Quit India Movement shook British Imperialism: भारत छोड़ो आंदोलन से एक बात तो स्पष्ट हो गई थी कि भारतीयों की इच्छा के विरूद्ध भारत पर शासन करना अब संभव नहीं था। इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की मांग को राष्ट्रीय आंदोलन के तत्काल एजेंडे पर रखा। यूपीएससी समेत अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गए प्रश्नों के आधार पर आज का लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें भारत छोड़े आन्दोलन को एक 'स्वतः स्फूर्त आन्दोलन' के रूप में क्यों चरित्रांकित किया गया, इस पर व्याख्या की गई है। उम्मीदवार अपनी सर्वश्रेष्ठ तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं। इसे विस्तार से पढ़ने के पहले परीक्षा में पूछे गए प्रश्न पर एक नजर-
2019 में पूछा गया प्रश्न: भारत छोड़े आन्दोलन को एक 'स्वतः स्फूर्त आन्दोलन' के रूप में क्यों चरित्रांकित किया गया? क्या इसने भारतीय स्वतन्त्रता की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की?
2015 में पूछा गया प्रश्न: "भारत छोड़ो आन्दोलन को 'स्वतः स्फूर्त क्रान्ति' के रूप में चित्रित करना आंशिक व्याख्या होगी, उसी प्रकार उसे गांधीवादी सत्याग्रह आन्दोलनों के चरम बिंदु के रूप में देखना भी।" स्पष्ट कीजिए।
कुछ विचारकों द्वारा भारत छोड़ो आन्दोलन को एक 'स्वतः स्फूर्त आन्दोलन' के रूप में चरित्रांकित किया गया है। ऐसे लोगों का मानना है कि 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन शुरू भले ही गांधी और कांग्रेस ने किया हो लेकिन इसकी गति मूलतः स्वतः स्फूर्त थी। 9 अगस्त, 1942 की सुबह नेताओं की गिरफ्तारी के बाद के कुछ ही दिनों में आंदोलन ने व्यापक रूप धारण कर लिया। 'भारत छोडो प्रस्ताव' भावी आन्दोलन की विस्तृत गतिविधियों के संबंध में पर्याप्त अस्पष्ट था। इस व्यापक विस्फोट का कारण यह था कि अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर दमन की नीति अपना ली थी। ऐसा कोई भी दस्तावेज़ नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि कांग्रेस ने सचमुच हिंसक विद्रोह की योजना बनाई थी। इसमें किसी केन्द्रीय नेतृत्व के मार्गदर्शन में चलने के बजाय अलग-अलग स्थानों पर स्थानीय जनता ने इसे स्वयं संचालित किया।
स्थानीय स्तर पर यकायक जनता के नए-नए जन-नेता पैदा हुए और उन्होंने ब्रितानी हुकूमत की लाठी गोली की परवाह न करते हुए, आंदोलन को आगे बढ़ाया। गांधीजी व कांग्रेस ने 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो यह कितना व्यापक व प्रचंड रूप ले लेगा, इसकी कल्पना उन्होंने नहीं की थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता का आक्रोश फूट पड़ा। गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद जल्द ही कांग्रेस के सभी बड़े नेता जेल में दाल दिए गए। ऐसे में स्वतः स्फूर्त तरीके से जनता का विराट आंदोलन आगे बढ़ा। वस्तुतः इस आंदोलन की व्यापकता व प्रचंडता का एक कारण यह भी था कि इसकी गति को थामने-रोकने वाला कांग्रेसी नेतृत्व जेल के भीतर था।
अहिंसा के विचार पर जारी रहे आंदोलन
अगर सही आकलन करें तो हम कह सकते हैं कि भारत छोड़ो आन्दोलन को 'स्वतः स्फूर्त क्रान्ति' के रूप में चित्रित करना आंशिक व्याख्या होगी। स्वतः स्फूर्तता का तत्व पहले की तुलना में अधिक था, हालांकि कुछ हद तक लोकप्रिय पहल को नेतृत्व ने ही मंजूरी दी थी, जो निर्देशों की सीमाओं के अधीन थी। गांधीजी ने कहा था, "मेरी गिरफ़्तारी के बाद हर एक भारतवासी अपना नेता है, ऐसा समझकर अहिंसा का विचार ध्यान में रखकर आन्दोलन ज़ारी रहे। स्वाधीनता की इच्छा एवं प्रयास करने वाला प्रत्येक भारतीय स्वयं अपना मार्गदर्शक बने। प्रत्येक भारतीय आपने आपको स्वाधीन समझे। केवल जेल जाने से काम नहीं चलेगा।" साथ ही, कांग्रेस लंबे समय से वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक रूप से संघर्ष की तैयारी कर रही थी। गांधीजी ने असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलनों या सत्याग्रह, संगठनात्मक सुधार और सतत प्रचार अभियान के माध्यम से एक गति का निर्माण किया था।
