गांधी बूढ़ी के नाम से जानें जाने वाली मातंगिनी हाजरा एक भारतीय क्रांतीकारी थीं। जिन्होंने भारत की आजादी में एक अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत की अजादी के लिए समर्पित कर दिया था। वह गांधी जी के वचनों से बहुत अधिक प्रभावित थीं। इतनी की उन्होंने गांधी बूढ़ी का नाम पाया और उसी नाम से जानी गईं। मातंगिनी हाजरा ने कई आंदोलनों में भाग लिया जिसमें भारत छोड़ो आन्दोलन और करबन्दी आन्दोलन आदि जैसे कई आन्दोलन शामिल थे। 1905 की बात है जब उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भूमिका निभानी शुरू की। इस तरह से उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया। 72 साल की उम्र में वर्ष 1942 में मातंगिनी हाजरा की लगातार तीन गोलियां लगने से मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु एक विरोध प्रदेर्शन के दौरान हुई थी। इस तरह मातंगिनी हाजरा ने खूद को भुला के देश को सबसे ऊपर रखा। भारत की आजादी के दौरान उनके इस योगदान को स्वंतत्रता दिवस (15 अगस्त) पर याद किया जाता है। ये वही शूरवीर हैं जिनकी वजह से भारत इस वर्ष 76वां स्वतंत्रता दिवस मानाने जा रहा है। हर वर्ष भारत इन सभी शूरवीरों को याद करता है और इनके योगदान को नमन करता है। आइए इस स्वतंत्रता दिवस पे हम मातंगिनी हाजरा और भारत की आजादी के दौरान उनके संघर्षों के बारे में भी जाने।
मातंगिनी हाजरा का प्रारंभिक जीवन
मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर 1869 तमलुक, बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत में हुआ। भारत की आजादी के लिए लड़ाई करते हुए एक विरोध प्रदर्शन के दौरान 29 सिंतबर 1942 में उनकी मृत्यु हो गई। मातंगिनी हाजरा की शादि छोटी उम्र हो गई थी। उनकी शादी करीब 12 साल की उम्र में हुई थी। और जब वह 18 साल की हुई तो उनकी जिंदगी में एक खराब समय आया। 18 साल की उम्र में वह विधवा हो गई। अपने पति की मृत्यु के बाद वह अपने गांव लौट गई जहां वह पली-बढ़ी थीं। अपने पैतृक स्थान पर जाकर उन्होंने अपने समुदाय के लोगों के साथ मिलकर उनकी मदद करनी शुरू की। इस तरह से वह अपना जीवन यापन करने लगी। 1900 की बात है जब राष्ट्रवादी आंदोलनों ने गति पकड़नी शुरू कर दी थी। आंदोलन में आई गति इसी वजह से आई क्योंकी गांधी जी ने स्वयं लोगों में जागरूकता पैदा करनी शुरू कर दी थीं, और देश के सभी नागरिकों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित करना शुरू किया था।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
वर्ष 1905 में मातंगिनी हाजरा सक्रिय रूप से संग्राम में हिस्सेदार बनी इसी के साथ उन्होंने कई अन्य आंदोलनों में भाग लिया। मिदनापुर में महिलाओं ने विषेश रूप से योगदान दिया और उन महिलाओं के ग्रुप में मातंगिनी हाजरा भी शामिल थी। मातंगिनी हाजरा गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थी। इसी वजह से मातंगिनी हाजरा को गांधी बूढ़ी के नाम से भी जाना जाने लागा।
1930-32 में उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में हिस्सा लिया जिसमें उन्होंने नमक कानून तोड़ा। इस कानून को तोड़ने के लिए उन्हें हिरासत में लिया गया। लेकिन उन्हें जल्द ही छोड़ भी दिया गया। देश प्रेमी होने के वजह से वह यहां तक ही सीमित नही हुई और उन्होंने इसके बाद चौकीदारी कर को बंद करने के लिए आन्दोलन में हिस्सा लिया। इस आन्दोलन में हिस्सा लेने वालों की गिरफ्तारी और उन्हें राज्यपाल द्वारा दंडित करने का विरोध करते हुए हाजरा आदालत की इमारत की ओर आगे बढ़ने लगी। इस स्थिति को देखते हुए उन्हें रोकने के लिए एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी में गांधी बूढ़ी को 6 माह तक गिरफ्त में रखा गया। उन्हें 6 महीने बहरामुला की जेल में रहना पड़ा।
बहरामुला की जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस में सदस्यता हासिल की। गांधी जी और उनके विचारों से वह इस कदर प्रभावित थी कि वे भी गांधी जी की तरह ही खुद से खादी कातने लगी। वर्ष 1933 में गांधी बूढ़ी ने उपखंड कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन के दौरान हुई लाठीचार्ज में वह काफि घायल हुई।
वह अपने मानविय कार्यों में हमेशा लगी रहती थीं। 1930 के समय की ही बात थी जब वह अपनी शारीरिक स्थिति के बावजूद जेल से छूटने के तुरंत बात अछुतों की मदद करने में जुट गई थी। इसी के साथ हजारा ने बिना किसी बात की परवाह करे लोगों की सहायता करने में जुट गईं। उसी दौरान चेचक महामारी नें पुरूषों, महिलाओं और बच्चों को बहुत प्रभावित किया। जिसमें वह सभी की सहायता में लगी रहती थीं।
मातंगिनी हाजरा भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा भी रही थीं। कांग्रेस के सदस्यों ने मेदिनीपुर जिले के विभिन्न पुलिस स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों पर कब्जा करने की योजना बनाई। जिले में ब्रिटिश सरकार को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए और एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना करने के लिए कदम बढ़ाया। उस समय हाजरा 72 वर्ष की थी जब उन्होंने तामलुक पुलिस थाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से करीब छह हजार समर्थकों के जुलूस का नेतृत्व किया। जिसमें ज्यादातर महिलाएं शामिल थी। जुलूस जैसे ही शहर के बाहरी इलाके में पहुंचा, तो उस जुलुस को क्राउन पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत भंग करने का आदेश दिया गया। जुलुस के आगे बढ़ने के दौरान हाजरा को गोली मार दी गई। लेकिन वह फिर भी आगे बढ़ती गई। वह तब भी आगे कदम बढ़ाती गई और पुलिस से भीड़ पर गोली न चलाने की अपील की गई।
मातंगिनी ने अदालत की इमारत पर उत्तर की तरफ से जुलूस का नेतृत्व किया और फायरिंग शुरू होने के बाद भी वह रूकी नहीं और सभी लोगों को पीछे छोड़ते हुए तिरंगे झंडे के साथ आगे बढ़ती चली गई। पुलिस ने उन पर गोली चलाई और उन्हें तीन गोलियां लगी। माथे और दोनों हाथों पर घाव होने के बावजूद वह आगे बढ़ती रही। वह गंभीर रूप से घायल थी लेकिन वह आगे बढ़ती चली गई। लगातार गोली लगने पर भी वह "वंदे मातरम" और "मातृभूमि की जय हो" का नारा लगाती रहीं और इस तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के झंडे को हाथ में लिए ही उनकी जान चली गई।