भारत की पूर्ण स्वाधीनता के लिए नेहरू रिपोर्ट का योगदान बेहद खास माना जाता है। सन् 1927 में भारतीयों को असम्मानित करने वाले साइमन आयोग के बहिष्कार के साथ उदारवादी और मुस्लिम लीग के नेता ने कांग्रेस के साथ मिलकर डोमिनियन स्टेटस का संविधान बनाने का ऐलान किया। अगस्त 1928 में लखनऊ में सर्वदलीय सम्मेलन की बैठक में संविधान के सिद्धांतों का मसौदा तैयार करने के लिए आठ सदस्यों की समिति बनाई गई, जिन्होंने इस सम्मलेन में अपना प्रतिवेदन पेश किया। इस रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
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..जब राजनीतिक दलों ने किया साइमन कमीशन का बहिष्कार
साइमन आयोग की नियुक्ति इस उद्देश्य से की गयी थी कि आयोग यह समीक्षा करेगा कि भारत अधिक सुधारों और संसदीय जनतंत्र के योग्य हुआ है या नहीं। भारतीयों को नीचा दिखाने के उद्देश्य से आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य को शामिल नहीं किया गया था। भारतवासियों ने इस आयोग को भारतीय जनता को अपमानित करने वाला एक क़दम के रूप में लिया। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया। साइमन आयोग के जवाब में सप्रू जैसे उदारवादी और मुस्लिम लीग के जिन्ना ने कांग्रेस के साथ मिलकर डोमिनियन स्टेटस का संविधान बनाने का ऐलान किया। भारत मंत्री लॉर्ड बर्किनहैड ने चुनौती दी, "भारतीय अपने लिए स्वयं एक ऐसा संविधान तैयार करें, जिसमें ऐसी व्यवस्थाएं हो, जिसे आम जनता का समर्थन प्राप्त हो, तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी।" इस चुनौती को स्वीकार कर भारतीय नेताओं ने साथ में मिल-जुलकर एक संविधान की रूपरेखा तैयार करने का निश्चय किया।
सर्व-दल सम्मेलन - भारत की वैधानिक समस्या पर विचार
संविधान की रूपरेखा तैयार करने के लिए फरवरी, 1928 में दिल्ली में सर्व-दल सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें यह निश्चय किया गया कि भारत की वैधानिक समस्या पर 'पूर्ण उत्तरदायी शासन' को आधार मानकर विचार होना चाहिए। दो महीने के भीतर सम्मेलन की 25 बैठकें हुईं।
बंबई में बैठक
19 मई 1928 को बंबई में ई.ओ. अंसारी के सभापतित्व में हुई बैठक में यह निश्चय किया गया कि भारतीय संविधान के सिद्धांतों का मसविदा तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय समिति नियुक्त की जाए, जो 1 जुलाई तक अपना रिपोर्ट दे दे। कमिटी के सदस्यों में अली इमाम, तेज बहादुर सप्रु, सुभाष चन्द्र बोस, एम.एस. अणे, सरदार मंगरू सिंह, शोएब कुरैशी तथा जी.आर. प्रधान शामिल थे।
लखनऊ सर्वदलीय सम्मेलन
अगस्त 1928 में लखनऊ में सर्वदलीय सम्मेलन की बैठक हुई। समिति ने इस सम्मलेन में अपना प्रतिवेदन पेश किया। इसे नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। इसका प्रारूप मोतीलाल नेहरू और तेजबहादुर सप्रू ने तैयार किया था।
नेहरू रिपोर्ट की सिफारिशें
नेहरू रिपोर्ट में पूर्ण स्वराज को स्थान न देकर आंशिक स्वतंत्रता की मांग की गई थी। इसमें 'पूर्ण स्वाधीनता' की बात न करके 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की बात की गई थी। इस रिपोर्ट में जिम्मेदार या लोकप्रिय सरकार की व्यवस्था थी, यानी कार्यपालिका पर जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका की सर्वोच्चता। केंद्र में द्विशासनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना का प्रस्ताव था। कार्यकारिणी को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया था। विदेशी मामलों और सुरक्षा के अलावे अन्य सभी कार्यों पर भारतीयों के नियंत्रण की बात की गयी थी। रिपोर्ट में संघीय प्रणाली और प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना का प्रस्ताव था। प्रिवी काउन्सिल को समाप्त कर समूचे भारत के लिए एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाए। नागरिकों को भाषण, अभिव्यक्ति, समाचारपत्र निकालने, सभाएं करने, संगठन बनाने का अधिकार दिया जाए। बालिग़ मताधिकार की मांग की गयी थी। जातिगत और धर्मगत भेद-भाव को मिटाने की व्यवस्था थी।
नेहरू रिपोर्ट द्वारा सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर हरेक स्थान पर संयुक्त निर्वाचक मंडलों का प्रस्ताव आया। आरक्षित सीटें या तो केन्द्र में होनी की या केवल उन प्रांतों में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे (यानी पंजाब और बंगाल में नहीं), की बात की गई थी। उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत में हिन्दुओं के लिए स्थान आरक्षण का प्रस्ताव था। सिंध को बंबई से अलग करके एक अलग प्रांत बनाया जाना था। यह तब लागू होता जब भारत को डोमिनियन स्टेटस प्राप्त हो जाता। इस एकात्मक राजनीतिक संरचना में केन्द्र के पास अवशिष्ट शक्तियां भी रहतीं। नागरिकों के मूल अधिकारों में राजा और ज़मींदारों के असीम भूमि अधिकारों को सुरक्षित रखा गया था। साथ ही इस बात की कल्पना भी की गई थी कि सर्वोच्चता भविष्य के मूलत: एकात्मक और लोकतंत्रात्मक केंद्र को हस्तांतरित कर दी जाएगी।
दिल्ली में सर्वदलीय सम्मलेन
अगस्त, 1928 में दिल्ली में सभी दलों का सम्मलेन हुआ। नेहरू रिपोर्ट पर विभिन्न दलों में मतभेद थे। देश का माहौल तो अंग्रेजों द्वारा बोए गए आपसी फूट के बीज से साम्प्रदायिक था ही। रिपोर्ट के महत्त्वपूर्ण सुझाव गौण पड गए और साम्प्रदायिक प्रश्न सबसे महत्त्वपूर्ण बन गया। मोहम्मद अली ने रिपोर्ट की आलाचेना की। जिन्ना ने केन्द्रीय धारा-सभा में एक तिहाई सीटें मुसलमानों को देने और व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था होने तक पंजाब और बंगाल में अधिक सीटें आरक्षित करने की मांग रखी। आगा खां ने भारत की स्वाधीनता के बारे में तो कुछ नहीं कहा लेकिन देश के हर प्रांत को स्वाधीनता दिए जाने की मांग की। सिखों ने भी पंजाब में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक होने के कारण विशेष प्रतिनिधित्व की मांग की। कांग्रेस को ये मांगें स्वीकार्य नहीं थी। नेहरू रिपोर्ट के चलते तनाव और विषमता खड़ी हो गई।
ऑल इंडिया मुस्लिम कांग्रेस की स्थापना
कांग्रेस की नीतियों से अप्रसन्न होकर मुहम्मद अली जिन्ना और कट्टरपंथी मुसलमान कांग्रेस से अलग हो गए। आगा खां और मुहम्मद शफी ने दिल्ली में ऑल इंडिया मुस्लिम कांग्रेस की स्थापना की। उन्होंने निश्चय किया के वे अब कांग्रेस के साथ सहयोग नहीं करेंगे। जिन्ना ने सिंध को तुरंत अलग करने, अवशिष्ट शक्तियां प्रांतों को देने, केन्द्रीय धारा-सभा में एक तिहाई सीटें मुसलमानों को देने और व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था होने तक पंजाब और बंगाल में सीटें आरक्षित करने की मांग रखी। एम.