Explainer: नरम दल एवं गरम दल के उदय का मूल कारण क्या था?

The Main Reason for the Rise of Naram Dal and Garam Dal: कांग्रेस की स्थापना के बाद, अंग्रेजों की हुकूमत एवं औपनिवेशिक शोषण के साथ ही जनता की राजनीतिक चेतना में तेजी से विकास हुआ। कई प्रश्न और कई मतभेद भी उठ खड़े हुए। इस दौरान नरम दल और गरम दल का भी उदय हुआ। आज के लेख में हम नरम दल और गरम दल के उदय के मूल कारण को विस्तार से बता रहे हैं।

Explainer: नरम दल एवं गरम दल के उदय का मूल कारण क्या था?

राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए उम्मीदवार आधुनिक भारत के इस विषय पर अपनी तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं। यहां विषय को आसान भाषा में विस्तार से बताया जा रहा है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में जहां एक ओर जनता की राजनीतिक चेतना में तेजी के साथ विकास हुआ, तो वहीं दूसरी ओर नेताओं को अंग्रेजी हुकूमत से रियायतें लेने में कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। औपनिवेशिक शोषण बदस्तूर ज़ारी रहा। किसानों, मज़दूरों और गांवों के संभ्रांत लोगों में असंतोष और निराशा व्याप्त थी। नरमपंथी नेताओं की लोकप्रियता लगातार घट रही थी। परिस्थितियों ने नेताओं के एक ऐसे वर्ग को आगे किया, जो अपनी मांगों में आमूल परिवर्तनवादी थे और उग्र राष्ट्रवादिता में विश्वास रखते थे। 1890 के दशक में राजनीतिक गतिविधि के लिए एक उग्रवादी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की जो कट्टरपंथी प्रवृत्ति उभरने लगी थी, 1905 तक उसने एक ठोस आकार ले लिया।

बंग-भंग आन्दोलन के समय देश की राजनीति

1905 में बंग-भंग आन्दोलन के समय देश की राजनीति में तीन तरह की प्रवृत्तियाँ दिख रही थीं। एक वर्ग नरमदल और उदार विचारों वाला था। वे सरकार को आवेदन देने और अपील करने में विश्वास रखते थे। दूसरा वर्ग आत्मशक्ति के द्वारा स्वदेशी की भावना का विकास करना चाहता था। बहिष्कार के द्वारा अंग्रेजी अर्थव्यवस्था और प्रशासन पर आघात करना इस वर्ग का उद्देश्य था। एक तीसरा वर्ग था जो ताक़त के बल पर अंग्रेजी शासन को हटाकर स्वराज की स्थापना करना चाहता था। यह गरमदल, नरमदल वालों की उदार नीतियों से असंतुष्ट था। वे बंकिम चन्द्र चटर्जी के गीत 'वन्दे मातरम' गाया करते थे।

गरमदल के उदय के कारण

गरमदल के उदय का सबसे प्रमुख कारण था नरमपंथियों की विफलता। यह देखकर कि ब्रिटिश सरकार उनकी कोई महत्वपूर्ण माँग नहीं मान रही थी, राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों में से अधिक उग्रवादी लोगों का मोहभंग हो गया और उन्होंने राजनीतिक कार्रवाई के अधिक प्रभावी तरीके की तलाश शुरू कर दी। यह भावना अधिक से अधिक लोगों को आकर्षित करने लगी कि केवल एक भारतीय सरकार ही भारत को प्रगति के पथ पर ले जा सकती है। देश की आर्थिक दुर्दशा ने औपनिवेशिक शासन के शोषक चरित्र को और उजागर कर दिया। सरकार भारतीयों को अधिक अधिकार देने के बजाय मौजूदा अधिकारों को भी छीन रही थी। ब्रिटिश शासन अब सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से प्रगतिशील नहीं रह गया था। यह शिक्षा के प्रसार को दबा रहा था।

पहले दौर की राष्ट्रीय गतिविधियों से लोगों में आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान की वृद्धि हुई। तिलक, अरबिंदो और बिपिन चंद्र पाल ने बार-बार राष्ट्रवादियों से भारतीय लोगों की क्षमताओं पर भरोसा करने का आग्रह किया। जहां एक ओर शिक्षा के प्रसार ने जनता के बीच जागरूकता में वृद्धि की, वहीँ दूसरी ओर शिक्षितों के बीच बेरोजगारी और बेरोजगारी में वृद्धि ने गरीबी और औपनिवेशिक शासन के तहत देश की अर्थव्यवस्था की अविकसित स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित किया। भारत में पश्चिमीकरण ने भारत का अधिक विनाश ही किया था, और ऐसा ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीय राष्ट्रीय पहचान को डुबाने के लिए किया गया था।

