1526 में मुगल शासन की स्थापना हो चुकी थी, लेकिन इस शासन व्यवस्था में उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। फलतः सुलतान के मरते ही शहजादे गद्दी के लिए आपस में संघर्ष किया करते थे। मुगल साम्राज्य के इतिहास में गद्दी के दावे के लिए अनेक गृह युद्ध हुए हैं, जिन्होंने मुगलों की शक्ति और प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुंचाई। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि मुग़ल सल्तनत के बारे में यह मशहूर हो गया कि वहाँ हमेशा एक फ़ारसी कहावत का बोलबाला रहा है 'या तख़्त या ताबूत' यानी या तो सिंहासन या फिर क़ब्र।
बाबर और हुमायूं ने भारत में मुगल राजवंश की स्थापना तो कर दी थी परंतु वे इसे स्थायित्व नहीं दे पाये। 1556 में जब अकबर सम्राट बना तो उसने साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के काम को पूरा किया। उसने राज्य के विस्तार के अलावा इसके सुदृढ़ीकरण की भी व्यवस्था की पर उसके जीवनकाल में ही जहांगीर ने गद्दी पर अधिकार करने के लिए विद्रोह कर दिया था, अकबर ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया था।
जहांगीर के शासनकाल में विद्रोह
जहांगीर के शासनकाल में शहजादों के विद्रोह ने बड़ा विकृत रूप धारण कर लिया। उसके शासनकाल में पहला विद्रोह शहज़ादा खुसरो का हुआ था परंतु जहांगीर ने अपनी काबिलियत से उसे दबा दिया। बगावत कर रहे शहज़ादा खुसरो की सहायता करने के आरोप में जहांगीर ने सिखों के पाँचवें गुरू अर्जुन देव जी को मृत्युदंड की सज़ा दी। इससे मुगल सिख संबंध अच्छे नहीं रहे। खुसरो के विद्रोह से ज्यादा महत्वपूर्ण खुर्रम का विद्रोह था। नूरजहां अपने दामाद शहरयार को गद्दी दिलवाना चाहती थी। इसलिए शहज़ादा खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। हालांकि उसने बाद में जहांगीर से माफी मांग ली पर उसके इस विद्रोह के कारण मुगलों को कंधार खोना पड़ा। जहाँगीर को अपने छोटे भाई दान्याल की मौत का ज़िम्मेदार माना जाता है।
शाहजहाँ ने न सिर्फ़ अपने दो भाइयों ख़ुसरो और शहरयार की मौत का आदेश दिया अपने बल्कि 1628 में गद्दी सँभालने पर अपने दो भतीजों और चचेरे भाइयों को भी मरवाया। बाप के चरण चिह्नों पर चलते हुए औरंगजेब ने भी यही इतिहास दुहराया। खुद औरंगजेब के शासनकाल में शहज़ादों के विद्रोह ने सम्राट को परेशान किये रखा। ऐसे विनाशकारी संघर्षों में धन-जन की भारी हानि हुई और साम्राज्य को गहरा धक्का लगा। इन सभी गद्दी के दावों के लिए हुए युद्धों में से जो शाहजहां के बेटों के बीच लड़ा गया, वह कई अर्थों में विशिष्ट था। पहली बात तो यह कि शासक के जीवित रहते हुए उत्तराधिकार का जो विद्रोह हुआ, वह शाहजहां के समय में जितने लंबे समय तक चला और जितने विस्तृत क्षेत्र में यह संघर्ष हुआ, ऐसा इसके पूर्व कभी नहीं हुआ। इस संघर्ष में एक विद्रोही राजकुमार विजयी होता है और स्वयं सत्ता संभाल लेता है। जब मुगलकाल में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की बात होती है तो हमारा ध्यान बरबस यहीं आ टिकता है।
