Explainer: जानिए, क्यों असफल रहा पहला गोलमेज सम्मेलन ?

नमक सत्याग्रह में लोगों के जुड़ने और गँधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन के कारण अंग्रेजों को अपनी स्थिति का अंदाजा हो गया था। करियरइंडिया के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त आईओएफएस मनोज कुमार द्वारा प्रतियोगी परीक्षा में उपस्थित होने वाले उम्मीदवारों के लिए यहां पहले गोलमेज सम्मेलन का विस्तार से वर्णन किया जा रहा है। उम्मीदवार यहां से अपनी परीक्षा की तैयारी के लिए सहायता ले सकते हैं।

दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का ऐसा संघर्ष शुरू हुआ जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला को पूरे देश में व्यापक रूप से फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की। नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। जिस समय सविनय अवज्ञा आन्दोलन और सरकार का दमन चक्र अपने चरम पर था, उसी समय भारत के वायसराय लॉर्ड इर्विन ने सरकार को यह प्रस्ताव दिया कि भारतीय नेताओं तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा कर भारत की संवैधानिक समस्याओं का निर्णय किया जाए। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड इरविन से सहमत थे कि गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जाना चाहिए, क्योंकि साइमन कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिशें अपर्याप्त थीं। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में तीन गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन किया।

पहले गोलमेज सम्मलेन का आयोजन

संवैधानिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श के लिए पहला गोल मेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 को आरंभ हुआ जो 19 जनवरी, 1931 तक चला। उस समय देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था। हज़ारों भारतवासी जेल जा रहे थे। भारत के स्वतंत्रता सेनानी लाठी या गोली खा रहे थे। लोग अपनी संपत्ति से वंचित हो रहे थे। ऐसे में बहुदलीय ब्रिटिश शिष्टमंडल के साथ संवैधानिक वार्ताएं करने के लिए उस सम्मलेन का गांधीजी और कांग्रेस ने बहिष्कार किया। अन्य राजनीतिक दलों और वर्गों के कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें इंग्लैण्ड के विभिन्न राजनीतिक दलों के तीन, 16 भारतीय देशी रियासतों के प्रतिनिधि और शेष 57 अन्य प्रतिनिधि थे। होमी मोदी को छोड़कर व्यापारियों के किसी नेता ने भी भाग नहीं लिया।

मुहम्मद अली, मुहम्मद शफ़ी, आग़ाख़ान, फ़ज़लुल-हक़, जिन्ना, फ़ज़्ले हुसैन आदि मुसलमान नेता बड़ी संख्या में उपस्थित थे। हिन्दू महासभा के नेता मुंजे और जयकर शामिल हुए। नरमदलीय नेता सर तेज बहादुर सप्रू, श्री निवास शास्त्री, और सी. वाई. चिंतामणि ने भी इस सम्मलेन में भाग लिया। डा. भीमराव अम्बडेकर भी इसमें भाग ले रहे थे। राधाबाई सुब्बारायण ने महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। रजवाड़ों का एक बड़ा जत्था भी मौजूद था। सिख, पारसी, जस्टिस पार्टी, मजदूर, भारतीय ईसाई, यूरोपीय, जमींदार, विश्वविद्यालय और भारत सरकार के प्रतिनिधि भी इस सम्मलेन में शामिल हुए। जॉर्ज पंचम ने सम्मेलन का उद्घाटन किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने की।

Explainer: जानिए, क्यों असफल रहा पहला गोलमेज सम्मेलन ?

ब्रिटिश प्रधानमंत्री का प्रस्ताव

प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने जिन प्रस्तावों की चर्चा की उसमें से प्रमुख थे केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा का निर्माण संघ शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी राज्य संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगे और केंद्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी, किन्तु सुरक्षा और विदेश विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के प्रस्तावों के प्रति प्रतिनिधियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। संघ शासन के सिद्धांत को सभी प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया। देशी नरेशों के प्रतिनिधियों ने सहमति दी कि देशी रियासतों को शामिल करके एक भारतीय संघ बनाना चाहिए जिसमें संसदीय प्रणाली की सरकार हो। प्रांतीय स्वतंत्रता के संबंध में भी विचारों में मतभेद नहीं था। भारतीय प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया।

पूर्ण उत्तरदायित्व की माँग

उपनिवेशिक हैसियत का सामूहिक दायित्व पर आधारित कार्यपालिका का एक मंत्रीमंडलीय स्वरूप सम्मलेन को स्वीकार्य था। केवल सरंक्षण और उत्तरदायी मंत्रियों पर नियंत्रण के सबंध में पारस्परिक मतभेद पाया गया। कुछ लोगों ने केन्द्र में आंशिक उत्तरदायित्व की जगह पूर्ण उत्तरदायित्व की माँग की। जयकर और सप्रू ने भारत के लिए आपैनिवेशिक स्वराज की माँग की। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाने की मांग प्रस्तुत की। जो भी लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे उनके सामने ब्रिटिशों द्वारा केन्द्र में किसी प्रकार के परिवर्तन का वादा करना आवश्यक हो गया था।

ऐसी स्थिति में रजवाड़ों द्वारा एक संघीय विधायिका का प्रस्ताव आया जिसके बहुत से सदस्य राजाओं द्वारा मनोनीत हों और वह कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी हो। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनल्ड ने इसे मानने की घोषणा कर दी। ऐसे समय में जब जन-आंदोलन के दबाव के कारण डोमिनियन स्टेटस मिलने का खतरा दिखाई दे रहा था, भारतीय राजा तो चाहते थे कि केन्द्र में कमज़ोर सरकार रहे, जिसमें उनकी उपस्थिति उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने में सहायक होगी।