आर. जयकर ने इसका विरोध किया। कांग्रेस ने जयकर के दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया। पूर्व में जिन्ना ने संविधान की रूपरेखा तैयार करने के मुद्दे पर और संयुक्त निर्वाचक मंडल के मुद्दे को लेकर पंजाबी मुसलमानों के शफी-फज्ले-हुसैन गुट से नाता तोड लिया था और नेहरू रिपोर्ट को समर्थन दिया था। लेकिन इस बार वह समझौते के मूड में नहीं था। जिन्ना ने आरोप लगाया कि कांग्रेस अपने 1927 के वादों से मुकर गई है। जिन्ना ने असंतुष्टि प्रकट करते हुए कहा था, "हमारे रास्ते अब अलग हो गए हैं।" जिन्ना फिर से शफी गुट से जा मिला। जिन्ना ने इसके बाद मार्च 1929, में अपने "चौदह सूत्र" मांग प्रस्तुत किए और प्रांतों के गठन, केन्द्र में एक तिहाई सीटों, पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता के साथ संघात्मक ढ़ांचे और अलग निर्वाचक मंडलों की मांग को बार-बार दुहराना शुरू कर दिया।
इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना
राष्ट्रवादी मुसलमान तो नेहरू रिपोर्ट के पक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस के ही वामपंथी युवा वर्ग 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की बात से असंतुष्ट थे और 'पूर्ण स्वाधीनता' की मांग को कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य बनाना चाहते थे। इस रिपोर्ट में केन्द्र और प्रांतों में उत्तरदायी सरकारों की मांग तो की गई थी, लेकिन पूर्ण स्वाधीनता की मांग नहीं की गई थी। युवा वर्ग के दोनों तेजस्वी नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के सचिव थे, लेकिन दोनों त्यागपत्र देकर स्वतंत्र काम करने के लिए अलग हो जाना चाह रहे थे। उनके इस्तीफ़े मंजूर नहीं किए गए। जब तक इस्तीफा मंज़ूर नहीं हो जाता, तब तक इन लोगों ने कांग्रेसजनों में पूर्ण स्वाधीनता के विचारों का प्रचार करने के लिए एक भारत के लिए स्वाधीनता (इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया) लीग बना डाली।
कलकत्ता का सर्वदलीय सम्मेलन
1928 के अंत में कांग्रेस अधिवेशन कलकत्ता में आयोजित हुआ। मोतीलाल नेहरू इसके अध्यक्ष चुने गए। गांधीजी अपने रचनात्मक काम में लगे थे और कलकत्ता अधिवेशन में भाग नहीं लेने वाले थे। मोतीलाल जी को कलकत्ता अधिवेशन में युवा वर्ग द्वारा उग्र विरोध की आशंका थी। युवा वर्ग के दो तेजस्वी नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस नेहरू रिपोर्ट का सभा में खंडन करने का मन बना चुके थे। मोतीलाल नेहरू ने घोषणा कर दी कि अगर उनके विचार और सुझाव से लोगों में नाराज़गी है, तो वे अध्यक्ष की जिम्मेवारी उठाने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने गांधीजी को पत्र लिखा, "मेरे सिर पर कांटों का ताज रखकर दूर से तमाशा देखने से निर्वाह नहीं होगा। आपकी मदद की बड़ी ज़रूरत है। आप ही स्थिति संभाल सकते हैं।" गांधीजी कलकत्ता आ गए।
युवाओं की पूर्ण स्वराज की मांग
कांग्रेस सेशन में तीखी बहस हुई। उन्होंने सभी पक्षों को धैर्यपूर्वक सुना। उन्होंने बीच-बचाव करते हुए कहा कि अगर सरकार 'सांस्थानिक स्वराज' (Dominian Status) पर दो वर्षों में अमल नहीं करेगी तो स्वयं युवा वर्ग की तत्काल स्वराज की मांग में सहयोग देंगे। लेकिन युवाओं को पूर्ण स्वराज की मांग में कोई विलंब स्वीकार्य नहीं था। फिर चर्चाएं चलीं। अंत में दो वर्ष की अवधि को घटा कर एक वर्ष कर दिया गया।