यह लड़ाई 1657-58 ई. के बीच हुई थी। हालांकि औरंगजेब के चार बेटे थे, पर यह लड़ाई मुख्य रूप से शाहजहां के पुत्र दारा और औरंगजेब के बीच लड़ी गई थी। दारा सबसे बड़ा था और हमेशा शाहजहां के साथ रहता था तथा उत्तरी भारत का उत्तराधिकारी भी था। दारा शिकोह का एक बहुआयामी और जटिल व्यक्तित्व था। कहा जाता है कि वह उदार और दयालु स्वाभाव का था। एक तरफ़ वो बहुत गर्मजोश शख़्स, विचारक, प्रतिभाशाली कवि, अध्येता, उच्च कोटि के धर्मशास्त्री, सूफ़ी और ललित कलाओं का ज्ञान रखने वाला शहज़ादा था, तो दूसरी तरफ़ प्रशासन और सैन्य मामलों में उनकी कोई रुचि नहीं थी।
16 की उम्र में औरंगज़ेब ने संभाली थी सेना की कमान
दारा शिकोह स्वभाव से वहमी था और लोगों को पहचानने की उसकी समझ बहुत संकुचित थी। फिर भी शाहजहां उससे बहुत प्यार करता था। शाहजहाँ को दारा इतना प्रिय था कि वह उसे सैन्य अभियानों में भेजने से हमेशा कतराता रहा और उसे हमेशा अपनी आँखों के सामने अपने दरबार में रखा। नतीजा यह हुआ कि उसे न तो जंग का तज़ुरबा हुआ और न ही सियासत का। दूसरा बेटा शाह शुजा बंगाल का शासक था लेकिन वह अकर्मण्य एवं विलासी था। तीसरा औंरगजेब दक्षिण का शासक था। वह सैनिक गुणों एवं कूटनीति में माहिर था।
दारा के विपरीत शाहजहाँ को औरंगज़ेब को सैन्य अभियानों पर भेजने में कोई संकोच नहीं था। जब औरंगज़ेब की उम्र मात्र सोलह साल की रही होगी, वह दक्षिण में एक बड़े सैन्य अभियान का नेतृत्व करता है। चौथा मुराद बख्श गुजरात एवं मालवा का शासक था। उसमें भी सैनिक एवं प्रशासनिक योग्यता का अभाव था। लेकिन उसे भी शाहजहाँ ने सैन्य अभियान के तहत गुजरात भेजा।
जब बीमार पड़े शाहजहॉं
चूंकि चारों बेटे चार अलग-अलग क्षेत्र के शासक थे तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद शाहजहां अपने बेटों के बीच राज्य का बंटवारा करना चाहता था। पर वास्तविकता क्या थी, कहा नहीं जा सकता। स्थिति ऐसी थी कि उत्तराधिकार की समस्या पर कभी भी लड़ाई हो सकती थी क्योंकि चारों के पास सैनिक थे और चारों गद्दी के लिए लालायित थे। ऐसी स्थिति में 16 सितंबर, 1657 ई. में शाहजहां जब सख्त बीमार पड़ा और उसके बचने की उम्मीद न के बराबर थी, तब चारों बेटों-दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष शुरू हो गया क्योंकि वे अपनी अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते थे। सिंहासन प्राप्त करने की महत्वकांक्षा वाले उसके सभी पुत्र अपनी-अपनी योजनाएं बनाने लगे। इसकी शुरूआत शुजा ने की। उसने बंगाल में स्वयं को सम्राट घोषित कर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। फिर क्या था - मुराद भी खुद को शासक घोषित कर दिल्ली की ओर चल पड़ा। औरंगजेब ने खुद को शासक तो घोषित नहीं किया, पर दिल्ली की ओर इस घोषणा के साथ चल पड़ा कि वह अपने बीमार पिता को देखने जा रहा है।
इधर शाहजहां की बीमारी के समय दारा उसके साथ दिल्ली में ही था। उसने शाहजहां की बीमारी की खबर को रोकने के प्रयास किए। साथ ही पिता को लेकर दिल्ली से आगरा आ गया। पर परिणाम उलटा हुआ। लोगों में यह अफवाह फैल गई कि शाहजहां वास्तव में मर गया है और दारा इस खबर को छिपाकर खुद को बादशाह घोषित करना चाहता है। इस बीच दारा की सेवा-सुश्रुषा में शाहजहां थोड़ा ठीक हुआ। उसे जब उत्तराधिकार के संघर्ष की जानकारी लगी, तो उसने अपने बेटों को पत्र लिखा कि अपने-अपने क्षेत्र वापस लौट जाएं। वह स्वस्थ है। इस पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। बल्कि औरंगजेब ने कहा कि यह पत्र जाली है। इधर शाहजहां ने संघर्ष टालने के इरादे से