What is Economic Recession in Hindi: आज विश्व की कई मजबूत अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक मंदी और उसके प्रभाव के चपेट में हैं। दुनिया के कई विकासित देशों में बड़ी और प्रतिष्ठित कंपनियां इस आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है। लोग अपनी नौकरियां खो रहे हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है और व्यवसायिक नुकसान भी शीर्ष पर है।
सरल शब्दों में कहें तो आर्थिक मंदी की स्थिति तब बनती है, जब किसी देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार या आर्थिक गतिविधियां धीमी हो जाती हैं। देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट आने को आर्थिक मंदी कह सकते हैं। इसका प्रभाव उत्पादन, व्यापार, रोजगार और आय सभी पर पड़ता है। आर्थिक मंदी की स्थिति अक्सर लंबी अवधि तक बनी रहती है और इसका परिणाम वैश्विक और घरेलू आर्थिक संकट के रूप में सामने आ सकता है।
आज के इस लेख में आर्थिक मंदी क्या है, आर्थिक मंदी के कारण और प्रभाव पर चर्चा की गई है। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षा जैसे यूपीएससी, एसएससी, पीएससी, रेलवे, बैंकिंग परीक्षाओं की तैयारी कर रहे उम्मीदवार आर्थिक मंदी और वैश्विक अर्थव्यवस्था के विषय पर बेहतर तैयारी के लिए इस लेख से संदर्भ ले सकते हैं। यहां 10 मुख्य बिंदुओं में आर्थिक मंदी के बारे में विस्तार से बताया गया है।
आर्थिक मंदी के कुछ मुख्य लक्षण
- जीडीपी में गिरावट: किसी देश की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगातार दो तिमाही या उससे अधिक समय तक गिरावट आना मंदी का प्रमुख संकेत होता है।
- उच्च बेरोजगारी: मंदी के दौरान कंपनियां कम मुनाफे के कारण कर्मचारियों की छंटनी करती हैं। इससे बेरोजगारी दर बढ़ जाती है।
- उत्पादन में कमी: फैक्ट्रियों और उद्योगों में उत्पादन घट जाता है। इससे बाजार में सामान की आपूर्ति भी प्रभावित होती है।
- निवेश में कमी: मंदी के दौरान कंपनियां और व्यक्तिगत निवेशक जोखिम उठाने से बचते हैं। इससे निवेश में भारी कमी आती है।
- मांग और खपत में कमी: उपभोक्ताओं के पास कम पैसे होने के कारण उनकी खरीद क्षमता कम हो जाती है। इससे बाजार में मांग घट जाती है।
आर्थिक मंदी क्या है?
आर्थिक मंदी अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधि में एक महत्वपूर्ण गिरावट है। यह निरंतर अवधि तक चलती है। आम तौर पर आर्थिक मंदी की स्थिति में, किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार दो तिमाहियों तक नकारात्मक वृद्धि होती है। मंदी का व्यवसायों, व्यक्तियों और समग्र अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। इससे इसके कारणों, प्रभावों और पुनर्प्राप्ति प्रक्रियाओं को समझना आवश्यक हो जाता है।
फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार, मंदी के दौरान केवल एक देश ही नहीं बल्कि पूरे दुनिया की अर्थव्यवस्था संघर्ष करती है। आर्थिक मंदी के दौरान लोगों की नौकरी चली जाती है, कंपनियों की बिक्री क्षमता कम हो जाती हैं, कंपनियां घाटे में चल रही होती है और देश का कुल आर्थिक उत्पादन भी घट जाता है। वह बिंदु जहां अर्थव्यवस्था आधिकारिक तौर पर मंदी में चली जाती है। आर्थिक मंदी कई कारकों पर निर्भर करता है।
आर्थिक मंदी के बारे में जानने के लिए यहां 10 महत्वपूर्ण बिंदु दिए गए हैं:
1. आर्थिक मंदी की परिभाषा क्या है?