युवा राष्ट्रवादियों को मिली प्रेरणा

स्वामी विवेकानंद, बंकिम चंद्र चटर्जी और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे बुद्धिजीवियों ने अपने सशक्त और मुखर तर्कों से कई युवा राष्ट्रवादियों को प्रेरित किया। उन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत को लोगों के सामने रखा। इन विचारकों ने अतीत में भारतीय सभ्यता की समृद्धि का हवाला देकर पश्चिमी श्रेष्ठता के मिथक को तोड़ दिया। युवा वर्ग शांतिपूर्ण और संवैधानिक आंदोलन के तरीकों के कड़े आलोचक थे, जिन्हें "थ्री पी" के रूप में जाना जाता है - प्रार्थना, याचिका और विरोध - इन तरीकों को उन्होंने 'राजनीतिक भिक्षुक' के रूप में वर्णित किया। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान नरमपंथियों के शांतिपूर्ण प्रयासों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था। यहाँ तक कि भारत मंत्री मार्ले ने विभाजन वापस लेने के बजाए इसे पुष्ट ही कर दिया। इससे गरमदल में रोष व्याप्त हो गया। गरमदल के सदस्यों को सरकारी दमनात्मक कार्रवाइयों से भी असंतोष रहता था। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। प्रेस पर पाबंदी थी। आन्दोलन के कार्यकर्ताओं पर मुक़दमे दर्ज हो रहे थे और उन्हें दण्डित किया जा रहा था। यहाँ तक कि कइयों को निर्वासित कर दिया गया। छात्रों पर अमानुषिक अत्याचार किया गया।

..जब राष्ट्रवादी विचारकों का एक समूह उभरा

हिन्दू-मुसलमानों के बीच प्रायोजित ढंग से बैमनस्व फैलाकर आपस में लड़वाया गया। कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भी आग में घी का काम किया। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक, राष्ट्रवादी विचारकों का एक समूह उभरा था जिन्होंने राजनीतिक कार्यों के लिए अधिक उग्रवादी दृष्टिकोण की वकालत की थी। इस गरमदल वालों ने जुझारू रुख अपना लिया। वे सरकार के साथ असहयोग की नीति पर चलने की सलाह दे रहे थे। विदेशी शासन को समाप्त करना और स्वराज उनका लक्ष्य था। वे आत्मबलिदान द्वारा देश को आज़ाद करने की प्रेरणा लोगों को दे रहे थे। इस दिशा में बंगाल के राज नारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्ता, अरविन्द घोष और बिपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। बंगाल के बाहर महाराष्ट्र में विष्णु शास्त्री चिपलूनकर और बाल गंगाधर तिलक और पंजाब में लाला लाजपत राय ने भी गरमदल की नीतियों को आगे बढाया। इन्होंने साहस, त्याग, आत्मविश्वास और बलिदान की भावना की पैरवी की। इनके विचार क्रांतिकारी थे। वे अंग्रेजी राज को अभिशाप मानते थे। वे शीघ्र अंग्रेजी राज की समाप्ति चाहते थे। क्रांतिकारी होते हुए भी वे संविधानवादी बने रहे।

राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार

1866 में जन्मे बाल गंगाधर तिलक ने बंबई विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद अपना जीवन राष्ट्र की सेवा में लगा दिया। उन्होंने अंग्रेज़ी में 'मराठा' और मराठी में 'केसरी' समाचारपत्रों को स्थापना की। इसमें राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती थी। उन्होंने गणेशपूजा का संगठन किया और लोगों में राष्ट्रवादी विचारों के प्रचार के लिए शिवाजी पर्व की शुरुआत की। उन्होंने विदेशी चीजों का बहिष्कार और स्वदेशी अपनाने की सलाह दी। उन्होंने आपातकाल की स्थिति में किसानों को लगान देने के लिए मना किया। सरकार के विरुद्ध घृणा फैलाने के आरोप के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और माफ़ी मांगने से इनकार कर देने की स्थिति में उन्हें 18 महीने की कठोर कारावास की सज़ा दी गयी।

