Know the Failure of the Cripps Mission: पिछले लेख में आपने पढ़ा कि कैसे 1935 के संविधान के तहत चुनाव के बाद देश में कांग्रेस ने सरकार का गठन किया। द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। कांग्रेस, नाज़ियों और फासिस्टों को उन्नति और स्वतंत्रता का शत्रु मानती थी। उधर चर्चिल पर चारों तरफ़ से दबाव था कि वह युद्ध में भारतवासियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी के बहुत से नेताओं ने चर्चिल पर दबाव डाला। जिसके बाद सर स्टैडफोर्ड क्रिप्स को सुलह के लिए एक 'घोषणा का मसविदा' देकर भारत भेजा। इसे ही क्रिप्स मिशन कहा जाता है।
आज के इस लेख में किप्स मिशन की व्याख्या की गई है। इतिहास के विषय को और सरल एवं सहज ढंग से समझने के लिए इस लेख की विस्तृत प्रस्तुति की जा रही है। प्रतियोगी परीक्षाओं में हिस्सा लेने वाले उम्मीदवार इतिहास के विषय में अच्छी तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं। किप्स मिशन पर विस्तार से चर्चा करने से पहले प्रतियोगी परीक्षा में इस विषय से संबंधित पूछे गए प्रश्न पर डालते हैं एक नजर-
प्रतियोगी परीक्षा में 2019 में पूछा गया प्रश्न - "क्रिप्स मिशन निरंतर मुसीबतों से ग्रस्त रहा और अन्ततः विफल हो गया।" इस कथन का 150 शब्दों में समालोचना कीजिए।
1939 में दूसरा विश्वयुद्ध (1 सितंबर 1939 से 2 सितंबर 1945) शुरू हो चुका था। कई कांग्रेसी नेता युद्ध में, विशेष रूप से भारत में रक्षा-कार्य में, योगदान देने के लिए उत्सुक थे, बशर्ते कि एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हो जाए। कांग्रेस ने सरकार से युद्ध के उद्देश्यों और भारत की स्थिति के विषय में स्पष्टीकरण माँगा। नेहरू और अनेक नेताओं का कहना था कि यदि मित्र राष्ट्र अपना रवैया बदल कर दुनिया में जनतंत्र कायम करने के उद्देश्य से सचमुच ईमानदारी के साथ फासिस्टवाद से लड़ रहे हैं, तो भारत उनको अपनी शक्तिभर हर संभव समर्थन देगा। गांधीजी अहिंसा के अपने बुनियादी सिद्धांत को त्यागने को तैयार नहीं थे। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उनका सम्मान और लगाव पहले विश्वयुद्ध के समय की तुलना में काफ़ी कम हो चुका था। भारत ने अंग्रेजी हुकूमत से पूर्ण जनतंत्र स्थापित करने और अपना संविधान खुद बनाने के अधिकार की मांग की थी। ब्रिटेन खुद तो स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के नाम पर युद्ध कर रहा था, लेकिन भारतीयों को स्वतंत्रता से वंचित रखना चाहता था। अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेस द्वारा युद्ध का विरोध किए जाने से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए 'भारत रक्षा कानून' के अंतर्गत सिर्फ अध्यादेशों के द्वारा ही शासन करने की योजना बना डाली।
नाज़ी सरकार के साथ भिड़ंत
नाज़ी और फासिस्ट सैन्यवाद का मूल उद्देश्य नए साम्राज्यों की स्थापना करना था। यह एक ऐसी होड़ थी जिसके द्वारा वे कच्चे माल के ज़ख़ीरे और नए बाज़ार प्राप्त करना चाहते थे। 3 सितंबर, 1939 को ब्रिटिश सल्तनत जर्मनी के नाज़ी सरकार के साथ भिड़ गई। नेविल चैंबरलेन के नेतृत्व वाली लिबरल सरकार की ब्रिटिश संसद में पराजय हो चुकी थी और उनकी जगह कंजरवेटिव दल के विंस्टन चर्चिल प्रधानमंत्री बने। 