बिरसा मुंडा एक आदिवासी सुधारक के साथ-साथ धार्मिक नेता और मुंडा जनजाति से संबंधित स्वतंत्रता सेनानी भी थें। इनके कार्यों ने स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान किया था। बिरसा को ईसाई मिशनरियों को चुनौती देने और मुंडा और उरांव समुदायों के साथ-साथ धर्मांतरण गतिविधियों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने 19वीं शताब्दी में तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक धार्मिक और सूचनात्मक आंदोलन किया था।
बिरसा मुंडा कौन थें?
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 में हुआ था। वह एक युवा स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थें। उन्होंने 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। बिसरा, मुंडा नामक जनजाति का हिस्सा है और एक स्वतंत्रा सेनानी के तौर पर उन्होंने आपना पूरा बजपन छोटानागपुर पठार में बिताया था।
मुंडा को वर्ष 1900 में ब्रिटिश सेना द्वारा पकड़ लिया गया था। 9 जून, 1900 में 25 वर्ष की आयु में रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। मुंडा के विद्रोह ने आदिवासी समुदाय को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लामबंद किया। इसने 1908 में अधिकारियों को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के जैसे आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों के संबंध में कानून पेश करने के लिए भी मजबूर किया।
आदिवासीयों नेता मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज मुंडा की स्मृति में एक संग्रहालय का उद्घाटन करने वाले हैं।
बिरसा मुंडा का जीवन
बिरसा मुंडा के जन्म 15 नवंबर 1875 में बंगाल प्रेसीडेंसी के उलिहातु में मुंडा परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम कर्मी हटू और सुगना मुंडा था। उनका बचपन गरीबी में बीता। वह एक ठेठ मुंडा परिवार से थें। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा चाईबासा में बिताया क्योंकि वे वहां के राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित थे।
1890 के दशक के दौरान से उन्होंने अंग्रेजों द्वारा किए गए शोषण के बारे में अपने लोगों से बात करनी शुरू की। ब्रिटिश कृषि नीतियां आदिवासी लोगों का गला घोंट रही थीं और उनके जीवन जीने के तरीके को बड़े पैमाने पर बाधित कर रही थीं। एक अन्य समस्या ईसाई मिशनरियों द्वारा जनजातीय लोगों की सांस्कृतिक की अवहेलना भी थी।
मुंडाओं ने संयुक्त जोत की खुनखट्टी प्रणाली का पालन किया लेकिन अंग्रेजों ने इस समतावादी व्यवस्था की जगह पर जमींदारी व्यवस्था ला दी। बाहर के लोगों ने आदिवासी परिदृश्य में प्रवेश कर उनका शोषण करना शुरू किया। अपने ही क्षेत्र में वे बंधुआ मजदूर की तरह कार्य करने लगे। इसके साथ गरीबी उन पर गला घोंटने की जंजीर के रूप में उतरी।
बिरसा ने 1894 में, अंग्रेजों और दीकुओं (बाहरी लोगों) के खिलाफ घोषणा की और इस तरह मुंडा उलगुलान (विद्रोह) शुरू हुआ। 19वीं शताब्दी में भारतीय आदिवासियों और किसानों के विभिन्न विद्रोहों के बीच यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विद्रोह था।
धर्मांतरण के अत्याचार को देख कर बिरसा ने भी अपना धर्म शुरू किया और यह घोषणा कि की वह ईश्वर का दूत है। इसके साथ ही कई मुंडा, खरिया और उरांव ने उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार किया। जनता के इस नए नेता को देखने के लिए कई अन्य हिंदूों और मुसलमानों की भीड़ भी उमड़ पड़ी।
बिरसा ने आदिवासी लोगों को मिशनरियों से दूर रखने और अपने पारंपरिक तरीकों पर लौटने की वकालत की। उन्होंने लोगों से टैक्स न देने की भी अपील की।
1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उसके दो साल बाद ही रिहा भी कर दिया गया। 1899 में, उन्होंने लोगों के साथ मिलकर अपना सशस्त्र संघर्ष फिर से शुरू किया। उन्होंने पुलिस थानों, सरकारी संपत्ति, गिरजाघरों और जमींदारों के घरों को तोड़ दिया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने उन्हें 1900 में जामकोपई जंगल, चक्रधरपुर में पकड़ा। 9 जून 1900 को रांची जेल में बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गई। अधिकारियों ने दावा किया कि उनकी मृत्यु हैजे की वजह से हुई थी।
बिरसा का बचपन और प्रारंभिक जीवन
बिरसा मुंडा का परिवार मुंडा के नाम से जाने जाने वाली जातीय आदिवासी समुदाय से था। कम उम्र से ही बिरसा को बांसुरी बजाने में रुचि थी। अधिक गरीबी के कारण से उन्हें उनके मामा के गांव अयुभातु ले जाया गया, जहां उन्होंने दो साल तक समय बिताया। शादी के बाद वह अपनी मां की छोटी बहन जोनी के साथ खटंगा स्थित उनके नए घर में भी गए।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जयपाल नाग द्वारा संचालित सालगा के स्कूल से प्राप्त की। वह पढ़ाई में काफि तेज थें, इसी कारण से जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में जाने के लिए राजी किया। बाद में उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म को अपनाया। जिसके बाद उन्होंने बिरसा डेविड के रूप में स्कूल में दाखिला लिया।
बिरसा की सक्रियतावाद
