Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

संविधान को सामान्य अर्थ में एक नागरिक ये मान कर देखता है कि सबके लिए "सम विधान" होगा अर्थात संविधान की सर्वोच्चता का भाव इसी अर्थ में निहित है कि देश का कोई भी कोना हो वहां का रहने वाला हर विविधता और जटिलता के होने के बाद भी अपने को हर स्तर पर समान पायेगा और सभी से अपने को जुड़ा हुआ पायेगा और इसी अर्थ में किसी भी देश का संविधान हर विधि, नियम, परिनियम, परम्परा, आदि से सर्वोच्च हो जाता है और इसी भावना को भारतीय संविधान में भी देखा जा सकता है।

इसी विधि एवं परम्‍परा के साथ हम आगे बढ़ते हैं, उससे पहले आपको बताना चाहेंगे कि यह लेख प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण है, क्‍योंकि इसी वर्ष चुनीं गईं देश की राष्‍ट्रपति जनजाति समूह से आती हैं। और ऐसे में परीक्षाओं में जनजातियों से जुड़े सवाल पूछे जाने की संभावना बढ़ जाती है। अगर आप राष्‍ट्रपति द्रौपदि मुर्मू के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो यहीं पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

जनजातीय लोगों एवं क्षेत्रों के लिए भारतीय संविधान में अनुच्‍छेद

स्वतंत्रता (1947) से पूर्व भारत में जो विधि व्यवस्था थी वो इंडियन गवर्नमेंट एक्ट 1935 के नाम से प्रचलित थी जो बाद में संविधान के निर्माण में अहम् भूमिका में रही। संविधान के भाग XVI में कुछ वर्गों के लिए विशेष प्रावधान सम्मिलित किए गए हैं। उसी प्रकार, अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के लिए संविधान के भाग-X में विशेष प्रावधान किए गए हैं। विधान विसंगतियों को दूर करने और उन्हें समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाने के लिए, उनके सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक हितों के संरक्षण और उन्नति के लिए व्यवस्था करता है।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

इसके अतिरिक्त भाग- III, IV, IX, XI-क और संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में अनेक अनुच्छेद अनुसूचित जनजातियों के लिए संवैधानिक चिन्ता बढ़ाते हैं। जिनका विश्लेषण करके ये समझने का प्रयास किया जा सकता है कि अपने मूल स्वरुप (1950 में संविधान में सिर्फ 395 अनुच्छेद थे ) में संविधान ने भारत के लोगो को समानता और गरिमा पूर्ण जीवन देने के लिए स्वयं कितने उतार-चढ़ाव और प्रासंगिकता से होकर गुजरा है। वर्तमान में संविधान में कुल 448 अनुच्छेद है जो 70 साल में इसमें आये बदलाव और समय के अनुसार संशोधन को स्वयं स्पष्ट करते है।

जनजाति1 को जब संविधान के प्रकाश में विश्लेषित करते है तो वर्ष 1950 में भारत में सिर्फ 212 जनजातीय समूह के होने को स्वीकार किया गया था यह वह समय था जब भारत की आर्थिकी और सारी व्यवस्था अंग्रेजो की दासता से आजाद हुई थी भारतीय अर्थ व्यवस्था बिलकुल चरमरायी हुई थी।

आधुनिकता के कोई भी माप दंड विकास और प्रगति की परिभाषा में दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे कालांतर में भारत की अर्थ व्यवस्था में सुधार हुआ और देश की जनसँख्या के साथ साथ आधुनिकता, विकास और प्रगति भी इस देश की प्रगति के सार्थक मोहरे बन गए पर वर्तमान में जब भारत विश्व की छठी आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है तब जनजाति की परिभाषा के प्रकाश में, जो विकास के मानक के पक्ष में एक नकारात्मक परिभाषा कही जा सकती है, भारत में 1950 के जनजातीय समूहों की संख्या के सापेक्ष 2011 की जन सांख्यकी के अनुसार जनजाति समूहों की संख्या 212 से बढ़ कर 700 के आस पास हो गयी है जो देश के विकास और आधुनिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है और इसी सन्दर्भ में संविधान के 70 साल को फिर से जनजातीयभारत के दृष्टिकोण से अवलोकित किया जाना चाहिए।

