Bharatiya Rashtravad ke Janm ke Karak: ब्रिटिश सरकार की नीतियों को भारत में राष्ट्रवाद के जन्म के लिए उत्प्रेरक माना जाता है। ब्रिटिश सरकार के शासन और नीतियों के विरोध में ही भारतीय राजनीतिक एकता स्थापित हुई। आज यहां भारत में राष्ट्रवाद के जन्म के कारकों की विस्तृत चर्चा की जा रही है।
देश में आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षा में भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म पर अक्सर प्रश्न पूछे जाते हैं। इस विषय से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पूरा लेख अवश्य पढ़ें। नीचे बीते वर्ष पूछे गये प्रश्न का उल्लेख किया जा रहा है।
वर्ष 2021 में प्रतियोगी परीक्षा में पूछा गया प्रश्न: औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में राष्ट्रवाद ने किन विभिन्न तरीकों से अपने आपको प्रकट किया?
ऐसा जन समूह जो एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बंधने की चाहत तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों, राष्ट्र कहलाता है। राष्ट्रीयता किसी व्यक्ति और किसी संप्रभु राज्य (देश) के बीच के क़ानूनी सम्बन्ध को कहते हैं। राष्ट्रीयता की भावना राष्ट्रवाद कहलाता है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पायी जाने वाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है। एक लंबी अवधि तक भारत एक राष्ट्र न होकर बहुत से राज्यों के रूप में था। कई बार इस उपमहाद्वीप का बहुत बड़ा भाग एक साम्राज्य के अधीन रहा। 1757 में यहाँ ब्रितानी शासन का प्रारंभ हुआ।
भारत में ब्रितानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष का विकास 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। 1857 के विद्रोह के बाद भारत में राष्ट्रीयता की भावना का तेज़ी से विकास हुआ। यह संघर्ष भारतीय जनता और ब्रितानी शासकों के हितों की टक्कर का परिणाम था। जैसा कि बिपन चन्द्र कहते हैं, "ब्रितानी शासन और भारत पर उसके प्रभाव ने यहाँ की जनता को एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने तथा एक शक्तिशाली साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन को उभरने की परिस्थिति पैदा की।" 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद राष्ट्रवाद का तेज़ी से विकास हुआ और कांग्रेस के नेतृत्व में विदेशी गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्ष चलाया गया और भारत को आज़ादी मिली।
भारत में राष्ट्रीयता के विकास के लिए कारण
भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और विकास को पारंपरिक रूप से ब्रिटिश राज की नीतियों पर भारतीय प्रतिक्रिया के रूप में समझाया गया है। सही भी है कि भारतीय राष्ट्रवाद आंशिक रूप से औपनिवेशिक नीतियों के परिणामस्वरूप और आंशिक रूप से औपनिवेशिक नीतियों की प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ। कुछ लोग भारतीय राष्ट्रवाद को एक आधुनिक तत्त्व मानते हैं। राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल रही है। अंग्रेजों के आने से पहले देश में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो संसार के अन्य देशों अलग थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाला देश था।
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना में अधिक कठिनाई से हुआ है। फिर भी यदि हम भारत के इतिहास पर गौर करें तो पाते हैं कि भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है। ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नये विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला और इन विचारों एवं व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के उत्पाद के रूप में भारतीय राष्ट्रवाद को देखना अधिक सही होगा।
1. ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष: ब्रिटिश सरकार की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों से भारतीयों को यह विश्वास दृढ़ हुआ कि भारत की दुर्दशा के लिए अँग्रेज़ ही उत्तरदायी हैं। अंग्रेजों के रहते भारत का विकास नहीं हो सकता। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत का शोषण करना है। अंग्रेजों की नीतियाँ भारत के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। इन सबके कारण देश में असंतोष व्याप्त हुआ। औपनिवेशिक शासन के चरित्र और नीतियों में निहित इन अंतर्विरोधों को चुनौती देने के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन का उदय हुआ।
2. अंग्रेजी शासन भारत के लिए अभिशाप: हालाकि देशी राजाओं, ज़मींदारों और महाजन तो ब्रिटिश शासन को वरदान मानते थे, लेकिन पूरा भारतीय समाज अंग्रेजों की नीतियों से क्षुब्ध था और उनके शासन को अभिशाप मनाता था। 1857 के विद्रोह के बाद देश के नेताओं को लगने लगा कि सिर्फ शक्ति के बल पर ही अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी नहीं मिल सकती, इसके लिए राष्ट्रीय चेतना को जगाना ज़रूरी है।
3. शिक्षित मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उदय: ब्रिटिश प्रशासनिक और आर्थिक नई पद्धतियों के आने से शहरों में एक नए शहरी मध्यम वर्ग का जन्म हुआ। अपनी शिक्षा, नई स्थिति और शासक वर्ग के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों के कारण यह वर्ग आगे आया। 1833 के बाद भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारंभ और विस्तार किया गया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण भारत में शिक्षित मध्य वर्ग का उदय हुआ। इस वर्ग को शुरू में अंग्रेज़ी शासन काफी भाता था, लेकिन समय के साथ उन्हें समझ में आने लगा कि अंग्रेजों का उद्देश्य भारत का केवल शोषण करना है। बढती बेरोज़गारी और आर्थिक शोषण के कारण इस वर्ग में भी असंतोष का संचार हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विकास के सभी चरणों में नेतृत्व इसी वर्ग द्वारा प्रदान किया गया था।
4. आधुनिक शिक्षा का प्रभाव: राष्ट्रीयता के उद्भव में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका भारत के आधुनिक शिक्षित वर्ग ने निभायी। 1813 के बाद सरकार ने आधुनिक शिक्षा का प्रसार भारत में किया। 1825 में लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को निश्चित किया। बाद में ईसाई धर्म प्रचारकों ने इसे आगे बढाया। हलाकि अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय चेतना को जड़ से नष्ट करना था। वे चाहते थे कि एक ऐसे वर्ग का निर्माण हो जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हों, किन्तु रुचि, विचार, शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हो जाए। लेकिन पाश्चात्य शिक्षा से भारत को हानि की अपेक्षा लाभ अधिक हुआ।
शिक्षा की एक आधुनिक प्रणाली की शुरूआत ने आधुनिक पश्चिमी विचारों को आत्मसात करने के अवसर प्रदान किए। इसने भारतीय राजनीतिक सोच को एक नई दिशा दी। भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई। शिक्षित वर्ग, वकील, डॉक्टर, आदि, उच्च शिक्षा के लिए अकसर इंग्लैंड जाते थे। वहां उन्होंने एक स्वतंत्र देश में आधुनिक राजनीतिक संस्थानों के कामकाज को देखा और उस व्यवस्था की तुलना भारतीय स्थिति से की जहां नागरिकों को बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा गया था। आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने से भारतीयों को आधुनिक विचारों की जानकारी मिली। शिक्षित भारतीयों ने अपने आधुनिक ज्ञान का प्रयोग ब्रितानी शासक की साम्राज्यवादी और शोषक प्रवृत्ति का विश्लेषण और आलोचना तथा साम्राज्यवाद विरोधी राजनैतिक आन्दोलन के संगठन में किया।
