Explainer: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक कार्यक्रम और लक्ष्य

Initial Programs and goals of the Indian National Congress in 1885: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद से ही विभिन्न प्रकार के प्रश्नों उठते रहें। हालांकि देश में राजनीतिक आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए एक मात्र राजनीतिक पार्टी या परिवर्तनवादी संगठन के रूप में कांग्रेस ही सामने आई। इसके बाद से राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के विचारों को एक मंच प्रदान किया गया। आइए इस लेख के माध्यम से प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और उनके लक्ष्यों के बारे में विस्तार से जानें।

Explainer: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक कार्यक्रम और लक्ष्य

विभिन्न केंद्र एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं में उपस्थित होने वाले उम्मीदवार इस लेख से परीक्षा की तैयारी के लिए सहायता ले सकते हैं। आधुनिक इतिहास से जुड़े विषय- कांग्रेस की स्थापना, कार्य और उनके लक्ष्यों की यहां व्याख्या की जा रही है। इससे पहले आइए प्रतियोगी परीक्षा में इस विषय से संबंधित पूछे गए सवाल पर एक नजर डालते हैं।

प्रतियोगी परीक्षा 2020 में पूछा गया प्रश्न: अपने आरंभिक काल में राजनीतिक व्यवहार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कभी भी एक आमूल परिवर्तनवादी संगठन नहीं रहा, साथ ही संस्थापकों ने कांग्रेस की स्थापना में ए.ओ. ह्यूम को भी शामिल किया था। क्या ये इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कांग्रेस की स्थापना एक 'सुरक्षा वाल्व' के रूप में की गई थी? स्पष्ट कीजिए।

सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। इसके साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन शुरू हो गया। राष्ट्रीय आन्दोलन कई चरणों और उतार-चढ़ाव के अनेक दौरों से गुज़ारा और अंत में देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त हुआ। 1885 से 1905 तक कांग्रेस का आरंभिक दौर था। इस दौरान कांग्रेस अपने छोटे-मोटे मांग प्रस्तुत करती रही, ज़्यादातर मांगें वैधानिक सुधारों की हुआ करती थी। इसके नेता उदारवादी विचारों से प्रेरित थे। 1905 तक आते-आते कई नेताओं में उदारवादी नीति से अप्रसन्नता उभर कर सामने आई और उग्रवादी विचारधारा का उदय हुआ।

अंग्रेजों से संघर्ष और कांग्रेस की स्थिति

प्रारंभिक कांग्रेस के नेता यह समझते थे कि कांग्रेस की स्थिति ऐसी नहीं है जो स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से संघर्ष कर सके। हालाकि एक वर्ग है जो यह मानता है कि ए.ओ. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना 'सुरक्षा वाल्व' के रूप में की थी। लेकिन जब हम गहराई से कांग्रेस के जन्म का विवेचन करते हैं, तो पाते हैं कि यह उस राजनीतिक चेतना की पराकाष्ठा थी, जो 1860 के दशक में भारतीयों में पनपने लगी थी। उस समय के राष्ट्रवादी नेताओं ने ए.ओ. ह्यूम का हाथ इसलिए पकड़ा था कि शुरू-शुरू में सरकार उनकी कोशिशों को कुचल न दे। इसलिए आरंभिक वर्षों में कांग्रेस ने बहुत ही सावधानी पूर्वक क़दम उठाया और राष्ट्रवाद की भावना को विकसित करना इसका प्रमुख कार्यक्रम और लक्ष्य रहा।