पिछड़े जनजाति के लोगो के लिए संविधान में किए गए अलग से उपबन्ध

भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का अवलोकन जनजातीय समूहों के आधार पर करते है तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि संवैधानिक अनुच्छेद पूरे भारत के लोगो को एक ही काल परिस्थिति में रख कर बनाये गए पर सामजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आधार पर पिछड़े जनजाति के लोगो के लिए संविधान में अलग से उपबन्ध भी करने पड़े जिससे ये भ्रान्ति पैदा हो जाती है कि संविधान ने भी लोगो को विभेदित या वर्गीकृत किया और ये चिंतन 70 साल में सबसे बड़ा चिंतन और चिंता बन कर सामने आया और इसका सबसे बड़ा उदहारण संविधान का अनुच्छेद 14 अनुच्छेद है।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

अनुच्छेद 14 यह व्यवस्था करता है कि "राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा", सभी के लिए सामान रूप से लागू हुआ पर जिस तरह से जनजाति के लोगो को मुख्य धारा में लाने के लिए विशेष प्राविधान किये गए उससे लोगो में संविधान को लेकर एक संशय ज्यादा पैदा हुआ। जिसने संवैधानिक संरक्षण के होते हुए भी जनजाति को मुख्यधारा से दूर और सामाजिक समरसता के लाभ से भी काफी वंचित रखा पर संविधान के इस संशय को दूर करने के लिए ये आवश्यक है कि सामान्य तरह से संविधान के उन प्रावधानों को समझा जाए जो जनजाति से संदर्भित है।

क्या है अनुच्‍छेद 16(4), 16(4क) और 16(4ख)

देश की स्वतंत्रता के समय संभवतः संविधान निर्माताओ ने जनजाति की शिक्षा और नौकरी पर इतना विचार नहीं किया जितना बाद के वर्षो में किया गया और जिसके कारण संवैधानिक संशोधन करके शैक्षणिक संस्‍थानों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्‍छेद 15(4) में किया गया है जबकि पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्‍छेद 16(4), 16(4क) और 16(4ख) में किया गया है। विभिन्‍न क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के हितों एवं अधिकारों को संरक्षण एवं उन्‍नत करने के लिए संविधान में कुछ अन्‍य प्रावधान भी समाविष्‍ट किए गए हैं जिससे कि वे राष्‍ट्र की मुख्‍य धारा से जुड़ने में समर्थ हो सके।और उसका सकारात्मक परिणाम भी दिखाई दिया फिर भी अभी ज्यादातर रिक्तियां साल का साल खाली रह जाती है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23, 24 और 25

अनुच्‍छेद 23 जो देह व्‍यापार, भिक्षावृत्ति और बानश्रम को निषेध करता है, का अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष महत्‍व है। इस अनुच्‍छेद का अनुसरण करते हुए, संसद ने बंधुआ मजदूर प्रणाली (उन्‍मूलन) अधिनियम, 1976 अधिनियमित किया। इस प्रावधान से कोयला और खनिज क्षेत्र में रहने वाले जनजाति के शोषण को रोकने में काफी सहायता मिली है।

उसी प्रकार, अनुच्‍छेद 24 जो किसी फैक्‍ट्री या खान या अन्‍य किसी जोखिम वाले कार्य में 14 वर्ष से कम आयु वाले बच्‍चों के नियोजन को निषेध करता है, का भी अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष महत्‍व है क्‍योंकि इन कार्यों में संलग्‍न बाल मजदूरों का अत्‍यधिक भाग अनुसूचित जनजातियों का ही है। इतने अच्छे प्रावधान होने के बाद भी देह व्यापार और बंधुआ मजदूरी आज भी जारी है देश के कई बड़े शहरो में दिल्ली सहित जनजाति बच्चे बाल मजदूर की तरह काम कर रहे है।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

