और दोनों पक्षों में तना-तनी उभर कर सामने आने लगी।
नोट: हमें आशा है कि हमारे पाठकों और परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त आईओएफएस मनोज कुमार द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।