3 सितंबर, को चर्चिल ने कांग्रेस या केन्द्रीय विधायिका से विचार-विमर्श किए बिना ही भारत को इंग्लैंड के साथ जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में शामिल करने की घोषणा कर दी। इससे भारतीय स्वाभिमान को ठेस पहुंची। उन दिनों प्रांतों में लोकप्रिय मंत्रिमंडलों का शासन था। भारत किस पक्ष में है, इसकी घोषणा करने से पहले कम-से-कम इन मंत्रिमंडलों की तो सरकार को सलाह लेनी चाहिए थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी। अब भारत एलाइड देशों (संयुक्त राष्ट्रों) के साथ जर्मनी, इटली और जापान के सामने युद्ध लड़ रहा था। नेहरूजी ने लिखा है, "एक आदमी ने, और वह भी विदेशी, चालीस करोड़ लोगों को बिना उसकी राय के लड़ाई में झोंक दिया।" स्पष्ट था कि भारत में असंतोष व्याप्त था और लोग आज़ादी की दिशा में सरकार द्वारा कदम उठाए जाने की राह देख रहे थे।
प्रान्तों में कांग्रेस सरकारों द्वारा पद त्याग
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रति कांग्रेस का रुख़ द्वन्द्वात्मक था। एक तरफ़ उसकी सहानुभूति ब्रिटेन और मित्रराष्ट्रों के प्रति थी, तो दूसरी तरफ़ उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से असंतोष भी था। कांग्रेस नाज़ियों और फासिस्टों को उन्नति और स्वतंत्रता का शत्रु मानती थी। इसलिए कांग्रेस ने घोषणा की कि अगर इस युद्ध का उद्देश्य साम्राज्यवाद और फासिज़्म को समाप्त कर स्वतंत्रता और जनतंत्र की स्थापना करना था, तो भारत युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने को तैयार है। 1935 के संविधान के तहत देश में कांग्रेस सरकार आठ प्रांतों में काम कर रही थी। विलायत की सरकार ने युद्ध में शामिल होने के मामले में कांग्रेस का मंतव्य जानने की ज़रूरत ही नहीं समझी। इस ग़रीब देश की धन-संपत्ति युद्ध में झोंक दिया गया। हज़ारों की संख्या में देश के नौजवानों को यूरोप की भूमि पर जर्मन तोपों के सामने खड़ा कर दिया गया। वह भी ब्रिटिश सल्तनत की रक्षा के लिए! सहमति तो दूर की बात थी, चर्चिल सरकार ने पूछने की औपचारिकता भी नहीं दिखाई। इसके विरोध में 28 महीने पुरानी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने 8 नवम्बर, 1939 को इस्तीफ़ा दे दिया और सरकार के साथ असहयोग और साम्राज्यवाद विरोध की नीति अपनाई। उस समय स्वतंत्रता के पक्ष में जनमत का जो दवाब था उसमें कांग्रेस के लिए विकल्प भी नहीं था। सरकार ने भारतीयों के विरोध को कोई महत्त्व नहीं दिया। उसका दमन चक्र जारी रहा।
युद्ध में ब्रिटेन की नाज़ुक स्थिति
1940 तक युद्ध में ब्रिटेन की स्थिति नाज़ुक बन गई थी। नाज़ीवाद की तेज़ी से जीत हो रही थी। डेनमार्क, नार्वे, हौलेंड, फ्रांस, जर्मनी के अधिकार में आ गए थे। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बर्बाद होने के कगार पर कड़ी थी। उसे कांग्रेस के समर्थन की ज़रुरत थी। कांग्रेस को फासीवादी हमले के शिकार लोगों के प्रति पूरी सहानुभूति थी। युद्ध में उसका समर्थन फासीवादी विरोधी ताकतों को ही जाता। कांग्रेस के कई नेताओं ने सवाल उठाया कि एक ग़ुलाम राष्ट्र दूसरे देशों की आज़ादी की लड़ाई में कैसे सहयोग कर सकता है? फिर भी कांग्रेस जंग के प्रयासों में मदद देने को तैयार थी, बशर्ते आज़ादी की दिशा में कदम उठाए जाएँ। राज ऐसा कदम उठाने को तैयार नहीं था।