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, हालांकि मंदी की कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है, लेकिन आम तौर पर यह शब्द आर्थिक गतिविधि में गिरावट की अवधि को संदर्भित करता है। आर्थिक गिरावट की बहुत छोटी अवधि को मंदी नहीं माना जाता है। अधिकांश टिप्पणीकार और विश्लेषक मंदी की व्यावहारिक परिभाषा के रूप में, देश के वास्तविक (मुद्रास्फीति-समायोजित) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार दो तिमाहियों में गिरावट का उपयोग करते हैं। अर्थात देश द्वारा उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में गिरावट।
हालांकि यह परिभाषा एक उपयोगी नियम है, लेकिन इसमें कमियां हैं। अकेले जीडीपी पर ध्यान केंद्रित करना संकीर्ण है। क्या कोई देश वास्तव में आर्थिक मंदी से पीड़ित है, इस बात की पुष्टि के लिए देश की आर्थिक गतिविधि के उपायों के व्यापक सेट पर विचार करना अक्सर बेहतर होता है। अन्य संकेतकों का उपयोग करके भी अर्थव्यवस्था की स्थिति का समय पर अनुमान लगाया जा सकता है। जीडीपी में गिरावट, उपभोक्ता खर्च में कमी, बढ़ती बेरोजगारी और कम औद्योगिक उत्पादन जैसे संकेतक अक्सर आर्थिक मंदी की शुरुआत का संकेत देते हैं।
2. मंदी के कारण- मुद्रास्फीति, बढ़ती ब्याज दरें, युद्ध या महामारी
मंदी कई कारकों के कारण हो सकती है। सामान्य कारणों में उच्च मुद्रास्फीति, बढ़ती ब्याज दरें, युद्ध या महामारी जैसी वैश्विक घटनाएं और वित्तीय संकट शामिल हैं। जब संपत्ति की कीमतें अस्थिर रूप से अधिक होती हैं और अचानक गिर जाती हैं, तो भी मंदी हो सकती है। हालांकि मंदी शुरू होने से महीनों पहले अर्थव्यवस्था में कमज़ोरी के संकेत दिखाई दे सकते हैं, लेकिन कोई देश वास्तव में मंदी में है या नहीं इसका निर्धारण करने के लिए समय अधिक लग सकता है।
मंदी के कारणों को समझना अर्थशास्त्र में शोध के स्थायी क्षेत्रों में से एक रहा है। मंदी के कई कारण होते हैं। कुछ कारण वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में उपयोग किए जाने वाले इनपुट की कीमतों में तेज बदलाव से जुड़े होते हैं। एक उदाहरण के तौर पर, तेल की कीमतों में भारी वृद्धि मंदी का संकेत हो सकती है। जैसे-जैसे ऊर्जा महंगी होती जाती है, समग्र मूल्य स्तर में बढ़ोत्तरी होती है। इससे कुल मांग में गिरावट आती है। मंदी किसी देश द्वारा संकुचनकारी मौद्रिक या राजकोषीय नीतियों को लागू करके मुद्रास्फीति को कम करने के निर्णय से भी शुरू हो सकती है। जब वस्तु या सेवाओं का अत्यधिक उपयोग किया जाता है, तो ऐसी नीतियों से वस्तुओं और सेवाओं की मांग में गिरावट आ सकती है। इसके परिणामस्वरूप अंततः आर्थिक मंदी आ सकती है।
3. आर्थिक मंदी का रोजगार पर प्रभाव
आर्थिक मंदी के सबसे तात्कालिक प्रभावों में से एक बेरोजगारी में वृद्धि है। कंपनियां अक्सर लागत कम करने के लिए अपने कर्मचारियों की संख्या कम कर देती हैं। इससे बड़े पैमाने पर नौकरियां घटने लगती है और कंपनियों में छटनी का दौर शुरू हो जाता है। इससे बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ती है क्योंकि कंपनियां नए कर्मचारियों को काम पर नहीं रख पाती हैं और पहले से काम कर रहे कर्मचारियों की भी नौकरियां छिन जाती हैं। इससे उपभोक्ता खर्च और भी कम हो जाता है, जिसके कारण आर्थिक मंदी और भी बढ़ जाती है।
