द मदर टेरेसा ऑफ ओडिशा के नाम से जाने जानी वाली पार्वती गिरि भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानीयों में से एक थी। उन्होंने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता और गांधी जी के वचनों से वह इस कदर प्रभावित थीं कि उन्होंने तीसरी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ कांग्रेस का प्रचार शुरू किया। उन्हें कई गांवों की यात्रा कि और कांग्रेस के बारे में लोगों को बताया। छोटी सी उम्र में देश प्रेम की भावना ने उन्होंने स्वतंत्रता में बढ़-चढ़ के हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया। वह 11 साल की थी जब उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देना शुरू किया था । 16 साल की उम्र में उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और उस आंदोलन में वह सबसे आगे रहीं। उन्हें कई बार गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन नाबालिग होने की वजह से उन्हें तुरंत रिहा कर दिया जाता था। लेकिन फिर अंग्रेजों ने आखिरकार उन्हें गिरफ्तार कर 2 साल के कठोर कारवास पर भेज दिया। लेकिन पार्वती ने हार नहीं मानी और वह तब भी स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी रही। देश के स्वतंत्रता के साथ साथ उन्होंने देश वासियों और जरूरतमंदों के लिए कार्य करना शुरू किए। अनाथों, महिलाओं और उन लोगों के लिए आश्रम बनवाए जिनके पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम और देश कल्याण के उनके कार्यों को भारत आज नमन करता है। आइए जाने पार्वती गिरि के जीवन के बारे में।
पार्वती गिरि
ओडिशा की मदर टेरेसा के नाम से जाने जाने वाली पार्वती गिरि का जन्म 19 जनवरी 1926 में बरगढ़ जिले और संबलपूर जिले के समवाईपदार गांव में हुआ था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा केवल तीसरी कक्षा तक ली और उसके बाद से ही वह कांग्रेस के लिए प्रचार करने लगी। ऐसे वह गांव गांव में जाकर कांग्रेस पार्टी का प्रचार करने लगी। 1938 में कांग्रेस के नेता ने पार्वती गिरि के पिता को समलाईपदार की एक बैठक दौरान कांग्रेस में उनके काम करने के लिए काफी मनाने की कोशिश की। उस दौरान पार्वती केवल 12 वर्ष की थी।
पार्वती गिरि एक युवा लड़की के तौर पर बारी आश्रम की गई और वहां उन्होंने हस्तशिल्प, अहिंसा के दर्शन और आत्मनिर्भरता के साथ कई सारी चीजें सीखीं।
कांग्रेस के साथ कार्यकाल
पार्वती गिरि अकेली नहीं थी उनके चाचा भी कांग्रेसी नेता थे। पार्वती गिरि स्वतंत्रता में अपना योगदान देना चाहती थी और एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर कार्य करना चाहती थी, इसलिए वह अपने चाचा के साथ बैठ के सुना करती थी। वह कांग्रेस और भारत की स्वतंत्रता के लिए बहुत समर्पित थी। उन्होंने कांग्रेस के लिए 1940 में बरगढ़, संबलपुर, पदमपुर, पनिमारा और घेंस के साथ कई अन्य स्थानों की यात्रा शुरू की। अपनी इस यात्रा के दौरान पार्वती गिरि ने ग्रामीण लोगों को खादी काटना और बुनना सिखाया।
1942 में उन्होंने 'भारत छोड़ो आंदोलन' के लिए कई अभियानों का नेतृत्व किया जिसके लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। नाबालिग होने के नाते हर बार पुलिस को उन्हें छोड़ना पड़ा। लेकिन जब पार्वती गिरि ने एसडीओ के कार्यालय पर हमला किया तो उनकी गिरफ्तारी हुई और उन्हे दो साल के कारावास की सजा दी गई।
बारगढ़ कोर्ट में अंग्रजों के खिलाफ उन्होंने वकीलों को अदालत के बहिष्कार करने को कहा। वकीलों को इस बहिष्कार के लिए राजी करने के लिए उन्होंने एक आंदोलन भी चलाया।
पार्वती गिरी ने 16 साल की उम्र में गांधी जी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में हिस्सा लिया और वह इस आंदोलन में सबसे आगे भी रही।
आजादी के बाद पार्वती का जीवन
15 अगस्त 1947 में भारत को आजादी मिली। आजादी के बाद पार्वती ने 1950 में इलाहाबाद में प्रयाग विद्यापीठ से अपनी बची हुई स्कूली शिक्षा पूरी की। इसके बाद उन्होंने लोगों की सहायता कार्य किया और 1954 में वह रमा देवी के साथ राहत कार्यों में भाग लेने लगी।
1955 में संबलपुर जिले में रहने वाले लोगों के स्वास्थय और स्वच्छाता में सुधार करने के लिए वह अमेरिकी परियोजना का हिस्सा बनी।
इसके बाद पार्वती गिरि ने महिलाओं और अनाथ बच्चों के लिए कस्तूरबा गांधी मातृनिकेतन नामक आश्रम की शुरूआत की। इस आश्रम को उन्होंने नृसिंहनाथ में शुरू किया। इसके बाद उन्होंने संबलपुर जिले के बिरसिंह गर में एक एक और आश्रम खोला जिसका नाम डॉ. संतरा बाल निकेतन था। इस तरह स्वतंत्रता के बाद उन्होंने कल्याण कार्यों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। पहले उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए खुद को समर्पित किया उसके बाद उन्होंने देश वासियों के कल्याण में अपना बचा हुआ जीवन समर्पित किया।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिए और लोगों के कल्याण कार्यें करने की उनकी इच्छा और दृढ़ निश्चय से लोगों ने उन्हें "ओडिशा की मदर टेरेसा" के नाम से सम्मानित किया गया ।