Explainer: कैसे शुरू हुआ 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन? जानिए आंदोलन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं

Know All About Quit India Movement: क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद देश में भारत छोड़ो का नारा गूंजने लगा एवं भारत छोड़ो आंदोलन और तेज हो गया। गाँधीजी अहिंसा के विषय पर अडिग थे। उन्होंने इस पर कोई भी समझौता ना करने का फैसला लिया था। आज के लेख में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ देश में हुए भारत छोड़ो आंदोलन की व्याख्या की जा रही है। प्रतियोगी परीक्षा के लिए उपस्थित होने वाले उम्मीदवार अपनी सर्वश्रेष्ठ तैयारी के लिए इस लेख से सहायता ले सकते हैं। भारत छोड़ो आंदोलन पर चर्चा करने से पहले यूपीएससी समेत अन्य प्रतियोगी परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों पर डालिए एक नज़र-

2021 में पूछा गया प्रश्न: जिन गांधीजी ने चौरी-चौरा में हिंसा के मुद्दे पर असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया था, उन्हीं ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान लोगों द्वारा की गयी हिंसा की भर्त्सना करने से इनकार कर दिया था। क्या आपको लगता है कि गांधीजी अहिंसा के प्रभावशाली होने के विश्वास को खो रहे थे तथा इसके पथ से अलग होने को सोच रहे थे? विशद व्याख्या कीजिए।
2019 में पूछा गया प्रश्न: भारत छोड़ो आन्दोलन को एक 'स्वतः स्फूर्त आन्दोलन' के रूप में क्यों चरित्रांकित किया गया? क्या इसने भारतीय स्वतन्त्रता की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की?
2015 में पूछा गया प्रश्न: "भारत छोड़ो आन्दोलन को 'स्वतः स्फूर्त क्रान्ति' के रूप में चित्रित करना आंशिक व्याख्या होगी, उसी प्रकार उसे गांधीवादी सत्याग्रह आन्दोलनों के चरम बिंदु के रूप में देखना भी।" स्पष्ट कीजिए।

दूसरे विश्वयुद्ध के विषय को लेकर गांधीजी का अपने साथियों से मौलिक मतभेद था। अहिंसा के प्रश्न पर वे कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। एक हिंसक युद्ध के समर्थन में किसी भी प्रकार के प्रयत्न में भागीदार बनने से उन्होंने इंकार कर दिया। क्रिप्स मिशन की असफलता से यह तो स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश सरकार युद्ध से भारत की साझेदारी को बरकरार रखना चाहती है। मिशन की विफलता से भारत में कुंठा का वातावरण गहरा गया तथा देश को विषाद और आक्रोश का शिकार बना दिया। लोगों में तत्काल कुछ करने की बेचैनी थी। गांधी जी ने क्रिप्स के प्रस्ताव में बहुत दिलचस्पी नहीं ली थी लेकिन उसकी असफलता से उन्हें भी बड़ी निराशा हुई। गांधीजी युद्ध और भारत की स्थिति पर नज़र रखे हुए थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के गहराने से आम आदमी का जीवन कठिन होता जा रहा था। ब्रिटिश सरकार को जन-भावनाओं की कोई परवाह नहीं थी। युद्ध के कारण ज़रूरी वस्तुओं की न सिर्फ़ कमी थी बल्कि क़ीमतें आसमान छू रही थीं।

Explainer: 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं

सिंगापुर और रंगून

सुरक्षा में नाम पर 'स्कार्चड अर्थ नीति' (दुश्मन के लिए उपयोगी कोई भी चीज़ हो उसे नष्ट कर दें) अपना ली गई, जिससे देश बरबादी के कगार पर आ गया था। इस नीति के तहत बंगाल और उड़ीसा की नावों को जापानियों द्वारा संभावित इस्तेमाल को रोकने के लिए सरकार ने ज़ब्त कर लिया था, जिससे लोगों को यातायात में काफ़ी परेशानियां उठानी पड़ रही थी। बाँध तोड़कर नहरों के पानी को बहा दिया गया था ताकि जापानी उन नहरों का इस्तेमाल परिवहन के लिए नहीं कर पाएं। इसके परिणामस्वरूप फलों की सिंचाई बाधित हुई और फसलें सूखने लगीं। देश की सरहद पार कर जापानी हमले के लिए तैयार थे। अंग्रेज़ सरकार इस आक्रमण को रोकने में असमर्थ थी। सिंगापुर और रंगून को अंग्रेज़ों ने जापानियों को सुपुर्द कर दिया था। कलकत्ता पर बम गिराए जाने लगे। असम सीमा से आने वाली रेलगाड़ियां घायल सिपाहियों से भरी होती थीं। लोग पूर्व और पूर्वोत्तर भारत से भाग कर कानपुर आदि में शरण ले रहे थे। जापानियों के आक्रमण का ख़तरा तो था ही, लोगों में आशंका घर कर गई थी कि कहीं इसका कोई प्रतिरोध ही न हो। ब्रिटिश शासन की स्थिरता में लोगों का विश्वास इतना कम था कि लोग बैंकों और डाकघरों से जमा राशि निकाल रहे थे।

आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना

भारतीयों के लिए सांत्वना की बात यह थी कि सुभाष चन्द्र बोस आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के साथ उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए कमर कस चुके थे। उधर जिन्ना और मुस्लिम लीग और भी ज़ोर-शोर से एक अलग मुस्लिम राज्य की मांग करने लगे थे। गांधीजी नहीं चाहते थे कि भारत को भी जापान हड़प ले। जापानियों से अगर अंग्रेज़ रक्षा नहीं कर सकते तो वे निकल जाएं। भारतवासी अपनी रक्षा ख़ुद कर लेंगे। गांधीजी को लगा कि अगर इस समय लोगों के अधैर्य को किसी प्रकार के सुनियोजित सत्याग्रह के रूप में अभिव्यक्ति नहीं दी गई तो यह अनियंत्रित हिंसा के रूप में फूट पड़ेगा। गांधीजी अब ब्रिटिश साम्राज्य से अंतिम संघर्ष के लिए तैयार हो गए। क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद और जापानियों द्वारा संभावित आक्रमण के कारण भारतीयों में निराशा और घबड़ाहट व्याप्त थी। इसको हटाने के लिए महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन को सीधे भारत छोड़ने की मांग करके अपनी मांग के समर्थन में अपना तीसरा बड़ा अहिंसक आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। उन्होंने भारतीयों के दिल में यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की कि वह ब्रिटेन पर आश्रित नहीं हैं। गांधीजी और कांग्रेस के नेता बेचैनी के साथ चाहते थे कि जो कुछ सिंगापुर, मलाया और बर्मा में घटित हुआ, भारत में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। एक एशियाई शक्ति (जापान) द्वारा एक यूरोपीय शक्ति (ब्रिटेन) की हार ने गोरों की प्रतिष्ठा को चकनाचूर कर दिया था।

भारत छोड़ो आंदोलन या अगस्त क्रांति

अंग्रेजों ने दक्षिण-पूर्व एशिया से प्रजा को उनके भाग्य पर छोड़ कर पलायन कर लिया। दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय विषयों के प्रति ब्रिटिश व्यवहार ने शासकों के नस्लवादी रवैये को उजागर किया। दो सड़कें बना दी गईं - भारतीय शरणार्थियों (कालों) के लिए काली सड़क और विशेष रूप से यूरोपीय शरणार्थियों (गोरों) के लिए सफेद सड़क। जब जनता को सैनिक आक्रमण का सामना करना पड़ा तो वह भय और आतंक का शिकार हो गई। उन्होंने संकट का चुनौती के साथ सामना नहीं किया। भारत को ऐसी स्थिति से भी बचाना चाहिए। राष्ट्रीय नेतृत्व जनता को संभावित जापानी आक्रमण के लिए तैयार करना चाहता था। गांधी जी इस नतीज़े पर पहुंचे कि भारतीय जनता के मन से इस भय को दूर भगाने और आक्रमण का मुक़ाबला करने के लिए तैयार करने का यही एक रास्ता हो सकता है कि उसके दिमाग में यह बैठा दिया जाए कि वह अपना मालिक खुद है और देश की रक्षा करना उसका दायित्व है। जनता इस विश्वास पर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती कि सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटेन की है। इसलिए गांधीजी ने जापानियों के आने के पहले ही ब्रितानी सरकार से भारत छोड़ देने और सत्ता को भारतीयों के हाथ सौंप देने की मांग के साथ एक आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई, जिसे "भारत छोड़ो आन्दोलन" या "अगस्त क्रांति" भी कहा जाता है।

वर्धा कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक

14 जुलाई, 1942 को वर्धा में कांग्रेस के कार्य समिति की बैठक हुई। इस बैठक में राष्ट्रीय मांग का मसविदा तैयार हुआ। ब्रिटेन से मांग की गयी कि ब्रिटेन फौरन सत्ता भारतीय को सौंप दे और भारत छोड़ दे। यदि ब्रिटिश-राज्य को भारत से तुरंत हटा लेने की मांग को स्वीकार नहीं किया गया, तो गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया जाएगा। जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तावित और सरदार पटेल द्वारा समर्थित, इस प्रस्ताव को अगस्त में बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक द्वारा अनुमोदित किया जाना था।

बंबई में कांग्रेस महासमिति की बैठक

वर्धा में लिए गए नीति संबंधी फैसले का अनुमोदन करने के लिए 7 अगस्त, 1942 को बंबई में कांग्रेस महासमिति की बैठक बुलाई गई। यह ऐतिहासिक सभा बंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में हुई, जिसे आज अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाता है। देश के कोने-कोने से महासमिति के सदस्य, देशी रियासतों के अनेकों कार्यकर्ता सम्मेलन में पहुंचे। उपस्थिति लगभग बीस हज़ार थी। उत्तेजना चरम पर था। सम्मेलन के अध्यक्ष मौलाना आज़ाद थे। इस बैठक में सार्वजनिक रूप से वर्धा में पारित प्रस्ताव पर विचार किया। यह एक विस्तृत प्रस्ताव था। इसमें भारत की स्वतंत्रता को स्वीकार करने की बात कही गई थी। इसमें नाज़ीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा की गई थी। साथ ही विभिन्न दलों के सहयोग से एक स्थायी सरकार के गठन का सुझाव भी रखा गया था। मुस्लिम लीग से वायदा किया गया था कि ऐसा संविधान बनेगा जिसमें भारतीय संघ में सम्मिलित इकाइयों को अधिक-से-अधिक स्वायत्तता मिलेगी और बचे हुए अधिकार उसी के पास रहेंगे। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसक एवं व्यापक जन-आंदोलन आरंभ करने का निश्चय किया गया। यह प्रस्ताव 8 अगस्त को काफ़ी रात गए पास हुआ। इसे 'अगस्त प्रस्ताव' भी कहते हैं। प्रस्ताव में कहा गया था, "भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा के साथ एक स्थायी सरकार गठित हो जाएगी और स्वतंत्र भारत संयुक्त राष्ट्र का मित्र बनेगा।"

"अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया गया था। कुछ लोगों ने 'भारत छोड़ो' नारे को निराशा, पराजय और जापानियों के स्वागत-सत्कार की नीति कहा। बहुतों ने इसे निरा पागलपन माना। ऐसे लोगों ने गांधीजी की नीतियों को ज़रा भी समझने की कोशिश नहीं की। शासकों और स्वामियों की अदला-बदली के संबंध में उन्होंने कई बार कहा था, "ब्रिटिश राज्य को किसी भी दूसरे परदेशी शासन से बदलने के लिए मैं ज़रा भी तैयार नहीं हूं। जिस दुश्मन को मैं नहीं जानता उससे तो वही दुश्मन अच्छा, जिसे मैं कम-से-कम जानता तो हूं।"

संपूर्ण स्वतंत्रता की मांग

प्रस्ताव पास होने के बाद गांधीजी ने उपस्थित प्रतिनिधियों को संबोधित किया। उन्होंने कहा, "सारी दुनिया के राष्ट्र मेरा विरोध करें और सारा भारत मुझे समझाए कि मैं ग़लती पर हूं, तो भी मैं भारत की ख़ातिर ही नहीं परन्तु सारे संसार की ख़ातिर भी इस दिशा में आगे बढूंगा।" 8 अगस्त की रात्रि को बंबई के गवालिया टैंक के मैदान में गांधीजी ने घोषणा की, "मैं तुरंत स्वतंत्रता चाहता हूं। अगर हो सके, आज ही रात, पौ फटने से पहले भारत का शासन भारतीयों के हाथों में सौंपकर यहां से चले जाओ अन्यथा तुम्हें सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र की उमड़ती हुई शक्ति का सामना करना पड़ेगा। ... मैं पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी चीज़ से संतुष्ट नहीं हो सकता ... एक मंत्र है, कोमल सा मंत्र, जो मैं आपको दे रहा हूं। उसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और अपनी सांस-सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। वह मंत्र है - 'करो या मरो'। या तो हम भारत को आज़ाद करायेंगे या इस कोशिश में अपनी जान दे देंगे। ...

"सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी न छोड़ें लेकिन कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा की घोषणा कर दें। सैनिक सेना को मत छोड़ो, लेकिन अपने देशवासियों पर गोली चलाने इंकार कर दें। राजा-महाराजा भारतीय जनता की प्रभुसत्ता स्वीकार करें और उनकी रियासतों में रहने वाली जनता अपने को भारतीय राष्ट्र का अंग मंज़ूर कर लें। किसान, अगर ज़मींदार सरकार विरोधी हैं तो आपस में तय किया गया लगान अदा करें, और अगर ज़मींदार सरकार समर्थक हैं तो लगान देने से इंकार कर दें। ज़मींदार, कर देना बंद कर दें। रियासतों की प्रजा, शासक का तभी समर्थन करें जब वह सरकार विरोधी हो और खुद को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा घोषित करें।"

कैसे बदला देश का राजनीतिक परिदृश्य

गांधीजी के भाषण का बिजली जैसा असर हुआ। भारत छोड़ो प्रस्ताव ने देश के राजनीतिक माहौल को एकदम से गरम कर दिया। गांधीजी नहीं चाहते थे कि लोग निरी कटुता और निराशा के मारे जापानी आक्रमणकारियों का स्वागत करके अपने को कलंकित करें। उनके लिए यह एक नैतिक प्रश्न था। कुछ भी हो जाए, परन्तु भारत को अपनी आत्मा नहीं खोनी चाहिए। गांधीजी ने कहा था, "मैं जानता हूं कि देश आज विशुद्ध रूप से अहिंसक प्रकार का सविनय अवज्ञा करने के लिए तैयार नहीं है। किन्तु जो सेनापति आक्रमण करने से इसलिए पीछे हटे कि उसके सिपाही तैयार नहीं हैं, वह अपने हाथों धिक्कार का पात्र बनता है। भगवान ने अहिंसा के रूप में मुझे एक अमूल्य भेंट दी है। यदि वर्तमान संकट में मैं उसका उपयोग करने में हिचकिचाऊँ, तो ईश्वर मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा।" बहुत से नेताओं का ख़्याल था कि वह अवसर ऐसी सख़्त मांग के लिए उपयुक्त नहीं था। एक तरफ़ उन्हें आतंक और अराजकता के परिणामों का और दूसरी तरफ़ जापान तथा दूसरे निर्दयी दुश्मनों द्वारा भारतीय जनता को निःसहाय दासता में जकड़ देने का भय था। राजाजी को भारत छोड़ो मांग अनुचित लगी इसलिए उन्होंने उस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया। 8 अगस्त, 1942 को उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। नेहरू के मन में घोर द्वन्द्व मचा हुआ था। एक तरफ़ चीन से उन्हें हमदर्दी थी, तो दूसरी तरफ़ ब्रिटिश साम्रज्यवाद था, जिसे वे नापसंद करते थे।