दारा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। शाहजहां ने दारा के लिए अपने दरबार में एक ख़ास आयोजन किया। अपने पास तख़्त पर बैठाया और उसे 'शाहे बुलंद इक़बाल' का ख़िताब दिया और ऐलान किया कि उनके बाद वो ही हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठेग़ा। पर इसका प्रभाव दारा के अन्य भाइयों पर विपरीत ही पड़ा और वे गद्दी पर अधिकार प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठे। शहज़ादे के रूप में दारा को शाही ख़ज़ाने से दो लाख रुपये एक मुश्त दिया गया। उसे रोज़ एक हज़ार रुपये का दैनिक भत्ता दिया जाता था।
तलवारों से तय होता था उत्तराधिकारी
इतिहास भी तो अपने आप को दुहराता है। मुगलों के बीच उत्तराधिकार का मामला, अधिकांशतः तलवारों के द्वारा ही निर्धारित हुआ था। शाहजहां ने भी तो खुद इस रास्ते गद्दी पाई थी। फिर उसके बेटे कहां चूकने वाले थे। युद्ध एवं रक्तपात अवश्यंभावी था। पर इस बार इसमें एक विशेषता थी। पहले के उत्तराधिकार का संघर्ष सम्राट की मृत्यु के पश्चात हुआ था। इस बार यह तब होने जा रहा था जबकि शाहजहां अभी जीवित था।
इस युद्ध में न सिर्फ उसके चार बेटे ही लड़े बल्कि उसकी बेटियों ने भी परोक्ष रूप से हिस्सा लिया। बड़ी बहन जहांआरा ने दारा शिकोह की सहायता की तो रोशन आरा ने औरंगजेब की मदद की तथा गौहन आरा ने मुराद बख्श का पक्ष लिया।
औरंगजेब ने मुराद को अपने पक्ष में मिलाकर आपस में राज्य का बंटवारा कर लेने का समझौता किया तथा दोनों की मिलीजुली सेना आगरा की तरफ़ कूच कर गई। उधर शाह शुजा भी बनारस तक आ पहुंचा था। तब शाहजहां एवं दारा के पास उनको युद्ध में पराजित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्होंने अपनी सेना भेजने का निश्चय किया।
दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में एक सेना शाह सुजा को पराजित करने के लिए भेजी गई और दूसरी सेना राजा जसवंतसिंह के नेतृत्व में मालवा की तरफ़ औरंगजेब एवं मुराद के खिलाफ युद्ध के लिए भेजी गई। सुलेमान शिकोह की सेना के हाथों शाह शुजा की पराजय हुई और वह बंगाल भाग गया परंतु अप्रैल, 1658 में राजा जसवंत सिंह के नेतृत्ववाली शाही सेना को औरंगजेब एवं मुराद के विरूद्ध धरमत के युद्ध में मुंह की खानी पड़ी। वास्तव में जसवंतसिंह को यह जानकारी नहीं थी कि उसे औरंगजेब एवं मुराद की मिलीजुली सेना का सामना करना पड़ेगा। वह तो सिर्फ मुराद की सेना की उम्मीद कर रहा था। फलतः उचित संसाधनों के अभाव में उन दोनों के संगठित सैन्य बल का मुकाबला वह नहीं कर पाया। यह विजय मुराद एवं औरंगजेब की हौसला अफजाई के लिए काफी थी। अब वे आगरा की तरफ बढ़े।
परिस्थिति की गंभीरता को भांपकर दारा ने भी मैदान-ए-जंग में कूदने का निर्णय लिया। उसने एक विशाल सेना इकट्ठी की एवं अपने बागी भाइयों का सामना करने चल दिया। जून, 1658 में दोनों पक्षों की सामूगढ़ में भिड़ंत हुई। औरंगजेब एवं मुराद की सेना एवं उनकी युद्ध-कुशलता के आगे दारा टिक न सका। उसकी बुरी तरह से हार हुई। निराश-हताश दारा शाहजहां से भी मिलने का साहस न जुटा सका और अपने परिवार के साथ दिल्ली की तरफ भाग गया और वहां से लाहौर चला गया। इस प्रकार औरंगजेब और मुराद की स्थिति काफी मजबूत हो गई।
