ब्रिटिश सरकारी फूट डालो और राज करो नीतियां सफल रही और तीनों ही गोलमेज सम्मेलन विफल रहे। देश में संवैधानिक सुधारों के नाम पर तीनों गोलमेज सम्मलेन खेल खेला गया। तीनों ही गोलमेज सम्मेलनों से किसी भी तरह का कोई फ़ायदा किसी भी समूह को नहीं मिला। भारत में सन 1920 से 1940 के बीच किसान संगठनों को उदय हुआ। वर्ष 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा और वर्ष 1936 में स्थापित अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ।
करियरइंडिया के विशेषज्ञ ने इस लेख में, राष्ट्रवादी अवस्था के दौरान किसान आंदोलनों के स्वरूप की व्य्याख्या की है। देश में आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में उपस्थित होने वाले उम्मीदवार इस लेख से आधुनिक भारतीय इतिहास के राष्ट्रवाद और किसान आंदोलन, अध्याय की तैयारी के लिए सहायता ले सकते हैं। यहां प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गए प्रश्नों का भी उल्लेख किया जा रहा है।
2017: 1920-1940 के दौरान किसान सभाओं के अधीन कृषक आन्दोलनों के स्वरुप की विवेचना कीजिए।
2015: राष्ट्रवादी अवस्था के दौरान कृषक आंदोलनों के स्वरुप का विश्लेषण कीजिए तथा उनकी कमियों को उजागर कीजिए।
राष्ट्रवाद और किसान आंदोलन
मार्च 1922 में बारदोली का सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। आन्दोलन रोक दिए जाने के कारण गाँधी जी के प्रति जनता और राष्ट्र के नेता क्षुब्ध हो गए। सुयोग पाकर सरकार ने गाँधी जी को जेल भेजने का निश्चय किया। अहमदाबाद की अदालत में मुकदमा चला। गाँधी जी ने अपराध स्वीकार करते हुए कहा, "इस शासन के विरुद्ध असन्तोष पैदा करना मेरा धर्म है।" गाँधी जी को छह वर्ष की सज़ा सुनाई गयी। गाँधी जी ने मुकदमे के दौरान अपनी जाति किसान बतायी थी और धन्धा कपड़े की बुनाई लिखाया था। अख़बार में गाँधी जी के उस ऐतिहासिक मुकदमे की तफ़सील छपी थी। जिसे पढ़कर बंगाल में एक पहरेदार रोने लगा। जब उससे रोने का कारण पूछा गया, तो उसने बताया "मेरी जाति के एक आदमी को छह वर्ष की सज़ा हुई है। वह बूढ़ा है। 54-55 वर्ष की उसकी उमर है। देखो, इस अख़बार में छपा है।" वह पहरेदार मुसलमान था। वह बुनकर जाति का था। यह ख़बर पढ़कर उसकी आंखें भर आई थी।
एक सच्चे क्रांतिकारी थे गाँधी जी
गाँधी जी सच्चे क्रांतिकारी थे। सारे राष्ट्र के साथ वे एकरूप हुए थे। मैं किसान हूँ, मैं बुनकर हूँ, उनका यह शब्द राष्ट्रभर में पहुंच गया। करोड़ों लोगों को लगा हममें से ही कोई जेल गया। गाँधीजी की यही विशेषता थी की वे जनता से एकरूप हो जाते थे, जनता से व्यक्तिगत संपर्क जोड़ते थे। देश के किसानों को लगने लगा कि यही वह व्यक्ति है जो विदेशियों के बन्धन से देश को मुक्त कर सकता है। साम्राज्यवादी शासन का सबसे बुरा प्रभाव किसानों पर ही पडा था। अँगरेज़ तो उन्हें लूटते ही थे, इसके अलावा उन्हें ज़मींदारों और महाजनों के शोषण का भी शिकार होना पड़ता था। इन शोषणों के विरुद्ध किसानों ने कई बार आन्दोलन किया पर इसका कोई ख़ास असर नहीं पडा। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गाँधीजी ने किसानों में एक नई चेतना जगा दी। किसानों ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए जुझारू रुख अपनाया।
बीसवीं शताब्दी का किसान आंदोलन
