भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका अहम रही है। हम बात कर रहे हैं, सन् 1885 से लेकर 1947 तक की। उस दौरान कई युवाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और देश को आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इनमें सरदार भगत सिंह, खुदीराम बसु, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और न जाने कितने नाम शामिल हैं। करियर इंडिया हिन्दी पर यूपीएससी तथा तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में उपस्थित होने वाले युवाओं के लिए इतिहास विषय के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त आईओएफएस मनोज कुमार द्वारा यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। इस लेख में सन 1885 से लेकर 1947 तक भारतीय राजनीति में भारतीय युवाओं की भूमिका पर विस्तृत जानकारी दी जा रही है। यदि आप भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं और इतिहास विषय को सरल भाषा में समझना चाहते हैं तो इस लेख से सहायता ले सकते हैं।
देश के विकास में युवाओं की भूमिका
किसी भी देश के विकास में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। वे इतिहास से प्रेरणा ग्रहण करते हैं और भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में भी युवा वर्ग काफी आगे रहे हैं। देश के स्वतंत्रता आंदोलन को युवाओं के जोश और इरादों ने मजबूती प्रदान की। चाहे वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसात्मक आंदोलन हो या फिर अपने बाजुओं के बल पर फिरंगियों को देश से बाहर निकालने का इरादा लिए क्रांतिकारी वर्ग का शौर्य प्रदर्शन, युवाओं ने हर तरह से योगदान दिया। स्वामी विवेकानंद ने युवा वर्ग को 'उठो, जागो, लक्ष्य तक पहुंचे बिना रूको मत' का मंत्र दिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान आज़ादी का जुनून लिए इन नौजवानों के लिए देश को स्वतंत्र कराने के लक्ष्य के सिवाय बाकी सभी चीजें गौण हो गई थीं। स्कूल, कॉलेज राष्ट्रीय गतिविधियों के प्रमुख केंद्र बन गए थे।
विद्यार्थी और युवा संगठन
सन् 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस द्वारा स्थापित भारतीय संघ ब्रिटिश भारत में पहला राष्ट्रवादी संगठन था। 1896 में पूना में चापेकर बंधुओं (दामोदरहरि चापेकर व बालकृष्ण चापेकर) ने 'व्यायाम मंडल' की स्थापना कर क्रांतिकारी आंदोलन की शुरूआत की। वे युवकों को प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें तैयार किया करते थे। 22 जून 1897 को उन्होंने पूना के अत्याचारी कमिश्नर रैंड और एक पुलिस अधिकारी आयरिस्ट को गोलियों से भून डाला। इस कांड में दोनों चापेकर बंधुओं को फाँसी का दंड मिला। खुदीराम बोस की गणना सबसे कम उम्र के क्रान्तिकारियों में होती हैं जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान सारा बंगाल भड़क उठा और गोपनीय क्रांतिकारी समितियाँ सक्रिय हो उठीं। अंग्रेजों के अत्याचारों के जवाब में बमों और पिस्तौलों का उपयोग होने लगा।
क्रांतिकारियों का केंद्र बना 'इंडिया हाउस'
श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में 'इंडिया हाउस' की स्थापना करके उसे भारतीय क्रांतिकारियों का केंद्र बना दिया। उनके सहयोगी नौजवान मदनलाल धींगरा ने एक अत्याचारी अंग्रेज अफसर को लंदन में गोली मारकर फाँसी का दंड प्राप्त किया। वीर सावरकर भी इस संस्था से जुड़े थे। जर्मनी में भी 'बर्लिन कमेटी' नाम से भारतीय क्रांतिकारियों का एक संगठन कार्य कर रहा था। कनाडा में 1907 में 'हिंदुस्तान एसोसिएशन' नाम की एक संस्था स्थापित की गयी। 1913 में कनाडा में 'गदर पार्टी' स्थापित की गई। इसके संस्थापकों में लाला हरदयाल प्रमुख थे। इस पार्टी के हजारों सदस्य भारत को आजाद कराने के लिए जहाजों द्वारा भारत पहुँचे। ये लोग पूरे पंजाब में फैल गए और अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध गोपनीय कार्य करने लगे। अंग्रेजों के दमन से यह आंदोलन दबा दिया गया।
बढ़ता रहा छात्र आंदोलन का दायरा