सामूगढ़ की लड़ाई ने दारा का भविष्य निर्धारित कर दिया। औरंगजेब ने आगरे के किले पर अधिपत्य जमाया तथा अपने पिता शाहजहां को बंदी बनाकर कैदखाने में डाल दिया, जहां शाहजहां अपनी मृत्यु पर्यन्त, जनवरी 31,1666 ई. तक, कैद में ही रहा। बाप बेटे के बीच पत्रों का आदान-प्रदान तो होता था पर दोनों का कभी आमना-सामना नहीं हुआ।
कैसे हुआ औरंगज़ेब के शासन का अंत
औरंगजेब काफी महत्त्वाकांक्षी था। उसने अपनी और गद्दी के बीच आनेवाली हर बाधा को दूर करने का निश्चय किया। आगरा के किले पर फतह के बाद औरंगजेब ने दारा पर खास ध्यान केंद्रित नहीं किया। अब उसके सामने मुख्य बाधा थी - मुराद एवं उसका सैन्य बल। मुराद स्वतंत्र रूप से रहने लगा था। अतः औरंगजेब को उसकी तरफ़ से खतरे का एहसास था। उसी तरह मुराद भी उसकी तरफ शंका की दृष्टिकोण रखता था। औरंगजेब ने अपने रास्ते से मुराद को हटाने का निर्णय लिया। उसने मुराद को कई बार दावत पर बुलाया, पर हर बार मुराद नकार जाता था। एक बार शिकार से लौटते हुए मथुरा के निकट एक रात की दावत के औरंगजेब के न्यौते को उसने अपने एक अधिकारी की सलाह पर स्वीकार कर लिया। उस अधिकारी को औरंगजेब ने धन देकर अपनी तरफ मिला लिया था। मुराद को खासी तगड़ी दावत खाने को मिली। तत्पश्चात एक सुंदर दासी को मुराद की मालिश करने को भेजा गया। काफी चालाकी से उसने मुराद को गहरी नींद सुला दिया एवं उसके सभी शस्त्र उसके पास से हटा दिए। इस प्रकार निहत्था मुराद आसानी से बंदी बना लिया गया।
औरंगजेब मथुरा से दिल्ली आ गया। बिना किसी प्रतिरोध के उसने दिल्ली पर आधिपत्य जमाया और राज्यभिषेक कर खुद को सम्राट घोषित कर दिया। दारा सामूगढ़ की हार के बाद भटकता रहा था। बाद में उसे भी पकड़ कर बंदी बना लिया गया तथा मृत्यु दंड दे दिया गया। शुजा भी बनारस की लड़ाई के बाद बंगाल लौटा। वहां भी औरंगजेब के द्वारा तंग किए जाने पर आसाम से होते हुए बर्मा गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गई।
सन 1658 तक औरंगजेब के सभी विरोधी खत्म हो गये। गद्दी के सभी दावेदार समाप्त हो गए। उसकी स्थिति काफी मजबूत हो गई। उसने शाहजहां को बंदी बना लिया था और स्वयं को शासक घोषित कर चुका था।
गद्दी के उत्तराधिकार के इस संघर्ष का परिणाम बहुत बुरा रहा। ढेर सारे लोग मारे गए। इसके कारण साम्राज्य को आर्थिक एवं सैनिक, दोनों की भारी क्षति पहुंची। एक वर्ष तक मुगल साम्राज्य इसमें उलझा रहा। इससे साम्राज्य विरोधियों का मनोबल काफी बढ़ा। मराठा अपनी शक्ति को बढ़ाने लगे। उत्तर पश्चिमी सीमा पर अफगानियों ने विद्रोह किया। इस बीच दक्षिण भारत से भी मुगल साम्राज्य का ध्यान हटा रहा।
दूसरी ओर उत्तराधिकार के इस संघर्ष में इसकी सफलता अभूतपूर्व थी। इसकी सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि भविष्य में सत्ता पर अधिकार करने के लिए उत्तराधिकार का फैसला तलवार द्वारा ही संभव है।
इस तरह उत्तराधिकार का यह संघर्ष, मुगल साम्राज्य के लिए तात्कालिक और दूरगामी, दोनों ही तरह से, हानिकारक सिद्ध हुआ। औरंगजेब का 50 वर्ष का शासनकाल शांति और सुव्यवस्था की जगह समस्याओं का काल रहा। औरंगजेब के अंत तक साम्राज्य की एकाग्रता एवं संगठन समाप्त हो चुका था और महान मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया था। और उस पतन के बीज उत्तराधिकार के संघर्ष में ही छिपे थे। यह संघर्ष धीरे धीरे साम्राज्य को खोखला करता गया और एक दिन वह बीज विशाल वृक्ष बन कर उसके पतन की राह प्रशस्त कर गया।