गाँधी जी के चंपारण और खेडा सत्याग्रह ने किसानों का आत्मविश्वास बढ़ा दिया था। 1920 के दशक में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास के साथ-साथ किसान आन्दोलन में भी बढ़ोतरी हुई। बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश में किसानों के संगठन स्थापित किए गए। असहयोग आंदोलन के प्रभाव से अनजाने ही अनेक क्षेत्रों में किसानों का स्वतः स्फूर्त विद्रोह उठ खड़ा हुआ। गाँधी जी ने अपने आकर्षण से किसानों को राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की धारा में खींच लिया। किसानों का यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के वापस ले लेने के बाद भी शांत नहीं हुआ। गोदावरी के क्षेत्र में अल्लूरी सीताराम राजू ने छापामार युद्ध छेड़ रखा था। वे एक विलक्षण व्यक्ति थे। अपने विरोध के कारण वे आंध्र में लोकनायक बन गए। वे गाँधी जी की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। 6 मई, 1924 को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और कुछ ही दिनों में उनको गोली मार दी गई।
स्वामी विद्यानंद ने ज़मींदारी प्रथा समाप्त करने की मांग उठाई थी। किसानों की मांग मुख्यतः लगानों में कमी करने की होती थी। बंटाईदार फसल का अधिक न्यायपूर्ण बंटवारा चाहते थे। तटीय आंध्र प्रदेश में एन.जी. रंगा ने किसानों के ऊपरी वर्ग के बीच कार्य किया था। बाद में सरदार पटेल भी किसानों के लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे और गाँधीजी के सहयोगी के रूप में काम किया।
राजस्थान किसान आंदोलन का केंद्र बना
1920 के पूरे दशक में राजस्थान, सामंत विरोधी किसान आन्दोलनों का केंद्र बना रहा। भील आन्दोलन इसमें से प्रमुख था, जिसे कुचलने के लिए अँगरेज़ अधिकारियों ने पूरे दो गांवों को जलाकर राख कर दिया था। 1925 में अलवर में भूराजस्व कर में वृद्धि का विरोध कर रहे 156 किसानों को मार डाला गया और 600 लोग घायल हो गए। कृषि-उत्पादों के मूल्यों में गिरावट से देश के अनेक भागों में किसानों के बीच असंतोष गहरा रहा था। इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि अब राजस्व के पुनर्मूल्यांकन का समय आ गया था। किसानों की मांगों को उठाने से कतराने वाली कांग्रेस के दृष्टिकोण में भी अब बदलाव दिख रहा था। अवध में ज़मींदार किसानों का बेइंतहा शोषण कर रहे थे। मनमाना लगान वसूला करते थे। जब चाहते, जिसे चाहते, उसे ज़मीन से बेदखल कर देते। ज़मींदारों के लठैत उन पर तरह-तरह के जुल्म ढ़ाते।
'किसान सभा' का गठन
होमरूल के कार्यकर्ताओं ने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से 1918 में किसानों का एक संगठन बना जिसका नाम 'किसान सभा' दिया गया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न तहसीलों में इसकी शाखाएं गठित की गईं। इसके प्रयासों किसानों में जागरूकता फैली। बीस के दशक में किसान खुलकर विरोध करने लगे। 1920 तक जवाहरलाल नेहरू भी किसान सभा से नज़दीकी रिश्ते क़ायम किए। कांग्रेस और ख़िलाफ़त ने इनके आंदोलन को एक नई शक्ल दी। इसका नाम दिया 'एका आंदोलन'। किसानों से 50 फीसदी अधिक लगान वसूला जाता था। इन्होंने इसके ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। किसानों ने क़समें खाईं कि निर्धारित लगान से एक पैसा अधिक नहीं देंगे, बेदखल किए जाने पर ज़मीन नहीं छोड़ेंगे, अपराधियों को मदद नहीं करेंगे। आंदोलन बाद में अनुशासित और अहिंसक नहीं रहा। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रवादी नेता इस आंदोलन से अलग हो गए। असहयोग आंदोलन का एक हिस्सा बन कर चल रहा यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के वापस लिए जाने के बाद भी चलता रहा। सरकार ने दमन के बल पर 1922 के बाद इस आंदोलन को कुचल डाला।
बंगाल से लेकर केरल तक टूटा किसानों पर कहर
