Subhas Chandra Bose Jayanti 2023: नेताजी ने कांग्रेस छोड़ते ही लिए थे ये 5 निर्णय

Subhas Chandra Bose Jayanti 2023: भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को जितने महानायक दिए, उनमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सबसे अलग रेखांकित किया जाता है। उनके शौर्य और साहस को आज भी याद किया जाता है। 23 जनवरी 1897 को

Subhas Chandra Bose Jayanti 2023: भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को जितने महानायक दिए, उनमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सबसे अलग रेखांकित किया जाता है। उनके शौर्य और साहस को आज भी याद किया जाता है। 23 जनवरी 1897 को कटक में धर्मपरायण माता प्रभावती और वकील पिता जानकीनाथ बोस के पुत्र के रूप में जन्मे सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व बचपन से ही वीरता और बुद्धिमान थे। 18 अगस्त 1945 को ताइपेह में विमान दुर्घटना में नेताजी का निधन हुआ, लेकिन कई इतिहासकारों ने इस खवर को सिरे से खारिज कर दिया और अपनी रिपोर्ट में लिखा कि वह 'गुमनाम बाबा' के रूप में लंबे समय तक जीवित रहे।

Subhas Chandra Bose Jayanti 2023: नेताजी ने कांग्रेस छोड़ते ही लिए थे ये 5 निर्णय

उन्होंने तत्कालीन कलकत्ता से मैट्रिक परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त किया। जवकि दर्शन शास्त्र के साथ स्नातक डिग्री कलकत्ता स्कॉटिश चर्च कॉलेज से प्रथम श्रेणी में पाई थी। तभी से वह स्वामी विवेकानंद से प्रभावित हुए। 1920 में इंग्लैंड में वह सिविल सेवा परीक्षा में चौथे स्थान पर आए। उसी समय गोरे जनरल डायर द्वारा पंजाव में जलियांवाला बाग कांड को अंजाम दिया गया। इस घटना ने उनको अंदर तक हिला कर रख दिया। अत्याचारी गोरी सत्ता के प्रति बदले की आग उनके हृदय में ऐसी उठी कि वह आईएएस की अप्रेंटिसशिप छोड़कर देश वापस लौट आए और स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े।

देशबंधु चित्तरंजन दास को उन्होंने अपना राजनीति गुरू बनाया। सालों-साल कांग्रेस की गतिविधियों का हिस्सा रहने के बाद 1928 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त मोतीलाल नेहरू के बहुचर्चित 'डोमिनेशन स्टेटस' के सुझाव को खारिज करके दिया। तब उन्होंने कहा था कि अब पूर्ण स्वराज्य से कम कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में वह जेल गए तो गांधी-इरविन समझौते के बाद ही छूटे। इस समझौते और आंदोलन के स्थगन का तो उन्होंने मुखर किया ही, भगत सिंह को फांसी के वक्त भी गांधीजी से अलग स्टैंड लिया।

जब नेताजी बने कांग्रेस के अध्यक्ष
1938 में हरिपुरा महाधिवेशन में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए तो उनकी सेवाएं अध्यक्ष चुनाव में इतनी अतुलनीय सिद्ध हुईं कि गांधीजी द्वारा समर्थित पट्टाभिसीतारमैया उनके सामने नहीं टिक सके। यह और वात है कि आगे यह अध्यक्षी उन्हें रास नहीं आई। इसके दो कारण थे। पहला, गांधीजी पट्टाभिसीतारमैया की हार को अपनी निजी हार की तरह ले रहे थे और दूसरा, दूसरे विश्व युद्ध की आशंकाओं के वीच नेताजी द्वारा अंग्रेजों को दिए गए छह महीने में भारत छोड़कर चले जाने अथवा परिणाम भुगतने को भुगतने को तैयार रहने के अल्टीमेटम का नरमदली कांग्रेसजन विरोध करने लगे थे।

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तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा नारा कैसे आया
आगे चलकर अंग्रेजों को सशस्त्र संघर्ष में पटखनी देकर बलपूर्वक देश से बाहर करने का सपना देखते हुए नेताजी ने कांग्रेस छोड़ दी और 5 बड़े निर्णय लिए। जिसमें सबसे पहले उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक बनाई और देशवासियों को नया नारा दिया- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा!' गोरी सत्ता द्वारा दिए गए देश निर्वासन जैसे क्रूर दंड को तो वे पहले ही बेकार कर चुके थे। दूसरा निर्णय उन्होंने, 1941 में भूमिगत होकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी जा पहुंचे और 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त की रणनीति के तहत भारत की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के जर्मनी और जापान जैसे शत्रु देशों का सहयोग सुनिश्चित करने में लग गए।