अनुच्छेद 25 (2) (ख) में यह व्यवस्था की गई है कि सभी हिन्दू धार्मिक संस्थाएं, हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खुली रहेंगी। हिंदू शब्द में सिक्ख, जैन व वौद्ध धर्म को मानने वाले व्यक्ति शामिल हैं। यह उपबंध सुसंगत है, क्योंकि हिन्दुओं के कुछ सम्प्रदाय दावा करते रहे हैं कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोगों को मन्दिरों में प्रवेश करने का कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि यह सामाजिक कुप्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है परन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोगों को मंदिरों में प्रवेश करने से रोकने की घटनाएं समाचार पत्रों में कभी-कभी छपती रहती है और उन्हें इस आयोग के ध्यान में भी लाया गया है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जन जाति के लोगों को हिन्दुओं के मंदिरों तथा हिंदू धार्मिक संरथानों में विना रोक टोक के प्रवेश देने के लिए समाज के सभी वर्गों के सामूहिक प्रयास आवश्यक है। लेखक से स्वयं वर्ष 2003 में उत्तर प्रदेश सीमांत जिले बहराइच के धान्य कूट पर अपना शोध करते हुए ये पाया कि ऊँचीजाति वालो द्वारा मंदिर में ना जाने देने के कारण धान्य कूट ने भगवान् की पूजा के लिए अपने निवास स्थान धन कुट्टी पुरा में मंदिर बना लिया जो सामजिक समरसता और समानता दोनों की असफलता का प्रतीक है स्वतंत्र भारत में।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 29(1)

अनुच्छेद 29 (1) में यह प्रावधान है कि " भारत के क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा। " इस अनुच्छेद का अनुसूचित जनजातियों के लिंए विशेष महत्व है, क्योंकि उनमें से अधिकांश की विशेष भाषाएं हैं तथा कुछ समुदाय जैसे संथालो की अपनी अलग लिपि भी है जिसे ओलचिकी कहते हैं। गोंड की अपनी लिपि है। मुंडा जनजाति की मुंडारी है आदि और इस प्रावधान से भाषाई संस्कृति को बचाने का एक सफल प्रयास किया गया है परन्तु इस उपबंध का यह अर्थ नहीं लगाया जाए कि जनजाति के लोगों को केवल 'उनकी ही भाषा में शिक्षित किया जाए क्यों कि ऐसा करने से वे अलग-अलग हो जाएगें। उन्हें राज्य की भाषा के सांथ-साथ राष्ट्रीय भाषा में भी शिक्षित किया जाए ताकि राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ उनके संघटन को मदद दी जा सके।लेकिन जनजातीय भारत 70 साल बाद भी संक्रमण के दौर में है।

संविधान का अनुच्‍छेद 46 प्रावधान करता है कि राज्‍य समाज के कमजोर वर्गों में शैक्षणिक और आर्थिक हितों विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विशेष ध्‍यान रखेगा और उन्‍हें सामाजिक अन्‍याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रखेगा।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989

संविधान के अनुच्छेद 14 में ही समानता के मूल अधिकार की व्यवस्था की जा चुकी है पर भारत जैसे देश में जाति और धर्मं का जाला इतना जटिल है कि स्वतंत्रता भौगौलिक आधार पर ही 1947 में मिली लेकिन मानसिक स्तर पर हम ने अपने दिल दिमाग को संकीर्णता की जंजीरों से ही जकड कर रखा जिसके कारण हम उच्च और निम्न जाति के मकडजाल से नहीं उबार सके और इसी मानसिक दुराग्रह को समझते हुए संविधान में अनुच्छेद 47 का प्रावधान किया गया जिसके अनुसार अनुच्छेद 47 के अंतर्गत "अस्पृश्यता" का अंत हो गया है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया गया है।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