आरंभिक वर्षों में कांग्रेस की गतिविधियाँ और लक्ष्य

1892 तक कांग्रेस पर अधिकांशतः ह्यूम ही छाये रहे। वे इसके महासचिव थे। कांग्रेस के 1885 के अधिवेशन में जहां सिर्फ़ 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था वहीं 1889 में इसकी संख्या 2,000 हो गई थी। कांग्रेस का आधार बढ़ाने के प्रयास तो बहुत से हुए लेकिन कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी। वायसराय डफ़रीन ने कांग्रेस को 'अत्यंत अल्पसंख्यक' कहकर इसकी खिल्ली भी उड़ाई थी। कांग्रेस के नेताओं ने सारा दोष ह्यूम के सिर मढ़ दिया। कांग्रेस द्वारा जन-संपर्क के प्रयास का कोई काम हाथ में नहीं लिया गया। खिन्न होकर ह्यूम 1892 में इंग्लैंड चले गए। इसके दूसरे अधिवेशन में ही अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी ने कहा था, "राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने आप को सिर्फ़ उन सवालों तक ही सीमित रखना चाहिए जो सवाल पूरे राष्ट्र से जुड़े हों और जिन सवालों पर सीधी भागीदारी की गुंजाइश हो। हम यहां एक राजनीतिक संगठन के रूप में इकट्ठा हुए हैं, ताकि हम अपनी राजनैतिक आकांक्षाओं से अपने शासकों को अवगत करा सकें।" इसलिए सामाजिक सुधारों पर चर्चा के लिए उन दिनों कांग्रेस उचित मंच नहीं थी।

ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ एक संगठित राजनीतिक विरोध

कांग्रेस का पहला लक्ष्य था राष्ट्रवादी भावना का पैदा किया जाना, उसे गहन करना, जनता को राजनैतिक रूप से शिक्षित करना, राजनीतिक आन्दोलन और संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करना। इस दृष्टि से पहला महत्त्वपूर्ण कार्य था जनता को संगठित करना और जनमत तैयार करना। दूसरा, देशव्यापी स्तर पर लोकप्रिय मांगों को व्यवस्थित रूप में रखना जिससे लोगों का ध्यान आकर्षित हो और उनमें आत्मविश्वास पैदा हो। उस समय भारत निर्माण की प्रक्रिया में था। ब्रिटिश हुक़ूमत जैसी शक्तिशाली सत्ता के ख़िलाफ़ एक संगठित राजनीतिक विरोध को पैदा करने के लिए अपने अंदर आमविश्वास और दृढ़ता पैदा करना बहुत ज़रूरी था।

भारतीय राष्ट्रीयता धीरे-धीरे अस्तित्व में आ रही थी। उस समय के राष्ट्रीय नेताओं ने राजनीतिक लोकतंत्र का स्वदेशीकरण शुरू किया। जनता की प्रभुसत्ता की वकालत की गई। नौरोजी कहा करते थे, "राजा जनता के लिए बने हैं, जनता राजा के लिए नहीं।" कांग्रेस की कार्यवाही लोकतांत्रिक ढंग से चलती थी। विषयों पर बहस होती थी, सदस्यों के मत लिए जाते थे। ज़रूरत पड़ने पर मतदान होते थे। 1888 के अधिवेशन में यह तय किया गया कि अगर किसी प्रस्ताव पर हिंदू या मुसलिम प्रतिनिधियों के बहुत बड़े हिस्से को आपत्ति हो, तो वह प्रस्ताव पारित नहीं होगा।

अंग्रेजों की न्यायप्रियता और उदारता में विश्वास

आरंभिक वर्षों में कांग्रेस के उद्देश्य थे, राष्ट्रवाद की भावना विकसित करना, राजनीतिक प्रश्नों पर जनता की रूचि उत्पन्न करना और जनमत का संगठन करना। देश के अन्दर धर्म, वंश एवं प्रांत सम्बन्धी विवादों को खत्म कर राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहित करना। दूसरी तरफ भारत में सुधारों को लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश जनमत को राजी करना भी इनके कार्यक्रम में शामिल था। उदारवाद के इस दौर में कांग्रेस अनुनय विनय द्वारा सरकार से संवैधानिक मांगों को मनवाने में विश्वास रखती थी। नरमपंथियों का मानना था कि अंग्रेज मूल रूप से भारतीयों के साथ न्याय करना चाहते थे लेकिन वास्तविक परिस्थितियों से वाकिफ नहीं थे। कांग्रेस को अंग्रेजों की न्यायप्रियता और उदारता में विश्वास था। उनका मानना था भारत का भविष्य ब्रिटिश शासन के साथ संबद्ध है।