केरल के मालाबार ज़िले में भी ज़मींदारों का कहर किसानों पर टूटता रहता था। ज़मींदार जब चाहते उन्हें बेदखल कर देते। मनमाना लगान वसूलते। ज़िला कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर किसानों की वाजिब मांगों का समर्थन किया। यहां के किसान आंदोलन भी ख़िलाफ़त आंदोलन के साथ जुड़ गए। माप्पिला किसानों के ख़िलाफ़त से जुड़ जाने से सरकार बौखला गई। मौलाना आज़ाद और शौकत अली ने इन आंदोलनों का समर्थन किया था। सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर बैठकों और सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया था। कई प्रमुख नेता गिरफ़्तार कर लिए गए। आंदोलन का नेतृत्व स्थानीय माप्पिला नेताओं के हाथ से चला गया। फिर भी माप्पिलाओं का विद्रोह ज़ारी रहा। सरकारी आदेशों की अवहेलना की जाती रही। अंग्रेज़ों ने सेना की सहायता से इस आंदोलन के नेता को गिरफ़्तार करने के लिए मस्जिद पर धावा बोला। धर्मगुरु तो नहीं मिले लेकिन ख़िलाफ़त के अन्य नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया।
.. जब सत्ता का दमन बढ़ा
हालांकि यह प्रयास असफल सिद्ध हुआ लेकिन लोगों में आक्रोश का ज़बर्दस्त उबाल हुआ। काफी बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए और गिरफ़्तार नेताओं की रिहाई की मांग करने लगे। पुलिस ने गोलियां चलाई। माप्पिला भी हिंसा पर उतर आए। सरकारी कार्यालयों को तहस-नहस कर दिया गया। ज़िलाधिकारी को जान बचाकर भागना पड़ा। इलाक़े में सैनिक शासन (मार्शल लॉ) लागू कर दिया गया। हिंदुओं ने सरकार का साथ दिया। माप्पिला में हिन्दू विरोधी भावना बढ़ने लगी। सत्ता का दमन बढ़ता गया। हिंदुओं पर हमले की घटनाएं भी बढ़ने लगी। कुछ ही दिनों में जो सत्ता और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ संघर्ष था, संप्रदायिक संघर्ष में बदल गया था। असहयोग आंदोलन के नेता इस हिंसक आंदोलन से अलग हो गए। ब्रिटिश हुक़ूमत ने दमन से इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल डाला। 2337 माप्पिला मारे गए और 1652 घायल हुए। 45 हज़ार से अधिक गिरफ़्तार कर लिए गए। माप्पिलाओं का मनोबल पूरी तरह से टूट गया।
बंगाल टेनेंसी एक्ट अमेंडमेंट बिल
उड़ीसा में भी किसानों ने आन्दोलन किया। रंपा विद्रोह, आंध्र के कोंडा डोरा विद्रोह और राजपुताना के भील विद्रोह भी किसान आन्दोलन ही थे। बंगाल का बर्गादार आन्दोलन काफी प्रभावशाली था। बंगाल में स्वराजियों ने बंगाल टेनेंसी एक्ट अमेंडमेंट बिल के बहस के दौरान काश्तकारों और बंटाईदारों के हितों की रक्षा के लिए अपनी बातें रखी थी। पबना में हिंदू जोतदारों और मुसलमान बरगादारों के बीच झड़पें हो चुकी थीं। टेनेंसी बिल को लेकर एक नई प्रजा पार्टी की स्थापना भी हुई थी। पंजाब में किसानों को शहरी साहूकारों से बचाने के प्रयास किए जा रहे थे। प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी का झुकाव समृद्धतर किसानों की ओर अधिक था। सुधारवादी कृषि-कार्यक्रम विकसित न कर पाने के कारण कांग्रेस किसानों का समर्थन खोती जा रही थी। अकाली नेताओं का आन्दोलन धीरे-धीरे कृषि-सुधारों के लिए किए जाने वाले कृषक-आधारित आंदोलन का रूप ग्रहण करते जा रहा था।
कृषक आंदोलन का स्रोत स्वामी सहजानंद सरस्वती
बिहार में कांग्रेस पर ज़मींदारों का काफ़ी प्रभाव था। यहां पर बड़े कृषक आंदोलन का स्रोत स्वामी सहजानंद सरस्वती थे। ग़ाज़ीपुर के एक छोटे ज़मींदार परिवार में जन्मे सहजानंद 1907 में संन्यासी हो गए थे। असहयोग आंदोलन के दिनों में वे कांग्रेस में सक्रिय रहे। 1927 में उन्होंने पटना के निकट बिहटा में एक आश्रम खोला। इसका उद्देश्य भूमिहारों की सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देना था। फिर वे किसानों के बीच संगठनात्मक काम करने लगे। उन्होंने 1929 में बिहार प्रादेशिक किसान सभा की स्थापना की। श्रीकृष्ण सिन्हा इसके पहले सचिव थे।