नेहरू रिपोर्ट को कांग्रेस ने अनुमोदित किया। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि 31 दिसंबर, 1929 तक बरतानी हुक़ूमत को भारत को डोमिनियन स्टेटस (औपनिवेशिक स्वराज्य) दे देना चाहिए। कुछ लोग तो पूर्णस्वराज के सिवा कुछ नहीं मांग करने के पक्षधर थे, फिर भी विचार-विमर्श के बाद यह तय किया गया कि एक वर्ष के भीतर यदि ब्रिटिश गवर्नमेंट डोमिनियन स्टेटस दे देगी तो उसे मंज़ूर कर लिया जाएगा, पर यदि उसने इस मांग को 31 दिसंबर 1929 तक मंज़ूर न किया, तो कांग्रेस अपना ध्येय बदल लेगी, यानी कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन और 'पूर्ण स्वतंत्रता' घोषित कर देगी, फिर उसके बाद डोमिनियन स्टेटस मिले भी, तो उसे वह मंज़ूर नहीं करेगी।
सुभाषचंद्र बोस ने किया प्रस्ताव का विरोध
जवाहरलाल नेहरू और श्रीनिवास आयंगर ने तो इस प्रस्ताव को मान लिया, पर सुभाषचंद्र बोस ने इसका विरोध किया और पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य की तत्काल पुनरोक्ति का संशोधन प्रस्तुत किया। भरी सभा में सुभाषचंद्र बोस के संशोधन पर मतदान हुआ। गांधीजी मंच पर उपस्थित थे, और सभा के उपस्थित 973 प्रतिनिधियों ने सुभाषचंद्र बोस के संशोधन का समर्थन किया। गांधीजी का प्रस्ताव 1,350 मत से अनुमोदित हो गया।
मोतीलाल नेहरू निश्चिंत हुए, उन्होंने गांधीजी से कहा, आज आपने मेरी इज़्ज़त बचा ली। इस प्रकार कांग्रेस का आवश्यंभावी विभाजन टला। जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस सचिव पद का त्याग-पत्र वापस लिया। उन्होंने कहा, "एक साल की रियायत और विनम्र चेतावनी दे दी गई है। अगर सरकार 1929 के अंत तक औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग को पूरा न किया तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा और पूर्ण स्वराज के लिए आंदोलन छेड़ देगी।"
इरविन की घोषणा
वर्ष 1929 बड़ा हलचल भरा था। श्रमिक संगठन मज़बूती से प्रसार कर रहे थे। क्रांतिकारी आन्दोलन अपने जोर पर था। सांप्रदायिक तनाव चरम पर था। वायसराय लॉर्ड इरविन ने 31 अक्टूबर, 1929 को घोषणा की कि भारत को डोमिनियन स्टेटस दिया जाएगा। उसने गांधीजी और जिन्ना से मुलाक़ात कर इस विषय पर चर्चा भी की लेकिन यह नहीं बता सका कि औपनिवेशिक स्वराज कब से दिया जाएगा। इससे भारतीयों को काफी निराशा हुई।
लाहौर-कांग्रेस में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव
कलकत्ता-कांग्रेस ने सरकार को जो एक साल का समय दिया था, वह खत्म हो चुका था। औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग का प्रस्ताव, जो नेहरू रिपोर्ट में दी गयी न्यूनतम राष्ट्रीय मांग थी, स्वीकार नहीं किया गया और वह कालातीत हो गया। देश में बढ़ता राजनैतिक तनाव दिसम्बर आते-आते चरम पर था।
31 अक्तूबर, 1929 को 'इरविन प्रस्ताव' आया था। इसमें वायसराय ने घोषणा की थी कि डोमिनियन स्टेटस तो भारत की संवैधानिक प्रगति का 'स्वाभाविक मुद्दा' है, और वादा किया कि साइमन रिपोर्ट के प्रकाशित हो जाने पर डोमिनियन स्टेटस के मुद्दे पर एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाएगा। नई लेबर सरकार ने उसके प्रस्ताव का समर्थन किया था। 2 नवंबर को गांधीजी, मोतीलाल और मालवीय ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ शर्तों के साथ :
1. गोलमेज सम्मेलन में डोमिनियन स्टेटस के ब्योरों पर बहस हो, न कि मूल सिद्धांतों पर,
2. कांफ़्रेंस में कांग्रेस के प्रतिनिधि बहुसंख्यक हों,
3. आम माफ़ी तथा सामान्यतः मेल-मिलाप की नीति घोषित की जाए।
23 दिसंबर को गांधी-इरविन भेंट हुई। वाइसराय ने कांग्रेस की शर्तें मानने से इंकार कर दिया था। उसने इस बात का आश्वासन नहीं दिया कि गोलमेज परिषद की कार्रवाई पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य को आधार मानकर होगी। संधि-वार्ता टूट गई।
भारत को उपनिवेश राज्य का दर्ज़ा
