वैसे तो हर व्यक्ति को यह बात स्वयं समझनी चाहिए कि उपभोक्ता का मतलब सीधे रूप से किसी सामान को खरीद कर उसका उपयोग करना या किसी सेवा को सीधे रूप से अपने जीवन में प्राप्त करना होता है। जब किसी भी व्यक्ति द्वारा कोई धन किसी वस्तु के लिए सीधे रूप से खर्च किया गया है, लेकिन उसके अनुपात में उसे वह सेवा या सामान में वह गुणवत्ता नहीं मिल पा रही है, तो यह उसके मानवाधिकार का उल्लंघन है। इस मानवाधिकार की स्थापना के लिए वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 और वर्तमान में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 का पूर्णता फायदा लेते हुए व अपने पैसे का हिसाब लेते हुए उसकी प्रतिपूर्ति क्षतिपूर्ति पा सकता है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले मानवाधिकार के अंतर्गत उपभोक्ता संरक्षण की बात की ही नहीं गई। यदि हम भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 13वीं शताब्दी के आरंभ पर अलाउद्दीन खिलजी द्वारा अपनाई गई बाजार नीति में उपभोक्ता के अधिकारों के प्रमाण मिलते हैं। खिलजी के शासनकाल में इस बात के स्पष्ट निर्देश थे कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा कोई सामान किसी दुकानदार से खरीदा जाता था और वह सामान तोल के हिसाब से कम होता था तो अलाउद्दीन खिलजी उस दुकानदार के शरीर से उतना मांस निकलवा लेता था। निश्चित रूप से या निर्दयी प्रक्रिया थी, लेकिन उपभोक्ता के संरक्षण का एक बहुत ही कठोर उपाय था।
वैश्विक स्तर पर देखें तो ना डेर द्वारा अमेरिका में उपभोक्ताओं को जागृत करने का जो कार्य शुरू किया गया था। वहीं जॉन कनेडी द्वारा 1962 में उपभोक्ता संरक्षण के लिए कानून बनाया गया और यही कारण है वैश्विक स्तर पर 15 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण दिवस मनाया जाता है। उसी के ठीक 4 साल बाद 1966 में भारत में जेआरडी टाटा ने फेयर प्रैक्टिस एसोसिएशन का गठन किया और 1974 में मुंबई के बीएल जोशी ने ग्राहक पंचायत बनाकर उपभोक्ताओं के संरक्षण का कार्य आरंभ किया। इसके परिणाम 1986 में 24 दिसंबर को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के रूप में दिखे।
दरअसल यही कारण है कि 24 दिसंबर को राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। वर्तमान में जिस उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 को सामने लाया गया है, उसका सबसे सुंदर आशय यही है कि कोई भी भारतीय पूरे भारत में कहीं से भी अपनी सुविधा अनुसार वाद ला सकता है। अब इस बात का कोई मतलब नहीं है कि दुकानदार, कंपनी जहां पर है वहीं पर जाकर केस लड़ा जाये।
क्या कर सकता है उपभोक्ता प्राधिकरण
पहले कानून में यही व्यवस्था थी जिसके कारण ज्यादातर लोग सामान के खराब होने के बाद कानूनी कार्रवाई नहीं कर पाते थे। पहले जुर्माने के लिए सिविल वाद लाना पड़ता था, लेकिन अब उपभोक्ता को उपभोक्ता आयोग में ही न्याय मिल सकता है। पहले कोई भी केंद्रीय उपभोक्ता प्राधिकरण था। अब प्राधिकरण बन जाने पर वह स्वयं इस बात का निर्णय ले सकता है कि कोई कंपनी फैक्ट्री सेवा देने वाला सेवा प्रदाता यदि कोई गुणवत्ता से विहीन सामान बेच रहा है तो प्राधिकरण स्वयं निर्णय ले सकता है। उसे यह ऐसा कार्य करने को रोक सकता है और यदि वह नहीं रुक रहा है तो उस पर जुर्माना लगा सकता है। उस कंपनी को बंद करने के आदेश दे सकता है।
सबसे बड़ी बात जो है पहले जिला उपभोक्ता फोरम कहलाता था अब जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष निवारण आयोग कहलाता है। यह समझना आवश्यक है फोरम की तुलना में आयोग के पास ज्यादा शक्तियां होती हैं। उससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि अब जिला स्तर पर 1,00,00,000 रुपए तक के मामले सुने जा सकते हैं। राज्य स्तर पर 10 करोड़ तक के मामले सुने जा सकते हैं और उससे ऊपर मामले राष्ट्रीय स्तर पर सुने जाते हैं। यदि आपके सामान की कीमत ₹5,00,000 तक है तो आपको आयोग में कोई भी शुल्क नहीं जमा करना है। सिर्फ अपनी समस्या को लिखना है और उसे अध्यक्ष जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष निवारण आयोग को प्रेषित कर देना है।