देश की आम जनता इस गति को इसकी परिणति तक ले जाना चाह रही थी। देश के विभिन्न स्थानों पर आंदोलन का संगठनात्मक ढांचा भी दिखता था। आंदोलन की बागडोर अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ़ अली, राममनोहर लोहिया, सुचेता कृपलानी, छोटूभाई पुराणिक, बीजू पटनायक, आर.पी. गोयनका और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने संभाल ली थी। आम लोगों के साथ-साथ व्यावसायिक वर्ग का भी इन्हें सहयोग मिलता रहा। मलाया और बर्मा में होने वाले घाटे ने भारतीय बनियों और व्यापारियों की हिला दिया था। ऐसा युद्ध जिससे कोई मुनाफ़ा न हो उन्हें सख्त नापसंद था। ऐसा व्यापारी वर्ग ऐसे आन्दोलन को समर्थन देने के लिए तैयार था जो शीघ्र अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल दे।
आंदोलन में प्रमुख योगदान
अंग्रेजों द्वारा इस आंदोलन का क्रूर दमन किया गया। फिर भी देश के अलग-अलग हिस्सों में लंबे समय तक विद्रोह छिटपुट रूप में चलता रहा। स्वत:स्फूर्त आन्दोलन में इतना दम नहीं होता कि वह लंबे समय तक चलता रहे। आन्दोलन को लंबे समय तक चलाने के लिए आन्दोलनकारियों का संगठित होना ज़रूरी है। कुछ जगहों पर इसका नेतृत्व सोशलिस्टों ने भी किया। जयप्रकाश नारायण 9 नवम्बर, 1942 को अपने 5 साथियों (रामानंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, योगेंद्र शुक्ल, गुलाबी सोनार और शालीग्राम सिंह) के साथ हजारीबाग सेण्ट्रल जेल से फरार हो गए और एक केन्द्रीय संग्राम समिति का गठन किया।
इस आन्दोलन के दौरान ही देश में अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली, राम मनोहर लोहिया, सुचेता कृपलानी, छोटूभाई पुरानीक, बीजू पटनायक, आर.पी. गोयनका, जयप्रकाश नारायण, उषा मेहता, सुमति मुखर्जी इत्यादि जैसे नेतृत्व उभरे, जिन्होंने प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं के जेल में रहने के बावजूद आन्दोलन को दिशा दी। कई नेताओं ने भूमिगत होकर आन्दोलन को चलाया, तो कई जगह समानांतर सरकार का गठन कर साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की गयी।
जनांदोलन या व्यक्तिगत सत्याग्रह
उसी प्रकार इस आन्दोलन को गांधीवादी सत्याग्रह आन्दोलनों के चरम बिंदु के रूप में देखना भी आंशिक व्याख्या होगी। असहयोग आन्दोलन या सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तुलना में भारत छोड़ो आन्दोलन पर विस्तृत अध्ययन बहुत कम उपलब्ध है। फिर भी जो तथ्य उपलब्ध हैं, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि कांग्रेसी नेतृत्व के लिए 'भारत छोड़ो आंदोलन' कोई निर्णायक मुक्ति संघर्ष नहीं था बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर दबाव बनाकर अपनी मांगें हासिल करने का एक उपक्रम था। गांधी जी ने खुद एक व्यापक जनांदोलन की जगह इसे व्यक्तिगत सत्याग्रह की तरह चलाने की अपील की थी। यह आन्दोलन गांधीजी के अन्य आन्दोलनों से भिन्न था। इस आन्दोलन ने भारत के कुछ भागों में किसान आन्दोलन का रूप ले लिया। बिहार और संयुक्त प्रांत में किसान सभा ने आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसानों के भारी विद्रोह ने आन्दोलन को प्रचंड बनाया। कुछ विचारक (कांग्रेस एंड दि राज) तो यहाँ तक मानते हैं कि 1942 का आन्दोलन वंचित उपद्रवी तत्त्वों का आन्दोलन न होकर मूलतः किसानों का विद्रोह था।
अहिंसक आंदोलन का विध्वंसक रूप