कांग्रेस की 'भिखमंगी' नीति

अरविन्द घोष बडौदा में रहते थे। इंग्लैण्ड से अत्यधिक अंग्रेजी वातावरण में पल-बढकर भारत लौटे थे। अंग्रेजी तौर तरीकों के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया दर्शाते थे। वह नरमदल के संवैधानिक ब्रिटिश आदर्श का निषेध करते थे। उन्होंने कांग्रेस की 'भिखमंगी' नीति पर प्रहार किया। वे मानते थे कि उस समय की सबसे बड़ी समस्या थी मध्य वर्ग और सर्वहारा (शहर और देहातों में रहने वाले आम लोग) के बीच की कड़ी स्थापित करने की कोशिश की। उन्नीसवीं सदी के अंत तक अरविन्द गुप्त सभाएं संगठित करने लगे थे।

बंगाल में कांग्रेस के प्रति मोहभंग को अभिव्यक्ति दी अश्विनी कुमार दत्त ने। उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन को 'तीन दिन का तमाशा' कहा था। समाज सेवा के द्वारा उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में अपना अनुयायी तैयार कर लिया था। 1905 के स्वदेशी आन्दोलन में उन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।

कांग्रेस में विभेद का बढ़ना

स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के आगमन के साथ, कांग्रेस में नरमपंथियों पर गरमपंथी भारी पड़ने लगे थे। यह स्पष्ट हो गया कि नरमपंथियों ने अपनी उपयोगिता समाप्त कर दी थी और याचिकाओं और भाषणों की उनकी राजनीति पुरानी हो गई थी। जनता के बीच काम करने में उनकी विफलता का मतलब था कि उनके विचार जनता के बीच जड़ नहीं जमा पाए। नरमपंथी हालांकि फिरंगी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम बनाए थे, लेकिन वे जनता का विश्वास जीतने में सफल नहीं हो सके। फलस्वरूप उनका योगदान आम जनता तक नहीं पहुंच सका। अंग्रेजों ने इन्हें सदा तिरस्कृत ही किया। वे राजनीतिक घटनाक्रम के साथ अपनी रणनीति में आवश्यक फेरबदल नहीं कर पाते थे, यह भी उनकी असफलता का एक बड़ा कारण था। उनकी उपलब्धियों ने ही उनकी राजनीति को अव्यावहारिक बना दिया था।

वे उस समय की युवा पीढी को अपने साथ लाने में भी नाकामयाब रहे। इस समय तक देश में लड़ाकू या गरमपंथी विचारधारा पनपने लगी थी। तिलक, लाला लाजपतराय और मोतीलाल घोष ने अत्यंत विनम्रता के साथ प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन का स्वागत करने के प्रस्ताव का विरोध किया था। लेकिन नरमपंथियों द्वारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। सरकार ने भी अपनी नीति बदल ली। अंग्रेज़ नरमपंथियों को अपने साथ लाने लगे। नए सुधारों का चारा फेंका गया। लॉर्ड मिंटो वायसराय था और जॉन मॉरले गृह सचिव। नरमपंथी नेता इन दोनों को झांसे में आ गए। नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच के मतभेद का अंग्रेज़ों ने भरपूर फायदा उठाया।

बनारस कांग्रेस

कांग्रेस के अंदर असंतुष्टों का एक वर्ग विकसित हो चुका था जिसे गरम दल कहा जा रहा था। बंगाल विभाजन के बाद दिसंबर 1905 में, कांग्रेस का अधिवेशन बनारस में हुआ। इसकी अध्यक्षता गोपालकृष्ण गोखले ने की थी। बंगाल विभाजन और बहिष्कार के प्रश्न पर इस अधिवेशन में नरमदल और गरमदल के बीच का विभेद उभर कर सामने आया। नरमदल वाले बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन को केवल बंगाल तक सीमित रखना चाहते थे। इसके विपरीत गरमदल वाले इसे पूरे देश में फैलाना चाहते थे।

इसके अलावा गरमदल वाले सिर्फ बहिष्कार से संतुष्ट नहीं थे। वे स्वराज को भी आन्दोलन में शामिल करना चाहते थे। लेकिन नरमदल वाले इसके लिए तैयार नहीं हुए। समझौते के रूप में, बंगाल के विभाजन और कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों की निंदा और बंगाल में स्वदेशी और बहिष्कार कार्यक्रम का समर्थन करने वाला एक अपेक्षाकृत हल्का प्रस्ताव पारित किया गया था। हालाकि इससे गरमदल वालों का असंतोष बढ़ गया, लेकिन यह पहल विभाजन को कुछ समय के लिए टालने में सफल रहा।