इस शिक्षा प्रणाली ने राष्ट्रवादिता के वाहक की भूमिका निभाई। इस सामाजिक गुट ने इस तथ्य को पहचाना कि भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना से तेज़ी के साथ अतीत से संबंध विच्छेद हुआ है और एक नए ऐतिहासिक दौर का प्रारंभ हुआ है। अत: उन्होंने अपने समाज और देश को आधुनिक बनाने का निश्चय किया। उन्होंने यह महसूस किया कि जिस चीज़ को उन्होंने पहले भारत का आधुनिकीकरण समझा था वह वास्तव में उसका उपनिवेशीकरण था। फलतः ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक और बौद्धिक नेता हो गए। उन्होंने साम्राज्यवाद के विरोध में एक राष्ट्रवादी राजनीतिक आन्दोलन को संगठित करने के लिए कमर कस ली। राजा राम मोहन राय, दादा भाई नौरोजी, फिरोज शाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, उमेश चन्द्र बनर्जी आदि नेता अंग्रेजी शिक्षा की ही देन हैं।
5. पाश्चात्य और आधुनिक विचारधारा का प्रभाव: पाश्चात्य विचारधारा के संपर्क में आने से शिक्षित वर्ग के विचारों में परिवर्तन आया और वे स्वतंत्रता, समानता और प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को समझने लगे। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, फ़्रांस की क्रांति, पश्चिमी दार्शनिकों मिल्टन, शेली, रूसो, वाल्तेयर और मेजिनी के क्रांतिकारी विचारों का भारतीय शिक्षित वर्ग पर गहरा असर हुआ। प्रभुसत्ता, मानवतावाद, जनतंत्र और युक्तिवाद जैसे आधुनिक विचारों ने भारत के लोगों के बौद्धिक जीवन को प्रभावित किया और उनमें क्रान्तिकारी परिवर्तन आए। इसे उन्हें भारत में ब्रितानी साम्राज्यवाद की वास्तविक प्रकृति को समझने में मदद मिली।
6. प्राचीन भारतीय संस्कृति: भारत की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीन और श्रेष्ठ संस्कृति रही है। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द ने भी भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता के ज्ञान से अवगत कराया। ऐतिहासिक अनुसंधानों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखलाया। वे अपने भविष्य के सम्बन्ध में आशावादी बन गए। इस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति और शिक्षा ने राजनीतिक चेतना और राष्ट्रीय भावना के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों ने घोषणा की थी कि क्योंकि भारत के समाज और संस्कृति में ही बुनियादी दोष है इसलिए वहां के लोगों की नियति ही यह है कि वे अनंत काल तक विदेशियों द्वारा शासित होते रहें। इसकी भारत में गहरी प्रतिक्रिया हुई। स्वशासन संबंधी अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए भारतीयों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति को महिमा मंडित करना आवश्यक समझा। इसका एक निश्चित प्रभाव लोगों पर पड़ा।
7. सरकारी नीतियों से असंतोष: सरकार की प्रशासकीय और आर्थिक नीतियों का अंजाम भारतीयों को भोगना पड रहा था। भारत से कच्चा माल ब्रिटेन भेजा जा रहा था और वहां से बनी हुई वस्तुओं को महंगे दर पर भारत में बेचा जा रहा था। इससे भारत के लोगों का भयंकर आर्थिक शोषण हो रहा था। उस पर अंग्रेजों की प्रशासकीय नीतियाँ भी दोषपूर्ण थीं। भारतीयों को स्वशासन के योग्य नहीं समझा जाता था। विचार की अभिव्यक्ति के अधिकार सीमित थे। देश के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं की उपेक्षा की जाती थी।
8. बेरोज़गारी की समस्या: भारतीयों को पर्याप्त रोज़गार के अवसर नहीं मिलते थे। फलतः बेरोज़गारी बढती जा रही थी। इससे शिक्षित मध्यवर्ग अंग्रेजों से विमुख होता गया। उन्हें यह समझ में आने लगा कि अंग्रेजों के रहते भारत का विकास संभव नहीं है। ज्यादा तनख्वाह वाली नौकरियां अंग्रेजों के लिए आरक्षित थीं। इस परिस्थिति ने राष्ट्रीय भावना बढ़ने में योगदान दिया।
9. प्रजातीय विभेद की नीति: अँग्रेज़ न सिर्फ भारतीयों का शोषण करते थे, बल्कि भारतीयों को शासित वर्ग मानते हुए उनका मान-मर्दन करते थे। खुद को भद्र पुरुष और भारतीयों को तिरस्कार करते हुए उन्हें काला कहते थे। वे भारतीयों को दंड और अपमान के योग्य समझते थे। वे भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। वे भारतीयों को ऐसा जन्तु समझते थे जो आधा वनमानुष और आधा नीग्रो था, जिसे केवल भय द्वारा ही समझाया जा सकता था और जिसके लिए घृणा और आतंक का व्यवहार ही उपयुक्त था। इससे राष्ट्रीयता की भावना का तीव्र गति से संचार हुआ।