इसलिए कांग्रेस के नेता अवज्ञा और चुनौती को सही नहीं मानते थे। इन आरंभिक नेताओं ने आग्रह और प्रार्थना की नीति अपनाई। उनका मानना था कि देश में जनमत तैयार किया जा सके और जनता की मांगों को प्रस्तावों, याचिकाओं, बैठकों आदि के माध्यम से सरकार के समक्ष रखा जा सके, तो अधिकारी धीरे-धीरे इन मांगों को मान लेंगे। इसलिए प्रस्ताव पास करना, सरकार के पास प्रतिनिधिमंडल भेजना इनका कार्यक्रम था। इनके प्रस्तावों में संवैधानिक सुधार, नागरिक अधिकार, उदार आर्थिक नीति और प्रशासनिक सुधार होता था। प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों ने अपनी आर्थिक और राजनीतिक मांगों को इस दृष्टि से तैयार किया था ताकि वे भारतीय जनता को एक समान आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर संगठनबद्ध कर सकें। उन दिनों के प्रमुख भारतीय नेता थे, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और गोपालकृष्ण गोखले।

संवैधानिक सुधारों की मांग

प्रारंभिक कांग्रेस ने संवैधानिक सुधारों में रुचि दिखाई। इसने सबसे पहले 1861 के अधिनियम में सुधार की मांग की। इस अधिनियम के द्वारा भारतीय हितों की उपेक्षा की जाती थी। कांग्रेस ने विधान परिषद् के अधिकारों को बढाने का प्रस्ताव रखा। इसने भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देने, बजट पर बहस करने और आलोचना करने की मांग की। इसका प्रभाव भी हुआ। सरकार ने कांग्रेस को खुश करने के लिए 1861 के इन्डियन काउंसिल एक्ट में संशोधन कर 1892 का इन्डियन काउन्सिल एक्ट पास किया। इसमें केन्द्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं की सदस्य संख्या बढ़ा दी गयी। कुछ सदस्यों को भारतीय अप्रत्यक्ष पद्धति से निर्वाचन कर सकते थे। 16 सदस्यों की इंपिरियल काउंसिल में ग़ैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 10 कर दी गई।

कांग्रेस के नेता प्रांतीय और इंपिरियल काउंसिलों में हुए शामिल

इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ वर्षों के लिए कांग्रेस की गति धीमी हो गई। इसका कारण यह था कि कांग्रेस के प्रमुख नेता प्रांतीय और इंपिरियल काउंसिलों में शामिल हो गए थे। इनमें से कुछ प्रमुख नाम थे बंगाल में लालमोहन घोष, डब्ल्यू.सी. बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ, बंबई में फीरोजशाह मेहता, गोखले और थोड़े समय के लिए तिलक। सदस्यों को बजट पर बहस करने का अधिकार दिया गया। वे सार्वजनिक मामलों पर प्रश्न पूछ सकते थे। लेकिन कांग्रेस संतुष्ट नहीं थी। कांग्रेस ने इसकी आलोचना की। फीरोजशाह मेहता ने इसे एक ऐसे भाप का इंजन बताया जिसमें भाप बनाने की सारी चीजें निकालकर भाप से मिलती-जुलती रंगीन गैस भर दी गयी थी। उस समय के नेताओं ने इस अधिनियम को एक धोखा बताया। कांग्रेस की मांग थी काउंसिल में भारतीयों के लिए अधिक स्थान और अधिक अधिकार। वे वित्तीय विषय पर अधिक नियंत्रण चाहते थे। उन्होंने 'बिना प्रतिनिधित्व के कराधान नहीं' (No taxation without representation) का नारा दिया। कांग्रेस के इस असंतोष प्रदर्शन से कोई लाभ नहीं हुआ।