स्वदेशी आन्दोलन (1905) ने भारतीय छात्रो को एकरूपता प्रदान की थी और छात्र शक्ति को एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण दिया था। 1906 से 1918 के बीच छात्र आंदोलन का दायरा बढ़ता गया। असहयोग आन्दोलन के विस्तार के साथ जगह-जगह रैली और प्रदर्शन में काफी वृद्धि हुई। ऐसे प्रदर्शनों में छात्र और युवक प्रमुख रूप से भाग लेते थे। छात्र संगठन और युवा सभाओं की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई। स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार कर भारतीय छात्रों ने असहयोग आन्दोलन में तीव्रता प्रदान की थी। इनकी मुख्य मांग पूर्ण स्वाधीनता और सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में परिवर्तन की होती थी। इस काल में उभरती हुई नई युवा पीढ़ी में अशान्ति व्याप्त थी। इस आन्तरिक अशान्ति ने विभिन्न विद्यार्थी और युवा संगठनों को जन्म दिया। शिक्षितों की बेरोज़गारी का युवा असंतोष की इस लहर से गहरा संबंध था।
'हिन्दुस्तानी सेवा दल' की स्थापना
वर्ष 1922 से 1927 के बीच छात्रों की संख्या कुल जनसंख्या का 5 प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत हो गयी थी, जबकि रोज़गार के अवसर में कोई वृद्धि नहीं हुई। कांग्रेस ने अवसर की नजाकत को भांपा और 'हिन्दुस्तानी सेवा दल' की स्थापना की। इसका आरंभ एन.डी. हर्डीकर ने कर्नाटक में की थी। इस दल के माध्यम से युवकों को संगठित करने का प्रयास किया गया। युवा संगठन स्वराजियों और अपरिवर्तनवादियों, दोनों की ही आलोचना करते थे। ये पूर्ण स्वराज का नारा लगाते थे। ये अधिक साम्राज्यवाद-विरोधी दृष्टिकोण की माँग किया करते थे। इनमें अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्तियों की चेतना थी। वे राष्ट्रवाद को सामाजिक न्याय से जोड़े जाने की आवश्यकता महसूस करते थे। सुभाष चन्द्र बोस ने बंगाल में ऐसी ही तलाश को अभिव्यक्ति दी।
जवाहरलाल नेहरू
एक और अन्य युवक उस समय तेज़ी से उभर रहा था, वह था जवाहरलाल नेहरू। औपनिवेशिक दमन और साम्राज्यवाद के विरुद्ध 1927 में ब्रुसेल्स में एक कांग्रेस हुई थी। जवाहरलाल ने उसमें भाग लिया था। इस कांग्रेस ने उनमें समाजवादी और तीसरी दुनिया की राष्ट्रवादी शक्तियों के बीच साम्राज्यवाद-विरोधी एकजुटता की दृष्टि दी। उन्हें साम्राज्यवाद-विरोधी और राष्ट्रीय स्वाधीनता समर्थक लीग का मानद अध्यक्ष नियुक्त किया गया। यह लीग ब्रुसेल्स में ही शुरू हुई थी। इसी वर्ष नेहरू जी ने मद्रास में एक रिपब्लिकन कांग्रेस की अध्यक्षता की थी, जिसमें पूर्ण स्वाधीनता की मांग की गई थी।
1928 में कलकत्ता में जवाहरलाल नेहरू ने एक समाजवादी युवक कांग्रेस की अध्यक्षता की थी। इस सभा में 'कम्युनिस्ट समाज की आवश्यक प्रस्तावना' के रूप में स्वतंत्रता का आह्वान किया गया था। इन्हीं दिनों सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी, इटली, रूस और चीन के युवक आन्दोलनों का अभिनन्दन किया था। ये दोनों महान नेता उन दिनों के कांग्रेस के वामपंथी धड़े का प्रतिनिधित्व करते थे।
नेहरू रिपोर्ट में पूर्ण स्वराज की मांग
1928 में जब नेहरू रिपोर्ट आया तो उसमें पूर्ण स्वराज को स्थान न देकर डोमिनियन स्टेटस का लक्ष्य स्वीकार किया गया था। कांग्रस के वामपंथी युवा वर्ग 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की बात से असंतुष्ट थे और 'पूर्ण स्वाधीनता' की मांग को कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य बनाना चाहते थे। युवा वर्ग के दोनों तेजस्वी नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के सचिव थे, लेकिन दोनों त्यागपत्र देकर स्वतंत्र काम करने के लिए अलग हो जाना चाह रहे थे। उनके इस्तीफ़े मंजूर नहीं किए गए। जब तक इस्तीफा मंज़ूर नहीं हो जाता, तब तक इन लोगों ने कांग्रेसजनों में पूर्ण स्वाधीनता के विचारों का प्रचार करने के लिए दबाव समूह के रूप में एक भारत के लिए स्वाधीनता (इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया) लीग बना डाली। 1929 में इस लीग ने समाजवादी जनतांत्रिक राज्य की मांग करते हुए कहा कि इसमें प्रत्येक व्यक्ति को विकास के पूरे अवसर होंगे और उत्पादन के साधनों एवं वितरण पर राज्य का नियंत्रण होगा। लेकिन कांग्रेस का वामपंथी पक्ष कोई ठोस कार्य करने या संगठन बनाने में असफल रहा।
