भाग 2 में दांडी यात्रा शुरू होने से लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन के विस्तार तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। भाग 3 में नमक सत्याग्रह आन्दोलन के बाद अंग्रेजों के अत्याचार का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस लेख में अंग्रेज़ों द्वारा नमक सत्याग्रहियों का जोरदार दमन किया गया। इतना ही नहीं इस बीच 'बांटो और राज करो' की नीति को सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति के द्वारा और अधिक व्यापक करने की कोशिश की गई। अगर आप भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं और नमक सत्याग्रह का वर्णन विस्तार से समझना चाहते हैं, तो इस लेख से सहायता ले सकते हैं। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा इस लेख की प्रस्तुति की जा रही है।
अंग्रेज़ों द्वारा दमन ज़ारी रहा
30 जून को सरकार ने मोतीलाल नेहरू को गिरफ़्तार कर लिया। कांग्रेस की कार्यकारी समिति को अवैध संस्था घोषित कर दिया गया। हज़ारों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। प्रेस अध्यादेश के तहत 67 समाचारपत्र और 55 छापाखानों को बंद कर दिया गया। नवजीवन प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया। 'बांटो और राज करो' की नीति को सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति के द्वारा और अधिक व्यापक करने की कोशिश की गई। इसके विरोध करने के ज़ुर्म में मालवीय और एनी बेसैन्ट को जेल में डाल दिया गया। अक्तूबर से दमन को और तेज़ कर दिया गया। पश्चिमोत्तर प्रांत में लाल कुरता और फ़्रंटीयर यूथ लीग को क्रूर दमन का सामना करना पड़ा। स्थानीय जनता ने पुलिस की गाड़ियों पर हमला बोल दिया। गढ़वाल राइफल्स के दो प्लाटूनों ने भीड़ पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। उनका कोर्ट मार्शल हुआ। प्रांत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। निहत्थे लोगों की जान ली गई। कई जगहों पर बम भी गिराए गए।
आंदोलन अब अपनी दिशा बदल रहा था
चटगांव, पेशावर और शोलापुर में हिंसक घटनाएं हुईं। इसके बावज़ूद गांधीजी ने आंदोलन वापस लेने की बात नहीं की। वस्तुतः नमक सत्याग्रह शुरू करने के पहले ही उन्होंने एक लेख में कहा था, "अब मैं रास्ता जान गया हूं, जो बारदोली की भांति पीछे हटने का रास्ता नहीं है, बल्कि अहिंसक मुख्य धारा को लेकर आगे बढ़ते जाने का रास्ता है।" इस बार गांधीजी में अधिक जुझारूपन दिखाई दे रहा था, "इस बार जो सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ है, उसे रोका नहीं जा सकता और रोका नहीं जाना चाहिए ...।" इस बार घोषित लक्ष्य था - पूर्ण स्वाधीनता, न कि भूलों का परिमार्जन। इसमें विदेशी शासन के साथ केवल असहयोग ही नहीं था, बल्कि क़ानून का सायास उल्लंघन भी था। इसलिए छिटपुट हिंसक घटनाएं होना स्वाभाविक था और कांग्रेस में उन्हें व्यावहारिक रूप से कमोबेश अपरिहार्य स्वीकार कर लिया गया था। क़ानून के उल्लंघन करने के कारण जेल जाने वालों की संख्या में तीन गुना अधिक बढोत्तरी हुई। सरकार डरी हुई थी। उसने गांधीजी की गिरफ़्तारी के बाद पूरी तरह से शांत सत्याग्रहियों पर भी नृशंस अत्याचार करना शुरू कर दिया था। आंदोलन अब अपनी दिशा बदल रहा था।
गांव में आंदोलन के शुद्ध गांधीवादी रुख देखने को मिले
सितंबर 1930 के बाद शहरी व्यापारियों के उत्साह और समर्थन में कमी आई। हड़ताल आदि से परेशान व्यापारी समूह समझौते की मांग कर रहे थे। राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिक्रिया उनके हक़ में नहीं थी। बार-बार की हड़ताल व्यापार और उद्योग को अस्त-व्यस्त कर देती थी। इससे अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। व्यापारियों ने मांग की थी कि गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार न किया जाए। ठाकुरदास ने मोतीलाल को आगाह किया था, व्यापारी समुदाय की सहनशक्ति सीमा पार करने वाली है। गांवों में आंदोलन के शुद्ध गांधीवादी रुख देखने को मिल रहे थे। ये आंदोलन अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध किसानों पर आधारित थे। ब्रिटिश अधिकारी उनके ख़िलाफ़ कुर्की की नीति अपनाए हुए थे। निर्ममता से किए गए ज़मीन-जायदाद की कुर्की ने उनकी शक्ति को क्षीण करना शुरू कर दिया था।
