42 वर्षीय सावित्री अपने कीमती अमरूद के पेड़ों को पानी देते हुए हमें बताती हैं, "मेरे पति पिछले 3 महीने से अस्वस्थ हैं और तब से हम लगातार अस्पताल के चक्कर लगा रहे हैं। लेकिन मैं इन सभी खर्चों को उठाने में सक्षम हूँ । चार वर्ष पहले तक ऐसा नहीं था।" पूरी तरह आत्मनिर्भर बन चुकीं लातूर की सावित्री की यह सक्सेस स्टोरी उन छात्रों व लोगों के लिए प्रेरणा बन सकती है, जो लोग कृषि क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं।
महाराष्ट्र के लातूर जिले के गंगापुर की रहने वाली सावित्री, जिनके पास मात्र 0.75 एकड़ जमीन है, ने अपने हुनर और लगन के बल पर बीते चार वर्षों में सब कुछ बदल कर रख दिया। यह संभव हुआ जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए चलाये जा रहे आर्ट ऑफ लिविंग के एक अभियान के तहत।
दरअसल सावित्री की जमीन पर उगने वाली फसल उनके परिवार का पेट पालने के लिए पर्याप्त नहीं होती थी। इसलिए वो सिलाई कढ़ाई कर के किसी तरह पैसा कमाती थीं। उनके पति रिक्शा चलाकर घर चलाते थे। आर्ट ऑफ लिविंग के प्राकृतिक खेती और कृषि वानिकी विशेषज्ञ महादेव गोमारे से संपर्क में आने के बाद उनका जीवन ही बदल गया।
सावित्री खुद बताती हैं कि महादेव गोमारे ने उन्हें घर पर ही प्राकृतिक खाद बनाने के तरीके बताये। साथ ही अमरूद के 350 पेड़ भी दिये। प्रशिक्षण के बाद, सावित्री ने दाल, मटर और बैंगन भी उगाना शुरू कर दिये। देखते ही देखते उनके खेती के व्यवसाय ने रफ्तार पकड़ ली।
सावित्री बताती हैं, "मेरे पास अधिक ज़मीन नहीं है; केवल 0.75 एकड़ जमीन है जहां मैं ज्वार और गेहूँ उगा रही थी, जिससे लगभग 25,000 रुपये वार्षिक कमाई होती थी। पहले मैं खेती के साथ-साथ सिलाई का काम करती थी, मेरे पति रिक्शा चलाते थे और हमें कर्ज लेना पड़ता था । मैंने अपने बच्चों की शिक्षा पूरी कराने के लिए बहुत संघर्ष किया। अब उन सभी ने अपनी 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली है।
25 हजार से 2 लाख तक का सफर
सावित्री आगे कहती हैं, "अपने खेत में अमरूद उगाने से पहले मैं केवल 25,000 रुपये कमा पाती थी। लेकिन अमरूद बेचने के बाद अभी घर पर दो लाख रुपये हैं। इन फलों को उगाने का यह मेरा चौथा वर्ष है। इसे अधिक रखरखाव की भी आवश्यकता नहीं होती। बुआई के बाद ज्यादा काम नहीं होता। इसका फल आने में 1 वर्ष का समय लगता है। उसके अगले वर्ष ही मैंने 2 लाख रुपये कमा लिए। यही कारण है कि मैं खर्चों के बारे में ज्यादा चिंता किए बिना अपने पति को अस्पताल ले जा सकती हूँ।
"अभी मेरी जो भी स्थिति है, वह केवल इसलिए है क्योंकि मैंने अपनी खेती का तरीका बदल दिया है। मुझे दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है; न ही मुझे किसी से ऋण माँगना पड़ता है। मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी मुझे ऋण देने के लिए तैयार थे लेकिन मैंने उन्हें मना कर दिया।"
अब केवल कृषि पर फोकस कर रही हैं सावित्री
जब से सावित्री कृषि वानिकी में काम करने लगीं, उन्होंने अतिरिक्त काम करना छोड़ दिया। "हम केवल 0.75 एकड़ भूमि के द्वारा आत्मनिर्भर बन गये हैं। मैं अब कोई अतिरिक्त काम नहीं करती। मेरी बेटी अभी भी सिलाई का काम करती है क्योंकि मैं सभी ग्राहकों को भगवान का रूप मानती हूँ और मैं उन्हें निराश लौटते हुए नहीं देख सकती। मेरा बेटा शहर में काम करता था, वह भी वापस लौट आया है।"
बेटी को भी दिया कृषि प्रशिक्षण
सावित्री ने बेटी को अपनी अनुपस्थिति में खेतों की देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया है; कितना पानी देना है, कब पानी देना है, घर पर प्राकृतिक चीजें कैसे बनानी हैं, क्योंकि अपने पति की बीमारी के कारण वह कई दिनों तक खेतों से दूर रहती है।
बाद में सावित्री ने हमें जो बताया वह किसानों के जीवन के बारे में प्रचलित दुखद चित्रण से हटकर एक नई और उभरती हुई विचार प्रक्रिया का प्रतीक बन गया है। "किसानों को केवल सहयोग की आवश्यकता है। हमें पैसे की ज़रूरत नहीं है, आपका समर्थन और सराहना हमें आगे बढ़ाती है।" खास बात यह है कि सावित्री की सफलता के इस सफर में उन्हें किसी भी बैंक से लोन लेने तक की जरूरत नहीं पड़ी।