भारत इस साल 76वां स्वतंत्रता दिवस मानने जा रहा है। भारत की आजादी के दौरान कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने देश प्रम में अपनी जान का बलिदान दिया। आजादी के दौरान इन सेनानियों कई आन्दोलनों में अहम भूमिका निभाई। लेकिन ये वो हीरो हैं जिनके नाम कहीं गुमनामी में खो सा गया है। आइए इस स्वतंत्रता दिवस इन हीरोज के बारे में जाने जिन्होंने भारत को आजाद करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम है कुशल कोंवर का जो ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन का हिस्सा रहे। उसी दौरान आन्दोलन ने कुछ क्षेत्रों में हिंसक रूप ले लिया। कुशल कोंवर को एक ऐसे गुनाह के लिए गिरफ्तार किया जो उन्होंने किया भी नहीं था। इस गुनाह के लिए उन्हें फांसी की सजी दी गई। बिना किसी गलती और गुनाह के बाद भी उन्होंने फांसी की इस सजा को स्वीकार किया। आइए जाने कुशल कोंवर के जीवन और भारत में उनके योगदान के बारे में।
कुशल कोंवर का जन्म
कुशल कोंवर का जन्म 21 मार्च 1905 में हुआ था। कुशाल का जन्म असम के गोलाघाट जिले में हुआ था। वह एक शाहि परिवार से थें। अहोम साम्राज्य के शाही परिवार से होने पर उन्होंने कोंवर सरनेम का प्रयोग किया था। जिसे बाद में उन्होंने छोड़ भी दिया था। कुशल एक ऐसे व्यक्ति थे, जो शांत थे और सच्चाई से प्यार करने वाले थे। ये गुण उन्हें उनके माता-पिता कनकेश्वरी कोंवर और सोनाराम कोंवर से मिले थे।
प्रारंभिक शिक्षा
कुशल ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बेजबरुआ स्कूल से हासिल की। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद कुशाल ने 1918 में गोलाघाट के गवर्नमेंट हाई स्कूल में आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1921 के समय की बात है उस दौरान वह स्कूल में थे। गांधी जी का असहयोग आन्दोलन चल रहा था और उनके इस आन्दोलन से कुशल बहुत प्रभावित हुए जिसके बाद से उन्होंने इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई।
जलियांवाला बाग हत्याकांड
1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट जारी किया उस दौरान कुशाल केवल 17 वर्ष के थे। इस एक्ट का असल जलियांवाला बाग तक ही सीमीत नहीं था। इसका असर पूरे भारत में देखने को मिला था। इस हत्याकांड के विरोध में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई और इस आन्दोलन का प्रभाव असम तक पहुंचा और कुशाल और अन्य युवा सेनानी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से उतरे।
गांधी का प्रभाव
कुशल का जीवन गांधी जी के विचारों से अधिक प्रभावित था। गांधी जी के स्वराज, सत्य और अहिंसा से वाले आदर्शों से वह इस कदर प्रभावित हुए की उन्होंने बेंगमई में एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की और वहां एक शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसके बाद वह एक क्लर्क के रूप में बालीजन टी एस्टेट में शामिल हुए, जहां उन्होंने कुछ समय के लिए काम किया। इस प्रकार गांधी से के स्वतंत्रता के आह्वान और दिल में स्वतंत्र भारत को देखने की उनकी इच्छा में उन्होंने अपना जीवन देश के नाम समर्पित कर दिया। उन्होंने सत्याग्रह और अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन में सरूपथर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व किया और कांग्रेस पार्टी को संगठित किया। इसके बाद वे सरुपथर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए।
अंतिम समय
10 अक्टूबर 1942 में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कार्यक्रताओं ने सरूपथर की रेलवे की पटरी से स्लीपरों हटा दिए थे जिसकी वजह से वहां से गुजरने वाली सैन्य रेल गाड़ी पटरी से उतर गई। जिसमें हजारों की तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए। पुलिस ने इलाके को तुरंत घेर लिया और इस घटना को अंजाम देने वालों को ढ़ूंढना शुरू किया।
इस घटना के लिए कुशल को आरोपी माना गया था। जबकी इस घटना में उनका कोई हाथ नहीं था। पुलिस कर्मियों के पास उनके गुन्हेगार होने का कोई सबूत। लेकिन फिर भी कुशल को रेलवे की तोड़फोड़ का मुख्य आरोपी माना गया और उनको इसके लिए गिरफ्तार किया गया।
5 नवंबर 142 में उन्हें गोलाघाट लाया गया और वहां की जोरहाट जेल में बंद कर दिया गया। सीएम हम्फ्री की अदालत में उन्हें दोषी करार किया गया और उन्हें फांसी की सजा दी गई। जबकी उन्होंने ये गुनहा किया भी नहीं था। लेकिन फिर भी कुशल ने गरिमा के साथ इस फैसले को स्वीकार किया।
जेल में जब उनकी पत्नी प्रभावती उनसे मिलने गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा की उन्हें गर्व है कि भगवान ने देश के लिए सर्वोच्चय बलिदान के लिए हजारों लोगों में से उन्हें चुना।
फांसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़ कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 6 जून 1943 में उन्हे फांसी की सजा सुनाई गई। और फांसी देने की तिथि 15 जून 1943 की थी। 15 जून 1943 को शाम 4:30 बजे कुशल कोंवर को फांसी दी गई।