स्वशासन की मांग

कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन की मांग की। उन्होंने सरकार से कहा कि वित्त और विधान दोनों पर भारतीयों का पूरा नियंत्रण होना चाहिए। लॉर्ड डफरिन ने इसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा था, "कांग्रेस देश में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की मांग करके सूर्य के रथ पर चढ़ना और अज्ञात में लंबी छलांग लगाना चाहती है।" लेकिन कांग्रेस की यह मांग लगातार बनी रही।

प्रशासनिक सुधारों की मांग

कांग्रेस ने प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, अक्षमता और सरकार की दमनकारी नीतियों में बदलाव की मांग की। उन्होंने प्रशासन के उच्च पदों पर भारतीयों की नियुक्ति की भी मांग रखी। उनकी मांग थी कि कर्मचारियों की वेतन में वृद्धि हो। पुलिस के व्यवहार में तुरत परिवर्तन होना चाहिए। न्यायायिक मामलों का शीघ्र निपटारा हो। जूरी के अधिकारों में कमी किया जाना चाहिए। न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार अलग-अलग हों। भारतीयों को भी अस्त्र रखने का अधिकार हो। शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, उद्योग, कृषि और प्रवासी भारतीय मज़दूरों की दशा में सुधार लाया जाए।

नागरिक अधिकारों की सुरक्षा

कांग्रेस ने विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग की। उन्हें संगठनात्मक कार्य करने की भी आज़ादी हो। लोगों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था। इससे क्रुद्ध होकर सरकार दमनकारी उपायों का सहारा लेती थी। वह नागरिक अधिकारों का हनन करती थी। प्रेस और राजनीतिक संगठनों पर पाबंदी लगा देती थी। 1897 में तिलक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाकर इसलिए दंडित किया गया और उन्हें 18 महीनों के लिए कठोर जेल की सजा दी गई, क्योंकि उन्होंने सरकारी आचरण के खिलाफ लेख लिखा था। पूना के नाटू बंधुओं को तो बिना मुक़दमा चलाए ही काला पानी भेज दिया गया। पश्चिमोत्तर भारत के आदिवासियों को भयंकर दमन से गुज़रना पड़ रहा था। इन सबसे लोगों में भयंकर रोष था। कांग्रेस ने इसका विरोध किया। इन लोगों का समर्थन पाने के लिए कांग्रेस ने नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की मांग की। यह मांग भी लगातार बनी रही।

अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति पर प्रतिक्रिया

कांग्रेस ने अंग्रेजों की उग्र विदेश नीति की आलोचना की। दूसरे देशों की राजनीति में अंग्रेजों की टांग अड़ाने की नीति के वह सख्त खिलाफ थी। बर्मा के अधिग्रहण और अफगानिस्तान पर आक्रमण की अंग्रेजों की कोशिशों पर भारतीय नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। 1885 के अंत में भारत सरकार ने बर्मा पर हमला किया। बर्मा की जनता पर हमला की राष्ट्रवादियों ने भर्त्सना की। इसे अनैतिक, अवांछित, अन्यायपूर्ण और स्वेच्छाचारी कहा। इसके द्वारा अंग्रेज़ों का एकमात्र इरादा था कि ब्रिटेन के व्यावसायिक हितों का विस्तार बर्मा और उसके पड़ोसी चीन तक किया जा सके।

साम्राज्यवाद का आर्थिक विवेचन

कांग्रेस के इन शुरूआती दिनों के उदारवादी नेताओं ने सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साम्राज्यवाद का आर्थिक विवेचन के रूप में किया। उन्होंने यह मत दिया कि ब्रिटेन के आर्थिक साम्राज्यवाद का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रितानी अर्थ-व्यवस्था के अधीन रखना है। उन्होंने लोगों को यह बताया कि भारत की गरीबी के लिए मूलरूप से अंग्रेजों की आर्थिक नीति ही जिम्मेदार है। दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक 'पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया' में अंग्रेजों के साम्राज्यवाद के आर्थिक दुष्परिणामों और धन-निष्कासन की आलोचना करते हुए कहा था कि 'भारतवासी मात्र परजीवी दास' थे। उन्होंने घोषणा की कि "ब्रितानी शासन, अनंतकाल तक का बढ़ता, निरंतर बढ़ता हुआ ऐसा विदेशी आक्रमण है; जो धीरे-धीरे लेकिन पूरी तरह देश को नष्ट कर रहा है।" उन्होंने सरकारी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन की मांग की।