10. भारतीयों से दूरी: भारत में अंग्रेजों ने भारतीयों से हमेशा एक दूरी बनाए रखी और यह महसूस करते रहे कि वे जातीय स्तर पर विशिष्ट हैं। साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांतों को प्रसारित करने के लिए वे यह बताया करते थे कि गोरे लोग जन्म से ही काले लोगों से बेहतर हैं। भारत में अंग्रेजों ने खुले रूप से यह घोषणा की कि भारतीय एक हीन जाति हैं। उन्होंने विजेता शक्ति के रूप में विशेषाधिकारों के लिए आग्रह किया। वायसराय मेयो ने उपराज्यपाल को लिखा था, "अपने मातहतों को सिखाइए कि हम सभी संभ्रांत अँग्रेज़ हैं जो एक हीन जाति पर शासन करने के एक शानदार काम में लगे हुए हैं।"
अपनी कोठी ऐसी जगह बनाते थे, जो भारतीयों की पहुँच से दूर होता था। उनकी क्लबों में भारतीयों का प्रवेश वर्जित था। रेल की प्रथम श्रेणी में भारतीय सफर नहीं कर सकते थे। अँग्रेज़ अपराधियों की सुनवाई भारतीय जज नहीं कर सकते थे। एक ही अपराध के लिए अंग्रेजों को मामूली सज़ा और भारतीयों को कठोर दंड दिए जाते थे। जातीय अहंकार के ऐसे निर्लज्ज प्रदर्शन ने आत्म-सम्मानी भारतीय लोगों के मन में राष्ट्रीय भावना का संचार किया। जातिगत भेदभाव की नीति का भारतीयों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। उनके हृदय में ब्रिटिश शासन के प्रति संघर्ष की भावना उमड़ पड़ी।
11. सेना और नौकरी में भेदभाव: भारतीयों के साथ सेना में भरती और नौकरी देने में भेदभाव बरते जाते थे। सिविल सर्विसेज की परीक्षा में भारतीयों के लिए अलग पैमाना होता था और उन्हें उच्च पद नहीं दिया जाता था। 1857 के विद्रोह के बाद अँग्रेज़ पढ़े लिखे भारतीयों को सरकारी नौकरी नहीं देना चाहते थे, इसलिए उनमें असन्तोष बढा।
12. राष्ट्रीय साहित्य का विकास: भारतीय साहित्यकारों ने भी देश की भावना को जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य ने निबंध, कविताओं, उपन्यास, नाटक आदि द्वारा राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया। आनंद मठ के 'वंदे मातरम्' गीत ने लोगों में स्वदेश-प्रेम की भवन जगाई। दीनबंधु मित्र के 'नील-दर्पण' नाटक निलहों पर किए जा रहे अत्याचारों को लोगों के सामने रखा।
'भारत दुर्दशा' में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारत की दुर्दशा को चित्रित किया था। अनेकों साहित्यकारों द्वारा विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता से ओतप्रोत साहित्य का सृजन किया। मराठी साहित्य में शिवाजी का मुगलों के विरुद्ध संघर्ष को विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष बताया गया। साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार एवं जागृति की अपूर्व उमंग उत्पन्न कर दी।
13. समाचार पत्रों का योगदान: राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति तथा विकास में भारतीय समाचार पत्रों का भी काफी हाथ था। समय-समय पर औपनिवेशिक शासकों द्वारा प्रेस पर लगाए गए कई प्रतिबंधों के बावजूद, उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय स्वामित्व वाले अंग्रेजी और स्थानीय भाषा के समाचार पत्रों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई। 1877 तक देश में प्रकाशित होनेवाले समाचार पत्रों की संख्या 644 थी, जिनमें अधिकतर देशी भाषाओं के थे।
भारतीय भाषाओं में प्रकाशित समाचारपत्रों ने राष्ट्रीय भावना जगाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन पत्रों द्वारा भारतीयों में एकता लाने, उनमें स्वदेश प्रेम की भावना जगाने, स्वशासन और जनतंत्र के महत्व को समझाने का प्रयास किया। इसने स्वशासन, लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों और औद्योगीकरण के आधुनिक विचारों को फैलाने में भी मदद की।
