भारत की स्वतंत्रता के लिए कई लोगों ने अपनी जान तक न्योछावर करने दी। लेकिन आज उन स्वतंत्रता सेनानियों का नाम कहीं खो सा गया है। कई तो ऐसे सेनानी भी है जिनका नाम आपने आज तक सुना भी नहीं होगा। ये सेनानी हैं जिन्होंने कभी अपनी जान की परवाह नहीं की और देश प्रेम में अपनी जान तक गावं दी। भारत हर साल इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों को याद करता है और स्वतंत्रता में इनके अमूल्य योगदान को नमन करता है। भारत आजादी के 75 वर्ष पूरे होने की खुशी में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस साल आने वाले 15 अगस्त पर भारत अपना 76वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। आइए इस स्वतंत्रता दिवस पर उन स्वतंत्रता सेनानियो के बारे में जाने जिन्होंने अपने आपको देश के लिए समर्पित किया।
इन्हीं में से एक स्वतंत्रता सेनानी है तिरुपुर कुमारन जिन्होंने 27 साल की उम्र में अपनी मां भर्ती के लिए अपना बलिदान दिया लेकिन राष्ट्र ध्वज की गरिमा को अपनी आखरी सांस तक बनाई रखी। सही मायनों में उन्होंने राष्ट्रिय ध्वज की गरिमा जान जाने के बाद ही कायम रखी। मृत्यु के बाद जब उन्हे सड़क पर पाया गया तब देखा गया की उन्होंने जान जाने के बाद भी राष्ट्रीय घ्वज को इस प्रकार थामा है कि वह जमीन पर नहीं लग पाए। इस तरह से उन्होंने अपनी जान की कुर्बानी दी। आइए तिरुपुर कुमारन के बारे में और अन्य बाते विस्तार में जाने।
तिरुपुर कुमारन का जीवन
तिरुपुर कुमारन का जन्म 4 अक्टूबर 1904 में ओकेएसआर कुमार स्वामी के रूप में हुआ था। वह एक छोटे परिवार से थे। कुमारन मुदलियार चेन्नीमलाई (वर्तमान में इरोड तमिलमाडु) के निवासी थे। इनका पारिवारिक व्यवसाय हथकरघा बुनाई (हैंडलूम्स) का था। कुमारन ने 5वीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ दी थी। क्योंकि उनका परिवार उनकी शिक्षा का खर्चा नहीं उठा पा रहा था।
19 साल की उम्र में परिवार द्वारा शादी की बात को मानते हुए उन्होंने शादी कर ली। शादी के बाद उन्होंने कताई मिल में एक सहायक के तौर पर काम किया। देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन से कुमारन प्रभावित हुए और इसके बाद गांधी जी के सिद्धांतो और विचारों से प्रभावित होकर उनके द्वार घोषित प्रदर्शन में शामिल होना शुरू किया।
भारत की आजादी में कुमारन का योगदान
गांधी ने अक्सर अपने भाषणों के दौरान देश के युवाओं से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने को कहा था । कुमारन भी उन्हीं युवा क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। इस प्रकार देश के प्रति और स्वतंत्रता संग्राम के लिए उनका निश्चय और द्दढ़ होने लगा। इस प्रकार क्रांति में बढ़ता उनका योगदान देख उनका परिवार काफी चिंतित था। कुमारन के परिवार के सदस्य अक्सर ही उनसे मिलने जाया करते थे और उन्हें आंदोलन में भाग न लेने के लिए समझाया करते थे। कुमारन के परिवार को उनकी जान को लेकर अधिक चिंता थी वह नहीं चाहते थे कि कुमारन पर किसी भी प्रकार से जान का खतरा हो। लेकिन कुमारन ने अपने परिवार की एक नहीं सुनी।
कुमारन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक सक्रिय भूमिका निभा रहे थे और जल्द ही उन्होंने "देसा बंधु युवा संघ" की स्थापना की। इस संघ में तमिलनाडु और आस पास के क्षेत्र के कई युवा शामिल हुए। ये खास कर वह युवा थे जो देश की आजादी के लिए लड़ना चाहते थें। इसी के बाद से कुमारन ने पूरे तमिलनाडु में अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन किया।
वर्ष 1932 में गांधी जी द्वारा बंबई में एक प्रदर्शन किया गया। इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने इन सभी नेताओं को बंद करने का फैसाला लिया। इस घटना के बाद तिरुपुर में त्यागी पी एस सुंदरम द्वारा निकाली गई देशभक्ति मार्च के साथ पूरे भारत में कई दंगे हुए। जिसके विरोध में लोगों ने राष्ट्रीय घ्वज लहराए, जिसमें से एक कुमारन भी एक थे। अंग्रेजों द्वारा लाठीचार्ज होने पर भी कुमारन परिसर से नहीं हटे। उनके इस व्यवहार को देखते हुए पुलिस कर्मचारियों ने और सख्ती बरती और सभी प्रदर्शनकारियों को पीटना शुरू किया। इस मार-पीटाई में कुमारन वहीं फस गए और वह जमीन पर गिर गए राष्ट्रिय ध्वज उनके हाथों में था लेकिन उन्होंने उसे जमीन पर नहीं लगने दिया।
इस मार-पीटाई के दौरान ही कुमरान राष्ट्रिय ध्वज को इस तरह से थामे रखा की वह जमीन पर न लगे और ऐसे ही ध्वज को हाथ में थामे हुए ही उनकी मृत्यु हो गई। प्रदर्शन खत्म होने पर वह सड़क पर पाए गए. उस दौरान भी उन्होंने राष्ट्रिय ध्वज को पूरी गरीमा के साथ थामे हुए थे। तिरुपुरा कुमारन की मृत्यु महज 27 वर्ष की उम्र में 11 जनवरी 1932 में हुई।