आर्थिक सुधारों की मांग

कांग्रेस ने किसानों का लगान कम करने, उद्योगों को विकसित करने और विदेशी पूंजी के आयात को प्रतिबंधित करने की मांग की। उन्होंने बागान मज़दूरों की स्थिति सुधारने की भी मांग की। सेना और प्रशासन पर होने वाले अनावश्यक खर्च में कटौती की भी मांग कांग्रेस ने की। भूमि संबंधी उन अर्द्ध सामंती रिश्तों की निंदा की, जिसे अँग्रेज़ बनाए रखने के प्रयत्न में थे। आर्थिक प्रश्नों पर जो आन्दोलन हुए उनके परिणामस्वरूप देशव्यापी स्तर पर यह मत विकसित हुआ कि ब्रितानी शासन भारत के शोषण पर टिका है और देश को निर्धन बना रहा है।

स्वदेशी की भावना और राष्ट्रीय चेतना का विकास

आर्थिक क्षेत्र में कांग्रेस के प्रयासों से भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए स्वदेशी की भावना का विकास हुआ। इंग्लैण्ड में बने कपड़ों की जगह पर उन्होंने खादी वस्त्रों के प्रयोग को बढ़ावा दिया। 1877 के शाही दरबार में गणेश वासुदेव जोशी हाथ की बुनी हुई विशुद्ध खादी की पोषाक में उपस्थित हुए थे। आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से कांग्रेस ने लोगों में राष्ट्रीय चेतना के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया।

भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ना

उस समय के नेताओं का पहला लक्ष्य यह था कि भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ा जाए और भारतीय जनता के रूप में उनकी पहचान बनाई जाए। उस समय अंग्रेज़ कहा करते थे कि 'भारत एक नहीं हो सकता क्योंकि यह एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह महज एक भौगोलिक शब्दावली है और सैकड़ों अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोगों का समूह है'। भारत का एक राष्ट्र बनना एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया थी। भारत में जिस तरह की भिन्नताएं थीं, वह दुनिया के किसी देश में नहीं थीं। सभी क्षेत्रों में राष्ट्रीय भावना को पहुंचाने के उद्देश्य से यह तय किया गया कि कांग्रेस का अधिवेशन बारी-बारी से देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित किए जाएं और अध्यक्ष उसी क्षेत्र का न हो जहां अधिवेशन हो रहा हो।

जन-कल्याण संबंधी सेवाएँ

राष्ट्रवादियों ने मांग की कि सरकार राज्य के जनकल्याण संबंधी कामों का उत्तरदायित्व ले और उसे विकसित करे। उन्होंने आम जनता में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता पर बल दिया। तकनीकी और उच्चतर शिक्षा के लिए अधिक सुविधाओं की मांग की। उद्योग कौर कृषि के विकास के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए जाने की मांग की।

इंग्लैण्ड में कांग्रेस का प्रचार

कांग्रेसी नेताओं का यह प्रयास था कि इंग्लैण्ड के उन व्यक्तियों को अपने प्रभाव में लाया जाए, जो भारतीय मामले में रुचि रखते हैं। इंग्लैण्ड के शासकों और राजनीतिज्ञों को अपने प्रभाव में लाकर कुछ रियायतें प्राप्त करना इनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य से 1889 में लन्दन में इन्डियन नेशनल कांग्रेस की ब्रिटिश कमिटी की स्थापना की गयी। इस कमिटी ने इंग्लैण्ड में कांग्रेस का प्रचार करने के लिए इंडिया नाम से एक समाचारपत्र भी निकालना शुरू किया। इसके अलावा कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल भी इंग्लैण्ड भेजा गया। इसके सदस्यों में फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और व्योमेशचंद्र बनर्जी भी शामिल थे।