भारत की राजनैतिक सत्ता

जब वे गांधीजी से चर्चा कर रहे थे, तो उन्होंने कहा, "मैंने गांधीजी की आंखों में आवेश देखा और तभी समझ लिया कि समग्र दृष्टि से देखते हुए यह आवेश समस्त भारत का आवेश है। इस प्रचंड उत्साह के सामने छोटे-छोटे तर्क और विवाद तुच्छ और अर्थहीन बन जाते हैं।" आज़ाद के मन में भी संदेह था। उन्होंने सोचा कि अँग्रेज़ इस आन्दोलन को उभरने के पहले ही कुचल देंगे। गांधी जी भारत छोड़ो मांग पर दृढ़ थे, लेकिन समझाने-बुझाने पर उन्होंने इस बात पर रजामंदी ज़ाहिर की कि यदि राजनैतिक सत्ता फ़ौरन भारत को सौंप दी जाती है तो ब्रितानी सेनाएं भारत में रह सकती है और ऐसे अड्डे भी दिए जा सकते हैं जहां से वे अपना युद्ध संचालन कर सकें। यदि यह भी स्वीकार नहीं किया गया तो वे कांग्रेस छोड़ देंगे और "भारत की बालू से एक ऐसा आंदोलन पैदा करेंगे जो खुद कांग्रेस से भी बड़ा होगा।" गांधीजी ने असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलनों या सत्याग्रह, संगठनात्मक सुधार और सतत प्रचार अभियान के माध्यम से एक गति का निर्माण किया था। वे इस गति को इसकी परिणति तक ले जाना चाह रहे थे। कांग्रेस गांधीजी के साथ हो ली और मैदान में कूद पड़ी। लीग से सहमति के बिना इस आन्दोलन को छेडने के गांधीजी के फिसले से जिन्ना काफी नाराज़ हुआ। जिन्ना ने 'भारत छोड़ो' को आज़ादी के लिए आन्दोलन न मानकर गांधीजी और कांग्रेस की अंग्रेजों के साथ ब्लैकमेल की नीति माना।

गांधीजी ने कहा था कि आन्दोलन शुरू करने के पहले वे वायसराय को पत्र लिखेंगे और पन्द्रह दिनों के अन्दर उनकी तरफ़ से उत्तर नहीं मिला तो वे 'भारत छोड़ो' आन्दोलन शुरू करेंगे। गांधीजी ने कहा था, " 'भारत छोड़ो' कोई नारा नहीं है, बल्कि आत्म-शासन के लिए छटपटाती हुई भारतीय आत्मा की प्रबल पुकार है।" अब ब्रिटिश सत्ता के बिना किसी शर्त के भारत से हटने की बात ही भारतीय प्रश्न के निपटारे की एकमात्र शर्त हो गई। अब भारत का संविधान इंग्लैंड के बनाने की चीज़ नहीं रही, भारत-वासियों ने निश्चय कर लिया कि अब तो अपना संविधान वे स्वयं बनाएंगे। भारत की आज़ादी के लिए गांधी जी ने करो या मरो के नारे के साथ अंतिम संघर्ष शुरू करने का निश्चय किया। आजादी की लड़ाई में अब 'करो या मरो' का युग शुरू होने वाला था।

गांधीजी की गिरफ़्तारी

सरकार कांग्रेस के साथ बातचीत करने या आंदोलन के औपचारिक रूप से शुरू होने की प्रतीक्षा करने के मूड में नहीं थी। सभा से लौटकर गांधीजी ने बंबई के बिरला हाउस में प्रार्थना की। फिर सोने चले गए। गांधीजी ने वायसराय से मिलने का समय मांगा था, लेकिन वायसराय लिनलिथगो कड़े हाथ से काम लेने का फैसला किया। सरकार ने दमन की पूरी तैयारियां कर रखी थी। दमन और गिरफ़्तारी के सरकारी निर्देश ज़ारी हो चुके थे। सुबह-सुबह ही मुम्बई और देश भर में बहुत-सी गिरफ़्तारियां हुईं। 9 अगस्त, 1942 को गांधीजी को गिरफ़्तार कर लिया गया। गांधीजी ने बिरला हाउस से जेल के लिए चलने के पहले कहा था, "मेरी गिरफ़्तारी के बाद हर एक भारतवासी अपना नेता है, ऐसा समझकर अहिंसा का विचार ध्यान में रखकर आन्दोलन ज़ारी रहे। स्वाधीनता की इच्छा एवं प्रयास करने वाला प्रत्येक भारतीय स्वयं अपना मार्गदर्शक बने। प्रत्येक भारतीय आपने आपको स्वाधीन समझे। केवल जेल जाने से काम नहीं चलेगा।" शाम तक कस्तूरबा भी गिरफ़्तार थीं। गांधी जी को आगा ख़ां पैलेस पूना में बा, महादेव देसाई, श्रीमती सरोजिनी नायडू, डॉ सुशीला नय्यर, प्यारेलाल, डॉ गिल्डर और मीरा बेन के साथ नज़रबंद करके रखा गया। अंग्रेजों ने कोई रिस्क नहीं लिया। 9 अगस्त 1942 को कांग्रेस नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ़्तारी हुई।