तटीय आंध्र में मद्रास सरकार द्वारा मालगुज़ारी पौने उन्नीस प्रतिशत बढ़ा दिए जाने के कारण एक सशक्त आन्दोलन उठ खड़ा हुआ था। इस आंदोलन ने कांग्रेस के लिए एक दृढ किसान आधार बना दिया था। गाँधीवादी अपरिवर्तनकारियों ने गांवों में लगातार रचनात्मक काम करके, ग्रामीण आधार तैयार किए थे। लेकिन ग्रामीण संगठन और आंदोलन के विशिष्ट गाँधीवादी तरीक़ों को पहले-पहल वास्तविक शक्ति 1928 में गुजरात के सूरत ज़िले के बारदोली ताल्लुका की अनोखी सफलता के साथ मिली।
बरदोली ताल्लुक में 137 गांव थे। इसकी आबादी 87,000 थी। यहां के स्थानीय नेता थे कुंवरजी मेहता और कल्याणजी मेहता। इन्होंने जोतधारी किसानों की प्रमुख जाति कंबी-पाटीदार को संगठित किया था। इन लोगों ने पाटीदार और अनाविल आश्रम की स्थापना की थी। 'कालिपराज साहित्य' का सृजन किया और व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पर हमला किया। पाटीदारों के खेत दुबला आदिवासी जोतते थे। इसको 'कालीपराज' (काले लोग) कहा जाता था। ये बारदोली की जनसंख्या के 50 प्रतिशत थे। कालीपराज अत्यंत पिछड़े थे और 'ऋण-दास' थे। वे अत्यंत अहिंसक और निश्छल और क़ानून मानने वाले थे। कालीपराज बंधुआ मज़दूरों को पाटीदार पेट भरने के लिए न्यूनतम भोजन और तन ढंकने के लिए कपड़ा देते थे। गाँधीवादी रचनात्मक कार्यकर्ता कालीपराज लोगों के बीच सक्रिय रहे। इस क्षेत्र के अधिकांश ज़मींदार ब्राह्मण जाति के थे।
किसानों में असंतोष की आग
सन 1928 में गुजरात के बारदोली के किसानों ने व्यापक आन्दोलन किया। किसानों में असंतोष की आग तो सुलग ही रही थी, खेड़ा के सत्याग्रह ने किसानों में जबरदस्त हिम्मत का संचार किया था। बारदोली के किसानों ने 1921 में सूखा पड़ने पर लगान नहीं भरा। सरकारी अफ़सर इससे खार खाए बैठे थे। 1928 में कपास की गिरती क़ीमतों के बावज़ूद बंबई के गवर्नर विल्सन ने बरदोली तहसील का लगान 22 प्रतिशत बढ़ा दिया। वहां के किसानों ने निश्चय किया कि वे बढा हुआ लगान तो क्या, लगान ही नहीं देंगे। उनके आन्दोलन का नेतृत्व देने के आग्रह के साथ कुंवरजी मेहता और कल्याणजी मेहता वल्लभभाई पटेल से मिले। अच्छी-खासी चल रही वकालत छोड़कर पटेल ने सत्याग्रह का नेतृत्व संभालने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने किसानों के डेलिगेशन से एक लिस्ट तैयार करने को कहा जिसमें उन किसानों के नाम हों जो सत्याग्रह में मर-मिटने के लिए तैयार हों। किसान-मंडल ने एक सभा कर ऐसे सत्याग्रहियों की लिस्ट तैयार की और पटेलजी को सौंप दिया। पटेलजी ने लिस्ट देखा और फिर किसानों से कहा, अब जाकर बापू का आशीर्वाद ले आओ। कल्याणजी और कुंवरजी के नेतृत्व में किसानों का दल साबरमती आश्रम पहुंचा। गाँधीजी को अपनी विपदा सुनाई।
सरदार पटेल के नेतृत्व में चला यह सत्याग्रह आन्दोलन बहुत ही शांतिपूर्ण था। 4 फरवरी 1928 को वल्लभभाई पटेल बारदोली पहुंचे और बारदोली आश्रम को सत्याग्रह का केन्द्र बनाया। आश्रम का नाम स्वराज आश्रम रखा गया। एक विशाल सभा में सत्याग्रह का ऐलान किया गया। लोगों ने लगान न भरने और अहिंसक प्रतिकार करने की प्रतिज्ञा ली। बारदोली के किसान अखबारों की सूर्ख़ियों में छा गए। जगह-जगह से गाँधीजी के विशिष्ट सहयोगी बारदोली में एकत्रित होने लगे। सत्याग्रहियों का उत्साह बढता गया। सरदार पटेल ने बारदोली का समा ही बदल डाला था।
सरकार का दमन
