प्रथम और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। गोलमेज परिषद में गाँधीजी की कोई भी दलील काम नहीं आई। ब्रिटिश सरकार अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई कि वह सम्मेलन का ध्यान मूल प्रश्नों से हटा दे और उसे अन्य विषयों, साम्प्रदायिक समस्याओं में उलझा दे। अपने-अपने संप्रदायों की मांगों को लेकर भारतीय प्रतिनिधि सौदेबाज़ियां कर रहे थे। लंदन में हुआ दूसरा गोलमेज सम्मेलन भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका। गाँधीजी को खाली हाथ लौटना पड़ा। इसके बाद तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन तय हुआ।
इस लेख में करियरइंडिया के विशषज्ञ द्वारा आधुनिक भारतीय इतिहास के विशेष अध्याय तृतीय गोलमेज सम्मेलन की व्याख्या की गई है। प्रतियोगी परीक्षा में हिस्सा लेने वाले उम्मीदवार अपनी सर्वश्रेष्ठ तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं।
तृतीय और अंतिम गोलमेज सम्मेलन
तीसरे और अंतिम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 17 नवम्बर 1932 से 24 दिसम्बर 1932 तक लंदन में किया गया। उस समय इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड था और भारत का सचिव सेमुअल होर। भारत का वायसराय लॉर्ड विलिंगडन था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। कांग्रेस का मानना था कि सरकार ने जो दृष्टिकोण अपनाया है, उसके कारण सम्मेलन में शामिल होने से किसी सार्थक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। अधिकांश अन्य भारतीय नेताओं ने भी इसे अनदेखा ही किया। ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने भी इसमें भाग नहीं लिया।
देशी राज्यों का संघ में विलय
इस सम्मेलन में केवल 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। ये मुख्यत: प्रतिक्रयावादी तत्त्व एवं ब्रिटिश राज भक्त थे। देशी राजाओं ने दिल्ली में एक बैठक कर यह निर्णय लिया कि उन्हें भारतीय संघ में शामिल होना तभी स्वीकार्य होगा यदि अँगरेज़ सरकार आतंरिक स्वायत्तता और राज्यों की सार्वभौमिकता का आश्वासन दे। सम्मलेन में देशी राज्यों का संघ में विलय के प्रारूप पर चर्चा की गई। रजवाड़ों की तरफ से विधान मंडल में 125 सीटों की मांग रखी गई। भारतीय नेता केवल 80 सीट देना चाहते थे। नरेशों की तरफ से यह भी मांग रखी गयी कि विधान मंडल में राजाओं द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि रहें, जबकि भारतीय नेताओं द्वारा कहा गया कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को ही मान्यता दी जाए।
असफलता के पीछे भारतीय राजाओं का बड़ा योगदान
इस मुद्दे पर दोनों में मतभेद उग्र हो गया। इस मतभेद ने अंग्रेजों को मौक़ा दिया कि वे विधान मंडल के प्रश्न पर विचार-विमर्श करना बंद कर दें। अब राजाओं ने अपने पैंतरे बदल लिए। वे ब्रिटिश नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर भारतीय नेताओं की आज़ादी हासिल करने के प्रयासों को विफल करने की योजना बनाने लगे। उन्हें अपनी मांगें मनवाने में असफलता मिली तो नरेश मंडल संघ को संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे। अंत: सम्मलेन की असफलता के पीछे भारतीय राजाओं का सबसे बड़ा योगदान था। इस सम्मेलन में भारतीयों के मूल अधिकारों की मांग की गयी। साथ ही वायसराय के अधिकारों को सीमित करने का सुझाव दिया गया। सरकार ने इन सुझावों को ठुकरा दिया। फलतः यह सम्मेलन भी विफल रहा।
सरकार की कथनी और करनी में फर्क
गोलमेज सम्मेलन में संवैधानिक प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का नाटक किया गया। सरकार की कथनी और करनी में फर्क स्पष्ट था। सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। सम्मेलन के विचार-विमर्श से जो एकमात्र प्रगति हुई वह यह थी कि कुछ अतिरिक्त सुधारों के साथ सरकार ने भारतीय विधेयक पास करने का फैसला लिया। इस विधेयक में केंद्र में संघीय शासन और प्रान्तों को पहले से अधिक स्वायत्तता देने का प्रस्ताव था।
तीनों ही सम्मेलन विफल रहे
वर्ग विशेष के हितों और सरकारी फूट डालो और राज करो नीतियों के चलते तीनों ही सम्मेलन विफल रहे। इन सम्मेलनों की विफलता के साथ-साथ साप्रंदायिकता का ज़हर देश में फैलता ही गया। संवैधानिक सुधारों के नाम पर तीनों गोलमेज सम्मलेन का नाटक ब्रिटिशों द्वारा पूर्व-रचित पटकथा के आधार पर खेला गया। भारतीय सदस्यों की एकता के अभाव का लाभ सरकार ने पूरी तरह से उठाया। तीनों ही गोल मेज सम्मेलनों से किसी भी तरह का कोई फ़ायदा किसी भी समूह को नहीं मिला।
नोट: हमें आशा है कि हमारे पाठकों और परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।