"अस्पृश्यता" से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा। इस अनुच्छेद से संबधित दो महत्वपूर्ण कानून है अर्थात नागरिक अधिकार संरक्षण अधिज्रियम, 1955 और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989। "अस्पृश्यता" का प्रचार और आचरण करने और उससे उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करने, और उससे संबंधित बातों के लिए दण्ड विहित करने के उद्देश्य से सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम बनाया गया है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर अत्याचार का अपराध करने का निवारण करने के लिए, ऐसे अपराधों के विचारण के लिए विशेष न्यायालयों का. तथा ऐसे अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों को राहत देने का और उसके पुनर्वास का तथा उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 है। इस अधिनियमन के माध्यम से पीड़ितों के अधिकारों को मान्यता प्रदान की गई थी।

अनु0 जाति और अनु0 जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 अभियुक्तों को कड़ी और बड़ी हुई सजा देने तथा पीडितों अथवा उनके परिवार के पुनर्वास की भी व्यवस्था करता है। उसके अधीन बनाए गए अनु0 जाति तथा अनु0 जन जाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 में पीड़ितो अथवा उनके परिवार के पुनर्वास और आर्थिक सहायता के लिए प्रावधान समाविष्ट है। संविधान और उसके प्रकाश में बनी विधि के बाद भी आज तक जनजाति के ऊपर अत्यचार पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है जो संविधान को पुनः अवलोकन के लिए विवश करते है।

संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूचियों में उल्लिखित प्रावधानों के साथ पठित अन्‍य विशिष्‍ट सुरक्षण अनुच्‍छेद 244 में उपलब्ध हैं।

भारतीय संविधान का 164(1)

अनुच्‍छेद 164(1) उपबंध करता है कि छत्तीसगढ़, झारखण्‍ड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक हो सकेगा।लेकिन ये दुखद है कि इन राज्यों में ही जनजातियों का कल्याण आज भी उपेक्षित है वो गरीबी की मार से नहीं उबर पा रहे है लेखक ने उदिशा के भुबनेश्वर के सालिया सही में कार्य करते हुए गरीबी का हाल देखा गया झूठे खाने को इकाथ्ता करके उसे पानी सड़ा कर जो जूस बनाते है उस्सी से भूख मिटाते है एस एही उदिशा की कोंध जनजाति में गरीबी का हाल देश में जग जाहिर है।

अनुच्‍छेद 243घ पंचायतों में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का उपबंध करता है।पर इस के कारन ही अब जनजातियों की राजनैतिक सहभागिता तो बढ़ी है लेकिन बाहरी दुनिया से ज्यादा जुडाव न होने के कारण वो अपने काम में इतने प्रभाव शाली नहीं हो पाए है जितने अन्य जातीय समूह के लोग है।

अनुच्छेद 275(1) में छठी अनुसूची में शामिल किए गए राज्यों को भारत की संचित निधि में से ऐसे विशेष अनुदान दिए जाने के लिए भी इसी प्रकार की व्यवस्था की गई है। छठी अनुसूची में असम (उत्तरी कछार पर्वतीय जिला तथा कार्बी अंगलोग जिला), मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा ( स्वशासी पर्वतीय जिला) राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित प्रावधान है। इन क्षेत्रों में स्वशासी जिला परिषदें तथा स्वशासी प्रादेशिक (रीजनल) परिषदें हैं। इन क्षेत्रों में स्वप्रबंध की पुरानी परम्परा है। ये स्वशासी परिषदें न केवल विभिन्नं विभागों तथा विकास कार्यक्रमों का प्रशासन करती हैं, बल्कि उन्हें विभिन्न् विषयों से संबंधित जैसे भूमि, वन, झूम खेती, ग्राम अथवा नगर प्रशासन जिसमें ग्रामं और शहर की पुलिस और जन स्वास्थ्य तथा स्वच्छता सहित ग्राम और शहरी प्रशासन, संपत्ति की विरासत, विवाह एवं विवाह-विच्छेद तथा सामाजिक रीति - रिवाज पर कानून बनाने की भी शक्तियां प्राप्त हैं।

अनुच्‍छेद 330- लोक सभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का उपबंध करता है।

अनुच्‍छेद 332- विधान सभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का उपबंध करता है।