Explainer: 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं

नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद की गिरफ़्तारी

भारत छोडो प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर नेहरूजी, सरदार पटेल और कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद भी गिरफ़्तार कर लिए गए। महात्मा गाँधी, कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, भूला भाई देसाई को गिरफ्तार कर पूना के आगा खाँ पैलेस में नजरबन्द कर दिया गया। गोविन्द बल्लभ पन्त को गिरफ्तार करके अहमदनगर के किले में रखा। जवाहरलाल नेहरू को अल्मोड़ा जेल, राजेन्द्र प्रसाद को बाँकीपुर तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद को बाँकुड़ा जेल में रखा गया। 1908 के आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम के तहत कांग्रेस कार्य समिति, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति और प्रांतीय कांग्रेस समितियों को गैरकानूनी संघ घोषित किया गया था और उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। भारत रक्षा नियमावली के नियम 56 के तहत जनसभाओं का जमावड़ा प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया। इसके विरोध में पूरे भारत में क्रांति की लहर दौड़ गई। हर जगह प्रदर्शनकारी सड़क पर थे। सभी प्रमुख नेताओं का राजनीतिक परिदृश्य से बाहर रहने के कारण, युवा अरुणा आसफ अली, जो उस समय तक अपेक्षाकृत अज्ञात थे, ने 9 अगस्त को कांग्रेस कमेटी के सत्र की अध्यक्षता की और झंडा फहराया। सारे देश में गांधीजी की जय-जयकार हो रही थी।

आंदोलन का व्यापक रूप

9 अगस्त की सुबह कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारियों की खबर जनता तक पहुँच गई। इसने देश में जन-आक्रोश की एक अभूतपूर्व और देशव्यापी लहर उत्पन्न कर दी। देश के सारे कार्यकलाप रुक गए। हर शहर और कस्बे में हड़ताल हुई। हर जगह प्रदर्शन हुए। जुलूस निकले। गिरफ्तार नेताओं के रिहाई की मांग की गई। बंबई में लाखों लोग ग्वालिया टैंक की मैदान में उमड़ पड़े। अहमदाबाद और पूना में भी यही हुआ। उत्तेजित होने के बावजूद जनता शांतिपूर्ण थी। शीर्ष नेताओं के गिरफ़्तार हो जाने के कारण आंदोलन का नेतृत्व अधिक युवा एवं संघर्षशील लोगों के हाथों में आ गया। अगले छह-सात हफ़्ते में देश भर में प्रदर्शनों और जनसभाओं का सिलसिला चलता रहा। कई लोगों ने ग़ैर-क़ानूनी ढंग से पर्चे लिखकर छपवाए और बांटे। इसमें अँग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ बग़ावत करने और गांवों में जाकर प्रतिकार को संगठित करने की अपील की गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जनांदोलन था जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे।

युवाओं को किया आकर्षित

इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। वे अपने स्कूल-कॉलेज छोड़कर सड़कों पर उतर आए और जेल का रास्ता अपनाया। देश भर के युवा कार्यकर्ता, खासकर बंगाल, बिहार, संयुक्त प्रांत और बंबई में, हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के ज़रिए आंदोलन चलाते रहे। काशी विश्वविद्यालय के छात्रों ने 'भारत छोड़ो' का संदेश फैलाने के लिए गांवों में जाने का फैसला लिया। किसान, मज़दूर और सामान्य जन भी इसमें शरीक़ हुए। बड़ी संख्या में किसान पास के कस्बे में जुटते और सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमला बोल देते। आम जनता ने सत्ता के प्रतीकों पर हमला किया, और सार्वजनिक भवनों पर जबरन राष्ट्रीय झंडे फहराए। सत्याग्रहियों ने गिरफ्तारी के लिए खुद को पेश किया, पुलों को उड़ा दिया गया, रेलवे ट्रैक हटा दिए गए और टेलीग्राफ लाइनें काट दी गईं। इस तरह की गतिविधि पूर्वी संयुक्त प्रांत और बिहार में सबसे तीव्र थी। मजदूर हड़ताल पर चले गए। अहमदाबाद में साढ़े तीन महीने तक मिल बंद रहे। यही हाल जमशेदपुर और पूना में भी रहा। अगस्त के मध्य से आंदोलन का केन्द्र ग्रामीण क्षेत्र हो गया था।

भूमिगत आंदोलन

भारत छोड़ो आंदोलन की एक अहम विशेषता थी व्यापक पैमाने पर भूमिगत आंदोलनों का संचालित होना। जैसे-जैसे सरकारी दमन व्यापक और उग्र बनता गया वैसे-वैसे अधिकाधिक कार्यकर्ता भूमिगत होने लगे। परिणामस्वरूप आंदोलन भी भूमिगत होता गया और भूमिगत आन्दोलनकारियों द्वारा विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम दिया गया। इन गतिविधियों में भाग लेने वाले समाजवादी, फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्य, गांधी आश्रमवासी, क्रांतिकारी राष्ट्रवादी और बंबई, पूना, सतारा, बड़ौदा और गुजरात, कर्नाटक, केरल, आंध्र, संयुक्त प्रांत, बिहार और दिल्ली के अन्य हिस्सों में स्थानीय संगठन थे। परिवहन व्यवस्था को निशाना बनाया जाने लगा। टेलिफोन के तार काट दिए जाते। रेल पटरियों की फ़िशप्लेट उखाड़ दिए जाते। कुछ के ख़िलाफ़ हिंसा के गंभीर अभियोग लगाए गए थे, कुछ लोगों की गिरफ़्तारी के लिए इनाम घोषित किए गए थे।

कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधी गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। जयप्रकाश नारायण भूमिगत अन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए 9 नवम्बर, 1942 को अपने 5 साथियों (रामानंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, योगेंद्र शुक्ल, गुलाबी सोनार और शालीग्राम सिंह) के साथ हजारीबाग सेण्ट्रल जेल से फरार हो गए और एक केन्द्रीय संग्राम समिति का गठन किया। उनकी गिरफ़्तारी के लिए अधिकारियों ने 10,000 रुपए का इनाम घोषित किया था। बिहार एवं नेपाल सीमा पर जयप्रकाश नारायण तथा रामानन्द मिश्रा ने समानान्तर सरकार का भी गठन किया। भूमिगत आन्दोलनकारियों को समाज के हर वर्ग के लोगों से गुप्त सहायता मिलती थी। उदाहरणार्थ, सुमति मुखर्जी जो बाद में भारत की अग्रणी महिला उद्योगपति बनीं, ने अच्युत पटवर्द्धन को बहुत आर्थिक सहायता दी। भूमिगत आन्दोलनकारियों ने गुप्त कांग्रेस रेडियो का भी संचालन किया। ऐसे ही एक गुप्त रेडियो का संचालन बंबई में उषा मेहता ने किया। इसका एक अन्य प्रसारण केन्द्र नासिक में भी था जिसका संचालन बाबू भाई करते थे। हालाँकि शीघ्र ही बाबू भाई तथा उषा मेहता पकड़े गए तथा उन्हें 4 वर्ष की सजा हुई।

समानान्तर सरकार अथवा "प्रति-सरकार" का गठन

'भारत छोड़ो' संग्राम के दौरान कांग्रेस में दो धाराएं स्पष्ट दिख रही थीं। एक वह धारा जो मुख्यतः समाजवादी विचारधारा रखते थे और खुले तौर पर कहते थे कि अहिंसा का काम अब पूरा हो गया है, तथा वे शस्त्रों के निषेध का आग्रह नहीं रखते थे। दूसरी विचारधारावाले अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास तो रखते थे, लेकिन कहते थे कि उनकी कार्य-प्रणाली में संशोधन और विकास की गुंजाइश है। वे इसे 'नव सत्याग्रह' या 'नव गांधीवाद' कहते थे। उनकी कार्य-प्रणाली में व्यापक तोड़-फोड़ और समानान्तर सरकार के गठन का समावेश था। फलस्वरूप अनेक जगहों पर अंग्रेज़ी शासन समाप्त कर समानांतर शासन स्थापित कर दी गई। सबसे पहले अगस्त 1942 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चित्तू पांडे के नेतृत्व में प्रथम समानांतर सरकार की घोषणा की गई। अपने को गांधीवादी कहने वाले चित्तू पांडे ने कलेक्टर के सारे अधिकार छीन लिए और सभी गिरफ़्तार कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया। लेकिन इनका प्रभाव ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सका।

एक सप्ताह के बाद सेना आई और स्थिति फिर पहले जैसी हो गई। बंगाल के मिदनापुर जिले के तामलुक नामक स्थान पर 17 दिसम्बर, 1942 को जातीय सरकार का गठन किया गया, जो 1944 तक चलती रही। जातीय सरकार ने चक्रवात राहत कार्य किया, स्कूलों को अनुदान स्वीकृत किया, अमीरों से गरीबों को धान की आपूर्ति की, विद्युत वाहिनी का आयोजन किया। स्थापित स्वशासित समानान्तर सरकारों में सर्वाधिक लम्बे समय तक चलने वाली सरकार सतारा की थी। यहाँ की सरकार 1943 में गठित की गई और 1945 तक चली जिसके नेता वाई बी चाह्वाण तथा नाना पाटिल थे। इस सरकार द्वारा ग्रामीण पुस्तकालयों और न्यायदान मंडलों का आयोजन किया गया, शराबबंदी अभियान चलाए गए और 'गांधी विवाह' आयोजित किए गए। ब्रिटिश सरकार का नाम-निशान कुछ समय के लिए उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र के अनेक भागों से समाप्त हो गया। बिहार के तिरहुत प्रखंड में कोई सरकार ही नहीं थी। सचिवालय गोली कांड के बाद पटना दो दिन तक बेकाबू रहा। उत्तर और मध्य बिहार के अधिकांश स्थानों पर जनता का राज स्थापित हो चुका था।