1886 से 1890 तक उनका परिवार चाईबासा में रहता था, जो सरदारों की गतिविधियों के प्रभाव में था। वह इन गतिविधियों से प्रभावित थें और उन्हें सरकार विरोधी आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। 1890 में, उनका परिवार वहां से चला गया और सरदारों के आंदोलन का समर्थन करने के लिए उन्होंने जर्मन मिशन में अपनी सदस्यता को छोड़ दिया। बाद में उन्होंने पोरहट क्षेत्र में संरक्षित वन में मुंडाओं के पारंपरिक अधिकारों पर लागू किए अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ हो रहे आंदोलन में खुद को शामिल किया। 1890 के दशक की शुरुआत में, भारत पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश कंपनी की योजनाओं के बारे में आम जनता में जागरूकता फैलाना का काम शुरू किया। इस तरह वह एक सफल नेता के रूप में उभरे और उन्होंने कृषि और संस्कृति परिवर्तन की दोहरी चुनौती के खिलाफ विद्रोह शुरु किया। उनके नेतृत्व में, आदिवासी आंदोलनों ने गति पकड़ी और अंग्रेजों के खिलाफ कई विरोध प्रदर्शन किए गए। आंदोलन द्वारा प्रदर्शित किया गया कि आदिवासी जमीन के असली मालिक थे और इसके साथ ही उन्होंने बिचौलियों और अंग्रेजों के निष्कासन की भी मांग सामने रखी।
उनके आकस्मिक निधन के बाद से ही आंदोलन फीका पड़ने लगा। परन्तु यह उल्लेखनीय रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि उन्होंने औपनिवेशिक सरकार को ऐसा कानून पेश करने के लिए मजबूर किया जिसमें आदिवासी लोगों की भूमि आसानी से डिकुस (बाहरी लोगों) हड़प न सके। इसी के साथ वह आदिवासी समुदाय की ताकत और ब्रिटिश राज के पूर्वाग्रह के खिलाफ खड़े होने के साहस का भी प्रतीक एक हैं।
वह सर्वशक्तिमान के स्वयंभू दूत भी थें और साथ ही उन्होंने हिंदू धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया था। उन्होंने सिफारिश की कि जो भी आदिवासी लोग ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए हैं, वह अपनी मूल धार्मिक व्यवस्था में लौट आएं। उन्होंने एक ईश्वर की अवधारणा की भी वकालत की। आखिर में, वह आदिवासी लोगों के लिए एक ईश्वर-पुरुष के रूप में आए।
अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा का विद्रोह
19वीं सदी के अंत में, अंग्रेजों की भूमि नीतियों ने पारंपरिक आदिवासी भूमि व्यवस्था को नष्ट कर दिया और साहूकारों ने उनकी भूमियों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। मिशनरी, आदिवासी संस्कृति के खिलाफ थे। 1899 में बिरसा मुंडा ने रांची के दक्षिण में एक विशाल आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व किया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को उनके क्षेत्र से बाहर निकालना था। इस आंदोलन को 'उलगुलान' के नाम से जाना गया। 'मुंडा राज' की स्थापना के लिए और लोगों को जगाने के लिए उन्होंने पारंपरिक भाषा उग्र में भाषण दिया। मुंडा और उनके अनुयायियों ने पुलिस स्टेशनों पर हमला किया, 'ज़मींदारों' की संपत्तियों पर छापा मारा और 'मुंडा राज' के उदय को दर्शाने के लिए ब्रिटिश झंडे की जगह सफेद झंडे उठाए।
उनका व्यक्तिगत जीवन और विरासत
सिंहभूम में रहने के दौरान, उन्हें एक उपयुक्त जीवन साथी मिला, लेकिन बाद में उसकी बेवफाई के कारण उसे छोड़ दिया। इसके बाद उन्हें दो महिलाओं ने से शादी का प्रस्ताव दियाः कोएनसर के मथुरा मुदा की बेटी और जिउरी के जग मुंडा की पत्नी, लेकिन उन्होंने दोनों से शादी करने से इनकार कर दिया।
इस क्रांतीकारी को सम्मानित करने के लिए कई संस्थानों/कॉलेजों और स्थानों के नाम को उनके नाम पर रखा गया है। इसमें से कुछ प्रमुख है 'बिरसा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी', 'बिरसा कृषि विश्वविद्यालय', 'बिरसा मुंडा एथलेटिक्स स्टेडियम' और 'बिरसा मुंडा एयरपोर्ट'।
बिरसा मुंडा की विरासत : जनजातीय गौरव दिवस
• बिरसा मुंडा का एक चित्र ब्रिटिस के खिलाफ उनकी लड़ाई के सम्मान में संसद संग्रहालय में लटका हुआ है।
• भारत के 'आजादी का अमृत महोत्सव' के उत्सव के हिस्से के रूप में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बहादुर आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को मनाने के लिए 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मंजूरी दी है। 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती भी होती है। उन्हें पूरे भारत में आदिवासी समुदायों द्वारा भगवान के रूप में सम्मानित किया जाता है।
• स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियों के प्रयासों, सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण, राष्ट्रीय गौरव, वीरता और आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए हर साल जनजातीय गौरव दिवस मनाया जाएगा।
• प्रधान मंत्री द्वारा रांची में, जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय का उद्घाटन होगा।
• विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री ने जनजातीय गौरव दिवस पर Techनींव@75 का उद्घाटन किया और राष्ट्र निर्माण में समुदायों की विज्ञान और तकनीकी नवाचार (एसटीआई) क्षमताओं का उपयोग करने के महत्व पर प्रकाश डाला।