31 दिसम्बर को कलकत्ता कांग्रेस की प्रस्तावित अवधि समाप्त हो रही थी, लेकिन वाइसराय लॉर्ड इरविन का कोई इरादा नहीं था कि भारत को उपनिवेश राज्य का दर्ज़ा देकर बादशाह जार्ज पंचम के वैभव में कमी आने दे। 1929 के अंत तक कांग्रेस के विभिन्न गुट फिर से एक हो चुके थे। वे सक्रिय होने के लिए बेचैन थे। नेतृत्व के लिए वे महात्मा गांधी की ओर देख रहे थे। कांग्रेस के इस अधिवेशन में जब गांधी जी ने खुद एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव लाकर यह स्पष्ट कर दिया कि वे ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती देने के लिए जनता का नेतृत्व करने को फिर से तैयार हैं। लोग गांधीजी द्वारा उस अधिवेशन की अध्यक्षता चाहते थे। पर गांधीजी इसके लिए तैयार नहीं थे। दस प्रांतों ने गांधीजी के लिए, पांच ने वल्लभभाई पटेल के लिए और तीन ने जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने के लिए राय दी थी।
गांधीजी का चुनाव विधिपूर्वक घोषित भी हो गया था। लेकिन उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने कहा, "अध्यक्ष के लिए आवश्यक दैनंदिन कार्यों को करने के लिए जो समय चाहिए वह मेरे पास नहीं है। जहां तक कांग्रेस की सेवा करने का प्रश्न है, उसे तो मैं बिना कोई पद ग्रहण किए भी बराबर करता रहूंगा।" प्रतिनिधियों की इच्छा थी कि यदि गांधीजी अध्यक्षता नहीं करना चाहते तो सरदार पटेल करें। लेकिन 25 सितम्बर, 1929 को लखनऊ में कांग्रेस महासमिति की बैठक में गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू का नाम पारित कर दिया। सरदार ने गांधीजी और नेहरूजी के बीच आना पसंद नहीं किया।
तुममें और मुझमें विचारों का अंतर है: गांधीजी
जवाहरलाल नेहरू का अध्यक्ष के रूप में चुनाव युवा पीढ़ी को नेतृत्व की छड़ी सौंपने का प्रतीक था। गांधीजी ने कहा था, "निस्संदेह जवाहरलाल अतिवादी हैं और वे अपने आसपास से कहीं आगे की बात सोचते हैं। लेकिन उनमें इतनी विनम्रता और व्यावहारिकता है कि वे अपनी गति को विघटन की सीमा तक नहीं बढ़ाएंगे।" अध्यक्ष पद के लिए चुने जाने पर नेहरूजी ने कहा था, "मुख्य द्वार से, यहां तक कि बगल के दरवाजे से भी नहीं, बल्कि चोर दरवाजे से पहुंचकर इस उच्च पद पर आसीन हुआ हूं।" चालीस वर्षीय नेहरूजी का अध्यक्ष पद पर चुनाव गांधीजी का सर्वोत्कृष्ट राजनैतिक कृतित्व था। हालांकि दोनों के विचारों में काफ़ी अंतर होता था, और इसे गांधीजी ने कहा भी था, "तुममें और मुझमें विचारों का अंतर इतना अधिक और उग्र है कि हम कभी एक राय हो ही नहीं सकते।"
'पूर्ण स्वराज' के प्रस्ताव को मिली मंज़ूरी
31 दिसंबर 1929 को रावी के तट पर, असह्य सर्दी के बीच हुई लाहौर की बैठक में प्रारंभिक कार्यवाही के बाद पूर्ण स्वतंत्रता वाला प्रस्ताव गांधी जी ने लाया। उपस्थित स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को अंगरेज़ सरकार के क़ब्ज़े से आज़ाद कराने का संकल्प लेते हुए 'पूर्ण स्वराज' के प्रस्ताव को मंज़ूर किया। यह भी निश्चय किया गया कि इसके लिए सत्याग्रह किया जाए। आधी रात को, जैसे ही नया वर्ष शुरू हुआ, रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वतंत्रता का झण्डा देश के युवा नेता जवाहरलाल नेहरू ने फहराया। लोगों ने "वंदेमातरम्" पूरी निष्ठा और उल्लास से झंडावंदन करते हुए गाया। 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' के नारे लगाए गए।
राष्ट्रीय आन्दोलन के कर्णधार बनें गांधीजी