मंदी के समय नई नौकरियां पर रफ्तार धीमी हो जाती हैं। कंपनियां विस्तार करने के बजाय अपने मौजूदा व्यवसाय को बनाए रखने पर ध्यान देती हैं। अक्सर इससे नौकरी के नए अवसरों में कमी आती है। मंदी के दौरान कई कंपनियां अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती करती हैं ताकि लागत को संतुलित कर सकें। इससे कर्मचारियों की आय में कमी आती है और उनके जीवन स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
आर्थिक मंदी के दौरान लोगों के मन में नौकरी खोने का डर भी बना रहता है। इस प्रकार वे अपने खर्चों में कटौती करने लगते हैं। इससे उपभोक्ता मांग घटती है और मंदी को और गहरा बना देती है। कई कंपनियां मंदी के दौरान स्थायी कर्मचारियों की जगह अस्थायी या अनुबंध आधारित कर्मचारियों को रखना पसंद करती हैं। इससे लोगों को नौकरी की स्थिरता नहीं मिलती और असुरक्षा का माहौल बना रहता है।
4. आर्थिक मंदी के कारण उपभोक्ता खर्च में कमी
आर्थिक मंदी के दौरान व्यक्ति और व्यवसाय अपने बजट को कम करने लगते हैं। वस्तुओं और सेवाओं पर उपभोक्ता खर्च में कमी से मांग में कमी आती है। अक्सर इससे कंपनियों के राजस्व और लाभप्रदता पर असर पड़ता है और आर्थिक गिरावट में और भी वृद्धि होती है। मंदी के दौरान लोग अपनी आय और भविष्य को लेकर अनिश्चितता महसूस करते हैं। इस कारण वे गैर-जरूरी खर्चों में कटौती करने लगते हैं और केवल आवश्यक वस्तुओं पर खर्च करना पसंद करते हैं। लोग बड़े निवेश जैसे घर, कार और अन्य महंगी वस्तुओं की खरीदारी को टाल देते हैं। इससे बाजार में मांग कम हो जाती है, जिसका सीधा असर उत्पादन और व्यापारिक गतिविधियों पर पड़ता है।
उपभोक्ता खर्च में कमी से कंपनियों की आय घटती है। इसके परिणामस्वरूप वे कर्मचारियों की छंटनी करती हैं या उनके वेतन में कटौती करती हैं। इससे बेरोजगारी बढ़ती है और आर्थिक मंदी और गहरी हो जाती है। इस प्रकार आर्थिक मंदी का चक्र उपभोक्ता खर्च में कमी से और तेज हो जाता है। और इससे अर्थव्यवस्था को उबरने में अधिक समय लगता है।
5. आर्थिक मंदी और व्यवसाय का बंद होना
आर्थिक मंदी के दौरान अक्सर छोटे और मध्यम आकार के व्यवसाय सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बिक्री में तेज़ गिरावट, लागत में वृद्धि और ऋण तक पहुँच की कमी के कारण कई व्यवसाय बंद हो सकते हैं। बेरोजगारी बढ़ सकती है और आर्थिक संकट गहरा सकता है। व्यवसाय के बंद होने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से आर्थिक मंदी, बाजार में मांग की कमी, कड़ी प्रतिस्पर्धा, प्रबंधन की गलतियां या कर्ज का बढ़ना शामिल हो सकता है।
लंबे समय तक व्यवसाय बंद होने पर कंपनी को अपने कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ती है, उत्पादन घटाना पड़ता है और अंततः कारोबार बंद करने की नौबत आ जाती है। इसका प्रभाव व्यापक होता है और इसे रोकने के लिए सही समय पर वित्तीय योजना और प्रबंधन अत्यंत आवश्यक होता है।
6. आर्थिक मंदी के कारण शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव
आर्थिक मंदी (Economic Recession in Hindi) का शेयर बाज़ार पर गहरा असर पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव का माहौल कई महीनों तक बना रहता है। जब किसी देश की अर्थव्यवस्था मंदी का सामना कर रही होती है, तो निवेशकों का विश्वास कम हो जाता है। वे अपनी पूंजी सुरक्षित स्थानों पर लगाने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि शेयर बाजार में अस्थिरता आ जाती है।
आर्थिक मंदी के दौरान कंपनियों की कमाई घटती है और उनके मुनाफे में कमी आती है। इसका सीधा प्रभाव शेयरों की कीमतों पर पड़ता है, जो गिरावट की ओर जाती हैं। निवेशक इन कंपनियों में अपना पैसा लगाने से बचते हैं, क्योंकि भविष्य में लाभ की संभावना कम हो जाती है। इसके चलते बाज़ार में बिकवाली का दबाव बढ़ जाता है, जिससे शेयरों की कीमतें और नीचे चली जाती हैं।
इसके विपरीत जब सरकार या केंद्रीय बैंक मंदी से निपटने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन या ब्याज दरों में कटौती जैसे कदम उठाते हैं, तो निवेशकों का विश्वास कुछ हद तक बहाल हो सकता है। यह कभी-कभी शेयर बाजार में थोड़ी स्थिरता ला सकता है, लेकिन कुल मिलाकर आर्थिक मंदी के समय बाजार में अनिश्चितता और उतार-चढ़ाव बना रहता है। आर्थिक मंदी के कारण होने वाली गिरावट से उबरने में बाज़ारों को कई सालों का समय लग सकता है।
7. आर्थिक मंदी के दौरान सरकारी हस्तक्षेप
देश की आर्थिक स्थिति धीमी होने से उत्पादन, आय और रोजगार में गिरावट आती है। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है। सरकार विभिन्न नीतियों और उपायों के माध्यम से मंदी को नियंत्रित करने और अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की कोशिश करती है। आर्थिक मंदी के दौर में सरकारी हस्तक्षेप का मुख्य उद्देश्य मांग बढ़ाना और नौकरी के अवसर पैदा करना होता है। इसके लिए सरकार वित्तीय प्रोत्साहन जारी करती है, जिसमें जनता के लिए आर्थिक सहायता, बुनियादी ढांचे पर निवेश और कमजोर क्षेत्रों के लिए विशेष योजनाएं शामिल होती हैं।
इसके अलावा सरकार केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को कम कर सकती है, ताकि लोगों और व्यापारों के लिए कर्ज लेना आसान हो सके। इससे बाजार में नकदी प्रवाह बढ़ता है और खर्च को प्रोत्साहन मिलता है। सरकार करों में कटौती और सब्सिडी के माध्यम से भी व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा दे सकती है। इससे कंपनियां अपने उत्पादों और सेवाओं को कम कीमतों पर बेच सकती हैं और उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बढ़ती है।
सरकारी हस्तक्षेप का उद्देश्य आर्थिक मंदी के प्रभाव को कम करना, बेरोजगारी को नियंत्रित करना और आर्थिक स्थिरता को बनाए रखना होता है। ताकि देश की अर्थव्यवस्था पुनः विकास के रास्ते पर लौट सके।
8. वैश्विक व्यापार पर आर्थिक मंदी के प्रभाव
इस बात में दो राय नहीं है कि आर्थिक मंदी का वैश्विक व्यापार पर व्यापक और गंभीर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि देश कम मांग और उत्पादन के कारण आयात और निर्यात कम कर देते हैं। इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो सकती है, जिससे दुनिया भर में विकास कम हो सकता है। वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के अंतर्संबंध का मतलब है कि एक देश में मंदी जल्दी से दूसरे देशों में फैल सकती है।
जब किसी देश की अर्थव्यवस्था मंदी का सामना करती है, तो उसकी खपत और मांग में गिरावट आती है, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार घटने लगता है। ऐसी स्थिति में देश आयात पर कम खर्च करता है और निर्यातक देशों को नुकसान होता है। वैश्विक व्यापार में कमी आने का मुख्य कारण यह है कि आर्थिक मंदी के दौरान उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति कम हो जाती है और वे अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर देते हैं। इसके अलावा कंपनियां भी उत्पादन घटा देती हैं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में कमी आती है।
आर्थिक मंदी के चलते कई देशों की मुद्रा कमजोर हो जाती है। इस कारण आयात भी महंगा हो जाता है। आर्थिक मंदी से व्यापार घाटा बढ़ता है और वैश्विक आर्थिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है। आर्थिक मंदी के समय कई देशों में रक्षात्मक नीतियां अपनाई जाती हैं, जैसे टैरिफ बढ़ाना और आयात पर प्रतिबंध लगाना आदि। इसका उद्देश्य घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करना है। इससे वैश्विक व्यापार पर और अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
9. आर्थिक मंदी की रिकवरी अवधि
आर्थिक मंदी की गंभीरता के आधार पर मंदी से उबरने में महीनों या सालों भी लग सकते हैं। रिकवरी चरण में आर्थिक विकास में वापसी, रोजगार में वृद्धि और उपभोक्ता और व्यावसायिक विश्वास में वृद्धि होती है। सरकारें अक्सर राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के माध्यम से रिकवरी को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
यह अवधि मंदी की गहराई, सरकार की नीतियों और वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। आमतौर पर रिकवरी की प्रक्रिया धीमी होती है क्योंकि कंपनियां और उपभोक्ता धीरे-धीरे अपने खर्च और निवेश बढ़ाते हैं। रिकवरी के दौरान सरकारें आर्थिक सुधार के लिए विभिन्न नीतियों को लागू करती हैं। इनमें वित्तीय प्रोत्साहन, ब्याज दरों में कटौती और सार्वजनिक परियोजनाओं में निवेश शामिल है। इन उपायों से बाजार में मांग बढ़ती है और रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं।
रिकवरी की अवधि में उद्योग अपनी उत्पादन क्षमता को फिर से बढ़ाते हैं और निवेश में सुधार होता है। हालांकि इस अवधि के दौरान आर्थिक गतिविधियों में पूरी तरह से सुधार होने में कुछ वर्ष लग सकते हैं। कुछ क्षेत्रों में मंदी का प्रभाव लंबे समय तक बना रह सकता है।
10. आर्थिक मंदी के दीर्घकालिक प्रभाव
आर्थिक मंदी के दीर्घकालिक प्रभाव कई क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। मंदी के दीर्घकालिक प्रभावों में उद्योगों में संरचनात्मक परिवर्तन, सरकारी खर्च के कारण राष्ट्रीय ऋण में वृद्धि और उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव शामिल हो सकते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के लिए मंदी के दौरान लंबे समय तक बेरोज़गारी का कैरियर की संभावनाओं और वित्तीय सुरक्षा पर स्थायी प्रभाव पड़ सकता है।
आर्थिक मंदी का एक और दीर्घकालिक प्रभाव आर्थिक विकास की धीमी गति है। मंदी के बाद कई व्यवसायों और उद्योगों को पुनः उभरने में समय लगता है। इस कारण निवेश और उत्पादन में गिरावट आ सकती है। इसके अलावा सरकारी राजस्व में कमी आने से सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी योजनाओं पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।
कई रिपोर्ट्स की मानें तो आर्थिक मंदी के दीर्घकालिक प्रभाव के रूप में सामाजिक असमानता भी बढ़ सकती है। इसका कारण है कि मंदी के दौरान निम्न-आय वर्ग के लोगों पर इसका गहरा असर पड़ता है। मंदी से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाओं में भी गिरावट हो सकती है, जिसका सीधे तौर पर समाज के कमजोर वर्गों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।