भारत की आजादी में अहम योगदान देने वाली महिला स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम कैप्टन लक्ष्मी सहगल का भी है, जो पेशे से एक डॉक्टर, भारतीय सैनिक और स्वतंत्रता सेनानी थी। उन्होंने भारत के लोगों के कल्याण के लिए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर अपनी देश भक्ति का शानदार प्रदर्शन किया था। ये उन्ही स्वतंत्रता सेनानी में से एक हैं जिनका नाम भी समय के साथ गुमानामी में कहीं खोने लगा था। आइए भारत के इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर कैप्टन लक्ष्मी सहगल के योगदान के बारे में जाने।
सिंगापुर के अपने निवास के दौरान इनकी मुलाकात सुभाष चंद्र से हुई, सुभाष चंद्र द्वारा महिलाओं को अपनी आजाद हिंद फ़ौज में शामिल करने कि बात जैसे ही लक्ष्मी सहगल के काम में पड़ी, उन्होंने तुरंत बोस से मिलने की इच्छा जताई और इस तरह उनके निश्चय और प्रतिभा को देखते हुए उन्हें झांसी रेजिमेंट की रानी के तौर पर कार्यभार संभालने का मौका मिला।
लक्ष्मी सहगल की नीजी जिंदगी
लक्ष्मी सहगल या यूं कहे की कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म लक्ष्मी स्वामीनाथन के रूप में 24 अक्टूबर 1914 में हुआ था। वह एक तमिल ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थी।
लक्ष्मी सहगल ने शिक्षा क्वीन मैरी कॉलेज से प्राप्त की। यहां से पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई की और एमबीबीएम की डिग्री प्राप्त की। अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने गायनाकोलॉजिस्ट और ऑब्सट्रिक्स में डिप्लोमा किया। इसके पश्चात उन्होंने क्सतुरबा गांधी सरकारी हॉस्पिटल में बतौर डॉक्टर काम किया।
एक डॉक्टर के तौर पर काम करने के बाद उन्होंने सन् 1940 में सिंगापुर जाने का फैसला लिया। ये फैसला उन्होंने पी.के.एन राव के साथ उनकी शादी के टूटने की वजह से लिया। सिंगापुर जाने के बाद उनकी मुलकात सुभाष चंद्र बोस की भारतीय सेना के कुछ सदस्यों से हुई।
अपनी शादि टुटने के करीब 7 साल बाद उन्होंने 1947 में प्रेम कुमार सहगल से लाहौर में शादी की। शादी के पश्चात उनका निवास स्थान कानपुर बना। कानपुर में रह कर लक्ष्मी सहगल नें मेडिकल की प्रैक्टिस जारी रखी। आजादी के बाद भारत के विभाजन के समय देश में बड़ी संख्या में आने वाले शरणार्थियों का उन्होंने इलाज किया और जरूरत के अनुसार उनकी सहायता भी की।
आजाद हिंद फौज की शुरूआत
सिंगापुर में रहने के दौरान ही वह सुभाष चंद्र बोस की भारतीय स्वतंत्रता सेना से मिली थी। उसी दौरान 1942 में सिंगापुरी इंपीरीयल को जपानी सेना द्वारा गिरा दिया गया। उसी समय इस युद्ध में घायल हुए कई कैदियों की उन्होंने एक डॉ. के तौर पर सहायता की।
द्वितीय विश्व युद्ध में भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का एक अच्छा अवसर था और इसी अवसर को ध्यान में रखते हुए एक कार्य परिषद का गठन किया गया।
2 जुलाई 1943 में जब सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे तब जपानीयों ने विदेशी सेना बनाने में तेजी की। सुभाष चंद्र बोस ने न केवल पुरुषों को सेना में शामिल करने की बात की बल्कि इच्छुक महिलाओं को भी इस सेना में शामिल करने कि बात कही।
बोस के इस अभियान की बात जैसे ही लक्ष्मी तक पहुंची तो उन्हें इसके संदर्भ में बोस से मिलने की इच्छा जताई। इस मुलाकात का परिणाम ये निकला की महिला रेजिमेंट की स्थापना का एक फरमान निकाला गया। जिसे झांसी रेजिमेंट के रूप में जाना गया। उसके बाद डॉ लक्ष्मी, कैप्टन लक्ष्मी बनी और तभी से इसी नाम से जाने जानी लगी।
8 जुलाई 1943 को कैप्टन लक्ष्मी ने आईएनए में महिलाओं की भर्ती शुरू कर दी और करीब 1500 महिलाओं के साथ एक रेजिमेंट का गठन किया। लक्ष्मी के इस योगदान को देखते हुए बोस द्वारा गठित अजाद हिंद की सरकार में कैप्टन लक्ष्मी को महिलाओं से जुड़े मामलों और झांसी रेजिमेंट की रानी का कार्यभार सौंपा गया।
1944 में आईएनए ने यू-गो ऑपरेशन के दौरान बर्मा में जापनी सेना के साथ मिलकर हमला किया गया। लेकिन इस लड़ाई के बाद उन्हें भारत के पूर्वोत्तर से पीछे हटना पड़ा।
मई 1945 में ब्रिटिश सेना ने कैप्टन लक्ष्मी को बर्मा में पकड़ लिया और 1945 से 1946 तक उन्हें बर्मा में ही रखा। इस दौरान उन्हें मुकदमें के ट्राइल के लिए भारत भेजा गया। दिल्ली में इस ट्राइल जिसे लाल किला ट्राइल के तौर पर भी जाना जाता है इस ट्रायल ने भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ लिया। इस ट्राइल ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अंत को और गति दी और स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रवाद और लोकप्रियता की नई लहर आई।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल को 1998 में राष्ट्रपति के.आर नारायणन द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
कैप्टन लक्ष्मी ने एपीजे अब्दुल कलाम के प्रतिद्वंद्वी के रूप में 2002 में राष्ट्रपति के चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा
23 जुलाई 2012 में 97 वर्ष की उम्र में लक्ष्मी सहगल का निधन हो गया।