कैसे कार्य करता है उपभोक्ता आयोग
यदि आपकी शिकायत में तथ्य पाए जाते हैं, तो उसे 21 दिन में स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन यदि आपको 21 दिन में सूचना नहीं मिलती है तो भी इसे स्वीकार माना जाएगा और फिर प्रतिवादी को शिकायत की एक कॉपी भेजी जाती है। जिसमें महत्तम 45 दिन में उसे उत्तर देना होता है। यदि वह उत्तर नहीं देगा तो फिर एकपक्षीय निर्णय ले लिया जाएगा। इससे ज्यादा बड़ी बात मानवाधिकार की स्थापना में यह है कि यदि कोई निर्णय जिला स्तर पर होता है और उसमें कोई जुर्माना लगाया जाता है और प्रतिवादी उसमें राज्य स्तर पर यदि अपील करना चाहता है तो अपील करने की स्थिति में उसे जिला स्तर पर लगाए गए जुर्माने का 50% जमा करना होगा। तभी उसकी अपील राज्य स्तर पर स्वीकार होगी। इसके अतिरिक्त अपील स्वीकार होने के बाद 60 दिन के अंदर शिकायत का निस्तारण कर दिया जाता है।
निश्चित रूप से मानवाधिकार की स्थापना में या 1 मील का पत्थर है। और आज जब पूरी तरह बाजारीकरण हो चुका है ज्यादातर घरों में ना गेहूं धोया जाता है ना पाया जाता है। मसाले भी बाजार से आते हैं ज्यादातर सामान बाजार से आता है। कपड़े सारे बाजार से खरीदे जाते हैं। यही नहीं डिजिटल दुनिया में ऑनलाइन शॉपिंग शुरू हो गई है। कई मामले ऐसे भी आये जिसमें सामान की जगह उपभोक्ता को ईटा पत्थर मिले। ऐसी स्थिति में अब ऑनलाइन शॉपिंग को भी उपभोक्ता संरक्षण में लाया गया है।
गोरा होने के विज्ञापनों पर प्रतिबंध
इसके अतिरिक्त ज्यादातर स्थितियों में या देखा जाता था कि कंपनियां फर्जी विज्ञापन के द्वारा लोगों में प्रलोभन जगह दी थी, जैसे छह हफ्तों में खूबसूरत हो जाएंगे। अब इस तरह के विज्ञापन भी दंडनीय अपराध है। यदि आपके द्वारा यह शिकायत की जाती है कि आपने किसी विज्ञापन पर भरोसा करके कोई सामान खरीदा है या कोई सेवा ली है और वह उस तरह की सेवा और वस्तु नहीं निकले तो भी आप उपभोक्ता संरक्षण के अंतर्गत वाद ला सकते हैं।
यही नहीं जो हीरो हीरोइन इस तरह का विज्ञापन करते हैं उनके विरुद्ध भी आप कार्रवाई कर सकते हैं। इसके लिए आपको अलग से प्रक्रिया अपनानी होगी मोबाइल फोन पर दी जाने वाली सेवाएं लैंडलाइन पर दी जाने वाली सेवाएं सभी को भोक्ता संरक्षण में लाया जा चुका है।
यदि कोई व्यक्ति वस्तु या सेवा से ज्यादा कीमत को मांगता है या लेता है तो उसे भी उपभोक्ता संरक्षण में लाया जा चुका है। इन सब से यह स्पष्ट है कि उपभोक्ता संरक्षण के केंद्र में खड़ा मानव अपने मानवाधिकार को मजबूत करने की तरफ हर दिन बढ़ रहा है। आज चारों तरफ सिर्फ उत्पाद एवं सेवाओं का ही प्रसार बढ़ रहा है, इसलिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक ऐसा ब्रह्मास्त्र साबित हो सकता है। जिससे हर भारतीय राष्ट्र में गुणवत्ता को सुधार सकता है सेवाओं को सुधार सकता है कंपनियों की कार्यप्रणाली को सुधार सकता है और राष्ट्र में एक मानक स्तर का जीवन स्थापित करने में मदद कर सकता है।
इन सबके बीच यह भी आवश्यक है कि वह अपने मानवाधिकार को महसूस करते हुए अपने द्वारा ली जाने वाली किसी भी सेवा और वस्तु के विरुद्ध यदि कोई कमी है तो उसको नज़रअंदाज़ करने के बजाय उस पर आवाज उठाएं। उसके लिए ना सिर्फ हर्जाना मांगें बल्कि अन्य भारतीयों के सामने एक प्रेरणा का भी कार्य करें, ताकि मानवाधिकार अपने वास्तविक अर्थ में उपभोक्ता के जीवन से होता हुआ राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो सके। यही राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस की सबसे बड़ी मांग है और प्रासंगिकता है।
लेखक डॉ. आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन के अध्यक्ष हैं और विगत दो दशकों से मानवाधिकार विषयों के अंतर्गत जागरूकता कार्यक्रम चला रहे हैं।