कांग्रेस ने प्रस्ताव रखा कि अगर सरकार केंद्र में भारतीयों को लेकर एक ऐसी सरकार बना दे, जो विधानसभा के प्रति उत्तरदायी हो और सरकार युद्ध के बाद भारत को स्वाधीनता प्रदान करे, तो कांग्रेस सरकार को युद्ध में सहयोग देने के लिए तैयार है। सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसका मानना था कि 'एटलान्टिक चार्टर' भारत पर लागू नहीं होता। प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने कहा, "मैं ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन की अध्यक्षता करने के लिए ब्रिटेन का प्रधानमंत्री नहीं बना हूँ।" सरकारी वक्तव्य में कहा गया, "ब्रिटेन ऐसी भारतीय सरकार को सत्ता नहीं सौंप सकता, जिस पर भारतीय जनता के बड़े हिस्सों को आपत्ति हो।" संकेत, गैर-कांग्रेसी और कांग्रेस-विरोधी मुसलमानों की ओर था, जिन्हें मुहम्मद अली जिन्ना ने एक नए व सक्रिय संगठन के रूप में संगठित कर लिया था।
अगस्त-प्रस्ताव
सरकार की दुर्बल स्थिति को देखते हुए वायसराय लिनलिथगो को संवैधानिक गतिरोध दूर करने का हुक्म मिला। कांग्रेस के नेता सरकार की ओर से सद्भावना की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने युद्ध में सहयोग की अपनी शर्तों को बहुत नर्म कर दिया था। लेकिन उन्हें निराश होना पड़ा।
वायसराय ने 8 अगस्त, 1940 को औपनिवेशिक स्वराज की स्थापना के लिए जो प्रस्ताव दिया था, वह बहुत आशाप्रद नहीं था। उस घोषणा में नया विधान बनाने के भारतीय अधिकारों को स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन यह भी जोड़ दिया गया था कि युद्ध की समाप्ति के बाद ही सभी दलों के सहयोग से संवैधानिक समस्याओं का हल ढूंढा जाएगा। कहा गया कि अल्पसंख्यकों की स्वीकृति के बिना सरकार किसी भी संवैधानिक परिवर्तन को लागू नहीं करेगी। यह सूचित किया गया कि गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का विस्तार कर भारतीयों को इसमें अधिक स्थान दिए जाने की इसमें व्यवस्था हो सकती है। एक युद्ध सलाहकार परिषद के गठन की बात भी थी इसमें। लीग ने प्रस्ताव का स्वागत किया लेकिन कांग्रेस ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। सरकार का उद्देश्य मुस्लिम लीग को रिझाना था। सरकार अपनी कूटनीति से कांग्रेस-लीग समझौते को मुश्किल कर देना चाहती थी। इससे ऐसा वातावरण तैयार होता, जिससे सत्ता के हस्तांतरण की आवश्यक शर्त, भारत के सब दलों और जातियों का सर्वसम्मत समझौता, पूरी न हो पाती। सरकार की इन चालबाज़ियों से कांग्रेस के उन नेताओं को, जो सरकार से आस लगाए बैठे थे, बड़ी निराशा हाथ लगी।
कांग्रेस से समझौते का प्रयास
1941 तक यूरोप में युद्ध अपने शिखर पर पहुँच गया था। युद्ध में ब्रिटेन की स्थिति और भी दुर्बल हो गई। अब तक नाज़ी जर्मनी पोलैंड, बेलजियम, हालैंड, नार्वे, फ्रांस और पूर्व यूरोप के बहुत से हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर चुका था। 22 जून 1941 को रूस पर हिटलर का आक्रमण हुआ। रूस पर जर्मनी के आक्रमण ने भारतीय कम्युनिस्टों को उलझन में डाल दिया। साम्यवादियों ने यह घोषणा की, "जिस युद्ध की अब तक हम 'साम्राज्यवादी युद्ध' कहकर निन्दा करते थे, वह अब 'जनता का युद्ध' हो गया है।" इस घोषणा के परिणामस्वरूप सरकार द्वारा उन पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और उनके तथा ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के बीच अस्थायी संधि हो गई। 7 दिसम्बर 1940 को पर्ल हार्बर स्थित अमेरिकी बेड़े पर अचानक आक्रमण कर जापान युद्ध में शामिल हो गया था। उसके बाद जापान ने ऐसा अभियान चलाया कि चार महीनों के भीतर ही अंग्रेज़ों को फिलिपीन, हिंद-चीन, इंडोनेशिया, मलाया, सिंगापुर और बर्मा से खदेड़ दिया। फलतः जापानी साम्राज्यवाद भारत में ब्रिटेन साम्राज्य के लिए एक गंभीर ख़तरा बन गया। पूर्वी एशिया में जापान का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था और शीघ्र ही उसके भारत में पहुँच जाने की संभावना नज़र आ रही थी। इसके परिणामस्वरूप मित्र राष्ट्रों में बेचैनी फैल गई। मित्र राष्ट्र ब्रिटिश सरकार पर भारत को आज़ाद करने के लिए दवाब डालने लगे।