कलकत्ता कांग्रेस

दिसंबर, 1906 में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन के वक़्त तक गरम दल ने काफी प्रगति कर ली थी। तिलक या लाला लाजपत राय के अध्यक्ष बनने की दावेदारी काफ़ी मज़बूत थी। लेकिन फीरोजशाह मेहता और गोखले के प्रभावशाली बंबई गुट ने दादाभाई नौरोजी जैसे पितृवत सर्वसम्मानित व्यक्ति को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार घोषित करके संभावित विघटन या विरोध टलवा दिया। दादाभाई नौरोजी ने गरमदल को संतुष्ट करने के लिए घोषणा की कि "कांग्रेस का उद्देश्य ब्रितानी राज्य या उपनिवेशों की तरह स्वराज्य प्राप्त करना है।" लेकिन इससे गरमदल वाले संतुष्ट नहीं ही सके। वे पूर्णस्वराज्य और स्वशासन चाहते थे। वे कांग्रेस को क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए तैयार करना चाहते थे। दोनों दलों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी था।

इस अधिवेशन में बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वायत्त शासन पर प्रस्ताव रखे गए। बिपिन चन्द्र पाल के विदेशी वस्तुओं और मानद पदों के बहिष्कार के प्रस्ताव का मालवीय और गोखले ने विरोध किया। एक और गौर करने वाली बात यह है कि इसी वर्ष मुहम्मद अली जिन्ना ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ली। कांग्रेस के 1906 के सम्मेलन में जिन्ना ने अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी के निजी सचिव के तौर पर काम किया था। इस सम्मेलन में कांग्रेस ने पहली बार स्वराज्य की मांग की थी। कलकत्ता अधिवेशन की कार्यवाही से उत्साहित चरमपंथियों ने व्यापक निष्क्रिय प्रतिरोध और स्कूलों, कॉलेजों, विधान परिषदों, नगर पालिकाओं, कानून अदालतों आदि का बहिष्कार करने का आह्वान किया। दूसरी तरफ नरमपंथियों ने, इस खबर से प्रोत्साहित होकर कि परिषद सुधार विचाराधीन थे, कलकत्ता कार्यक्रम को नरम करने का फैसला किया। ऐसा लग रहा था कि दोनों पक्ष आमने-सामने की टक्कर की ओर बढ़ रहे हैं।

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सूरत कांग्रेस और विभाजन

1905 से 1907 तक राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर जारी विभिन्न प्रवृत्तियों का संघर्ष कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में भी उभरता रहा जिसकी चरम परिणति हुई दिसंबर 1907 में सूरत में हुए विभाजन में। दोनों खेमा एक दूसरे को अपना शत्रु मानने लगा था। उस समय गरमपंथियों के नेता अरविंद घोष थे। गरमपंथियों ने नरमपंथियों से नाता तोड़ने और उनके हाथ से कांग्रेस का नेतृत्व छीनने की पूरी तैयारी कर रखी थी। सफलता न मिलने पर उन्होंने कांग्रेस के विभाजन की भी तैयारी कर रखी थी। पहले तो यह तय हुआ था कि 1907 का कांग्रेस अधिवेशन नागपुर में होगा, लेकिन फीरोजशाह मेहता के प्रयासों से इसका स्थान बदल कर सूरत कर दिया गया। 26 दिसंबर को ताप्ती नदी के किनारे अधिवेशन हुआ।

अव्यवस्था की स्थिति में अधिवेशन भंग

अधिवेशन उत्तेजना और क्रोध के वातावरण में शुरू हुआ। मेहता ने ही अत्यंत नरम दलीय व्यक्ति रास बिहारी घोष को इसका अध्यक्ष चुनवा लिया। गरम दल इसमें पूरी तैयारी कर के आया था। तिलक ने 27 दिसंबर को स्थगन प्रस्ताव रखा जिसे स्वागत समिति के अध्यक्ष मालवीय ने ठुकरा दिया। इस पर तीखी झड़पें हुईं। अव्यवस्था की स्थिति में अधिवेशन भंग हो गया। कांग्रेस में विभाजन हो चुका था। लाला लाजपत राय और तिलक ने कांग्रेस को एक करने की बहुत कोशिश की। लेकिन बंबई का नरम दलीय गुट अड़ा रहा। बाद के वर्षों में कुछ ऐसी स्थितियां उत्पन्न हुईं कि कांग्रेस का विभाजन पक्का हो गया। इलाहाबाद सम्मेलन में कांग्रेस का ऐसा संविधान बनाया गया जिसमें कांग्रेस के तरीकों को शुद्ध संवैधानिक और वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में निरंतर सुधार लाने तक सीमित रखा गया। प्रतिनिधियों का चुनाव भी सीमित कर दिया गया। केवल वे ही संगठन प्रतिनिधि भेज सकते थे जो तीन वर्षों से अधिक अवधि से मान्यता प्राप्त हों। इस प्रकार गरमदलीयों को अगले कांग्रेस अधिवेशनों में शामिल न होने के सारे प्रयास किए गए।