उधर लगान की ना-अदायगी के रूप में जगह-जगह आदिवासी विद्रोह देखने को मिल रहा था। ये विद्रोह अनियंत्रित हो गए थे और ख़तरनाक रूप धारण करते जा रहे थे। पश्चिमी घाट के कोल और मध्यप्रांत के गोंड द्वारा किया गया वन-सत्याग्रह अब गांधीवादी सीमाओं से बहुत बाहर जा चुका था। वे पुलिस चौकियों पर आक्रमण कर रहे थे। अनिधिकृत रूप से वे बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई कर रहे थे। जगह-जगह किसान अपने नेताओं की गिरफ़्तारी और अपनी संपत्ति की ज़ब्ती का विरोध शंख बजाकर करते तथा अन्य गांवों के लोगों को इकट्ठा कर पुलिस दलों पर आक्रमण करते।
मध्यस्थता के प्रयत्न
सरकारी कार्यालयों में अधिकाँश भारतीयों द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण काम ठप्प पडा था। राजस्व बड़ी तेज़ी से घटता जा रहा था। जेलें भरी पडी थीं। चूंकि सिर्फ़ दमनात्मक कार्रवाई से वास्तविक समस्या का हल नहीं हो सकता था, इसलिए बातचीत का मार्ग प्रशस्त हुआ। 9 जुलाई को वायसराय ने राज्य परिषद और विधान मंडल के संयुक्त अधिवेशन में कहा, हमारे लिए यह संभव होना चाहिए कि हम ऐसे मान्य हल तक पहुंचे जहां दोनों देशों तथा सभी पार्टियों के हितों का पर्याप्त ध्यान रखा गया हो! डोमिनियन स्टेटस देने का हमारा वादा पहले की तरह क़ायम है।
जुलाई-अगस्त 1930 में सप्रू और एम.आर. जयकर को कांग्रेस व सरकार के बीच शांति समझौते के लिए बातचीत करने के लिए अधिकृत किया गया। वायसराय ने गांधीजी, मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के साथ जेल में 'डेली हेराल्ड' के संवाददाता जार्ज स्लोकोंब, माडरेट नेता सप्रू और जयकर द्वारा बातचीत करना न सिर्फ़ स्वीकार कर लिया। सरकारी दमन के कारण उस समय भारत की जो स्थिति थी उसने जार्ज स्लोकोंब को इतनी पीड़ा पहुंचाई थी कि वह समझौते के प्रयत्नों में लग गया था।
सविनय अवज्ञा को वापस लेने पर मदभेद
सबसे पहले इस दल ने मोतीलाल नेहरू से बात की। बातचीत से उन्हें ऐसा आभास मिला कि कुछ शर्तों पर कांग्रेस सविनय अवज्ञा को वापस लेने पर राज़ी हो सकती है। लेकिन मोतीलाल शीघ्र ही गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें नैनी जेल में जवाहरलाल नेहरू के पास भेज दिया गया। 27 जुलाई को नैनी जेल में मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के साथ बातचीत हुई। गांधीजी से सलाह किए बिना पिता-पुत्र दोनों ने कुछ कहने में असमर्थता प्रकट की। उन्हें एक स्पेशल ट्रेन के द्वारा पूना लाया गया और वहां से मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू को यरवदा जेल लाया गया। वहां 13 से 15 अगस्त तक इनकी गांधीजी से बातचीत हुई।
गांधीजी और नेहरू पिता-पुत्र के द्वारा संयुक्त हस्ताक्षरित पत्र
इसके बाद गांधीजी और नेहरू पिता-पुत्र के द्वारा संयुक्त हस्ताक्षरित पत्र द्वारा कहा गया, हम इस स्थिति में नहीं हैं कि कांग्रेस की कार्यकारी समिति की समुचित रूप से हुई बैठक के बिना कुछ भी अधिकृत रूप से कहें, लेकिन व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए कोई भी हल तब तक संतोषप्रद नहीं होगा जब तक कि, यह भारत का ब्रिटिश साम्राज्य से अपनी इच्छा से अलग होने के अधिकार को स्पष्ट शब्दों में मान्यता नहीं देता, दूसरे पूर्ण राष्ट्रीय सरकार, जो अपनी जनता के प्रति उत्तरदायी हो और सुरक्षा बलों व आर्थिक तंत्र पर उसका पूर्ण अधिकार हो तथा इसके साथ ही इसमें गांधीजी द्वारा वायसराय के साथ उठाए गए ग्यारह बिंदु भी शामिल हों, को यह पूर्ण मान्यता नहीं देता, और तीसरे यह भारत के उस अधिकार को मान्य नहीं कर लेता जिसके तहत वह उन मुद्दों को लेकर एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण तक जा सके जो ब्रिटिश सरकार पर थोपे गए हों, जैसे तथाकथित सार्वजनिक क़र्ज़, जिन्हें राष्ट्रीय सरकार अन्यायपूर्ण अथवा, भारतीय लोगों के अहित में समझती हो।