आजाद हिंदी सेना की स्थापना
तीसरा निर्णय इसी क्रम में सिंगापुर पहुंच कर उन्होंने रासबिहारी बोस से भेंट की और 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सेना और सरकार गठित करके अपना सशस्त्र अभियान आरंभ किया। उन्हें विश्वास था कि वे जल्दी ही अंग्रेजों को हराकर भारत को मुक्त करा लेंगे। चौथे निर्णय में वह देश-विदेश में भारी सहयोग और समर्थन के बीच अंडमान निकोवार को मुक्त कराते हुए 18 मार्च 1944 को वे भारतभूमि तक पहुंच गए थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। पांचवें निर्णय में वह भेस बदलकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मन चले गए औरनेताजी ने अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए उनसे मदद मांगी।

आजाद हिंदी फौज की शहादत
विश्व युद्ध में उनके सहयोगी देशों की हार के साथ ही बाजी पलट गई और उनका मिशन अधूरा रह गया, लेकिन यह अधूरापन उनके अभियान की महत्ता को कम नहीं करता। अब तो ब्रिटेन का नेशनल आर्मी म्यूजियम भी मानता है कि आजाद हिंद सेना द्वारा इंफाल और कोहिमा में लड़ी गई लड़ाई लड़ाइयों के इतिहास में महानतम थी। इस लड़ाई में आजाद हिंद सेना और सहयोगी सेनाओं के तिरेपन हजार सैनिकों ने शहादत दी थी। जो अनेक घायल और बंदी होकर मौत से भी त्रासद जिंदगी जीने को मजबूर हुए, वे इनके अतिरिक्त हैं।

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अदम्य साहस के धनी कैप्टन राम सिंह ठाकुर
विडंवना है कि आजादी की चमक फीकी पड़ते ही सरकारों ने नेताजी समेत इस महानतम लड़ाई के उन सारे नायकों को भुला दिया, जो उन्हें अपने 'अनुकूल' नहीं लगते थे। न ऐसे शहीदों को समुचित सम्मान दिया, न ही उन्हें, जो घायल होने या पकड़े जाने के वाद भी वदली हुई भूमिकाओं में देश की सेवा की प्रतिज्ञा पूरी करते रहे। अदम्य साहस के धनी कैप्टन राम सिंह ठाकुर तक, जिन्होंने आजाद हिंद सेना के प्रयाणगीत और 'जनगणमन...' की धुनें वनाईं, किसी सम्मान के पात्र नहीं समझे गए। यह तब है

आजादी की दहलीज पर नेताजी जी
जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू और आसफ अली जैसे राष्ट्रवादी वकीलों के साथ मिलकर नवम्बर 1945 से मई 1946 तक लाल किले में हुए ऐतिहासिक कोर्ट मार्शल में आजाद हिंद सेना के गिरफ्तार कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरु वख्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाहनवाज खान का बचाव किया था। नेहरू के ही प्रयासों से उसके 1100 वंदी सैनिकों को भी मुक्ति मिली थी। दूसरी ओर, अनेकों अन्य की ट्रेजेडी ऐसी कि कालापानी तक की सजाएं भोगकर वे लौटे तो पता चला कि घरवालों ने उनको वीरगति को प्राप्त हुआ मान लिया था। उनके जिंदा या मुर्दा होने की सूचना जो नहीं थी, लेकिन यह कृतघ्नता भी न आम लोगों के दिलोदिमाग में बसी नेताजी की तस्वीर को खंडित कर सकी, न ही उनसे जुड़े मिथकों को यह और बात है कि कई आयोगों की जांच-पड़ताल के वावजूद हम आज भी उनके 'अंतिम दिनों' के पूरे सच से महरूम हैं, और उम्मीदों के आकाश में उनकी अनंतकालिक प्रतीक्षा को अभिशापित हैं।

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English summary
Subhas Chandra Bose Jayanti 2023: Netaji Subhash Chandra Bose stands out among all the great heroes the Indian freedom struggle gave to our country. His bravery and courage is remembered even today. Born on January 23, 1897 in Cuttack to pious mother Prabhavati and lawyer father Jankinath Bose, Subhash Chandra Bose's personality was brave and intelligent since childhood. Netaji died in a plane crash in Taipei on 18 August 1945, but many historians rejected this news outright and wrote in their reports that he lived long as 'Gumnam Baba'.
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