यह सब सरकार से सहन कैसे होता? सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। पहले तो प्रलोभनों द्वारा आन्दोलनकारियों की एकता तोड़ने के प्रयास किए गए। कालीपराज लोगों को प्रलोभन दिया गया कि उन्हें आसान शर्तों पर ज़मीन दी जाएगी। सरकारी अधिकारी द्वारा दिए गए इस प्रलोभन को उन्होंने ठुकरा दिया। फिर गिरफ़्तारियों और दमन का दौर चला। सबसे पहले रविशंकर महाराज को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसके बाद तो जगह जगह गिरफ़्तारियां होने लगीं। सत्याग्रहियों और किसानों से जेलें भर गईं। हज़ारों ने बेरहम मार खाई। ब्रिटिश अत्याचार के सामने जनता नहीं झुकी। बंबई के गवर्नर ने सरदार पटेल को गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया। गाँधीजी को जब सूचना मिली तो उन्होंने सरदार को तार किया, "अगर मेरी आवश्यकता हो, तो तुरंत सूचना दो।" सरदार ने जवाबी तार भेजा, "आइए।"
2 अगस्त, 1928 को गाँधीजी बारदोली पहुंचे। सत्याग्रहियों का उत्साह सातवें आसमान पर पहुंच गया। आदिवासियों ने यह बात मान ली थी कि उनके देवता सिलिया सिमलिया बूढ़े हो गए हैं और इसलिए अब उन्होंने गाँधीजी को अपने भक्तों की देखभाल करने का काम सौंप दिया है। बारदोली एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था। सरकार को लगा कि गिरफ़्तारी से तो स्थिति और नियंत्रण के बाहर चली जाएगी। इसलिए उन्होंने समझौता करने का निर्णय लिया। पटेलजी को पूना बुलाया गया। बातचीत का दौर शुरू हुआ। एक पंच बिठाया गया। न्यायिक अधिकारी ब्रूमफ़ील्ड और राजस्व अधिकारी मैक्सवेल के द्वारा लगान के पूरे विषय पर छनबीन हुई।
वल्लभभाई को किसानों ने सरदार की पदवी
किसानों के प्रतिनिधियों से सलाह-मशवरा किया गया। दोनों पक्षों को मान्य लगान की पूर्ण व्यवस्था की गई। जांच-समिति ने बाईस प्रतिशत की वृद्धि को अनुचित बताया और केवल पांच प्रतिशत वृद्धि की सिफ़ारिश की। समस्या का समाधान हुआ। बारदोली के किसानों की जीत हुई। वल्लभभाई को किसानों ने सरदार की पदवी से विभूषित किया। सत्याग्रह स्थगित किया गया। गुजरात के किसानों को गाँधीवादी राष्ट्रवाद से ठोस लाभ प्राप्त हुआ। सारे देश में इस विजय से कई वर्षों की निष्क्रियता और जड़ता के बाद देशभक्तों के दिलों में एक नया जोश और उत्साह की लहर दौर गई।
गाँधीजी ने इस संघर्ष की व्याख्या करते हुए कहा था, "बारदोली संघर्ष चाहे कुछ भी हो, यह स्वराज की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है। लेकिन इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के क़रीब पहुंचा रही है और हमें स्वराज की मंजिल तक पहुंचाने में शायद ये संघर्ष सीधे स्वराज के लिए छिड़े संघर्ष से कहीं ज़्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।"
किसान वर्ग और कांग्रेस
1930 के दशक में भारतीय किसानों में एक नया राष्ट्रवादी जागरण आया। सिविल नाफ़रमानी आंदोलन के तहत देश के बहुत से हिस्सों में टैक्स और लगान न देने का अभियान चलाया गया। किसानों ने बड़े उत्साह के साथ इस अभियान में हिस्सा लिया। आंध्र में लगान व्यवस्था में किए जा रहे बंदोबस्त के विरुद्ध तीव्र विरोध प्रकट किया गया। उत्तर प्रदेश में टैक्स के बहिष्कार के साथ लगान का भी बहिष्कार किया गया। गुजरात में भी किसानों ने टैक्स देने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरुप सरकार द्वारा किसानों की ज़मीन और संपत्ति ज़ब्त कर ली गई। बिहार और बंगाल में किसानों को चौकीदारी टैक्स देना पड़ता था। इसके ख़िलाफ़ ज़बरदस्त आंदोलन हुए। पंजाब में टैक्स रोको आंदोलन चलाया गया। महाराष्ट्र और बिहार में जंगल सत्याग्रह चलाया गया।
विश्व-व्यापी आर्थिक मंदी