समझौते प्रयत्नों पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया
समझौते के प्रयत्नों पर कांग्रेस की जो प्रतिक्रिया हुई उससे यह बात बिल्कुल साफ हो गई कि कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच की खाई बहुत चौड़ी हो चुकी है। वायसराय ने जवाब दिया, "मैं पत्र में उल्लिखित प्रस्तावों के आधार पर विचार-विमर्श को असंभव मानता हूं।" इंग्लैंड में विन्स्टन चर्चिल ने कहा, "भारत को वकीलों, राजनीतिज्ञों, हठधर्मियों और लोभी व्यापारियों के अल्पतंत्र के हवाले नहीं किया जा सकता। हमारा इरादा लाफी लंबे और अनिश्चित काल तक भारत पर हुमूमत करने का है। अराजकता और राजद्रोह कतई बर्दास्त नहीं किया जाएगा।" रैमजे मैकडोनाल्ड की मज़दूर सरकार लिबरलों के समर्थन पर टिकी थी। इसलिए कोई अलग कदम वह उठा नहीं सकती थी। इसलिए यह निश्चय किया गया कि गांधीजी के आंदोलन को कुचल दिया जाएगा और सरकारी दमन-चक्र को और तेज़ किया जाएगा।
प्रभाव और उपसंहार
नमक सत्याग्रह का नाम सुन गांधीजी का बहुत से आलोचकों ने मज़ाक़ उड़ाया था। देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम की योजना में नमक आन्दोलन का महत्व लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। अधिकांश लोग इस बात का उपहास करने लगे कि नमक भी कोई सत्याग्रह की चीज़ है! आने वाली घटनाओं ने दिखा दिया कि नमक और स्वराज्य के बीच पारस्परिक सम्बन्ध है। इस सत्याग्रह से भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए संगठित करने की गांधीजी की कुशलता उभर कर सामने आई। गांधीजी ने नमक के द्वारा जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों को स्वराज्य के मुद्दे से जोड़ा वहीं दूसरी तरफ़ शहरी लोगों का भी इसके प्रति समर्थन प्राप्त किया। नमक के मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श को गांवों के ग़रीबों की शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक अवसर दिया कि वे अपनी सहायता ख़ुद करते हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के नगरीय समर्थकों को इसका मौक़ा मिला कि वे प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों से स्वयं को एकाकार कर सकें।
नमक सत्याग्रह की सफलता
नमक सत्याग्रह की सफलता को देखकर जिन लोगों ने गांधी जी पर संदेश किया था और उनका उपहास किया था, लज्जित थे। नेहरू जी लिखते हैं, "हमें इस बात पर लज्जा आई कि जब गांधी जी ने पहले-पहल नमक बनाकर नमक-क़ानून को भंग करने का प्रस्ताव रखा था तो हमने उनकी कार्य-क्षमता पर शंका प्रकट की थी। आज हम उनके जनता को प्रभावित करने और उससे संगठित रूप से काम कराने के आश्चर्यजनक कौशल को देखकर स्तंभित रह गए।"
दुनिया भर में प्रचार मिला नमक यात्रा को
नमक यात्रा को दुनिया भर में प्रचार मिला। प्रेस की सुर्ख़ियों में जगह मिली और उसकी तस्वीरें प्रकाशित की गईं। नमक यात्रा के कारण महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। 'न्यूफ़्रीमैन' का अमरीकी संवाददाता वैब मिलर ने नृशंस लाठीचार्ज का आंखों देखा वर्णन इस तरह किया थाः "अठारह वर्ष़ों से मैं दुनिया के बाइस देशों में संवाददाता का काम कर चुका हूं, लेकिन जैसा हृदय-विदारक दृश्य मैंने धरसाना में देखा, वैसा और कहर देखने को नहीं मिला। घायलों की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था। कई लोगों की मौत हो गई। कभी-कभी तो दृश्य इतना लोमहर्षक और दर्दनाक हो जाता कि मैं देख भी नहीं पाता और मुझे कुछ क्षणों के लिए आंखें बन्द कर लेनी पड़ती थी। स्वयंसेवकों का अनुशासन कमाल का था। गांधीजी की अहिंसा को उन्होंने रोम-रोम में बसा लिया था"। मिलर की रिपोर्ट युनाइटेड प्रेस के तहत जब विश्वभर के 1350 से अधिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई, तो सनसनी फैल गई।
सत्याग्रह की रणनीति आंकने में बिफल रही ब्रिटिश सरकार