14. सरकारी प्रतिक्रिया: सरकारी प्रतिक्रिया ने भी राष्ट्रीय भावना के विकास में काफी योगदान दिया। नीलदर्पण जैसे नाटकों को प्रतिबंधित करने के लिए जब ड्रामैटिक पर्फौर्मैंस एक्ट पारित किया गया तो जनता में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। समाचारों को प्रतिबंधित करने के लिए जब वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट आया तो इससे भारतीय सम्मान को ठेस पहुंची। सारे भारत में इसे 'गलाघोंटू कानून' कहकर इसकी कटु आलोचना हुई। प्रबल जनमत के आगे झुक कर अंग्रेजों को इस कानून को वापस लेना पड़ा।
15. राजनीतिक और प्रशासनिक एकता: अंग्रेजों ने भारत के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र को राजनीतिक और प्रशासनिक एकता के सूत्र में बंधा। आवागमन और संचार के साधनों के विकास के साथ एकीकरण की प्रक्रिया और बढ़ी। भारतीयों ने अपने-आपको एक राष्ट्र के रूप में देखना शुरू कर दिया। क्षेत्रीयता की भावना की जगह को राष्ट्रीयता भावना ने ले लिया।
अंग्रेजों की नीतियों के कारण सारे देश में शिक्षा का स्वरुप एक था। इसके कारण अखिल भारतीय स्तर पर एक ऐसे शिक्षित वर्ग का जन्म हुआ जिसका समाज की ओर देखने का तरीक़ा और दृष्टिकोण समान था। लोगों में देशप्रेम, भाईचारा और एकता की भावना का विकास हुआ। एकता की जो भावना पैदा हुई उसने लोगों को भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर एकबद्ध किया और एक समान राष्ट्रीय दृष्टिकोण का जन्म हुआ।
16. सुधार आंदोलनों का प्रभाव: धर्म-समाज सुधार आन्दोलनों ने जहां एक ओर धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर भारत में राष्ट्रीयता की भाव भूमि तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलनों से लोगों में नई चेतना का संचार हुआ। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, एवं श्रीमती एनी बेसेन्ट आदि सुधारकों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया तथा उन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा का ज्ञान कराया। इन सुधारकों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की।
इनके प्रयासों ने भारतीयों के मन में अपने देश, धर्म और जाति के प्रति गौरव और प्रेम की भावना भर दी। छोटी जाति के लोगों और स्त्रियों ने अपनी दलित स्थिति के प्रति जागरूक होकर संघर्ष करना शुरू कर दिया। इन धर्म-समाज सुधारक आंदोलनों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया और उनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था।
17. भारत के अतीत की पुनर्खोज: पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों के प्रयासों से प्राचीन भारत के भुला दिए गए इतिहास और संस्कृति का ज्ञान लोगों को हुआ। मैक्स मूलर, मोनियर विलियम्स, रोथ और ससून जैसे यूरोपीय विद्वानों और भारतीय विद्वानों जैसे आर.जी. भंडारकर, आरएल मित्रा और बाद में स्वामी विवेकानंद ने भारत के अतीत की एक पूरी तरह से नई तस्वीर बनाई।
यह तस्वीर अच्छी तरह से विकसित राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थानों, बाहरी दुनिया के साथ एक समृद्ध व्यापार, कला और संस्कृति में एक समृद्ध विरासत और कई शहरों की विशेषता लिए हुए थी। एशियाटिक सोसायटी ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। लोगों को ज्ञान हुआ कि हमारा भूत काल कितना समृद्ध था, जिसे अंग्रेजों के औपनिवेशवाद ने दरिद्र बना दिया है। इस प्रकार प्राप्त आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास ने राष्ट्रवादियों को औपनिवेशिक मिथकों को ध्वस्त करने में मदद की कि भारत का विदेशी शासकों की दासता का एक लंबा इतिहास रहा है।
18. भारत का आर्थिक शोषण: सरकारी आर्थिक नीतियों के कारण बड़ी मात्र में भारत से धन का निष्कासन हुआ था। यहाँ के व्यापार पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया था। निर्यात हो रही भारतीय वस्तुओं पर भारी कर लगा दिया गया और भारत में आयात हो रही वस्तुओं पर ब्रिटिश सरकार ने बहुत छूट दे दी। अंग्रेज भारत से कच्चा माल ले जाते थे, इंग्लैण्ड से मशीनों द्वारा निर्मित माल भारत में भेजते थे, जो लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धों के निर्मित माल से बहुत सस्ता होता था। इससे भारतीयों की आर्थिक दशा काफी बिगड़ गयी थी। कर एवं लगान का बोझ बढ़ा।