सरकारी दमन

गरमपंथियों पर तो इसके बाद आफ़तों का पहाड़ टूट पड़ा। 1907 और 1911 के बीच सरकार विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए पांच नए कानून लागू किए गए। इन विधानों में राजद्रोही सभा अधिनियम, 1907; भारतीय समाचार पत्र (अपराधों के लिए प्रोत्साहन) अधिनियम, 1908; आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1908; और भारतीय प्रेस अधिनियम, 1910 थे। सरकार ने चुन-चुन कर नेताओं को जेल में डालने शुरू कर दिए। तिलक पर 1909 में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, क्योंकि उन्होंने 1908 में अपने समाचारपत्र केसरी में कुछ लिखा था। तिलक को छह वर्ष के लिए मंडालय (बर्मा) जेल भेज दिया गया।

क्रांतिकारी षडयंत्र

अरविंद घोष को एक क्रांतिकारी षडयंत्र का अभियुक्त घोषित कर दिया गया। वे जब बेकसूर करार दिए गए, तो पोंडिचेरी चले गए और उन्होंने अध्यात्म का रास्ता अपना लिया। बिपिनचंद्र पाल ने राजनीति से संन्यास ले लिया। लालालजपत राय 1908 में ब्रिटेन चले गए, फिर वहां से लौटकर आए तो अमेरिका चले गए। सरकार इन नेताओं की अनुपस्थिति में गरमपंथियों को दबाने में सफल रही। नरमपंथी, बिना किसी उत्साह के कांग्रेस की गाड़ी कुछ दिनों तक खींचते रहे। 1908 तक समूचा राष्ट्रीय आंदोलन जड़ता का शिकार हो चुका था। आंदोलन की लहर थम चुकी थी। 1914 में तिलक जब जेल से छूटे, तो उन्होंने कांग्रेस को फिर से पटरी पर लाने का प्रयास शुरू किया।

नरमपंथी बनाम गरमपंथी

जहां एक ओर नरमपंथी अपनी वैचारिक प्रेरणा पश्चिमी उदारवादी विचार और यूरोपीय इतिहास से ग्रहण करते थे वहीं दूसरी ओर गरम दल वाले भारतीय इतिहास, सांस्कृतिक विरासत और हिंदू पारंपरिक प्रतीक से वैचारिक प्रेरणा पाते थे। नरमपंथियों का सामाजिक आधार शहरों में ज़मींदार और उच्च मध्य वर्ग तक सीमित था। गरम दल वालों का सामाजिक आधार शहरों में शिक्षित मध्य और निम्न मध्यम वर्ग में व्याप्त था। नरमपंथी मानते थे कि ब्रिटेन के साथ राजनीतिक संबंध भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हितों में हैं, जबकि गरम दल का मानना था कि ब्रिटेन के साथ राजनीतिक संबंध भारत के ब्रिटिश शोषण को जारी रखेंगे। जहां नरम दल ने ब्रिटिश क्राउन के प्रति निष्ठा व्यक्त की, वहीँ गरम दल ने ब्रिटिश ताज को भारतीय वफादारी के योग्य नहीं माना था।

नरम दल वालों का मानना था कि आंदोलन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों तक ही सीमित होना चाहिए; जनता अभी तक राजनीतिक कार्यों में भाग लेने के लिए तैयार नहीं है। गरमदल को लोगों की आन्दोलन में भाग लेने और बलिदान करने की क्षमता में अपार विश्वास था। नरम दल ने संवैधानिक सुधारों और सेवाओं में भारतीयों के लिए हिस्सेदारी की मांग की। गरम दल के लिए भारतीय बीमारियों के लिए स्वराज को रामबाण बताया। नरम दल ने केवल संवैधानिक तरीकों के उपयोग पर जोर दिया। गरम दल ने अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध जैसे गैर-संवैधानिक तरीकों का उपयोग करने में संकोच नहीं किया।