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ
शिक्षित युवकों को लगा कि कांग्रेस का वामपंथी पक्ष ज़बानी जमाखर्च के अलावा कुछ करने-धरने वाला नहीं है। क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ उनका रुझान हुआ। बंगाल में युवा विद्रोह समूह का प्रादुर्भाव हुआ। सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार पर आक्रमण हुआ। सितंबर 1928 में दिल्ली के आयोजित एक सभा में सरदार भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ घोष, अजय घोष और फणीन्द्र नाथ घोष ने 'हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ' की स्थापना की। इस संघ ने लालाजी पर हुए आक्रमण का बदला लेने के लिए दिसंबर 1928 में लाहौर में सांडर्स की ह्त्या, केन्द्रीय सभा में बम फेंका जाना, दिल्ली के निकट रेलगाड़ी को उड़ा देने का प्रयास, जैसे कई कार्य किए। अपने मुक़दमें में इस संघ की निति को स्पष्ट करते हुए शहीद भगत सिंह ने कहा था, "क्रान्ति मेरे लिए बम और पिस्तौल का साम्प्रदाय नहीं है, बल्कि समाज का पूर्ण परिवर्तन है, जिसकी अंतिम परिणति विदेशी और भारतीय दोनों प्रकार के पूंजीवाद को समाप्त करके सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना में होगी।
स्वाधीनता सबका जन्मसिद्ध अधिकार
क्रान्ति मानवजाति का अत्याज्य अधिकार है। स्वाधीनता सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक ही समाज का सच्चा पालनहार है। इस क्रान्ति की वेदी पर हम अपनी जवानी को नैवेद्य बनाकर लाए हैं, क्योंकि ऐसे महान लक्ष्य के लिए कोई भी बलिदान अधिक नहीं है। हम संतुष्ट हैं। हम क्रान्ति के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" धारा सभा में जो बम उन्होंने फेंका था वह सांकेतिक था। उस समय धारा सभा में श्रमिक विरोधी ट्रेडर्स डिस्प्यूटस बिल विचाराधीन था। हिंसप्रस के वीरों और शहीदों ने काफी लोकप्रियता प्राप्त की। जतिन दास ने 1929 में राजनीतिक कैदियों की हैसियत में सुधार के लिए भूख हड़ताल की थी। चौसठवें दिन उनकी मृत्यु हो गई। कलकत्ता में उनकी अर्थी के पीछे दो मिल लंबा जुलूस चल रहा था। यह साबित करता है की युवा वर्ग का क्रांतिकारी स्वरुप लोगों के दिल में घर बनाता जा रहा था। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि कुछ समय तक उस समय के राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में शहीद भगत सिंह ने गांधीजी को मात दे दी थी।
आंदोलनों को मिला भारतीय छात्रों का समर्थन
1936 में, पहला अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन लखनऊ में आयोजित किया गया था जिसमें पंजाब, यूपी, सीपी, बंगाल, असम, बिहार और उड़ीसा के 210 स्थानीय और 11 प्रांतीय संगठनों के 986 छात्र प्रतिनिधि शामिल थे। भारत छोड़ो आंदोलन को भारतीय छात्रों का समर्थन मिला। आंदोलन के दौरान, छात्रों ने ज्यादातर कॉलेजों को बंद करने और नेतृत्व की अधिकांश जिम्मेदारियों को शामिल करने का प्रबंधन किया और भूमिगत नेताओं और आंदोलन के बीच लिंक प्रदान किया।
समय के साथ युवाओं की राजनीति और आन्दोलन के स्वरुप में बदलाव आया। शुरुआती युवा आंदोलन स्कूलों, पाठ्यक्रमों और शैक्षिक विषयों पर केंद्रित था। धीरे-धीरे उनका झुकाव भारत की आजादी के संघर्ष की ओर स्थानांतरित हुआ। भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य अनियोजित कार्य नहीं थे। युवा वर्ग भारत को एकजुट करने के लिए देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा के लिए सतत संघर्षरत था। उन युवा क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था बल्कि वे शोषण रहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे।
नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।
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