सन 1929-33 के दौर में विश्व-व्यापी आर्थिक मंदी के कारण किसानों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और यह महसूस किया गया कि किसानों को अधिक सशक्त ढंग से संगठित करने की ज़रुरत है, ताकि विभिन्न किसान संगठनों को एक सूत्र में पिरोकर उनकी समस्यायों के निराकरण का प्रयास किया जाए। 1935 में संयुक्त प्रदेश में प्रांतीय किसान संघ की स्थापना हुई। इसके बाद एन.जी. रंगा और नंबूदरीपाद ने अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना करने का प्रयास किया। अप्रैल 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की स्थापना हुई जो बाद में चलकर अखिल भारतीय किसान सभा कहलाया। बिहार के स्वामी सहजानंद सरस्वती इसके अध्यक्ष थे और एन.जी. रंगा महासचिव। सभा ने 'किसान बुलेटिन' निकालना शुरू किया जिसका संपादक इन्दुलाल याज्ञिक थे। 1936 में 'किसान घोषणा पत्र' ज़ारी किया गया। इसके द्वारा किसानों को स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने को प्रोत्साहित किया गया। किसानों की प्रमुख मांगें थीं, ज़मींदारी प्रथा समाप्त करना, किसानों को मालिकाना हक़ प्रदान किया जाना, बेगार प्रथा समाप्त किया जाना, क़र्ज़ माफी, और लगान को राशि में पचास प्रतिशत की कमी किया जाना। किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन किया।
किसान दिवस
1 सितंबर, 1936 को पूरे देश में 'किसान दिवस' मनाया गया। किसानों ने बड़ी संख्या में इसमें भाग लिया। अंग्रेजों के अत्याचारों को डटकर मुकाबला करते हुए उन्होंने अपनी एकता प्रदर्शित की। बिहार, उत्तर प्रदेश और आंध्र में ज़मींदारों के विरुद्ध आन्दोलन चलाए गए। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में खुदाई खिदमतगार और दक्षिण महाराष्ट्र में रायवादियों ने किसानों की मांगों को उठाया। हैदराबाद के देशी रियासत में स्वामी रामानंद तीर्थ ने किसानों के शोषण का विरोध किया। उत्तरी तमिलनाडु के वन्नियार, दक्षिणी तमिलनाडु के नाडार और थेवर और केरल के इराव ने किसानों को संगठित किया। बिहार बंगाल में गाँधीवादी कार्यकर्ताओं ने किसान वर्ग में गाँधीवादी राष्ट्रीयता और अहिंसा के आदर्शों का प्रचार और प्रसार किया। नागालैंड और आसाम में भी इसी तरह के प्रयासों के कारण कई विद्रोह भी हुए।
किसानों की बढती शक्ति को देख कर कांग्रेस की मांगों में किसानों से जुड़ी मांगें अब प्रमुखता पाती थी। कांग्रेस के अधिवेशनों में किसानों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कार्यक्रम स्वीकृत किए जाते थे। 1937 में देश के अधिकाँश प्रांतों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ। किसानों की पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस कृषि-सुधार के कार्यक्रम अपनाने को प्रतिबद्ध थी। अपने शासन वाले प्रांतों में ब्याज की दरें निश्चित करके क़र्ज़ के बोझ को कम करने का उसने प्रयास भी किया। उनके द्वारा लगान में बढोत्तरी पर प्रतिबंध लगाया गया। वन-सत्याग्रह वाले इलाक़ों में चराई शुल्क को समाप्त कर दिया गया।
कृषक आंदोलनों का स्वरूप
1920-30 के दशक में किसान की सभा की संख्या में काफी वृद्धि हुई थी। किसान जुलूस निकालना आम बात थी। समृद्ध वर्ग द्वारा उनके आंदोलन के ख़िलाफ़ दबाव भी बनाया जाता था जिससे अनेक स्थानीय संघर्ष भी हुए। अखिल भारतीय किसान सभा के भीतर कम्यूनिस्ट अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे थे। किसान सभा ने लाल झंडे को ध्वज के रूप में अपना लिया था। मई 1938 में बंगाल के कोमिल्ला अधिवेशन में गाँधीवादी वर्ग-सहयोग की भर्त्सना की गई, कृषि-क्रांति को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया और ज़मींदारों के आक्रमणों के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए डंडे के प्रयोग की हिमायत की गई। किसान सभा की इस संघर्षशीलता के प्रति कांग्रेसी मंत्रिमंडलों और नेताओं का दृष्टिकोण अधिक से अधिक विद्वेषपूर्ण होता चला गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब तब हो रहा था जब पहले नेहरू और फिर सुभाष बोस कांग्रेस पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष थे। नेहरू ने इलाहाबाद के किसानों को सलाह दी कि वे कांग्रेस के सरकार के कार्य को सुचारू रूप से चलने दें, उसमें कोई बाधा न डालें।
किसान आंदोलन का राष्ट्रीय आंदोलन से रिश्ता
कुछ विचारकों का कहना ही कि कांग्रेसी सरकार के द्वारा किए गए कृषि-सुधार के कार्यक्रम दिखावे या छलावे मात्र थे। कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए कृषि-सुधार के क़ानून फैजपुर अधिवेशन के मामूली प्रस्तावों को भी पूरा नहीं कर पाए। इसके अलावा संयुक्त प्रांत और बिहार की कांग्रेस के ज़मीदारी उन्मूलन प्रस्तावों को पार्टी ने सत्ता में आते ही भुला दिया। ज़मींदारों की ओर से सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देने की धमकी से घबराकर बिहार की कांग्रेस सरकार ने टेनेंसी बिल को बहुत ही हल्का कर प्रभावहीन बना दिया। ज़मींदारी उन्मूलन के प्रश्न को कमीशन को सौंपकर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। थोड़े बहुत जो भी कृषि सुधार किए गए थे, वह तो किसानों द्वारा बहुत बड़े पैमाने पर किए गए आंदोलन का परिणाम था।
किसान आंदोलन का राष्ट्रीय आंदोलन से बना रिश्ता
यह सही है कि अधिकांश किसान आन्दोलनों में न तो कोई तालमेल था और न ही उन पर कांग्रेस का नियंत्रण था। फिर भी जहां कहीं भी नेतृत्व कांग्रेस के रचनात्मक कार्यकर्ताओं के हाथ में था, वहाँ राष्ट्रवादी और सुधारवादी तत्त्वों ने किसानों में जागृति फैलाने काम किया। इस तरह किसान आंदोलन का राष्ट्रीय आंदोलन से रिश्ता बना रहा। राष्ट्रीय आंदोलन ने किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। उनके संगठन और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय किया। अगर गहराई से विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि किसान आंदोलन की विचारधारा राष्ट्रीयता पर आधारित थी। इसके नेता और कार्यकर्ता जहां एक ओर किसानों के संगठन का संदेश फैलाते, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत पर भी बल देते। कुछ इलाक़ों में किसान और कांग्रेस नेतृत्व के बीच गंभीर मतभेद ज़रूर पैदा हुए, लेकिन आम तौर पर किसान आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन साथ-साथ चलते रहे। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसान आंदोलन किसी न किसी रूप से राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति से जुड़े थे। लेकिन इन आंदोलनों ने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया था। इससे किसान आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन से अलग हो गया। गाँधीजी ने बार-बार उनसे अपील की कि कोई चरमपंथी रास्ता न अपनाएं। लेकिन कई लोगों ने इसका अर्थ यह लगाया कि राष्ट्रीय आंदोलन के नेता किसानों को हिंसा का रास्ता छोड़ने के लिए और लगान देते रहने के लिए इसलिए सलाह दे रहे हैं ताकि वे ज़मींदारों के हितों की रक्षा कर सकें। यह आरोप सरासर ग़लत था। राष्ट्रीय नेता जानते थे कि हिंसा का रास्ता अपनाने का अंजाम क्या होगा। जिस तरह से इन आंदोलनों को कुचल दिया गया वही इस बात का सबूत है कि राष्ट्रीय नेता सही थे।
नोट: हमें आशा है कि हमारे पाठकों और परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।