बर्मा में अंग्रेजों की शक्ति कमज़ोर पड़ रही थी। सुभाष चन्द्र बोस जापान के सहयोग से भारत पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे। इस नाज़ुक स्थिति में ब्रिटिश सरकार कांग्रेस के निकट आ रही थी। सी. राजगोपालाचार्य के नेतृत्व में कांग्रेस का एक वर्ग तुरंत समझौता करके जापानियों के ख़िलाफ़ ब्रिटिश सरकार से संयुक्त मोर्चा बनाने के पक्ष में था। अधिकांश कांग्रेसी नेता जापानी ख़तरे के ख़िलाफ़ सरकार की मदद करने को तैयार थे, लेकिन चाहते थे कि पहले सरकार अपनी ओर से सद्भावना का संकेत करे। ब्रिटिश सरकार ने भी समझौते के प्रयास करने शुरू कर दिए। वायसराय ने अपनी कार्यकारिणी परिषद को बढ़ा कर उसमें कई भारतीयों को ले लिया। जो कांग्रेसी नेता व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा में गिरफ़्तार किए गए थे, उन्हें छोड़ दिया गया।
च्यांगकाई शेक मिशन
द्वितीय महायुद्ध की लपटें एशिया में फैल चुकी थीं। जापान लड़ाई में कूद पड़ा था। इससे चीन और पूर्वी एशिया के लिए ख़तरे की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। 1940-41 में चीन के राष्ट्रपति च्यांगकाई शेक और उनकी पत्नी चुंगलींग शेक भारत की यात्रा पर आए थे। ये चीनी दंपति भारतीयों को समझाने आए थे कि सल्तनत ही संसार का एकमात्र आशा-दीप था। ब्रिटिश राज्य के इन कठिनाई के दिनों में भारतीयों का कर्तव्य था कि वे तन, मन, धन और शक्ति से युद्ध में सल्तनत का साथ दें। जापान का विरोध करने के लिए मित्र-राष्ट्रों की सहायता में सक्रिय योगदान करें। गांधीजी इन दंपति से मिलने कलकत्ता गए थे। गांधीजी को च्यांगकाई शेक धूर्त और कुटिल व्यक्ति लगे। गांधीजी अपनी अहिंसा की मान्यता के आधार पर युद्ध में अपने देश को झोंकने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
भारत का राजनैतिक संकट हल करने की विवशता
च्यांगकाई शेक मिशन फेल हो चुका था। पूर्वी क्षेत्र में जापान का मुकाबला करने के लिए भारत के महत्त्व को बतलाते हुए च्यांग-कोई-शेक ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया कि वे भारतीयों की मांगों को स्वीकार कर उन्हें संतुष्ट रखें। सुभाष चंद्र बोस ने जापान जाकर रासबिहारी बोस के सहयोग से आजाद हिन्द फ़ौज का गठन कर लिया था। जापान के सहयोग से बोस भारत को स्वतंत्र कराने के लिए आक्रमण की योजना बना रहे थे। सैनिकों के बीच भी भारत को स्वतंत्र बनाने की प्रवृत्ति जग चुकी थी। इससे ब्रिटिश सरकार की चिंता बढ़ी। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रथम दो वर्ष ब्रिटिश साम्राज्य के लिए बहुत संकटपूर्ण थे। एक के बाद एक तबाही से ब्रिटेन कराह रहा था। जर्मनी की निरंतर सफलता और इंग्लैंड पर आक्रमण की आशंका से इंग्लैंड अपनी रक्षा के लिए खुद प्रयत्नशील था। जापानी आक्रमण से भारतीय साम्राज्य पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे थे। इस प्रकार युद्ध की दोहरी मार से ब्रिटिश साम्राज्य की शांति और सुरक्षा खतरे में पड़ गयी थी। पर्ल हार्बर की घटना के बाद ब्रिटेन को एशिया में कदम वापस खींचने पड़े।
इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री चर्चिल, हालांकि वह भारत की स्वतंत्रता का कट्टर विरोधी था, लेकिन उसे भारत के राजनैतिक संकट का हल करने के लिए मज़बूर होना पड़ा। वह अमेरिका की हमदर्दी खोने का जोखिम नहीं ले सकता था। अमेरिका हमेशा से ही भारत समर्थक रहा था। भारत के प्रति अंग्रेजों के रवैये से राष्ट्रपति रुज़वेल्ट संतुष्ट नहीं था। दरअसल इस समय जापानी पनडुब्बियां बंगाल के समुद्र में गस्त लगा रही थीं। 15 फरवरी को सिंगापुर का पतन हुआ, 8 मार्च को रंगून का और 23 मार्च को अंडमान द्वीपसमूह का। ब्रिटिश फ़ौज ने पराजय स्वीकार कर बर्मा, सिंगापुर और मलाया जापानियों को सुपुर्द कर दिया था। जापानी आक्रामक जहाज कलकत्ता पर बम गिरा चुके थे। भारत का आकाश जापानी हवाई हमले के खतरे से खाली नहीं था। अंततः अंग्रेज़ों को इस बात का एहसास हुआ कि सद्भावनापूर्ण क़दम उठाकर भारतीय जनमत को अपने पक्ष में करना बहुत ज़रूरी हो गया है। विंस्टन चर्चिल ने कहा था, "बर्मा, श्रीलंका, कलकत्ता और मद्रास भी दुश्मन के क़ब्ज़े में जा सकते हैं।" परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार भारतीयों का सहयोग प्राप्त करना चाहती थी, ताकि न केवल जापान को आगे बढ़ने से रोका जा सके बल्कि युद्ध की समग्र तैयारी में भी मदद मिले।
क्रिप्स मिशन
चर्चिल पर चारों तरफ़ से दबाव था कि वह युद्ध में भारतवासियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करे। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट, चीन के राष्ट्रपति च्यांग काईशेक और ब्रिटेन की लेबर पार्टी के बहुत से नेताओं ने चर्चिल पर दबाव डाला। इन सब परिस्थितियों के देखते हुए, चर्चिल ने युद्धकालीन मंत्रिमंडल की एक उपसमितिको भारतीय संविधान संशोधनों का अध्ययन करने और उसका हल सुझाने के लिए नियुक्त किया। प्रधानमंत्री चर्चिल ने हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा की, "हमारे मंत्रिमंडल ने भारत के बारे में एक सर्वसम्मत निर्णय लिया है। सर स्टैडफ़ोर्ड क्रिप्स उसके बारे में चर्चा करने के लिए भारत जाएंगे।" मार्च 1942 में चर्चिल ने लेबर पार्टी के अपने मंत्रिमंडल के समाजवादी सहयोगी सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को सुलह के लिए एक 'घोषणा का मसविदा' देकर भारत भेजा। इसे ही 'क्रिप्स मिशन' कहा जाता है। इसका अभिप्राय ब्रिटेन के युद्ध-प्रयासों की आवश्यकताओं को छोड़े बिना राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को संतुष्ट करना और विभिन्न परस्पर विरोधी हितों के बीच तालमेल बिठाना था।
क्रिप्स तेज़-तर्रार वकील, प्रतिबद्ध समाजवादी और साम्राज्यवाद का विरोधी था और भारतीय आकांक्षाओं के साथ उसकी हमदर्दी थी। नेहरू और दूसरे भारतीय नेताओं के साथ उसका व्यक्तिगत परिचय था। शुद्ध शाकाहारी और सादे जीवन वाला होने के नाते यह आशा की जा रही थी कि वह गांधीजी का दिल जीत लेगा। इसके फले नवम्बर 1941 में वह भारत आ चुका था और गांधीजी के वर्धा आश्रम भी गया था। 23 मार्च, 1942 को दिल्ली पहुँचकर उसने घोषणा की, "भारत में ब्रिटिश नीति का उद्देश्य है जितनी जल्दी संभव हो सके, भारत में स्व-शासन की स्थापना।" विभिन्न नेताओं से सम्पर्क के पश्चात् 30 मार्च, 1942 को क्रिप्स ने अपनी योजना प्रस्तुत की। उसकी योजना के दो भाग थे, एक तत्काल लागू होने वाले और दूसरा युद्ध के बाद कार्यान्वित किए जाने वाले।
क्रिप्स मिशन की सिफ़ारिशें
1. डोमिनियन स्टेटस की घोषणा : युद्ध की समाप्ति के बाद एक ऐसे भारतीय संघ के निर्माण का प्रयत्न किया जाये, जिसे पूर्ण उपनिवेश का दर्जा प्राप्त हो। कॉमनवेल्थ या राष्ट्रमंडल में रहने या नहीं रहने का निर्णय भारत खुद ले सकेगा।
2. संविधान सभा का गठन: संविधान निर्माण के लिए एक 'संविधान सभा' का गठन किया जाएगा। युद्ध के बाद प्रांतीय काउंसिलों का चुनाव होगा। प्रान्तीय काउन्सिलों के निचले सदनों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एक संविधान निर्मात्री परिषद का चुनाव किया जाएगा, जो देश के लिए संविधान का निर्माण करेगी। इस संविधान सभा में देशी रियासतों के भी प्रतिनिधि, जिनका नामजद राजा करेंगे, शामिल हो सकते हैं।
3. प्रांतों और देशी नरेशों को स्वतंत्रता : संविधान सभा द्वारा निर्मित किये गये संविधान को सरकार दो शर्तों पर ही लागू कर सकेगी। नए भारतीय संविधान के निर्माण होने तक भारतीयों की रक्षा का उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार पर होगा। जो प्रांत इससे सहमत नहीं हैं, वे इसे अस्वीकार कर पूर्ववत स्थिति में रह सकते हैं या फिर वे पूर्णतः स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, तब भी ब्रिटिश सरकार को कोई आपत्ति नहीं होगी। यानी ब्रिटिश भारत के किसी भी प्रांत या देशी रियासत को भारतीय संघ से अलग डोमिनियन स्टेटस पाने का अधिकार दे दिया गया।
4. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का आश्वासन : भारतीय संविधान सभा तथा ब्रिटिश सरकार के मध्य अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर एक समझौता होगा। इसमें अंग्रेजी सरकार द्वारा भारतीय धार्मिक और अल्पसंख्यक जातियों को दिए गए आश्वासनों और सुरक्षा का वर्णन होगा। दूसरे शब्दों में उन व्यवस्थाओं को बनाए रखा जाएगा।
क्रिप्स योजना के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया
घोषणा का जो मसविदा क्रिप्स लेकर आया था, उसमें सिफारिश के नाम पर कुछ ख़ास नहीं था। ऊपर से क्रिप्स की मसौदा घोषणा से परे जाने की अक्षमता और "इसे लें या छोड़ दें" वाला कठोरतापूर्ण रवैया अपनाने से गतिरोध बढ़ गया। जो स्पष्टीकरण दिया गया, कि प्रस्ताव अगस्त की पेशकश को खत्म करने के लिए नहीं थे, बल्कि सामान्य प्रावधानों को ठीक करने के लिए थे, वह ब्रिटिश इरादों पर संदेह तो उत्पन्न करते ही थे। इस प्रस्ताव में एक पेंच यह था कि यदि भारतीय संघ में कोई प्रांत नए विधान को स्वीकार नहीं करना चाहे, तो उसे तत्कालीन चालू वैधानिक स्थिति को कायम रखने का पूरा अधिकार होगा। क्रिप्स ने कांग्रेस अध्यक्ष और नेताओं से बातचीत के दौरान कहा कि युद्ध के बाद प्रशासन और आज़ादी के बारे में सोचा जाएगा। लेकिन अभी युद्ध काल में कांग्रेस का असहयोग और अधैर्य शोभा नहीं देता।
भारत को आज़ादी की मांगों को स्थगित कर देना चाहिए और युद्ध में अविलंब शामिल हो जाना चाहिए। सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स के प्रस्ताव पर अहिंसा का कोई सवाल नहीं था। इस पर शुद्ध राजनैतिक दृष्टि से विचार किया गया। क्रिप्स के साथ वार्ता में कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले अपने कार्यकारी परिषद में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई। आरंभ में कांग्रेस की प्रतिक्रिया नकारात्मक नहीं थी। नेहरूजी ने अपनी ओर से भरसक प्रयास किया कि समझौता हो जाए। लेकिन वे उन धाराओं के प्रति अत्यंत आलोचनात्मक थे जिनमें शासकों द्वारा रजवाड़ों के प्रतिनिधियों के नामांकन की और प्रांतों को ऐच्छिक रूप से सम्मिलित होने की बात कही गई थी।
'दिवालिया बैंक के नाम अगली तारीख का चेक'
क्रिप्स ने गांधीजी को तार देकर वर्धा से मिलने के लिए बुलाया था। उसके प्रस्ताव में केवल एक ही ऐसी बात थी, जिसे गांधीजी स्वीकार कर सकते थे, और वह था औपनिवेशिक दर्ज़ा। भारतीय राजाओं के लिए विशेष दर्ज़ा से भारत के खंडित होने का खतरा था, जिसे गांधीजी स्वीकार नहीं कर सकते थे। युद्ध के प्रयास के बारे में अंतिम धारा तो उनके अहिंसा के सिद्धांतों के बिलकुल विपरीत थी। गांधीजी ने कहा कि भारत को ऐसे गोलमेज आश्वासन मंज़ूर नहीं है। अगर भारतीय ऐसे आश्वासन पर बैठा रहेगा, तो कभी आज़ादी मिलने वाली नहीं। गांधीजी ने क्रिप्स से कहा, "यदि आपके यही प्रस्ताव थे तो आपने यहां आने का कष्ट क्यों उठाया? ... मैं आपको सलाह दूंगा कि आप अगले ही हवाई जहाज से ब्रिटेन लौट जाएं।" गांधी जी ने इसे 'post-dated cheque of a crushing bank' (दिवालिया बैंक के नाम अगली तारीख का चेक) कहा था। गांधीजी ने समूचे क्रिप्स प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया और वापस वर्धा चले गए। राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, 'इस योजना को स्वीकार करना भारत को अनिश्चित खंडों में बांटने की संभावना का मार्ग तैयार करना था।' इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया। युद्ध-प्रयत्न के ख़िलाफ़ भारतीय विरोध 'न एक भाई, न एक पाई' के नारे के रूप में प्रकट हुआ।
विभिन्न पक्षों का विरोध
जिन्ना ने प्रान्तों के अलग होने वाले प्रस्ताव को 'व्यवहार रूप में पाकिस्तान को मान्यता मिल जाना' मनाकर इसका स्वागत किया, लेकिन इस पूरे प्रस्ताव को उसने ठुकरा दिया। उसका कहना था की यह प्रस्ताव प्रान्तों को देश से अलग हो जाने का हक़ देता है, न की 'मुस्लिम राष्ट्र' को। लीग चाहती थी कि अलग होने का फैसला मुस्लिम बहुल प्रान्तों के सभी मुस्लिम वोटों के आधार पर ही हो, न कि पूरी आबादी के व्यस्क मताधिकार के आधार पर। हिन्दू-महासभा को देश के विभाजित हो जाने का भय था, इसलिए उसने प्रस्ताव का विरोध किया। सिखों को भय था कि मुस्लिम बहुमत वाला पंजाब भारतीय संघ से बाहर जाने का निर्णय लेगा। आंबेडकर और सी.एम. राजा यह सोचकर भयभीत थे कि दलितों को सवर्ण हिन्दुओं की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाएगा। सभी को प्रस्ताव अस्पष्ट और असंतोषजनक लगा। अंततः प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया और निरंतर मुसीबतों से ग्रस्त क्रिप्स मिशन गतिरोध समाप्त करने में असफल रहा। 12 अप्रैल को क्रिप्स इंग्लैण्ड लौट गया।
क्यों असफल रहा क्रिप्स मिशन?
नेहरूजी ने अपनी ओर से इस बात का भरसक प्रयास किया कि समझौता हो जाए। वे भारतीय जनमत को सच्चे ढंग से फासीवाद-विरोधी युद्ध के पक्ष में करना चाहते थे। लेकिन क्रिप्स के कठोरतापूर्ण रवैया के कारण मिशन असफल रहा। सुमित सरकार ने सही ही कहा है कि "क्रिप्स मिशन आरंभ से ही अनेक अस्पष्टताओं और गलतफहमियों से ग्रस्त रहा और अंत में उन्हीं के कारण असफल भी रहा।" इसके प्रस्तावों पर कांग्रेस को भारी आपत्ति थी। उसमें अंग्रेजों के प्रति अविश्वास और क्षोभ की भावना बढ़ गयी। कांग्रेस, लीग, हिन्दू-महासभा, सिख, दलित नेता कोई भी इस प्रस्ताव से प्रसन्न नहीं था। सभी ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, हालांकि उनके कारण भिन्न और एकदम अंतर्विरोधी थे। कांग्रेस से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह प्रान्तों के भारतीय संघ में न मिलाने के सिद्धांत को स्वीकार करे। क्रिप्स योजना में भारत के विभाजन की योजना भी छिपी हुई थी। प्रांतों और रियासतों को अलग होने का अधिकार देकर देश के बीसियों स्वतंत्र राज्यों में विभाजित करने की व्यवस्था भी कर दी गई थी। पाकिस्तान की मांग के लिए इस व्यवस्था के तहत गुंजाइश यह बनाई गई थी कि यदि किसी प्रांत को नया संविधान स्वीकार नहीं हो, तो वह अपने भविष्य के लिए ब्रिटेन से अलग समझौता कर सकेगा। 1940 में लिनलिथगो ने जो अगस्त घोषणा की थी, उसमें पाकिस्तान एक कल्पना मात्र था, क्रिप्स ने तो उसे एक राजनैतिक संभावना बना डाला था। भारत के राजनैतिक भविष्य का प्रश्न इस बुरी तरह उलझा हुआ था कि जल्दी-जल्दी तैयार किए हुए क्रिप्स के इस प्रस्ताव से वह सुलझ ही नहीं सकता था।
उधर ब्रिटिश सरकार को यह मंजूर नहीं था कि वास्तविक सत्ता भारतीयों को दे दी जाए। देश की प्रतिरक्षा की जिम्मेदारी में वह भारत को कोई हिस्सा नहीं देना चाहता था। क्रिप्स मिशन की असफलता से चर्चिल को संतोष ही हुआ होगा। 10 मार्च, 1942 को वायसराय लिनलिथगो को लिखे पत्र में चर्चिल ने कहा था, "क्रिप्स तो प्रारूप की घोषणा से बंधा है, जो कि हमारी अंतिम सीमा है। क्रिप्स मिशन इस बात का प्रमाण होगा कि हमारी नियत साफ है ... यदि भारतीय दल इसे अस्वीकार कर देते हैं, तो दुनिया के सामने हमारी ईमानदारी सिद्ध हो जाएगी।" अपना राजनीतिक जीवन बचाने के लिए इंग्लैंड पहुंचकर क्रिप्स ने अपनी असफलता का सारा दोष गांधीजी के सिर मढ़ दिया। चर्चिल ने भारत पर दोषारोपण किया, भारतीय नेता संवैधानिक सुधारों के लिए तैयार नहीं हैं। अंग्रेजों ने दोहरी चाल चली थी और धोखाधड़ी किया था। चर्चिल के लिए कुछ किया जाना उतना ज़रूरी नहीं था जितना यह कि कुछ किए जाने का प्रयास किया गया, यह दिखे। इस मिशन के लिए क्रिप्स का चुनाव चाहे जितना अच्छा रहा हो, इसकी रूपरेखा इतनी बुरी थी कि इसे फेल होना ही था। मिशन की असफलता का दायित्व पूरी तरह से अंग्रेजों पर जाता है। ब्रिटिश प्रधान मंत्री चर्चिल, राज्य सचिव अमेरी, वायसराय लिनलिथगो और कमांडर-इन-चीफ वार्ड ने क्रिप्स के प्रयासों को विफल कर दिया।
क्रिप्स मिशन के लौट जाने के बाद सरकार को लगा कि युद्ध काल में कोई समझौता नहीं हो सकता है। इसलिए सरकार युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों से निपटने में लग गई। उसने तरह-तरह के अत्याचार शुरू कर दिए। भारतीय सेना का काफी विस्तार कर दिया गया। जापानियों से लड़ने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकी सेना देश के हर शहर में तैनात की गई। इस अतिरिक्त ख़र्च का भार भारत सरकार वहन करती थी। इसके लिए लोगों पर अतिरिक्त कर लगा दिए गए। देश से अच्छा अनाज बाहर जाने लगा। अनाज के दाम बढ़ गए। देश के बाज़ारों से खाद्यान्न गायब होने लगा। देश में दुर्भिक्ष फैल गया। देश में बोलना, भाषण देना, सभा-सम्मेलन करना, सब पर अंकुश लगा दिया गया। शोषण और आतंक का दौर था वह। देश की जनता डरी हुई, निराश और असहाय थी। निराश और कटुता से भरे भारतीयों के लिए देश में मौजूदा स्थिति असहनीय हो गई थी। यह सब कब तक चलता? साम्राज्यवाद पर अंतिम हमले का समय आ गया था। गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से अंतिम संघर्ष के लिए अंग्रेजों से भारत छोड़ने और सत्ता भारतीयों को सौंपने की मांग की! देश अब तेज़ी से भारत छोडो आन्दोलन के पूर्ण संघर्ष की ओर बढ़ रहा था!!
नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।
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