अंग्रेजों की बर्बरता पूर्वक दमन की नीति

अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी बर्बरता पूर्वक दमन की नीति अपनाते हुए सख्त रवैया अपनाया और अमानवीय दमन के द्वारा पूरी शक्ति से वार किया तथा इसे कुचलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आंसू गैस, लाठी चार्ज आदि का इस्तेमाल किया। गिरफ़्तारियां की और आंदोलन के सभी नेताओं को जेल में डाल दिया। एक रिपोर्ट के अनुसार सालभर के अन्दर लगभग एक लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया था। प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाई गई। ग्रामीणों पर सामूहिक ज़ुर्माना ठोंका गया। गांव के गांव अंगेज़ों द्वारा जला दिया गया। लोग गांव खाली कर भागने लगे। आन्दोलन के लिए सेना की सहायता ली गई। कई जगह हवाई जहाज से मशीनगनों द्वारा गोलियां चलाई गई और बम बरसाए गए। पटना में प्रदर्शनकारियों पर मशीनगन से गोलियां बरसाई गई। बंगाल में वायुयान का प्रयोग किया गया। पुलिस और सेना की गोलियों से 10 हज़ार से अधिक लोगों को मार दिया गया था। सरकार ने प्रेस पर भी हमला बोला। बहुत से अख़बार या तो बंद कर दिए गए या बंद रहे। नेशनल हेराल्ड और हरिजन तो पूरे आंदोलन के दौरान निकल ही नहीं सके। देश एक पुलिस राज्य में बदल गया। पुलिस द्वारा सैंकड़ों बलात्कार के रिपोर्ट आए। सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाना आम बात थी। गुदा में डंडा डालने जैसी यंत्रणा भी दी जाती थी। सही मायनों में अंग्रेज़ों ने आतंक का राज्य स्थापित कर दिया था।

भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध

ऐसे समय में जब लाखों लोगों ने भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहूति देने की कसम खाई थी, देश में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें 'भारत छोड़ो' की मांग पसन्द नहीं थी। अधिकांश देशी रियासतें इससे अलग रहीं। लीग और साम्यवादियों ने इस आंदोलन में भाग नहीं लिया। 1941 में रूस पर नाज़ी आक्रमण होने के बाद से साम्यवादियों ने इस युद्ध को 'जनता का युद्ध' कहना शुरू कर दिया था। ब्रिटिश सरकार ने उन पर पाबंदी हटा ली और उनका अंग्रेज़ों से समझौता हो गया था। साम्यवादियों ने 'भारत छोड़ो' आन्दोलन को विफल करने के लिए अपनी सारी शक्ति का उपयोग किया।

राजगोपालाचारी ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और कांग्रेस कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने पाकिस्तान की मांग पर लीग से बातचीत करने पर बल दिया। बाद के दिनों में वे राजनीतिक गतिरोध को सुलझाने के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग में मेल कराने की कोशिश करने लगे। उन्हें लगता था कि अगर कांग्रेस और मुस्लिम लीग में मेल हो जाए और दोनों एक ही मंच पर आ जाएं, तो स्वाधीनता की लड़ाई आसानी से जीती जा सकती है। उनकी मान्यता थी कि यदि मुस्लिम बहुमत वाले प्रान्तों के लिए मुस्लिम लीग के मांगे हुए आत्म-निर्णय के अधिकार को कांग्रेस स्वीकार कर ले, तो लीग भारतीय स्वाधीनता की मांग में कांग्रेस के साथ हो जाएगी। फिर ब्रिटिश सत्ता के लिए दोनों की सम्मिलित मांग को अस्वीकार करना संभव नहीं होगा।

मुस्लिम लीग का विरोध

राजा जी की दोनों धारणाएं ग़लत थीं। जिन्ना उस समय तक कांग्रेस के साथ कोई समझौता करने को तैयार नहीं था। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन का घोर विरोध किया। उन्हें आज़ादी क्यों नापसंद थी, यह रोचक विषय है। अंग्रेज़ शासक तो चाहते ही थे कि संप्रदायिक प्रश्न की आड़ में भारतवासियों को स्वराज की मांग को ठुकराती रहे। देश त्रिकोण में फंसा था, कांग्रेस (राष्ट्रीयता), मुस्लिम लीग (सांप्रदायिकता) और ब्रिटिश शासन (साम्राज्यवाद)। एक आर्थिक त्रिकोण भी देश में विद्यमान था, एक वर्ग अंग्रेज़ और उसके समर्थक ज़मिन्दार और सामंतवादियों का, दूसरा वर्ग मध्यम वर्ग के लोगों का था, जो अंग्रेज़ों से तो छुटकारा चाहता था, लेकिन ग़रीबों का शोषण करके अपना भरण-पोषण करता था, और तीसरा वर्ग था करोड़ों ग़रीब, मज़बूर और बेसहाय लोगों का, जो दो सौ वर्षों से अंग्रेज़ी हुक़ूमत की शोषण की चक्की में पिस रहा था। इस वर्ग का भारत छोडो आन्दोलन को भरपूर समर्थन मिला।

भारत छोड़ो आंदोलन का महत्त्व

हालांकि सरकार की बर्बर नीति ने इस आंदोलन को कुचल दिया, फिरभी इस आन्दोलन का भारतीय राष्ट्रीय संघर्ष के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस आंदोलन ने युवाओं, कृषकों, महिलाओं व मजदूर वर्ग को भी बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। भारत छोड़ो आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता थी देश के कुछ हिस्सों में समानांतर सरकारों की स्थापना। भले ही इस आंदोलन में मुस्लिम लीग ने हिस्सा नहीं लिया, लेकिन कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। यह आन्दोलन कांग्रेस के अन्य पूर्ववर्ती आंदोलनों के विपरीत कुछ हद तक हिंसक था। इसका शायद सबसे बड़ा कारण यह रहा होगा कि आंदोलन की घोषणा होते ही कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और आंदोलन की बागडोर आम जनता के हाथों में आ गई और उन्होंने अपने-अपने ढंग से इसकी विवेचना की। इस आंदोलन के 3 स्पष्ट चरण देखे जा सकते हैं। पहले चरण में यह आंदोलन मुख्यत: शहरों तक सीमित रहा। दूसरे चरण में आंदोलन का केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों तक विस्तृत हुआ। तीसरे चरण में भूमिगत गतिविधियों एवं क्रांतिकारी घटनाओं का वर्चस्व रहा। इस जनांदोलन ने देश के हर वर्ग को प्रभावित किया। कृषकों की इसमें अहम भूमिका थी।

इस आन्दोलन में युवा वर्ग की सक्रिय भागीदारी बहुत ही प्रशंसनीय थी। अरुणा आसफ़ अली और सुचेता कृपलानी ने भूमिगत रूप से संगठन का काम किया। कांग्रेस रेडियो चलाने काम उषा मेहता करती थीं। किसानों ने भी इस आंदोलन में बेहद सक्रियता दिखाई। बहुत से ज़मींदारों ने भी भारत छोड़ो की लड़ाई में हिस्सा लिया। दरभंगा के राजा तो ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ खुल कर सामने आए।

भारत छोडो आन्दोलन सफल नहीं हुआ क्योंकि बिना नेतृत्व वाली असंगठित और निहत्थी जनता साम्राज्यवादी सरकार की बड़ी शक्ति से जीत नहीं सकती थी। विफल होकर भी इस आंदोलन ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। इस आन्दोलन ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के आक्रोश और स्वतंत्र होने के संकल्प को प्रभावशाली और सुनिश्चित ढंग से व्यक्त किया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसके द्वारा आज़ादी की मांग राष्ट्रीय आंदोलन की पहली मांग बन गई। अब कोई बातचीत 'भारत छोड़ो' से कम की नहीं हो सकती थी। ब्रिटिश हुक़ूमत के विरुद्ध आंदोलन अब एक जनक्रांति का रूप ले रहा था। ब्रिटिश भी अब समझने लगे थे कि भारतीयों को दबा कर अधिक दिनों तक नहीं रखा जा सकता और भारत में उनके साम्राज्यवादी शासन के सिर्फ गिने-चुने दिन रह गए हैं।

इतिहास में 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 9 अगस्त 1942 को शुरू हुआ यह आंदोलन भारतीय इतिहास के सबसे बड़े जनान्दोलनों में से एक है। यह आन्दोलन ब्रिटिश-विरोधी जुझारूपन की दृष्टि से कांग्रेस के नेतृत्व वाले सभी पिछले आन्दोलन को पीछे छोड़ गया था। इस आन्दोलन में ब्रिटिश-विरोधी भावना इतनी प्रबल थी कि इसने आंतरिक वर्गीय तनावों और सामाजिक जुझारूपन को भी कम कर दिया था। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि निजी संपत्ति पर आक्रमण नहीं किया गया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को यह अहसास दिला दिया कि भारतीय जनता अब किसी भी स्थिति में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के अधीन रहने को तैयार नहीं है। अंग्रेजों को अहसास हो गया कि बलपूर्वक भारत में राज करने के ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के दिन लद गए हैं। उन्होंने मान लिया कि भारत से जल्द रुखसत होने में ही उनकी भलाई है। वहीं दूसरी ओर इस आंदोलन की व्यापकता, तेवर व आवेग ने उन सीमाओं व बंदिशों को भी तोड़ डाला जिसके भीतर कांग्रेस नेतृत्व आंदोलन को कैद रखना चाहता था। थानों को घेरने के पीछे भीड़ का यह विश्वास काम कर रहा था की 'अब स्वराज आ गया है'। लगभग सभी स्थानों पर मुसलमान इस आन्दोलन से अलग-थलग रहे। कम से कम यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि वे आन्दोलन के प्रति वैर-भाव रखने या ब्रिटिश समर्थक होने की अपेक्षा तटस्थ ही रहे थे। इस बात को और अधिक बल इस बात से मिलता है कि आन्दोलन के दौरान कोई बड़ी सांप्रदायिक वारदात नहीं हुई। रजवाड़ों में आन्दोलन तीव्र नहीं हुआ। इस आन्दोलन में आदिवासियों की पर्याप्त भागीदारी रही।

एक ओर तो जहां इस आन्दोलन में भारतीय जन समुदाय बहुत ही वीरता और आक्रामक प्रवृत्ति से शामिल हुई, वहीँ दूसरी ओर अंग्रेज़ों ने इसका दमन भी बहुत ही पाशविक प्रवृत्ति से किया। युद्ध की आड़ में सरकार ने अपने आपको कठोरतम क़ानूनों से लैस कर लिया था। यहां तक कि शांतिपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसके कारण सरकार के प्रति वफादारी में काफी गिरावट आई। इससे यह भी पता चलता है कि राष्ट्रवाद कितना गहरा हो चुका था। आंदोलन ने इस सच्चाई को स्थापित किया कि भारतीयों की इच्छा के बिना भारत पर शासन करना अब संभव नहीं था। इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की मांग को राष्ट्रीय आंदोलन के तत्काल एजेंडे पर रखा। भारत छोड़ो के बाद कोई वापसी नहीं हो सकती थी।

नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख यहां पढ़ सकते हैं।

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