अनुच्‍छेद 334- प्रावधान करता है कि लोक सभा और राज्‍य विधानसभाओं (और लोक सभा और राज्‍य विधान सभाओं में नामांकन द्वारा एंग्‍लो-इंडियन समुदायों का प्रतिनिधित्‍व) में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण का प्रावधान है जिसके कारन सदन में प्रभावी तरह से जनजाति की बातो समस्याओ को रखा जाने लगा।

अनुच्‍छेद 371क नागा जनजाति से सम्बंधित होने के कारण नागालैंड राज्‍य बना जिसके संबंध में विशेष प्रावधान करता है।

अनुच्‍छेद 371ख असम राज्‍य के संबंध में विशेष प्रावधान किया गया।

अनुच्‍छेद 371ग मणिपुर राज्‍य के संबंध में विशेष प्रावधान किया गया।

अनुच्‍छेद 371च सिक्किम राज्‍य के संबंध में विशेष प्रावधान किया गया।

बीमारियों एवं बेरोजगारी से जूझ रहे जनजाति समूह

अनुसूचित जनजातियों को विनिर्दिष्‍ट करने वाले संवैधानिक आदेशों में संशोधन2 संविधान को पूर्णता प्रदान करने के लिए पिछले 70 वर्षो में लगातार प्रयास किया जाता रहा है लेकिन यही अंतिम स्थति नहीं है सम्पूर्ण देश में अभी भी अनेको ऐसे समूह है जो जनजाति का दर्जा पाने के लिए संघर्ष कर रहे है जिनमे से कुछ निम्न है।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

नर्रिकुरोवर समुदाय आज भी निरक्षरता, विभिन्न प्रकार की बीमारियों और बेरोज़गारी से जूझ रहा है। इस समय तमिलनाडु में लगभग 8,500 नर्रिकुरोवर परिवार (30,000 लोग) हैं, जो राज्य की आबादी के 0.1 प्रतिशत से भी कम है जो जनजाति का दर्जा पाने के लिए संघर्षरत है।

उत्तराखंड के रवाई जौनपुर वर्ष 1973 से जनजाति का दर्जा पाने के लिए आन्दोलन कर रहे है और अभी भी संसद में बिल लंबित है। इसी तरह से भोटिया जनजाति के लिए सामान ढ़ोने वाले आज जनजाति का दर्जा पाने के लिए आन्दोलन कर रहे है इन आन्दोलनों के पीछे जनसँख्या बढ़ने के कारण जीवन जीने में आने वाली कठनाई और सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधा का लोभ ज्यादा है। जो संविधान के अनुच्छेद 342 को दबाव में ला रही है क्योंकि जो मानक जनजाति घोषित होने के लिए आवश्यक है उनको पूरा करना ज्याद अकत्हीं नहीं है और इसी लिए भारत 21 वीं सदी की तरह अग्रसर होते हुए भी जनजाति की बढती जनसँख्या एक नकारात्मक छवि उत्पन्न करती है।

संविधान में कृत्रिम मानको को पूरा करके जनजाति का दर्जा पाने की होड़ सी मची है जबकि वास्तविक समूह आज भी बाँट जोह रहे है इसी में उत्तर प्रदेश के सीमांत जिले बहराइच के अन्तर्विवाही समूह धान्यकूट जिसमे साक्षरता का स्तर भी 10 प्रतिशत नहीं है जिसमे सिर्फ 2 लोगो के अलावा किसी के पास सरकारी नौकरी ही नहीं है जिनके बीच ममेरे फुफेरे भाई बहन के बीच आज भी विवाह हो रहा है। जबकि ये अविधिक है पर संविधान के तमाम अनुच्छेद उनके लिए बेमानी है और यही कारण है कि देश संविधान ने नहीं चलाया बल्कि लोगो ने अपने फायेदे के लिए संविधान को चलाया जिसके कारण ये विधिक ग्रन्थ आज भी एक अपूर्ण ग्रन्थ की तरह अपनी पूर्णता के लिए रात दिन प्रयास करते हुए न जाने कितने संशोधनों को अभी और अपने में समाहित करेगा पर इन सबसे देश में आधुनिकता, विकास, प्रगति के मोहरे को भी बहुत गंभीर क्षति हो रही है।