यह कांग्रेस की रणनीति की भारी जीत साबित हुई। ब्रिटिश सरकार नमक सत्याग्रह की रणनीति का महत्त्व आंकने में बुरी तरह विफल रही। नमक राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। लोग नमक बनाने के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि उसके जरिए वे यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। लार्ड इरविन ने दमन की व्यर्थता महसूस की। उसने दिसम्बर में कलकत्ता में कहा, "हालाकि मैं सविनय अवज्ञा की ज़ोरदार ढंग से निन्दा करता हूं, फिरभी यह हमारी भयंकर भूल होगी कि राष्ट्रवाद के शक्तिशाली आशय को कम करके आंके। सरकार के कठोर कदमों से न तो कोई पूर्ण व स्थायी हल निकाला जा सका है और न शायद कभी निकाला जा सकेगा।"
यह एक ऐसा सफल आंदोलन था जिसने न सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया था। पनामा के भारतीय व्यापारियों ने 24 घंटे के लिए अपना काम ठप्प कर दिया। सुमात्रा में भी ऐसा ही हुआ। नैरोबी में भारतीयों ने दुकानें बन्द कर दी। अमेरिका से 102 पादरियों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक तार भेजा कि गांधीजी और भारतीयों के साथ मैत्रीपूर्ण फैसला कर लेना चाहिए।
सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त
संगठनात्मक अनुशासन ने इसे अधिक प्रभावी बनाया। इस आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त है, जो हिंसात्मक कार्रवाई को भी झुका सकती है। इस आंदोलन ने यह भी दिखा दिया कि क़ुर्बानी के लिए देश की जनता तैयार है और आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रना हर देशवासी का धर्म है। सबसे बड़ी बात थी, नमक आन्दोलन का अनुशासित ढंग से संपन्न होना, जो सम्पूर्ण सत्याग्रह की एक महान सफलता थी। अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। जैसे-जैसे सत्याग्रहियों का दल आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे देश में उत्तेजना फैलती गई।
नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष
गाँधी जी का नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी की इस यात्रा की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के रोम मार्च से की थी। अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1930 में महात्मा गांधी की अगुआई में दांडी यात्रा के दौरान किए गए 'नमक सत्याग्रह' को दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली दस आंदोलनों में की सूची में अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाने वाली 'बोस्टन चाय पार्टी' के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।
नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधीजी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए जैसे शरीर और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जननेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। उसी टाइम पत्रिका ने गांधी जो को 1930 का सर्वश्रेष्ठ मानव घोषित किया।
जुझारू आंदोलनों को उभरने का मिला मौक़ा
नमक सत्याग्रह के कारण सारे देश में, बड़े शहरों के निम्न मध्यमवर्ग के लोगों में, उत्साह की एक तीव्र लहर दौड़ गई। गिरफ़्तारियों के दौर के बाद नाम वाले नेताओं के नेतृत्व के रंगमंच से हट जाने के बाद नीचे से होने वाले जुझारू आंदोलनों को भी उभरने का मौक़ा मिला। व्यापारी वर्ग और किसानों का भारी समर्थन इस आन्दोलन को मिला। पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गाँधी जी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिए थे। गांधीजी जिस-जिस राह से गुजरते, वहां के ग्राम अधिकारी अपने पदों से त्यागपत्र देने लगे थे। असहयोग आन्दोलन की तरह अधिकॄत रूप से स्वीकॄत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में फैक्ट्री कामगार हड़ताल पर चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नमक
इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। गांधी जी की जनता में प्रेरणा भरने की इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने भांप लिया था और कहा था, "इनमें मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों का निर्माण करने की शक्ति है।" अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नमक जैसे इस प्रतीकात्मक विरोध मार्च ने भारत में विदेशी हुक़ूमत के पतन का भावनात्मक और नैतिक आधार दिया। राष्ट्रीय उद्देश्य को पाने के लिए एक कार्य-प्रणाली के रूप में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा आंदोलन की उपयोगिता पर अब किसी को संदेह नहीं रह गया था। यह गांधी जी के ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के प्रहार को अहिंसात्मक सत्याग्रह से नाकाम बना गए। लोगों में यह विश्वास जड़ जमा चुका था कि वे विजय की ओर कदम बढ़ा चुके हैं।
क़रीब एक लाख सत्याग्रही, जिनमें 17,000 महिलाएं थीं, जेल में थे। स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार कर छात्र भी स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे थे। प्रशासन करीब-क़रीब ठप्प पड़ गया था। जिस वायसराय ने गांधीजी की चुटकी भर नमक से सरकार को परेशान कर देने की योजना की हंसी उड़ाई थी, अब महसूस करने लगे थे कि स्थिति पर उनका नियंत्रण खो चुका है। फरवरी 1931 में इरविन ने गांधीजी के सामने स्वीकार किया था, "आपने तो नमक के मुद्दे को लेकर अच्छी रणनीति तैयार की है।" उधर देश के लोगों के मन में यह आशा बंध चली थी कि अहिंसात्मक मार्ग ही हमें स्वराज्य की ओर ले जाएगा।
स्त्रियों और किशोरों का शामिल होना आंदोलन की एक बड़ी विशेषता
हालांकि सिविल नाफ़रमानी के इस पूरे आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी कम रही लेकिन स्त्रियों और किशोरों का शामिल होना इसकी एक बड़ी विशेषता थी। यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। वे धरना देतीं, जुलूसों और प्रदर्शनों में शामिल होतीं, क़ानून तोड़तीं और जेल जातीं। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़तारी दी थी। नागरिक अवज्ञा आंदोलन ने बड़े पैमाने पर भारतीय स्त्रियों को सामजिक मुक्ति दिलाने का महान कार्य किया। आंदोलन का यह एक सकारात्मक पहलू था। 75 वर्षों के सामाजिक सुधार के आंदोलन को भारतीय स्त्रियों को मुक्त करा पाने में जो सफलता नहीं मिली थी, वह इस आंदोलन ने हफ़्तों में प्राप्त कर ली।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रत्यक्ष और परोक्ष
वायसराय ने इस गतिविधियों को प्रभावहीन करने के लिए कठोर अध्यादेश ज़ारी किए। उसने दमन का खुला परवाना दे दिया था। लेकिन आंदोलन धीमा नहीं पड़ा। उद्योगपति वर्ग ने स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी नीतियों के प्रति आक्रोश प्रकट किया और सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मदद पहुंचाई। बंबई की धारासभा से बहिर्गमन करते हुए घनश्यामदास बिड़ला ने घोषणा की थी "भविष्य में किसी भी संरक्षण की अपेक्षा करना पत्थर की दीवार से टकराना होगा।" उन्होंने आंदोलन के लिए पांच लाख रुपयों का चंदा दिया। ठाकुरदास ने कलकत्ता के व्यापारियों को राज़ी कर लिया कि विदेशी कपड़ों का आयात नहीं किया जाएगा। जमनालाल बजाज ने बंबई और अहमादाबाद के कपड़ा मिलों से कपड़ा खरीदे जाने के प्रयासों को बल दिया।
विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार
डी.पी. खेतान ने कलकत्ता में घोषणा की, "जब तक भारत स्वायत्त शासन प्राप्त नहीं कर लेता, उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता।" इन सब प्रयासों से विदेशी कपड़ों के आयात में भारी कमी आई। विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार किया गया। अनेकों लोग आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे। अधिकतर भारतीय दुकानदारों ने भी सहयोग किया और विदेशी वस्त्रों का व्यापार पूरी तरह बंद कर दिया। परिणामस्वरूप कपास से निर्मित्त कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आई। बंबई के ब्रिटिश स्वामित्व वाली 16 मिलों का कारोबार बंद हो गया। भारतीय स्वामित्व वाली कंपनी के कारोबार में दुगुनी वृद्धि हुई। खद्दर के उत्पादन में 63 लाख गज से 113 लाख गज की बढ़ोत्तरी हुई। 1929 में 384 खादी भंडारों की तुलना में 1930 में यह संख्या 600 हो गई। इस प्रकार स्वदेशी आन्दोलन ने भारतीय उद्योग की सहायता की।