देशी उद्योग और व्यापार का विनाश हुआ। मूल्यवृद्धि हुई। अकाल और महामारी का प्रकोप बढ़ा। दरिद्रता अपनी चरम सीमा पर रही। अधिसंख्य लोग जिंदा रहने के लिए आवश्यक न्यूनतम से भी कम पर गुज़ारा करने के लिए मज़बूर थे। अकाल और बाढ़ में लाखों लोग मरते। अंग्रेजों के इस आर्थिक शोषण के विरुद्ध भारतीय जनता में असन्तोष था। वह इस शोषण से मुक्त होना चाहती थी। इसलिए भारतीयों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारम्भ कर दिया।
19. स्वदेशी की भावना का विकास: स्वदेशी आन्दोलन ने लोगों में स्वदेशी की भावना का विकास किया। स्वदेशी मेला ने इसको और बढ़ावा दिया।
20. कृषि और किसान वर्ग में असंतोष: ब्रितानी शासन के प्रभाव के कारण भूमि संबंधी रिश्तों के नए ढांचे का विकास हुआ जो अत्यंत प्रतिगामी था। इस पद्धति में कृषि का विकास रत्ती भर भी नहीं हुआ। भू-स्वामियों, बिचौलिए, महाजन जैसे एक नए सामाजिक वर्ग का उदय हुआ। इसके परिणामस्वरूप काश्तकार, बटाईदार और खेतिहर मज़दूर जैसे वर्ग पैदा हुए। दरिद्रता के मारे खेतिहर किसानों में भयंकर असंतोष का प्रादुर्भाव हुआ। किसान वर्ग ब्रितानी उपनिवेशवाद का मुख्य शिकार था। न तो वे अपनी ज़मीन के मालिक थे, न अपनी पैदावार के और न ही अपनी श्रम शक्ति के। इस शोषण के विरुद्ध उनमें राष्ट्रीय भावना का संचार हुआ।
21. उद्यमी और व्यापारी वर्ग में असंतोष: भारत का बाज़ार विश्व बाज़ार से जोड़ दिया गया। भारत के विदेशी व्यापार का विकास न तो स्वाभाविक था, न ही सामान्य। इसका पोषण साम्राज्यवाद के हितों की सिद्धि के लिए बनावटी ढंग से किया गया था। विदेशी व्यापार ने देश के भीतर के वितरण को बुरी तरह प्रभावित किया। निर्यात में वृद्धि हुई जिससे भारत का धन और साधन बाहर गया। शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के हस्त शिल्प उद्योग का ह्रास और विनाश हुआ। इसके कारण इस क्षेत्र से जुड़े लोगों में क्षोभ बढ़ा।
22. कारीगरों और शिल्पकारों में असंतोष: साम्राज्यवाद के कारण कारीगरों और शिल्पकारों को मुसीबतें झेलनी पड़ीं। बिना नौकरी और मुआवजे के अन्य नए स्रोतों के विकास के उनके सदियों पुराने जीवन निर्वाह के साधनों को छीन लिया गया। उनकी हालत बहुत ख़राब हो गयी। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने बहुत सक्रिय भाग लिया। उद्योगों एवं दस्तकारी के पतन के कारण इनमें कार्यरत व्यक्ति कृषि की ओर गये जिससे भूमि पर दबाव बहुत अधिक बढ़ गया।
23. मज़दूर वर्गों को असन्तोषजनक स्थिति: मज़दूरों के काम करने और रहने की स्थिति बहुत असन्तोषजनक थी। उनके काम के घंटे को लेकर नियंत्रण की कोई कानूनी व्यवस्था नहीं थी। किसी प्रकार का सामाजिक वीमा नहीं था। औसत मज़दूर जिंदा रहने के लिए जितना आवश्यक है उससे भी कम पर जी रहा था। चाय बागानों में इनकी हालत और ख़राब थी। उन्हें पर्याप्त मज़दूरी नहीं मिलती थी। अपने ऊपर हो रहे शोषण के कारण मज़दूर वर्ग ने एक शक्तिशाली साम्राज्य विरोधी रुख अपनाया।
24. पूंजीपति वर्ग का असंतोष: इस वर्ग की प्रतिस्पर्धा ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग से थी। सरकार की वित्तीय नीति के कारण उनका विकास बाधित हो रहा था। आधारभूत आर्थिक मुद्दों पर वे सरकार से टकराए। उन्होंने नारा दिया, "भारतीय बाज़ार पर भारतीय आधिपत्य"। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को समर्थन देना शुरू कर दिया।
25. यातायात तथा संचार के साधनों का विकास: अंग्रेजों ने देश में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछा दिया। डाक, तार, टेलीफोन आदि की व्यवस्था हुई। इसके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यह था कि विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेनाएँ शीघ्रता से भेजी जा सकेगी, एवं दूर-दूर के प्रदेशों से सूचना शीघ्र प्राप्त हो जाएगी। इससे भारतीयों को काफी लाभ हुआ।
