गांधी इरविन वार्ता के बाद, सन 1931 में इंग्लैंड के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया, और मजदूर दल की जगह राष्ट्रीय सरकार ने ले ली। आर्थिक दबावों के कारण देश में नीचे से भी दबाव उत्पन्न बढ़ने लगा, जिसके कारण गाँधी-इरविन समझौता खटाई में पड़ने लगा।
यूपीएससी समेत अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में आधुनिक भारतीय इतिहास से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। उम्मीदवारों को इस अध्याय को विस्तार से समझाने और तैयारी में उनकी सहायता के लिए करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा इस लेख की प्रस्तुति की जा रही है।
परीक्षा में पूछा गया प्रश्न: "भारत का भविष्य तय करने वाले एक मंच के रूप में दूसरे गोलमेज सम्मलेन की शुरूआत कुछ आशाजनक नहीं थी, क्योंकि इसमें ऐसे तत्त्वों का समावेश था जो मूलत: फूट डालने वाले थे।" समालोचनात्मक विवेचना कीजिए।
1931 में इंग्लैंड में मजदूर दल की सरकार के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आ चुकी थी, जिसमें मजदूर, अनुदार तथा उदार तीनों दल सम्मिलित हुए। विश्व में आर्थिक संकट गहराया हुआ था। नई सरकार के लिए ब्रिटिश व्यापारियों के हितों की रक्षा करना पहला लक्ष्य था। भारत-सचिव सैमुएल होर था, जो पक्का अनुदारवादी था। अप्रैल में लॉर्ड इरविन वायसराय के पद से मुक्त हो चुके थे। नए वायसराय के रूप में लॉर्ड विलिंगडन ने पद ग्रहण किया। उसका मानना था कि 'गांधीजी ख़ुराफ़ाती जीव हैं', 'उन्हें तो कालापानी भिजवा दिया जाना चाहिए', 'गांधीजी का जड़मूल से विनाश होगा तभी सलतनत बच पाएगी'। मई में यह दिशा-निर्देश दे दिए गए थे कि 'जहां कहीं भी समझौता टूटे, एकदम प्रहार किया जाए और प्रहार कड़ा हो'।
देश में आतंक का वातावरण
अंग्रेज़ सरकार ने सारे देश में भयंकर सख़्ती लगानी शुरू कर दी। देश में आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। आर्थिक दबावों के कारण देश में नीचे से भी दबाव उत्पन्न हो रहा था, जिसके कारण गाँधी-इरविन समझौता खटाई में पड़ने लगा। दोनों पक्ष एक दूसरे को समझौता भंग करने का आरोप लगाने लगे। ऐसी परिस्थिति में इंग्लैंड में दूसरे गोलमेज सम्मेलन का आयोजन होना तय हुआ। अंग्रेज़ सरकार चाहती थी कि कांग्रेस इस सम्मेलन में शामिल हो। कांग्रेस के बगैर गोलमेज सम्मेलन निरर्थक हो जाता। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गांधीजी को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए अपना प्रतिनिधि चुना।
गोलमेज सम्मेलन के लिए रवाना
इस गोलमेज सम्मेलन से कुछ खास हासिल होने की उम्मीद कांग्रेस को नहीं थी। ब्रिटेन कोई भी आर्थिक या राजनीतिक रियायत देने के पक्ष में नहीं था। दक्षिणपंथी नेता विंस्टन चर्चिल तो वहां की हुक़ूमत से इसलिए नाराज़ था कि वह 'देशद्रोही फ़क़ीर' को बराबरी का दर्ज़ा देकर उससे बात कर रही है। 29 अगस्त, 1931 को द्वितीय गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेने के लिए गांधीजी ने 'एस.एस. राजपूताना' नामक समुद्री जहाज से इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में गए थे। जाने के पहले गांधीजी ने कहा था, "हो सकता है मैं ख़ाली हाथ लौटूं। जैसे हाथी चींटी की तरह नहीं सोच सकता, अच्छे इरादों के बावज़ूद अंग्रेज़ भी भारतीयों के लिए ऐसा सोचने के लिए असहाय हैं।" गांधीजी के साथ मदन मोहन मालवीय, सरोजिनी नायडू, घनश्यामदास बिड़ला, गांधीजी का छोटा लड़का देवदास गांधी, उनकी अंग्रेज़ शिष्या मैडलिन स्लेड (मीरा बेन), और उनके सेक्रेटरी प्यारे लाल भी थे। गांधीजी ने निचली श्रेणी में डेक यात्रियों के साथ यात्रा की।
गोलमेज सम्मेलन
12 सितम्बर को जब गांधीजी लन्दन पहुंचे तो वहां के लोग खादी वस्त्र धारण किए, हाथ में डंडा लिए अधनंगे फकीर को देख अश्चर्यचकित थे कि ऐसा फकीर-सा व्यक्ति उनके प्रधान मंत्री से बात करने आया है। लन्दन में गांधीजी अपनी शिष्या कुमारी मूरियल लीस्टर के अतिथि के रूप में इस्ट एंड के किंग्सले हाल में ठहरे। ईस्ट एंड एक मज़दूर बस्ती थी, जहां ग़रीब लोग रहते थे। यह स्थान सेंट जेम्स पैलेस, जहां गोल मेज सम्मेलन होना था, से 8 किलोमीटर दूर था। ज़्यादा पैसा ख़र्च करके सभा-स्थल के पास होटल में ठहरने के बजाए गांधीजी ने ग़रीब लोगों के बीच रहना ज़्यादा पसंद किया।
मज़दूरों से मुलाक़ात
सरकार ने भारत और कांग्रेस के बारे में जो भ्रम फैला रखा था, उसे दूर करने के लिए गांधीजी ने परिषद के बाद का सारा समय वहां के लोगों को भारत की और कांग्रेस की बात समझाने और उनकी शंकाओं का निवारण करने में बिताया। उन्होंने लंकाशायर का दौरा किया। लंकाशायर के सूती मिल मजदूर जिस प्रेम और नम्रता से गांधीजी से मिले, वह इस लंदन-यात्रा की सबसे अधिक सुखद बात थी। कांग्रेस के विदेशी वस्त्र बहिष्कार-आन्दोलन की सीधी चोट इन्हीं लोगों पर पड़ी थी।
कई लाख बेकार हो गए थे, लेकिन किसी ने भी गांधीजी के प्रति क्रोध, उत्तेजना या नाराज़गी का प्रदर्शन नहीं किया था। बेकार हो जाने वाले लोगों की बातें गांधीजी ने बड़े ध्यान से और सहानुभूतिपूर्वक सुनी। जब गांधीजी ने उनसे कहा कि, "आपके यहां तीस लाख बेकार हैं, लेकिन हमारे यहां साल में छः महीने बीस करोड़ लोग बेकार रहते हैं। आप लोगों को औसत सत्तर शिलिंग बेकारी-भत्ता मिलता है, हमारी औसत मासिक आमदनी सिर्फ साढ़े सात शिलिंग है", तो भारत में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की पृष्ठभूमि और आवश्यकता उन मजदूरों की समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई।
उच्च और मध्यम वर्ग से मुलाक़ात
भारत के राजनैतिक भविष्य का निर्धारण करने वाले उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों से भी मिलना ज़रूरी था। गांधीजी राजनैतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक और साहित्यिक क्षेत्र के श्रेष्ठ लोगों से भी मिले। वे जॉर्ज बर्नार्ड शा से मिले। पार्लियामेंट के सदस्यों के समक्ष भाषण दिया। ईसाई सम्प्रदाय के धर्माध्यक्षों और बिशपों से भी मिले। ईटन के छात्रों और लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के विद्यार्थियों को संबोधित किया। डॉ. लिंडसे के निमंत्रण पर वह ऑक्सफ़ोर्ड गए और वहां डॉ. गिलबर्ट मरे, गिल्बर्ट साल्टर, प्रोफ़ेसर कूपलैंड, एडवर्ड टाम्सन आदि विद्वानों से मिले और चर्चाएं की। वहां के छात्रों के समक्ष भाषण भी दिया। वह युद्धकालीन प्रधानमंत्री लायड जार्ज से भी मिले। सुप्रसिद्ध अभिनेता चार्ली चैपलिन स्वयं उनसे मिलने आए। उनका नाम गांधीजी ने पहले नहीं सुना था। जिससे भी वह मिले उस पर गांधीजी के विचारों और स्पष्टवादिता ने अमिट छाप छोड़ी। 1 नवंबर, 1931 को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पेम्ब्रोक कॉलेज में गांधीजी ने भाषण दिया। गांधीजी को यहां सुनने वाले प्रमुख लोगों में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स एलिस बार्कर, ब्रिटिश राजनीति-विज्ञानी और दार्शनिक गोल्ड्सवर्दी लाविज़ डिकिन्सन, प्रसिद्ध स्कॉटिश धर्मशास्त्री डॉ. जॉन मरे और ब्रिटिश लेखक एवलिन रेंच इत्यादि शामिल थे। उसी दिन दोपहर को कैम्ब्रिज में ही 'इंडियन मजलिस' की एक सभा में भाषण दिया।
खादी की धोती और शाल में बकिंघम पैलेस पहुंचे गाँधीजी
जब गाँधीजी लन्दन पहुंचे थे तो इंग्लैंड के लोकप्रिय अखबार उनकी वेश-भूषा को लेकर उनका मजाक उड़ा रहे थे। उनकी लुंगी और बकरी के दूध के किस्से छाप कर, लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। गांधीजी के लिए "बकवास" उपाधि का प्रयोग कर 'ट्रूथ' अखबार ने उनके इंग्लैंड पहुंचने का समाचार छापा था। विभिन्न वर्गों के लोगों से मुलाक़ात करने का फ़ायदा यह हुआ कि गांधीजी की सही छवि उनके सामने आई। गांधीजी के विचार उनको अव्यावहारिक लग सकते थे, लेकिन मुलाक़ात कर चुकने के बाद कोई "बकवास" कह कर उनका तिरस्कार नहीं कर सकता था। इसका उदाहरण इसमें मिलता है कि जब सम्राट जार्ज पंचम के बकिंघम पैलेस में गोलमेज सम्मेलन प्रतिनिधियों लिए स्वागत-समारोह आयोजित किया गया तो उसमें गांधीजी को भी निमंत्रण मिला और वे सदा की तरह खादी की धोती और शाल में बकिंघम पैलेस गए।
कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में शामिल
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चला। सम्मेलन सेंट जेम्स पैलेस में हो रहा था। इसमें तेईस राजा और ब्रिटिश भारत के 64 प्रतिनिधि उपस्थित थे। उस सम्मेलन में गाँधी जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। हालांकि सरोजिनी नायडू भी इस सम्मेलन में गई थीं, लेकिन वह सरकार की ओर से भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। अन्य सभी प्रतिनिधि सरकार द्वारा मनोनीत थे।
सम्मलेन में गाँधीजी ने अपनी मांगे रखते हुए कहा कि केंद्र और प्रान्तों में तुरंत और पूर्ण रूप से एक उत्तरदायी सरकार स्थापित की जानी चाहिए, केवल कांग्रेस ही राजनीतिक भारत का प्रतिनिधित्व करती है, अस्पृश्य भी हिन्दू हैं अतः उन्हें "अल्पसंख्यक" नहीं माना जाना चाहिए और मुसलामानों या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक निर्वाचन या विशेष सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया जाना चाहिए। गाँधी जी का कहना था कि सल्तनत को समझना चाहिए कि आज़ाद और अंसारी जैसे मुसलमानों की भागीदारी वाली कांग्रेस एक हिन्दू संगठन नहीं, देश के पन्द्रह करोड़ ग़रीबों की एक मात्र भारतीय संगठन कांग्रेस है।
पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती कांग्रेस पार्टी
कांग्रेस पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसी संस्था (कांग्रेस) ने स्वराज का हुक्म देकर मुझे अपना अधिवक्ता बनाकर यहां भेजा है। गांधीजी के इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। जिन्ना ने कहा कि ऐसा नहीं है, मुस्लिम लीग मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती वकील और विचारक बी.आर. आम्बेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधीजी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। अल्पसंख्यकों के मुद्दे को लेकर अधिवेशन में गतिरोध उत्पन्न हो गया।
सबसे पहले स्वराज मिलना चाहिए
अलग निर्वाचक मंडलों की मांग अब न केवल मुसलमान, बल्कि दलित जातियां, भारतीय ईसाई, एग्लो-इंडियन और यूरोपियन भी करने लगे थे। 13 नवंबर को ये सब समूह संयुक्त कार्रवाई के लिए 'अल्पसंख्यक समझौते' के रूप में एकजुट हो गए थे। अंग्रेज़ इस गतिरोध को हवा दे रहे थे। उनकी इस मिली-जुली चाल के विरुद्ध गांधीजी ने कड़ा संघर्ष किया। वे सारी संवैधानिक प्रगति को सांप्रदायिक समस्या के समाधान पर आधारित करना चाहते थे। गांधीजी ने कहा, "सबसे पहले स्वराज मिलना चाहिए। आज़ादी की गरमी, सांप्रदायिक अलगाव रूपी बर्फ के टापुओं को गला देगी।" 5 अक्तूबर को गांधीजी मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यकों की न्यायसंगत शिकायतों को दूर करने के लिए "उन्हें कोरा चेक" देने को तैयार थे, बशर्ते कि स्वतंत्रता की राष्ट्रीय मांग पर वे एक हो जाएं। अधिकांश हिन्दू प्रतिनिधि सद्भावना के ऐसे प्रदर्शन और उदारता के लिए तैयार न थे। राष्ट्रवादी मुसलमानों को तो कोई प्रतिनिधित्व मिला ही न था। गांधीजी ने इंग्लैंड और भारत के बीच सम्मानजनक और बराबर की ऐसी साझेदारी का आग्रह किया जिसका आधार शक्ति न होकर "प्रेम की रेशमी डोरी हो।" लेकिन उन्हें सफलता प्राप्त करने की कोई संभावना नहीं दिखाई दी।
जिन्ना, सप्रू और अंबेडकर का विरोध
आगा खां जैसे साम्प्रदायिकतावादियों ने सम्मलेन में सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी हितों को ब्रितानी साम्राज्यवाद के संरक्षण में सुरक्षित किए रखने की जिद पकड़ ली। हिन्दू और सिख सांप्रदायिकतावादी भी साम्राज्यवाद के हाथों की कठपुतली बन गए। फलत: गांधीजी द्वारा सम्मलेन में एक संगठित मोर्चा प्रस्तुत करने का प्रयत्न असफल हो गया। संघ के प्रश्न पर भी अब रजवाड़ों का दृष्टिकोण बदल गया था। वे इसके लिए उतने उत्सुक नहीं थे, क्योंकि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेने के कारण उन्हें केन्द्र में तत्काल बदलाव का भय नहीं रह गया था। अंग्रेज़ तो केन्द्र में बदलाव की बात एकदम समाप्त कर देना चाहते थे, लेकिन जिन्ना, सप्रू और अंबेडकर के विरोध के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। गांधीजी के विरोधियों ने कहा कि पहले सभी समूहों में समझौता हो जाए, तभी आज़ादी मिलनी चाहिए, वरना स्वराज से अल्पसंख्यकों का दमन होगा। अपनी बेजोड़ ख्याति और प्रभुत्त्व के बावजूद गांधीजी इस सम्मलेन में अकेले पड गए थे और उनके दृष्टिकोण के समर्थन की गुंजाइश ही नहीं थी।
विफल रहा गोलमेज सम्मेलन
गोलमेज परिषद में गांधीजी की कोई बात नहीं सुनी गई। भाग ले रहे सदस्यों में से कुछ ने ही गांधीजी का पक्ष लिया। उनकी कोई भी दलील वहां काम नहीं आई। गांधीजी को स्वीकार करना पड़ा, 'ब्रिटेन की सरकार ने मेरा और कांग्रेस का विरोध करने के लिए जितने तत्त्व गोलमेज परिषद में इकट्ठा कर दिए गए थे उनकी सही ताकत को आंकने में मुझसे भूल हुई।' ब्रिटिश सरकार अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई कि वह सम्मेलन का ध्यान मूल प्रश्नों से हटा दे और उसे अप्रधान विषयों, विशेष कर साम्प्रदायिक समस्या, में उलझा दे। ब्रिटिश सरकार ने चतुराई से महाराजाओं, मुसलमानों, हरिजनों और ऐसी ही अलग-अलग इकाइयों के प्रतिनिधि बुलाकर यह जताया कि कांग्रेस हिन्दुस्तान के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। अपने-अपने संप्रदायों की मांगों को लेकर भारतीय प्रतिनिधि सौदेबाज़ियां कर रहे थे।
अंग्रेज़ों का कूटनीतिज्ञ
अंग्रेज़ कूटनीतिज्ञ दुनिया को यह दिखला रहे थे कि भारतीयों में ही एकता नहीं है, तो हम उन्हें स्वराज्य कैसे दे दें! मुसलमानों को पृथक मताधिकार देने का निश्चय किया गया। दलितों ने भी पृथक मताधिकार की मांग करनी आरंभ की। इससे सामन्तशाही और विभाजक शक्तियों को बल मिल रहा था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैक्डोनल्ड ने 1 दिसंबर, 1931 को यह कहकर गोलमेज परिषद को समाप्त कर दिया कि सांप्रदायिक समस्या के हल के लिए एक समिति नियुक्त की जाएगी, जो भारत जाकर इस प्रश्न का सर्वसम्मत हल खोज निकालेगी। उसने सुधारों की एक योजना पेश की, जिसमें संघीय केंद्र और स्वायत्तता, प्रान्तों के लिए सीमित स्वायत्तता तथा वित्त, विदेशी व्यापार और युद्ध एवं सुरक्षा संबंधी मामलों में अंग्रेजी सरकार और वायसराय का एकाधिकार स्थापित करने की बात की गई थी।
क्या पड़ा प्रभाव?
ब्रिटेन आर्थिक संकट से गुजर रहा था और वहां की सरकार भी बदल गई थी। नये मंत्रिमंडल में कंजरवेटिव दल का बहुमत था। इंग्लैंड की जनता अपनी ही समस्याओं में उलझी थी। उसके लिए अपने आर्थिक संकट का प्रश्न, भारत के लिए संवैधानिक सुधारों से ज्यादा महत्वपूर्ण और जरूरी था। अतः भारतीय समस्या का महत्व, निश्चित रूप से कम हो गया। ब्रिटिश प्रतिनिधियों का इस बात पर जोर था कि वित्त के क्षेत्र में आरक्षित शक्तियां वायसराय के पास ही रहे। उस समय भारतीय वित्त मंत्री के पास 130 करोड़ रु. के राजस्व में से केवल 14 करोड़ रु का ही नियंत्रण रहता था।
व्यापारी प्रतिनिधि भी ज़ोर देकर यह मांग कर रहे थे कि व्यापार-संबंधी रक्षक उपाय किए जाए जिससे भारत में ब्रिटिश पूंजी के निवेशक को राष्ट्रवादी सरकारों की 'भेदभावपूर्ण' नीतियों से बचाया जा सके। नये भारत सचिव सर सैम्युअल होर ने गांधीजी से कहा कि "मेरा यह निश्छल विश्वास है कि भारतीय पूर्ण स्वराज्य के अयोग्य हैं।" सैम्युअल होर ने विलिंगड़न को यह सलाह दी, "पहला क़दम तो यही उठाया जाए कि भारतीयों को फिर वापस प्रादेशिक स्वायत्तता की ओर अधिकाधिक ठेला जाए।"
कांग्रेस, पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में
सम्मलेन के शुरू में ही गांधीजी ने स्पष्ट कर दिया था कि कांग्रेस, पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में है। इसीलिए उनको सम्मलेन में किसी समझौते की आशा बिलकुल भी नहीं थी। उन्होंने अपना अधिकाँश समय अंग्रेजों में भारत के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के प्रयास में बिताया था। लोगों से मिल-जुल कर वह ब्रिटिश जनता की नज़रों में भारत के उद्देश्य को उचित और न्याय संगत प्रमाणित करने की ओर अधिक ध्यान दे रहे थे। गांधीजी के ही शब्दों में, "मैं सम्मेलन का वास्तविक उद्देश्य पूरा कर रहा हूं, जो है लंदन के लोगों से मिलना और उन्हें समझाना। मेरा काम सम्मेलन के बाहर है। मेरे लिए यही असली गोलमेज सम्मेलन है। जो बीज मैं इस समय बो रहा हूं, हो सकता है कि उसके कारण ब्रिटिश लोगों का रवैया हमारी तरफ़ नरम पड़ जाए।"
दूसरा गोलमेज सम्मेलन लंदन में
लंदन में हुआ दूसरा गोलमेज सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका। गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। गांधीजी के इंग्लैंड जाने से पहले कांग्रेस और सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, वह वस्तुतः टूट चुका था। 28 दिसम्बर को गांधीजी मुम्बई पहुंचे। वह बहुत उत्साहित और आशावान नहीं थे। उनके साथ छल हुआ था। आज़ाद मैदान में बहुत बड़ी भीड़ उनके स्वागत के लिए इकट्ठी हुई थी। उन्होंने उदास भाव से कहा, "मैं ख़ाली हाथ लौटा हूं, मगर मैंने अपने देश के सम्मान को ताक पर रख कर कोई समझौता नहीं किया है।" उधर लार्ड विलिंगड़न और ब्रिटेन की नई सरकार भारत के स्वन्त्रता आन्दोलन को कुचल देने पर आमादा थे।
कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिष्ठा
अंग्रेज़ अधिकारी दिल्ली समझौते के राजनीतिक प्रभाव से सबक सीख चुके थे। इस समझौते ने कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिष्ठा काफ़ी बढ़ाई थी। जनता का मनोबल बढ़ा था। अंग्रेज़ों की इज्ज़त गिरी थी। अंग्रेज़ अधिकारी अब यह मानने लगे थे कि कांग्रेस के साथ बातचीत और समझौता करके सरकार ने ग़लती की है। इस समझौते ने कांग्रेस को सरकार के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था। विलिंगडन ने 'कोई समझौता नहीं, कोई सुलह नहीं, कोई बातचीत नहीं और दुश्मन के लिए कोई जगह नहीं' की नीति अपना ली थी। पहले तो विलिंगडन ने दी गई रियायतों को वापस ले लिया। गांधी-इरविन समझौते को फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। 26 दिसंबर को गांधीजी का स्वागत करने जब मुम्बई के लिए जवाहरलाल नेहरू निकले तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
संकटकालीन अध्यादेश ज़ारी
उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में सरकार अहिंसक ख़ुदाई-ख़िदमतगारों और किसानों पर जुल्म ढा रही थी। ये सरकार के दमनात्मक तरीक़े से लगान वसूली का विरोध कर रहे थे। 24 दिसंबर को इनके नेता ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। पेशावर ज़िले पर सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था। कानून के बदले अध्यादेश द्वारा शासन चलाया जाने लगा। एक संकटकालीन अध्यादेश ज़ारी किया गया, जिसके तहत सरकार किसी को भी गिरफ़्तार कर सकती थी और बिना मुकदमा चलाए उन्हें जेल में रख सकती थी जिन्हें वह विद्रोही समझती थी। इस पर गांधीजी ने टिप्पणी की, ये सब हमारे ईसाई वायसराय लार्ड विलिंगडन के क्रिसमस उपहार हैं। अब वर्किंग कमेटी के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं रह गया था कि वह फिर से सविनय अवज्ञा शुरू करे।
28 दिसंबर को गांधीजी बंबई आए। अगले ही दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई। सविनय अवज्ञा आंदोलन को फिर से चलाने का निर्णय लिया गया। देश भर में बड़े स्तर पर दमन की कार्रवाई चालू थी। 29 दिसंबर को गांधीजी ने वायसराय को भेजे गए तार द्वारा अध्यादेशों, गिरफ़्तारियों की भर्त्सना की और उससे मिलने का समय मांगा, जो नहीं मिला। 31 दिसंबर वायसराय के सचिव ने उत्तर दिया कि कांग्रेस द्वारा सरकार का विरोध करने के कारण ये अध्यादेश आवश्यक हैं। होर ने घोषणा की, "इस बार फैसला होकर रहेगा।" गांधीजी ने जब आन्दोलन करने की चेतावनी दी, तो उन्हें 4 जनवरी, 1932 को गिरफ्तार कर लिया गया।
उपसंहार
इस सम्मेलन में विभिन्न समूहों की भागीदारी के कारण, ब्रिटिश सरकार ने दावा किया कि कांग्रेस पूरे भारत के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इन समूहों में अधिकांश निहित स्वार्थ वाले लोग थे। कुछ तो हां-में-हां मिलाने वाले प्रतिनिधियों की भीड़ भर थे। निहित स्वार्थ वाले ऐसे झुण्ड को इसलिए रखा गया था कि जब ज़रूरत हो तो इन्हें राजनीतिक शतरंज में मुहरों की तरह इस्तेमाल किया जा सके। इन्हें तो बस किसी सरकारी विभाग में स्थान भर मिले जाए तो ये अंग्रेज़ों के तलवे चाटने के लिए तैयार थे। कई प्रतिनिधि समूहों के बीच समझौते की कमी थी, जिसका मतलब था कि सम्मेलन से भारत के संवैधानिक भविष्य के बारे में कोई ठोस परिणाम नहीं निकलने वाला था।
सरकार ने आजादी की बुनियादी भारतीय मांग को मानने से इनकार कर दिया। दरअसल शुरू से ही अंग्रेजों की मंशा ठीक नहीं थी। कई प्रतिनिधि रूढ़िवादी, सरकारी वफादार और सांप्रदायिक थे, और इन समूहों का उपयोग औपनिवेशिक सरकार द्वारा गांधीजी के प्रयासों को बेअसर करने के लिए किया गया था। सांप्रदायिक वर्ग गांधीजी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन लोगों ने साप्रंदायिक प्रश्नों को ही प्राथमिकता दी।
गांधीजी के जीवनी लेखक विन्सेंट शीन ने ठीक ही कहा है, "भारत का भविष्य तय करने वाले एक मंच के रूप में गोलमेज सम्मलेन की शुरूआत कुछ आशाजनक नहीं थी, क्योंकि इसमें ऐसे तत्त्वों का समावेश था जो मूलत: फूट डालने वाले थे।" इस सम्मलेन ने भारतीयों में विभाजन की खाई को और गहरा करके स्थिति को और बिगाड़ दिया। अंग्रेजों का लक्ष्य तो था ही - 'फूट डालो और राज करो'!! ब्रितानी सरकार इस नीति के तहत सांप्रदायिकतावादी हिन्दुओं और मुसलमानों के हाथ मज़बूत करने के लिए कृतसंकल्प थी।
नोट: हमें आशा है कि हमारे पाठकों और परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।