कांग्रेस के कार्यों की समीक्षा

आलोचकों का मानना है कि प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों को व्यावहारिक धरातल पर सफलता नहीं मिली। जिन सुधारों के लिए उन्होंने आन्दोलन किया था, उनमें बहुत कम पर अमल हुआ। विदेशी शासकों ने उनके प्रति उपेक्षा बरती और उनकी खिल्ली उड़ाई। सरकार उदार होने की जगह दमनकारी हो गयी। आरंभिक दौर का आन्दोलन आम जनता में अपनी जड़ें ज़माने में असफल रहा। इसमें हिस्सा लेने वाली जनता को लगा कि वे भ्रम में थे। प्रारंभिक दौर की राजनीति 'लंगड़ी' और 'आधे मन' की थी। याचिकाओं और निवेदन के तरीक़े भीख मांगने जैसे थे। उनका कार्यक्रम पूंजीवाद के संकीर्ण दायरे में सीमित था। राजनैतिक कार्यक्रम में जनता को आगे ले जाने की उनकी क्षमता सीमित थी।

इस तरह की आलोचना बहुत सही नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों की राजनीतिक सफलता उतनी ख़राब नहीं थी, जितनी दर्शाने की कोशिश की गयी है। जब हम प्रारंभिक दौर के कांग्रेस के कार्यों को समीक्षा करते हैं, तो हमें उन कठिनाइयों को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसका उसे अपने काम के सिलसिले में सामना करना पड़ा। समग्र दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि यह उनकी उपलब्धि ही थी, जिसने बाद के राष्ट्रीय आन्दोलन को अधिक उन्नत अवस्था तक पहुंचाया।

राष्ट्रवादियों ने प्रगतिशील शक्तियों का किया प्रतिनिधित्व

बिपन चन्द्र मानते हैं कि, "प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों ने अपने समय की सर्वाधिक प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ की स्थिति को संभव बनाया।" वास्तविकता यह है कि अपने आरंभिक वर्षों में कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य देशहित की दिशा में प्रयत्नशील भारतीयों में परस्पर सम्पर्क एवं मित्रता को प्रोत्साहन देना और देश के लोगों की राष्ट्रीय भावना को जगाना था। कांग्रेस संगठन में अभी इतना विकास नहीं हुआ था की वह ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष कर सकती। ऐसी स्थिति में इसे सरकारी कोप भाजन से बचाना था। इसलिए उदार नीति अपनाकर कांग्रेस अंग्रेजी राज के प्रति अवज्ञा और चुनौती का रुख नहीं अपनाती थी। इसके बावजूद समय-समय पर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग की। प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार की वकालत की। नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया। ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की आलोचना कर स्वदेशी की भावना विकसित किया और भारतीयों का मनोबल बढ़ाया।