क़ानून और व्यवस्था के प्रति भयंकर उपेक्षा
दांडी यात्रा से एक चिंगारी भड़की जो सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गई। इसने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष और स्वयं गांधी जी को पारिभाषित किया। इस यात्रा ने देश की चेतना को झकझोर दिया इस यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में बापू के समर्थक उनके साथ जुड़ गए। गांधी जी की दांडी-यात्रा के साथ-साथ देशवासियों में आमतौर पर राष्ट्रीय चेतना की एक बिजली दौड़ गई। इस आंदोलन ने जनसाधारण के मन में क़ानून और व्यवस्था के प्रति भयंकर उपेक्षा का भाव पैदा किया। लोगों के दिल में साम्राज्यविरोधी भावना मज़बूत हुई। यह एक अनोखा अहिंसक संघर्ष था, जिसमें पुलिस और कांग्रेस के स्वयंसेवकों के बीच एक प्रतिद्वन्दिता चल रही थी कि वह कितनी चोट पहुंचा सकती है और वे कितना सहन कर सकते हैं।
सविनय अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन
नमक सत्याग्रह एक सफल सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। लेकिन इसकी सफलता में साम्राज्यवादियों की हुई आर्थिक नुकसान का आंकलन किए बिना कई विचारकों ने तो यहां तक कह डाला, "सविनय अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन रूप देखने को मिला, जिससे जनसाधारण को बहुत ही मामूली आर्थिक लाभ मिला"। दक्षिण अफ़्रीका से लेकर भारत तक में विदेशी शासन के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए सभी सत्याग्रह आंदोलनों में नमक सत्याग्रह, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दमन, शोषण व अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रतिरोध का सबसे दमदार व सटीक उदाहरण है। गांधी जी की अद्भुत कार्यशैली ने साबित किया कि नमक के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा अकेले ही समूचे राष्ट्र को आंदोलित व स्पंदित कर उसे 'पूर्ण स्वराज' की प्राप्ति के रास्ते पर अग्रसर कर सकता है। सविनय अवज्ञा का पहला दौर अप्रैल से अक्तूबर तक चला। शहर ही नहीं गावों तक भी यह फैला। धरना और बहिष्कार इसके प्रमुख अंग थे। पूरी शालीनता और अहिंसा के साथ लोग अनुशासित कतारों में बैठ जाते और सरकारी आदेशों के बावज़ूद टस से मस नहीं होते। घुड़सवार पुलिस घोड़ा दौड़ाते हुए आती और लोग घुटनों में सिर रख कर हमले का इंतज़ार कारते। भीड़ को बिखेर पाने में पुलिस असमर्थ हो जाती। पुलिस जब भी हिंसा का प्रयोग करती, सत्याग्रहियों का जन समर्थन और बढ़ जाता। पुलिस हमले से सैंकड़ो यदि घायल होते, तो धरने में शामिल होने के लिए हज़ारो नए लोग आ जाते।
पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930
भारत पर ब्रिटेन की लंबे समय तक चली हुक़ूमत कई मायने में चाय, कपड़ा और यहां तक कि नमक जैसी वस्तुओं पर एकाधिकार क़ायम करने से हुई। बहिष्कार के कारण कलकत्ता, भागलपुर, दिल्ली, अमृतसर और बंबई की विदेशी कपड़ों की मंडियां लगभग ठप्प हो गई थीं। परिणामस्वरूप ब्रिटिश कपड़ों का आयात, जो 1929 में 2 करोड़ 60 लाख पौंड का था, घट कर 1930 में 1 करोड़ 37 लाख पौंड का रह गया। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का प्रभाव इंग्लैंड का कपड़ा उद्योग पर साफ दिखने लगा था। क़रीब न के बराबर कपड़ा भारत में बिक रहा था। लंकाशायर की कई मिलें बन्द पड़ी थीं। अब जब ये मिलें बंद पडी थीं तो लोग कहाँ का वस्त्र और सूतों का उपयोग करते थे? निश्चित रूप से स्थानीय मज़दूरों और कृषकों के द्वारा बनाए गए वस्त्र और उगाए गए कपास का। इसका लाभ देश के मज़दूरों, किसानों और व्यापारियों को हो रहा था।
सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई।