भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कई कहानियां प्रसिद्ध है। कई इतिहासकारों का कहना है कि सन् 1857 में हुई क्रांति के बाद ही भारत में असली स्वतंत्रता संग्राम का आह्वान हुआ था। जबकि यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। सन् 1857 से से पहले देश के अलग-अलग प्रांतों में आदिवासियों और विभिन्न जनजातीय समुदाय के लोगों ने स्वतंत्रता के लिए निजी स्तर पर विद्रोह शुरू किया था।
स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियों की भूमिका को समझने के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों की भावनाओं और उनकी पृष्ठभूमि को समझने की आवश्यकता है। आदिवासी समुदायों द्वारा चलाये जाने वाले विद्रोह का मूल कारण अत्याचार, प्रताड़ना और दमन के खिलाफ लड़े गये। इस बात को आप ऐसे समझ सकते हैं कि आदिवासी विद्रोह स्थानीय परिस्थितियों के मद्देनजर स्थानीय स्तर पर ही लड़ी गईं।
1857 से 100 साल पहले शुरू हुआ आदिवासी विद्रोह
सन् 1756 तक कर्नाटक और तंजावुर क्षेत्र ब्रिटिश कम्पनी के अधीन हो गया। 1757 में बंगाल पर भी ब्रिटिश दमनकारियों ने अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया। 1761 आते-आते अंग्रेजों ने हैदराबाद के निज़ाम के आगे मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया और दोनों में साम्राज्य को लेकर मित्रता स्थापित हो गई। सन् 1765 में बंगाल की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी।
वहीं 1765 से 1798 तक मराठा, अफगानों तथा मैसूर के सुल्तानों के भय के कारण आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर ब्रिटिश कम्पनी ने आरक्षण नीति द्वारा पड़ोसी राज्यों को अन्तरिम राज्य बनाया, जिससे नव निर्मित ब्रिटिश राज्य शक्तिशाली मित्र राज्यों से घिर कर सुरक्षित बन गया। इतिहासकारों के अनुसार 1757 में हुये पलासी के युद्ध के साथ ब्रिटिश कम्पनी के दमन के खिलाफ आवाजें उठने लगी थी। इस युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर देश में ब्रिटिश राज की स्थापना की थी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व, आदिवासी समुदायों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कई विद्रोह और आंदोलनों का संचालन किया। भारत में 18वीं, 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान स्वतंत्रता के लिए कई विद्रोह किये। बता दें कि भारत में आदिवासी समुदायों द्वारा क्रांतिकारी विद्रोह की शुरुआत 1766 से ही शुरू हो गया था। आदिवासी समुदाय द्वारा भारत के विभिन्न प्रांतों में चलाए जा रहे विद्रोह में चुआड़ विद्रोह, चकमा विद्रोह , पहाड़िया सरदारों का विद्रोह, तिलका मांझी विद्रोह, तामार का विद्रोह, भूमिज विद्रोह, सरदारी आंदोलन प्रमुख हैं।
यहाँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व के आदिवासी विद्रोहों की सूची प्रदान की जा रही है। यूपीएससी, एसएससी समेत अन्य केंद्रीय या राज्य स्तरीय प्रतियोगी परीक्षा में इतिहास के विषय में पूछे जाने वाले प्रश्नों की तैयारी के लिए आप इस लेख से सहायता ले सकते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व के आदिवासी विद्रोहों की सूची
भील विद्रोह :
भील समुदाय के लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य उनके स्थानीय प्रशासन और अधिकारों की पुनर्स्थापना थी। भील विद्रोह की शुरुआत सन् 1818 में हुई थी। 1818 का भील विद्रोह देश में किसी समूह या जनजाति द्वारा उठाया गया पहला ब्रिटिश विद्रोह आंदोलन था। यह विद्रोह राजपूताना में ब्रिटिश सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध था।
इस जनजाति का शांतिपूर्ण जीवन जीने का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन ब्रिटिश प्रशासन और सामंती व्यवस्था द्वारा लाए गए परिवर्तनों ने उन्हें सरकार के खिलाफ उग्र बना दिया। विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा भील जनजाति से क्रूर व्यवहार और उनके पारंपरित वन अधिकारों का शोषण माना गया। हालांकि अंग्रेजी सेना इस विद्रोह को दबाने में कामयाब रही।
संथाल विद्रोह:
संथालों का विद्रोह भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की राजस्व प्रणाली, सूदखोरी प्रथाओं और जमींदारी प्रणाली को समाप्त करने की प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ। यह विद्रोह जिस क्षेत्र में हुआ वह बंगाल प्रेसीडेंसी के नाम से जाना जाता था। यह स्थानीय जमींदारों, पुलिस और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित कानूनी प्रणाली की अदालतों द्वारा लागू विकृत राजस्व प्रणाली के माध्यम से प्रचारित औपनिवेशिक शासन के उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह था। 30 जून 1855 को, दो संथाल विद्रोही नेताओं, सिद्धू और कान्हू मुर्मू ने लगभग 60,000 संथालों को संगठित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह की घोषणा की।
कोल विद्रोह:
1829 से 1839 के दौरान ब्रिटिश नीतियों की प्रतिक्रिया के रूप में छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी कोल लोगों द्वारा किया गया विद्रोह को कोल विद्रोह कहा गया। इन लोगों की अपनी संस्कृतियाँ, रीति-रिवाज और परंपराएँ हैं, जो मुख्यधारा से बहुत अलग हैं। सन् 1831 से 32 का कोल विद्रोह ब्रिटिश सरकार की नई व्यवस्था और कानूनों के खिलाफ आदिवासी लोगों की हताशा और गुस्से से पैदा हुआ था।
यह विद्रोह दक्षिण बिहार में सरकार के लिए एक राजनीतिक एजेंट की नियुक्ति की प्रतिक्रिया थी, और 1819 के आसपास आसपास के जिलों को सौंप दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप कई लोग इन क्षेत्रों में चले गए जो कई आदिवासी जनजातियों की भूमि थे। नए भूमि कानूनों के लागू होने के साथ, बाहरी लोगों द्वारा क्षेत्र में आकर कृषि और वाणिज्यिक गतिविधियों को अपनाने से कोलों का शोषण किया गया जो आदिवासी संस्कृति से अलग थे। कोल विद्रोह का नेतृत्व बुद्धू भगत, जोआ भगत और मदारा महतो ने किया था।
मुंडा आंदोलन:
मुंडा विद्रोह 1899 से 1900 में रांची के दक्षिण क्षेत्र में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में एक आदिवासी विद्रोह था। विद्रोह मुख्य रूप से खूंटी, तमाड़, सरवाड़ा और बंदगांव के मुंडा बेल्ट में केंद्रित था। मुंडा आदिवासियों द्वारा इसे उलगुलान कहा जाता था। बिरसा मुंडा ने 1894 में अपने विद्रोह की घोषणा की जो अंग्रेजों और दिकुओं (बाहरी लोगों) के खिलाफ था।
मुंडा विद्रोह का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को बहाल करना था जिन्हें औपनिवेशिक और स्थानीय अधिकारियों ने कुचल दिया था। इसका नेतृत्व आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक बिरसा मुंडा ने किया था। यह विद्रोह 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश राज के दौरान बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में हुआ था। इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है।
खोंड मुंडा विद्रोह (1831-1900):
उड़ीसा में खोंड विद्रोह 1837 और 1856 में हुआ। खोंडों का मुखिया चक्र बिसोई था। 1857 में ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ विद्रोह आयोजित करने में उड़ीसा खोंडों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विद्रोह करने वालों में घुमसर, चीन की मेडी, कालाहांडी और पटना की जनजातियाँ शामिल थीं। ये प्रदर्शन/विद्रोह उनके ऊपर ब्रिटिश कम्पनी के अत्याचार के जवाब में था। खोंड विद्रोह का मूल कारण "मारिया" प्रथा को गैरकानूनी घोषित करना था। खोंड विद्रोह केवल मानव बलि की प्रथा के कारण नहीं हुआ था जिसे ब्रिटिश अधिकारियों ने गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
इसके अलावा, राजनीतिक वैधीकरण के तरीके में भी बदलाव आया। एक ओर, पारंपरिक जनजातीय संगठन सत्तारूढ़ हिंदू अभिजात वर्ग और खोंडों के बीच आपसी सहयोग पर आधारित था, जिनसे उन्हें वैधता प्राप्त हुई थी। औपनिवेशिक शासन ने न केवल खोंड और हिंदू अभिजात वर्ग के बीच संबंधों को तोड़ दिया, बल्कि इसने खोंडों को अंग्रेजों के अधीन भी कर दिया। इसके अलावा, खोंड इलाकों में औपनिवेशिक विजय द्वारा किए गए अतिक्रमण ने कमजोर जनजातीय आबादी को 'बाहरी' ताकतों के संपर्क में ला दिया, जिसने खोंड आदिवासी संगठन को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया।
चुआड़ विद्रोह:
पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में चुआड़ विद्रोह का आगाज हुआ था। चुआड़ विद्रोह 1798-1799 के दौरान चरम पर था। इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश कंपनी के शोषणकारी भूमि राजस्व नीति के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना था। चुआड़ विद्रोह का नेतृत्व स्थानीय आदिवासी समुदाय चुआड़ और पाइक्स (वंशानुगत पुलिसकर्मी) ने किया था। 1798-99 में दुर्जन सिंह के नेतृत्व में चुआर विद्रोह अपने चरम पर था, लेकिन कंपनी की सेना ने उन्हें कुचल दिया। जंगल महल विद्रोह, जिसे चुआर विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है।
चुआड़, जिन्होंने मुगल काल से अपनी भूमि पर कब्ज़ा कर रखा था,अपनी कृषि भूमि को फिर से हासिल करने की औपनिवेशिक नीति से क्रोधित थे। जबकि पीढ़ियों से पुलिसकर्मियों और गार्डों के रूप में काम करने वाले पाइक्स को उनकी नौकरियों से बाहर निकाल दिया गया था। जून 1798 में 1500 चुआड़ों के एक समूह ने रायपुर क्षेत्र के बाजार और कचहरी में आग लगाकर विद्रोह कर दिया। समय के साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ यह विद्रोह बड़े पैमाने पर विरोध में बदल गया।
भूमिज विद्रोह:
भूमिज विद्रोह 1832-33 में पूर्वी भारत के जंगल महल क्षेत्र में हुआ था। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के बाराभूम की जमींदारों में विरासत के मुद्दे के रूप में शुरू हुआ विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशस्त्र संघर्ष में बदल गया। यह विद्रोह बड़ाभूम राजा, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफों, नमक-दरोगा और अन्य दिक्कुओं के खिलाफ भूमिजों की शिकायतों का परिणाम था। साथ ही कंपनी की शासन व्यवस्था को स्थानीय व्यवस्था पर थोपना भी लोगों को पसंद नहीं आया।
व्युत्पत्ति के अनुसार "भूमिज" शब्द उस व्यक्ति को दर्शाता है जो मिट्टी से पैदा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि बाद में वहां बसने वाले हिंदुओं ने उन्हें यह नाम इसलिए दिया होगा क्योंकि भूमिज प्रारंभिक निवासी होने के कारण उनके निवास स्थान में भूमि के बड़े हिस्से पर उनका कब्जा था।
भूमिज विद्रोह, जिसे गंगा नारायण का हंगामा के नाम से भी जाना जाता है, 1832-1833 के दौरान जंगल महल क्षेत्रों में रहने वाले भूमिज आदिवासियों द्वारा किया गया विद्रोह था। इसका नेतृत्व गंगा नारायण सिंह ने किया।
उपरोक्त सूची केवल कुछ आदिवासी विद्रोहों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसमें और भी कई ऐसे आंदोलन के नामों का उल्लेख किया जा सकता है, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व में आदिवासी समुदायों की सुरक्षा और सम्मान के लिये लड़े गये थें। इनमें से कुछ प्रमुख विद्रोह निम्नलिखित हैं-
- गूंजा विद्रोह
- रामोन मुंडा आंदोलन
- नागा विद्रोह
- सिंधूदुर्ग विद्रोह
- चकमा विद्रोह
- खड़िया विद्रोह
- बस्तर राज्य में हलबी जनजातियों द्वारा हलबा डोंगर
- छोटा नागपुर के पहाड़िया सरदारों का विद्रोह
- छोटानागपुर के तामार का विद्रोह
- महाराष्ट्र में महादेव कोली जनजाति और संताल जनजाति के तिलका मांझी का विद्रोह
- वायनाडी में कुरिचियार और कुरुम्बर का विद्रोह
- पोटो हो का विद्रोह
- छोटा नागपुर में चेरो और खारवार विद्रोह
- सरदारी आंदोलन
- पूर्वी बंगाल और असम में जयंतिया पहाड़ियों में सिंटेंग विद्रोह
- जुआंग समुदाय ने उड़ीसा में विद्रोह
- मध्य प्रांत के बस्तर राज्य में बस्तर विद्रोह
- बिहार में ताना भगत आन्दोलन
- मणिपुर में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उनके सरदारों के नेतृत्व में कुकी विद्रोह
- अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में कोया आदिवासी समुदाय ने गोदावरी एजेंसी में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह
- कोमुरम भीम के नेतृत्व में गोंड आदिवासी विद्रोह
- 14 वर्षीय रानी गाइदिन्ल्यू के नेतृत्व में नागाओं का विद्रोह
- ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सहयोग से गोंड और कोलम का विद्रोह
- जयपुर राज्य के कोरापुट में लक्ष्मण नाइक के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह
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