राष्ट्रीय एकता की भावना

परिस्थितियों के अनुकूल न रहते हुए भी राष्ट्रीय एकता की भावना को बढाने में काफी योगदान दिया। धर्मनिरपेक्षता की नीति पर चलते हुए सभी धर्मों और संप्रदायों के लोगों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। उन्होंने ने ही मध्य, निम्न-मध्य और शिक्षित वर्ग के भारतीयों में यह भावना पैदा की कि उनका संबंध एक राष्ट्र से है, भारत नाम के राष्ट्र से। सभी को यह लगने लगा कि उन सभी का शत्रु एक है, जो साम्राज्यवाद के रूप में वर्तमान है। उन्होंने सामान्य भारतीय जन को एक समान राष्ट्रीयता से जोड़ा। उन्होंने जनता में जनतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता के विचारों को प्रचारित किया। जनता को आधुनिक राजनीति के विचार और अवधारणा से परिचित कराया। उन्होंने आर्थिक प्रश्नों को भारत की राजनीतिक स्वाधीनता से जोड़ा। इन लोगों ने ब्रितानी शासन के शोषक चरित्र को उजागर किया। इस तरह बिपन चन्द्र के शब्दों में कहें तो, "एक बार ब्रितानी साम्राज्यवाद की नंगी असलियत उजागर हो जाने और मुख्य मुद्दों के साफ हो जाने पर, राजनैतिक संघर्ष की व्यूह-रचना और उसकी शक्तियों को समझने में हुई भूल को ठीक उन मुद्दों के सन्दर्भ में कभी भी सुधारा जा सकता था। अपने राजनैतिक कार्य के इस नाजुक और प्राथमिक चरित्र को प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों ने अच्छी तरह पहचाना था।"

Explainer: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक कार्यक्रम और लक्ष्य

1905 में दादाभाई नौरोजी ने एक पत्र में इस बात का ज़िक्र करते हुए कहा था, "अपने धीमे और प्रगतिशील न होने का जो अधैर्य और असंतोष कांग्रेस ने उभरती हुई पीढी के मन में अपने ही विरुद्ध जगाया, वही उसका सबसे अच्छा परिणाम और फल है। यह उसकी प्रगति है, उसका ही विकास है। अब काम है अपेक्षित क्रान्ति लाने का।" 1885 और 1905 के बीच का समय भारतीय राष्ट्रवादिता के बीजारोपण का समय था। अपनी तथाकथित असफलताओं के बावजूद प्रारंभिक दौर के राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की एक ऐसी ठोस नींव रखी जिस पर उसका अगला विकास हुआ।

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की कटु आलोचना

भारत को कांग्रेस की सबसे बड़ी देन यह है कि जिस समय देश में कोई ऐसी संस्था नहीं थी, जो राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं को सामने ला सके, कांग्रेस ने यह काम किया। अनेक विचारकों ने आरंभिक दिनों के कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की कटु आलोचना की है। कांग्रेस के शुरू के दिनों को कई विद्वान 'राजनीतिक भिखमंगापन' ही कहते हैं। खुद लाला लाजपत राय ने लिखा है, "अपनी शिकायतों का निवारण कराने और रियायत पाने के लिए कांग्रेस ने 20 साल से अधिक समय तक कमोबेश जो निरर्थक आन्दोलन चलाया, उसमें उन्हें रोटियों के बजाय पत्थर मिले।"
देश की स्वतंत्रता और ब्रिटिश राज की समाप्ति की मांग उनकी मांगों में नहीं समाहित थी। बल्कि कांग्रेसी ब्रिटेन के अधीन ही स्वायत्तशासित राज्यों के संघ में सम्मिलित होना चाहते थे। शुरू के दिनों में कांग्रेस के एजेंडे पर वर्गीय हितों की सुरक्षा शामिल था। आम जनता के हितों की उपेक्षा की जाती रही। इन सब आलोचनाओं के मध्य में यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में कांग्रेस का जन्म हुआ और शुरू से इसे जिस प्रतिरोध का सामना करना पडा, उसमें वह अधिक कुछ करने की स्थिति में थी भी नहीं। अपने अस्तित्व को बनाए रखना इसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी।

उदार नीति अपनाना प्राथमिकता नहीं, विवशता

उदार नीति अपनाना उनकी प्राथमिकता नहीं, विवशता थी। कांग्रेस के पहले अध्यक्ष डब्ल्यू.सी. बनर्जी ने कहा था, "कांग्रेस का उद्देश्य, भाईचारे के माध्यम से भारतीय जनता के बीच सभी तरह के जाति, वर्ण व क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों को समाप्त करना और देश के लिए काम करनेवालों के बीच भाईचारे और दोस्ती को और मज़बूत बनाना है।" उदारवादी राजनीतिक गतिविधि में कानून की सीमाओं के भीतर संवैधानिक आंदोलन शामिल था और इसने धीमी लेकिन व्यवस्थित राजनीतिक प्रगति दिखाई। अपने आरंभिक काल में राजनीतिक व्यवहार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कभी भी एक आमूल परिवर्तनवादी संगठन नहीं रहा, साथ ही संस्थापकों ने कांग्रेस की स्थापना में ए.ओ. ह्यूम को भी शामिल किया था।