सम्मलेन असफल रहा

प्रथम गोलमेज सम्मेलन में साप्रंदायिकता की समस्या सर्वाधिक विवादपूर्ण रही। मुसलमान भी केन्द्र में कमज़ोर सरकार चाहते थे। मुसलमान पृथक् तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे। जिन्ना ने अपने 14 सूत्र को सामने रखा। ब्रिटिशों के लिए भी यह लाभप्रद प्रस्ताव था ताकि उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखा जा सकता। अंग्रेज़ों के पक्ष में एक और बात यह हुई कि सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रही। जिन्ना, शफ़ी और आग़ाख़ान उदारवादियों के सप्रू गुट के साथ समझौते की स्थिति तक लगभग पहुंच ही गए थे।

एकता का अवसर हाथ से जाता रहा

इसका आधार संयुक्त निर्वाचक मंडल होते और मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें होतीं। लेकिन हिंदू महासभा ने पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के आरक्षण का विरोध किया। उस पर से सिखों ने पंजाब में सिखों के लिए 30% प्रतिनिधित्व की मांग रख दी। इस तरह एकता का अवसर हाथ से जाता रहा। सम्मलेन असफल रहा। निराश जिन्ना ने कहा था कांग्रेस ने खुद को पूरी तरह गांधी के हाथों में सौंप दिया है। उसने भारत नहीं लौटने और लन्दन में ही वकालत करने की सोची।

गोलमेज सम्मेलन, भारत के लिए एक उपलब्धि

पहले गोल मेज सम्मलेन में आम तौर पर यह सहमति थी कि भारत को एक संघ के रूप में विकसित होना था, रक्षा और वित्त के संबंध में सुरक्षा उपाय होने थे, जबकि अन्य विभागों को स्थानांतरित किया जाना था। हालांकि उदारवादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को भारत के लिए एक उपलब्धि बताया लेकिन सम्मलेन के सदस्यों में वर्गीय हितों को लेकर इतना अधिक मतभेद था कि सम्मलेन किसी सर्वमान्य नतीजे पर नहीं पहुँच सका। फलत: इस सम्मेलन का कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकल कर सामने आया। उल्टे इससे भारत के विभिन्न वर्गों और संप्रदायों में मतभेद ही बढ़ा और सांप्रदायिकता के विकास में वृद्धि हुई।

नागरिक अवज्ञा आन्दोलन

दिसंबर 1930 में मुस्लिम लीग ने इलाहाबाद के सम्मलेन में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का खुलकर विरोध किया। इस घटना ने लॉर्ड इरविन को यह कहने का मौक़ा दिया, "क्योंकि गांधीजी उस वर्ग के हितों की बात नहीं करते, अत: कांग्रेस भारत के सभी वर्गों की प्रतिनिधि नहीं है।" एक तरह से देखें तो यह सम्मलेन एकदम बेमानी था। मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़कर कोई भी महत्त्वपूर्ण नेता ने इसमें भाग नहीं लिया था। हथियार डालते हुए 19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन के समापन सत्र में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने अपने विदाई भाषण में यह आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए ज़रूर भेजेगी। कम-से-कम यह तो एक उपलब्धि तो थी ही कि ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में संवैधानिक सरकार के भविष्य पर किसी भी चर्चा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भागीदारी आवश्यक थी।

अभिरक्षण और संघराज्य

इस प्रकार असफल प्रथम गोलमेज सम्मेलन 19 जनवरी, 1931 को अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया। सुभाष चन्द्र बोस ने इस गोलमेज सम्मलेन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, "इसने भारत को दो तीखी गोलियां दीं - अभिरक्षण और संघराज्य। गोलियों को खाने योग्य बनाने के लिए उन पर उत्तरदायित्व का मीठा मुलम्मा चढ़ा दिया गया।" सप्रू जैसे उदारवादी नेताओं को केंद्र में उत्तरदायी सरकार होने की बात पसंद आई। शायद वे भांप नहीं पाए कि इसके माध्यम से ब्रिटिश उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे।

सम्मलेन के बाद गांधीजी सहित सभी भारतीय नेताओं को रिहा कर दिया गया। भारत लौटने पर तेजबहादुर सप्रू गांधीजी से मिले और उन्हें लॉर्ड इरविन से मिलने और बातचीत करने के लिए राज़ी कर लिया। गांधीजी ने वायसराय को पात्र लिखाकर पूछा कि क्या बातचीत से मसाले को नहीं सुलझाया जा सकता? वायसराय का जवाब सकारात्मक था। गाँधी-इरविन वार्ता हुई और उसके परिणामस्वरूप एक समझौता हुआ, जिसे गाँधी-इरविन समझौता कहा जाता है।

नोट - इस अध्याय के अगले भाग में दूसरे गोलमेज सम्मेलन का विस्तृत वर्णन किया जाएगा।

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English summary
The civil disobedience movement was at its peak in the country. With the Dandi March, the struggle for Indian national independence intensified in the form of a civil disobedience movement. Due to the inadequacy of the recommendations in the Simon Commission report, the Prime Minister of Britain agreed to organise three roundtable conferences in London. Learn why the first round table meeting with the British government failed. 
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