उनके लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना आसान हो गया। लोगों के बीच दूरी कम हो गई। उनका सम्पर्क बढा और दृष्टिकोण व्यापक हुआ। समाचार पत्र देश के दूर-दूर के भागों में पहुँचने लगे। एकता की भावना अधिक प्रबल हो गई और राष्ट्रीय आन्दोलन को बल प्राप्त हो गया।
26. प्रतिक्रियावादी नीतियां और शासकों का नस्लीय अहंकार: भेदभाव और अलगाव की जानबूझकर बनाई गयी नीति के माध्यम से अंग्रेजों द्वारा श्वेत श्रेष्ठता के नस्लीय मिथकों को कायम रखने की कोशिश की गई। इससे भारतीयों को गहरा आघात लगा। लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियां जैसे अधिकतम आयु सीमा में कमी, आई.सी.एस की परीक्षा के लिए 21 वर्ष से 19 वर्ष (1876), 1877 का भव्य दिल्ली दरबार जब देश अकाल की गंभीर चपेट में था, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878) और आर्म्स एक्ट (1878) ने देश में विरोध का तूफान खड़ा कर दिया। इसके बाद इल्बर्ट बिल विवाद आया।
रिपन की सरकार ने "जाति भेद के आधार पर न्यायिक अयोग्यता" को समाप्त करने की मांग की थी और अनुबंधित सिविल सेवा के भारतीय सदस्यों को वही शक्तियाँ और अधिकार देने के लिए जो उनके यूरोपीय सहयोगियों को प्राप्त थे। यूरोपीय समुदाय के कड़े विरोध के कारण, रिपन को विधेयक में संशोधन करना पड़ा, इस प्रकार इसने विधेयक के मूल उद्देश्य को लगभग पराजित कर दिया। राष्ट्रवादियों के लिए यह स्पष्ट हो गया कि जहाँ यूरोपीय समुदाय के हित शामिल हैं वहाँ न्याय और निष्पक्षता की उम्मीद नहीं की जा सकती। हालाँकि, इल्बर्ट बिल को रद्द करने के लिए यूरोपीय लोगों द्वारा संगठित आंदोलन ने राष्ट्रवादियों को यह भी सिखाया कि कुछ अधिकारों और मांगों के लिए कैसे आंदोलन किया जाए।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार
उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रवाद के जन्म के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियां काफी उत्प्रेरक रहीं। ब्रिटिश शासन में ही भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हुई, पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हुआ और यातायात के साधनों का विकास हुआ। इनसे राष्ट्रवाद के जन्म में काफी योगदान मिला। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता के मूल अधिकार को समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। ब्रितानी शासन के मूलभूत उपनिवेशिक चरित्र और भारतवासियों के जीवन पर उसके हानिकारक प्रभाव ने भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी भावना के उद्भव और विकास का रूप दिया।
बिपिन चन्द्र मानते हैं, "विदेशी शासन के चरित्र के ही परिणामस्वरूप भारतीय जनता में राष्ट्रीयता के भाव उठे। उसी चरित्र के कारण एक सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन के उद्भव और विकास के लिए भौतिक, नैतिक, बौद्धिक और राजनीतिक स्थितियां पैदा हुईं।" नए विचार, एक नया आर्थिक और राजनीतिक जीवन, और ब्रितानी शासन ने भारतीय लोगों के सामाजिक जीवन पर एक गहरी छाप छोड़ी। बिपिन चन्द्र के शब्दों में कहें तो, "यथार्थ यह है कि जिस दौर में पश्चिमी देश विकसित और संपन्न हो रहे थे, भारत के कंधे पर आधुनिक उपनिवेशवाद का जुआ रखकर उसे विकसित होने से वंचित कर दिया गया।" भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में जब राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ तो वे राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ गए। निजी अंतर्विरोधों के बावजूद एक सामान शत्रु के विरुद्ध उन्होंने अपने मतभेदों को भुलाकर स्वयं को एकबद्ध किया।
नोट: हमें आशा है कि परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों को इतिहास के विषय पर लिखे इस लेख से काफी सहायता मिलेगी। करियरइंडिया के विशेषज्ञ द्वारा आधुनिक इतिहास के विषय पर लिखे गए अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
शिक्षा और रोजगार से जुड़ी खबरें और यूपीएससी के विषयों पर विस्तृत लेख पढ़ने के लिए करियर इंडिया के टेलीग्राम चैनल से अवश्य जुड़ें।