गांधीजी का कार्यक्रम, हड़ताल करना, लोगों को स्वतंत्र नागरिक घोषित करना, विधानमंडलों से त्यागपत्र देना, शिक्षण संस्थाओं का त्याग करना, आदि पूरी तरह से वैधानिक था। लेकिन आन्दोलन गांधी जी की योजना के अनुसार नहीं चला। इसमें विध्वंसक कार्रवाइयों का समर्थन किया गया। बड़े नगरों से शुरू होकर आन्दोलन गाँव-गाँव तक फैल गया। जो विध्वंसक कार्रवाई हो रही थी, उसके प्रति लोगों को विश्वास था कि सचमुच कांग्रेस वर्किंग कमिटी की यही योजना थी। बाद में, अनेक भूमिगत गुटों ने वर्किंग कमिटी के नाम से अनेक निर्देश ज़ारी किए जिसके अधिकांश सदस्य उस समय जेल में थे।
तीन महीने तक उषा मेहता की देखरेख में एक गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया गया। मध्यमवर्गीय विद्यार्थियों ने आन्दोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आन्दोलन में श्रमिकों की भी, सीमित ही सही, भूमिका रही। इसका कारण यह था कि गांधीवादी प्रभाव के कारण पूँजी और श्रम के बीच सौहार्द्र पूर्ण संबंध बना हुआ था। ट्रेड यूनियन के नेताओं ने भी इस आन्दोलन को आगे बढाया। गुप्त राष्ट्रवादी गतिविधियों को उच्च वर्ग और उच्च सरकारी अधिकारियों का भी समर्थन प्राप्त था। ऐसे समर्थन के कारण ही आंदोलनकारी पर्याप्त प्रभावकारी अवैध ढांचा स्थापित करने में सफल रहे।
देश में राष्ट्रीयता की भावना
हाँ, यह हम मान सकते हैं कि इस आन्दोलन ने भारतीय स्वतन्त्रता की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की। भारत छोड़ो आन्दोलन ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के आक्रोश को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया। इसने अंग्रेजों के सामने यह स्पष्ट कर दिया कि देश में राष्ट्रीयता की भावना उस सीमा के पार पहुँच चुकी है, जहां पर जनता अपनी स्वतंत्रता के अधिकार के लिए बड़ी से बड़ी तकलीफें उठाने और बलिदान करने के लिए तैयार है। स्वतंत्रता के लिए भारतीय जनता की आकाश छूती आवेश को देखकर ब्रिटिश साम्राज्यवादी किस कदर घबरा गए थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने कहा 1857 के विद्रोह के बाद से अब तक का यह सबसे बड़ा विद्रोह था। यह आंदोलन पूरे देश में फैला। दो वर्षों तक संघर्ष के योद्धाओं ने त्याग, बलिदान व संघर्ष के जज्बे की अद्भुत मिसालें पेश की।
भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों को हिलाकर रख दिया। भारत छोड़ो आन्दोलन को सही मायने में एक जन-आन्दोलन माना जाता है, जिसमें लाखों आम भारतीयों ने हिस्सा लिया था। हालांकि आन्दोलन का दमन कर दिया गया, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत को इस बात का एहसास हो गया अब भारत पर शासन करना उनके लिए अत्यंत दुष्कर हो गया है। भारत छोड़ो आन्दोलन अपने मूल लक्ष्य भारत से ब्रिटिश शासन की समाप्ति को तात्कालिक रूप से प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन इस आन्दोलन ने भारत की जनता में एक ऐसी अपूर्व जागृति उत्पन्न कर दी जिससे ब्रिटेन के लिए भारत पर लम्बे समय तक शासन कर सकना सम्भव नहीं रहा। बिपिन चन्द्र भी मानते हैं, "1942 का आन्दोलन एक अर्थ में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की समाप्ति का परिचायक है। प्रश्न सिर्फ यह तय करने के समय का रह गया था कि सत्ता का हस्तांतरण किस तरीके से हो और स्वतंत्रता के बाद सरकार का स्वरूप क्या हो?" युद्ध के बाद अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में लोकमत इतना अधिक भारत के पक्ष में हो गया कि इंग्लैण्ड को विवश होकर भारत छोड़ना पड़ा। इस प्रकार यह निश्चित तथ्य है कि भारत छोड़ो आन्दोलन ने भारतीय स्वतन्त्रता की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की।
नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
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