आरंभिक कांग्रेस के सदस्यों में मुख्यतः उद्योगपति, व्यापारिक घराने, भूस्वामी और जोतधारी शामिल थे। स्वाभाविक है कि ऐसे समूहों से आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम देने की आशा नहीं की जा सकती थी। उस समय कांग्रेस का बुनियादी लक्ष्य यह था कि एक ऐसा राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जाए, जिसके तहत देश के विभिन्न भागों में काम कर रहे राजनीतिक कार्यकर्ता इकट्ठा होकर अखिल भारतीय स्तर पर अपनी राजनीतिक गतिविधियां चला सकें। राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक विचारधारा का सवाल उस समय गौण था।

कांग्रेस का राजनीतिक आंदोलन

1888 में डफ़रिन ने सार्वजनिक रूप से कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा था, "कांग्रेस अपने निहित स्वार्थों के लिए सामाजिक सुधारों, जिससे करोड़ों लोगों का उत्थान होगा, को नज़रअंदाज कर राजनीतिक आंदोलन चला रही है।" उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन को शुरू करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व को जन्म देने की ज़रूरत थी। राजनीतिक दृष्टि से प्रबुद्ध आरंभिक कांग्रेसी नेता इस तथ्य के प्रति सजग थे कि एक व्यापक आधार पर चलाए जाने वाले स्वतंत्रता संघर्ष के लिए और जनता को शिक्षित करने के लिए, एक अखिल भारतीय संगठन की ज़रुरत है। इन राष्ट्रीय नेताओं ने ह्यूम का सहयोग इसलिए किया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके शुरू-शुरू के राजनीतिक प्रयत्न सरकारी विद्वेष के शिकार हों। यदि ऐसा अखिल भारतीय संगठन प्रारंभ करने के लिए कोई भारतीय आगे आता तो अँग्रेज़ अधिकारी उसे अस्तित्व में आने ही नहीं देते। यदि कांग्रेस के संस्थापक एक महान अँगरेज़ और अवकाशप्राप्त विशिष्ट अधिकारी नहीं होते तो, शासन ने कोई न कोई बहाना ढूंढकर उस आन्दोलन को दबा दिया होता।

इसीलिए उस समय के राष्ट्रवादी नेताओं ने ए.ओ. ह्यूम का हाथ इसलिए पकड़ा था कि शुरू-शुरू में सरकार उनकी कोशिशों को कुचल न दे। इसलिए हम कह सकते हैं कि भारतीय नेताओं द्वारा कांग्रेस की स्थापना एक 'सुरक्षा वाल्व' के रूप में नहीं की गई थी, बल्कि भारतीयों में कई दशकों से पनप रही राजनीतिक चेतना और जागरूकता को एक मंच देने का परिणाम था। राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने प्रयासों से भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना भरकर उसे साम्राज्यवाद से लंबे संघर्ष के लिए तैयार कर दिया। इस तरह से उन्होंने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। 1885-1905 के बीस सालों में कांग्रेस ने आंदोलन की ज़मीन तैयार करने का काम किया। बीसवीं सदी में गोखले के रूप में एक ऐसे नए नेता का उदय होता है जिसने कांग्रेस में नवजीवन का संचार किया।

नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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English summary
Since the establishment of the Indian National Congress in 1885, various types of questions kept arising. However, Congress emerged as the only political party or transformational organization to fulfill the political aspirations in the country. Since then, a platform has been provided to the views of the people at the national level. Let us know in detail about the program and goals of the initial congress through this article.
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