गरम दल के उदय का मूल कारण

कैंब्रिज संप्रदाय के इतिहासकार यह दर्शाने का प्रयास करते हैं कि गरम दल के उदय का मूल कारण था कांग्रेस पर नियंत्रण स्थापित करना। हाँ, यह सही है कि 1890 के दशक में कांग्रेस में गुटबंदी का कोई अभाव नहीं था। लेकिन कैंब्रिज इतिहासकार गरम दल के उदय का विश्लेषण करते वक़्त गुटबंदी को अनावश्यक बल देते हैं। इसका कोई संतोषजनक तर्क सामने नहीं आया है कि क्यों असंतुष्ट सदस्य कांग्रेस पर क़ब्ज़ा करना चाहते थे। कांग्रेस तब तक, वास्तविक अर्थ में, राजनीतिक दल भी नहीं थी जिसे शक्ति और संरक्षण के अवसर प्राप्त होते रहे हों। यह तो वर्ष में एक बार आयोजित मंच मात्र थी, जिसके पास पर्याप्त कोष भी नहीं था। यदि इनके पास कोई वैकल्पिक योजना या आदर्श थे, तो गरमपंथी ज़रूर उन्हें इस मंच से प्रस्तुत करना चाहते रहे हों।

गरम दल के राष्ट्रवादियों ने सैद्धान्तिक, प्रचार और कार्यक्रम स्तरों पर कई नए विचार सामने रखे। उन्होंने नई तकनीकों द्वारा स्वराज के लिए जनता में राष्ट्रवादी चेतना के विकास करने का प्रयास किया। उनकी नई तकनीकों में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, जनसभाओं और जुलूसों, स्वयंसेवकों के दल या 'समितियों', पारंपरिक लोकप्रिय त्योहारों और मेलों का कल्पनाशील उपयोग, आत्मनिर्भरता पर जोर, स्वदेशी या राष्ट्रीय शिक्षा का कार्यक्रम, आदि शामिल थे। इसे कुछ विद्वानों ने सविनय प्रतिरोध कहा है। राजनीतिक-वैचारिक स्तर पर, जनभागीदारी पर उनका ज़ोर और आंदोलन के सामाजिक आधार को व्यापक बनाने की ज़रुरत नरमपंथी राजनीति पर एक प्रगतिशील सुधार था। उन्होंने देशभक्ति को 'शैक्षणिक शगल' के स्तर से 'देश के लिए सेवा और बलिदान' के स्तर तक बढ़ाया।

गरमपंथी सामाजिक प्रतिक्रियावादी

राजनीतिक रूप से प्रगतिशील गरमपंथी सामाजिक प्रतिक्रियावादी साबित हुए। गरम दल वालों ने भाषणों और लेखों के माध्यम से लोगों में जुझारू मनोवृत्ति तो पैदा की लेकिन अपनी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए कोई ठोस संगठन नहीं बना सके। फलस्वरूप जनसंघर्ष अभी भी नहीं दिख रहा था। अवज्ञा आन्दोलन और असहयोग मात्र विचार थे। राजनीतिक संघर्ष के तरीके अभी ढूंढें ही जा रहे थे। देश में अभी भी एक प्रभावशाली राजनीतिक संगठन की ज़रुरत बनी ही हुई थी। आम जनता उनके विचारों से बहुत प्रभावित नहीं हो रही थी।अधिकाँश नेता सरकारी दमन का शिकार हुए।

बिपिनचंद्र पाल और अरविन्द घोष को लंबे समय तक निर्वासन का जीवन जीना पड़ा, जिस कारण वे लोगों को नेतृत्व नहीं दे सके। इन सब कारणों से गरमदल का प्रभाव कम पड़ने लगा। फिर भी गरमदल राष्ट्रवादियों की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने लोगों को निर्भीकता और बलिदान का पाठ पढ़ाया। जनता को आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास की सीख दी। उनके क्रांतिकारी ढंग से साम्राज्यवाद विरोध ने राष्ट्र को ठोस बनाने की दिशा में एक लंबी छलांग लगाई।

नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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English summary
After the formation of the Congress, along with the British rule and colonial exploitation, there was a rapid development in the political consciousness of the people. Many questions and many differences also arose. During this, soft parties and hot parties also emerged. In today's article, we are explaining in detail the root cause of the rise of soft parties and hot parties. Aspirants preparing for national and state level competitive examinations can take help from this article for their preparation on this topic of Modern India. Here the subject is being explained in detail in easy language.
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