इस तरह गांधीजी एक बार फिर राष्ट्रीय आन्दोलन के कर्णधार बने। कांग्रेस ने घोषणा कर दी थी कि वह 'पूर्ण स्वराज' के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ेगी। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में नेहरू ने अपने को समाजवादी बताया और राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा देने की बात कही। नेहरू ने घोषणा की, "आज हमारा सिर्फ एक लक्ष्य है, स्वाधीनता का लक्ष्य। हमारे लिए स्वाधीनता के मायने हैं ब्रिटिश आधिपत्य और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से पूर्ण स्वतंत्रता। ब्रिटिश सत्ता के सामने अब अधिक झुकना मनुष्य और ईश्वर दोनों के विरुद्ध अपराध है।"
विवादों से घिरा रहा नेहरू रिपोर्ट
नेहरू रिपोर्ट विवादों से घिरा रहा। हालांकि एक संवैधानिक ढांचे का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया राजनीतिक नेताओं द्वारा उत्साह और एकजुटता से शुरू की गई थी, लेकिन सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर मतभेद पैदा हो गए और रिपोर्ट विवादों में घिर गई। नेताओं में सहमति नहीं बन सकी। मुसलमान नेताओं के राष्ट्रीय धारा से अलग हो जाने के कारण साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न समस्या का हल देने की जगह विवाद का प्रश्न बन गया। किन्तु विवादों को अलग रख कर देखें तो यह तो मानना ही पड़ेगा कि नेहरू रिपोर्ट देश के लिए संवैधानिक ढ़ांचे का प्रारूप तैयार करने का भारतीयों का पहला बड़ा प्रयास था। इसमें केन्द्र और प्रांतों के विषयों की संपूर्ण सूची के साथ मौलिक अधिकारों का भी उल्लेख था। केंद्र और प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार की मांग की गई थी। इसमें बिना लिंग भेद के व्यस्क मताधिकार की बात उठाई गई थी। चाहे सफलता न मिली हो, लेकिन नेहरू रिपोर्ट ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या को हल करने का प्रयास तो किया।
गांधीजी ने शुरू की सत्याग्रह की तैयारी
बाद के दिनों ने स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश सरकार को नेहरू-रिपोर्ट पर अमल करने का कोई इरादा नहीं था। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रव्यापी आंदोलन ही अब एकमात्र उपाय बचा था। कलकत्ता कांग्रेस ने गांधीजी के राजनीति में लौट आने का मार्ग साफ कर दिया। कांग्रेस असहयोग आंदोलन छेड़ने को वचनबद्ध हो चुकी थी। और सभी जानते थे कि केवल गांधीजी ही ऐसे आंदोलन का संचालन कर सकते थे। 1922 में उन्हें छह साल के क़ैद की सज़ा दी गई थी। बीमारी के कारण उन्हें 1924 में ही रिहा कर दिया गया था।
मियाद से पहले रिहा कर दिया जाना गांधीजी को अच्छा नहीं लगा था। इसलिए मार्च 1928 तक वे नैतिक रूप से अपने आपको बंदी ही मान रहे थे। लेकिन अब मियाद पूरी हो चुकी थी। इसलिए सक्रिय राजनीति से लिए हुए संन्यास को राजनैतिक और वैयक्तिक दोनों ही कारणों से समाप्त घोषित कर दिया और गांधीजी ने सत्याग्रह की तैयारी शुरू कर दी। देश के कोने-कोने में जाकर जनता को जागृत करने में जुट गए। स्वराज के साथ-साथ अस्पृश्यता निवारण, मद्यनिषेध, संप्रदायिक एकता और स्त्री-शक्ति जागरण भी उनके कार्यक्रम में शामिल होता था। खादी का प्रचार-कार्य तो चलता ही रहता था। भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता दिवस की घोषणा लिखने के लिए गांधीजी लाहौर अधिवेशन के तुरंत बाद अपने आश्रम चले आए। पूरे देश में पूर्ण स्वतन्त्रता दिवस मनाने की घोषणा 26 जनवरी, 1930 को की गयी।