ऐसा इसलिए क्योंकि भौतिक संस्कृति में तो भारत को आगे जाते दिखाया जा रहा है पर संविधान के प्राविधानो की दृष्टि से स्वतत्रता के बाद से ही भारत में जनजाति के लगातार बढ़ते समूहों की संख्या और एक बार इन समूहों में चिन्हित होने के बाद इनमे बने रहने के आन्दोलनों के प्रकाश में संविधान ने एक सामाजिक सांस्कृतिक रूप से पिछड़े भारत की तस्वीर ज्यादा पिछले 70 सालो में प्रस्तुत की है जो जनजाति की स्वयं की जनसँख्या और इनके पूरे भारत मे बढ़ते हुए इनके समूहों की संख्या से ज्यादा दिखाई दे रही है इसलिए संविधान ने 70 साल में अपने को एक बूढ़े होते भारत की तरह सामाजिक आधार पर ज्यादा प्रस्तुत किया है जिस पर गहन विचार र्किये जाने की आवश्यकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 342

जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए कारगर उपाय न किये जाने के कारण देश में संविधान के अनुच्छेद 342 और अन्य अनुच्छेदों का सहारा लेकर एक आरक्षित और सुविधाओ को आसानी से पाने की होड़ में सैकड़ो सामाजिक -सांस्कृतिक समूह जनजाति का दर्जा पाने के लिए संघर्ष कर रहे है और दूसरी तरह देश के प्रजातंत्र में मत के आधार पर चुन कर सदन जाने की नीति में कोई भी राजनैतिक सत्ता इस बात का प्रयास ही नहीं करती कि जिन जनजाति समूहों को पर्याप्त सरकारी लाभ मिल चुका जो आर्थिक रूप से मजबूत हो चुके है उनको अब जनजाति के दर्जे से बाहर कर दिया जाना चाहिए पर ऐसा न होने के कारण संवैधानिक लाभ एकंगा हो गया है और कुछ समूह तक ही सिमट गया है जैसे मीना भील, भोटिया, संथाल, मुंडा आदि और इस अर्थ में संविधान के 70 साल पर एक प्रश्न दिखाई देने लगता है जिसका उत्तर खोजना हर सभी का सबसे बड़ा दायित्व है। भारत में जनजाति का होना सांस्कृतिक धरोहर के रूप में एक सुखद तथ्य है पर पूरा भरत ही संविधान के सहारे जनजातीय भारत हो जाये इस पर अंकुश भी लगाये जाना चाहिए यह भी संविधान के प्रस्तावना की मूल भावना है जिसको आज समझने की आवश्यकता है।

जनजाति (tribe) वह सामाजिक समुदाय है जो राज्य के विकास के पूर्व अस्तित्व में था या जो अब भी राज्य के बाहर हैं। जनजाति वास्‍तव में भारत के आदिवासियों के लिए इस्‍तेमाल होने वाला एक वैधानिक पद है। भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति पद का प्रयोग हुआ है और इनके लिए विशेष प्रावधान लागू किये गए हैं।

राल्फ लिटंन के अनुसार, "सरलतम रूप मे जनजाति ऐसी टोलियों का एक समूह है। जिसका एक सानिध्य वाले भूखण्ड़ो पर अधिकार हो और जिनमें एकता की भावना, संस्कृति में गहन सामान्यतः निरंतर संपर्क तथा कतिपय सामुदायिक हितों में समानता से उत्पन्न हुई हो।"

डॉ. घुरिये के अनुसार- "भारत मे जनजाति पिछड़े हुए हिन्दू है।"

हाबेल के शब्दों मे- "जनजाति या प्रजाति विशिष्ट जननिक रचना के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले शारीरिक लक्षणों का एक विशिष्ट संयोग रखने वाले अंतः संबंधित मनुष्यों का एक वृहत समूह
मजूमदार के अनुसार "कोई जनजाति परिवारों का ऐसा समूह है जिसका एक समान नाम है जिसके सदस्य एक निश्चित भूभाग पर निवास करते है तथा विवाह व व्यवसाय के संबंध मे कुछ निषेधाज्ञाओं का पालन करते है।

राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम और जानजाति समूह

राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 (1956 का अधिनियम 37) द्वारा 1956 में राज्‍यों के पुनर्गठन के फलस्‍वरूप उपरोक्‍त 2 संवैधानिक आदेश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) अधिनियम, 1956 (1956 का अधिनियम 63) दिनांक 25 सितम्‍बर, 1956 की धारा 4(i) और 4(ii) के तहत संशोधित किए गए थे।

Essay- भारतीय संविधान के सत्तर साल और जनजातीय भारत

राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम की धारा 41 और बिहार एवं पश्चिम बंगाल (क्षेत्रों का हस्‍तान्‍तरण) अधिनियम, 1956 (1956 का 40) का अनुसरण करते हुए, राष्‍ट्रपति ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति सूचियां (संशोधन) आदेश, 1956 जारी किया। संविधान (अनुसूचित जनजातियां) आदेश, 1950 को सूची संशोधन आदेश, 1956 की धारा 3(1) के तहत संशोधित किया गया जबकि संविधान अनुसूचित जनजातियां (भाग ग राज्‍य) आदेश, 1951 को सूची संशोधन आदेश, 1956 की धारा 3(2) के तहत संशोधित किया गया।

अन्‍य पिछड़ा वर्गों के विशिष्टिकरण के लिए विभिन्‍न वर्गों की मांग को दृष्टिगत रखते हुए प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर की अध्‍यक्षता में) 1955 में गठित किया गया था। कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1956 में प्रस्‍तुत की। आयोग ने अनुसूचित जनजातियों को भी अन्‍य पिछड़े वर्गों में शामिल करने की सिफारिश की थी। इसके अतिरिक्‍त संविधान अनुसूचित जनजाति आदेश की संशोधन की प्रक्रिया के माध्‍यम से अनुसूचित जनजातियों की सूची में नये समुदायों के विशिष्टिकरण की मांग की जांच के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (लोकुर समिति) की सूचियों के संशोधन पर एक सलाहकार समिति 1965 में बनायी गयी थी। उसके बाद संसद में प्रस्‍तुत संविधान आदेशों के संशोधन के लिए एक प्रारूप विधेयक अनुसूचित जातियां एवं अनुसूचित जनजातियां आदेश (संशोधन) विधेयक, 1967 (चंदा समिति) पर संसद की संयुक्‍त चयन समिति को भेजा गया था।

एक अनुसूचित जनजाति के रूप में पहचान करने के लिए एक समुदाय हेतु निम्‍नलिखित आवश्‍यक विशेषताएं स्‍वीकार की गई -

(i) एकान्‍त और दुर्लभ पहुंच वाले क्षेत्रों में जीवन एवं आवास का आदिम स्‍वरूप,
(ii) विशिष्‍ट संस्‍कृति,
(iii) बड़े स्‍तर पर समुदाय के साथ सम्‍पर्क करने में संकोच
(iv) भौगोलिक एकाकीपन, और
(v) सभी दृष्टि से सामान्‍य पिछड़ापन

इस लेख के लेखक डॉ. आलोक चान्टिया, श्री जयनारायण पीजी कॉलेज, लखनऊ में मानवशास्त्री के असिस्‍टेंट प्रोफेसर हैं एवं अखिल भारतीय अधिकार संगठन के अध्‍यक्ष भी।

For Quick Alerts
ALLOW NOTIFICATIONS  
For Daily Alerts

English summary
This article provides you the notes for UPSC and other exams to make you aware of different sections and articles in Indian Constitutions for tribal communities.
--Or--
Select a Field of Study
Select a Course
Select UPSC Exam
Select IBPS Exam
Select Entrance Exam
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
Gender
Select your Gender
  • Male
  • Female
  • Others
Age
Select your Age Range
  • Under 18
  • 18 to 25
  • 26 to 35
  • 36 to 45
  • 45 to 55
  • 55+