बेगम हजरत महल जिन्हें अवध की बेगम के नाम से भी जाना जाता है। भारत की अजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली महिलाओं में से एक थीं। बेगम हजरत महल 1857 के विद्रोह का हिस्सा थी। भारत में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 में एक क्रांति उभरी थी। बेगम हजरत महल ने इस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस विरोध के दौरान उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। एक समय ऐसा आया जब उन्हें शासक की भूमिका छोड़नी पड़ी और नेपाल के हल्लौर में शरण लेनी पड़ी। 1879 में नेपाल में उनकी मृत्यु हो गई। बेगम हजरत महल भी उन्हीं सेनानियों में से एक हैं जिनका नाम गुमानामी में कहीं खो सा गया। इस साल भारत अपना 76वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है तो ऐसे में इन स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आइए जानते हैं बेगम हजरत महल के जीवन के बारे में कुछ अन्य बातें।
बेगम हजरत महल
मुहम्मदी खानुम के तौर पर बेगम हजरत महल का जन्म हुआ था। उनका जन्म 1820 में फैजाबाद के अवध में हुआ था। बेगम हजरत पेशे से एक वैश्या थी। जिन्हें उनके माता-पिता द्वारा बेचा गया था। शाही एजेंटों ने उन्हें खरीदा और उन्हें शाही हरम में खवासिन के रूप में प्रवेश मिला। जहां उन्हें महक की परी के नाम से जाना जाता था।
उसके बाद उन्हें अवध के राजा ताजदार-ए-अवध वाजिद अली शाह द्वारा उपपत्नी के रूप में स्वीकारा गया और इस तरह वह बेगम बनी। उनके बेटे का बिरजिस कादिर के जन्म बाद उन्हें 'हजरत महल' की उपाधि दी गई। तभी से वह बेगम हजरत महल के नाम से जानी गई।
1857 का विद्रोह
वर्ष 1856 में जब अंग्रजों ने अवध पर कब्जा किया तब वाजिद अली शाह को कोलकत्ता में निर्वासित होना पड़ा। लेकिन हजर अपने बेटे के साथ लखनऊ में ही रहीं।
जब 1857 का विद्रोह शुरू हुआ तो उन्होंने अपने नाबालिक बेटे को अवध का शासक बनाया और उनके संरक्षक के रूप में सत्ता संभाली। उसी समय हजरत के समर्थकों ने राजा जलाल सिंह के नेतृत्व मे अंग्रेजों की सेना के खिलाफ विरोध किया और लखनऊ पर अपना अधिकार किया।
बेगम हजरत ने रीजेंट के तौर पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में अहम भूमिका निभाई। हजरत की अंग्रेजों के खिलाफ शिकायतें थी कि उन्होंने सड़को आदि को बनाने के नाम पर हमारे मंदिर और मस्जिदों को ध्वस्त किया है। इसी के साथ अंग्रेजो द्वारा सूअर खाना और शराब पीना, चर्बी वाले कारतूसों को काटने के लिए, मिठाई के साथ सुअर की चर्बी को मिलाने और सड़कें बनाने के बहाने हिंदू और मुसलमान मंदिरों को नष्ट करने जैसी आदि चीजों को लेकर भी उनकी शिकायतें थी। उनका कहना था कि चर्च बनाने के लिए, ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए, संस्थान स्थापित करने के लिए, अंग्रेजी स्कूलों और अंग्रेजी विज्ञान सीखने के लिए लोगों को मासिक वजीफा दिया जाता है ताकि वह भारतीयों को दबा सकें। इसी के साथ विद्रोह के अंतिम दिनों में जब ब्रिटिश सरकार ने एक घोषणा कर सभी को पूजा करने की स्वतंत्रता दी तो हजरत ने ब्रिटिश सरकार के इस दावे का खूब मजाक उड़ाया था।
अवध के विलय के तुरंत बाद मेरठ मे विद्रोह छिड़ा। जिससे लखनऊ में विद्रोह का झंडा फराया गया और ये विद्रोह तेजी से फैलने लगा। लखनऊ में अंग्रेजों ने रेजीडेंसी भवन को नहीं छोड़ा और विद्रोहियों का तब तक सामना किया जब तक उन्होंने अपनी खोई हुई शक्ति वापस पा नहीं ली।
हजरत को तब सबसे बड़ झटका लगा जब कानपुर में अंग्रेजों ने जीत हासिल कर ली। क्योंकी इससे उनकी योजना कमजोर हुई। इसके बाद हजरत ने अग्रेजों के खिलाफ एक भीषण लड़ाई की लेकिन उनकी स्थिति कमजोर होने लगी।
मार्च में अंग्रेजों ने सर कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में लखनऊ के खिलाफ अभियान शुरू किया। इस बल में लखनऊ पर कब्जा करने के लिए नेपाल के महाराजा जंग बहादुर द्वारा भेजे गए 3000 गोरखा भी शामिल थे और इस तरह 19 मार्च 1858 तक मूसाबाग चार बाग और केसर बाग पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था।
लगातार खराब होती हुई स्थिति को देखते हुए बेगम अपने समर्थकों, अपने बेटे बिरजिस कादिर और नाना साहब के साथ नेपाल भाग गई। नेपाल के अधिकारी इन विद्रोहियों को शरण देने से डर रहे थे।
15 जनवरी 1859 को जनरल बुद्री द्वारा कड़े शब्दों में एक पत्र भेजा गया, जिसमें लिखा था कि- "यदि आप मेरे क्षेत्र और सीमा के भीतर बने रहें या आपने शरण मांगी तो गोरखा सैनिक निश्चित रूप से आप पर हमला करेंगे। इस संधि पर दोनों उच्च राज्यों ने सहमति व्यक्त की।
कुछ समय बाद नेपाली अधिकारियों ने अपना ये निर्णय बदल दिया और उन्हें इस शर्त पर शरण दी गई कि वह विद्रोही नेताओं या भारत के लोगों के साथ किसी प्रकार का कोई संवाद नहीं करेंगी। हजरत और उनके बेटे को नेपाल में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जिसकी वजह से उनका बेटा बीमार पड़ गया।
बेगम हजरत के भागने के बाद अंग्रेजों ने घोषणा की कि विद्रोहियों और उनके नेताओं को सरकार के खिलाफ साजिश करने के लिए खुद का आत्मसमर्पण करना होगा। इसी के साथ इस घोषणा में ये भी कहा गया कि जो लोग ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या नहीं करेंगे उनके जीवन को बख्शा दिया जाएगा और ये कानून बेगम हजरत से लेकर उनके सबसे निचले रैंक तक के लोगों पर लागू करता था। बेगम इसके लिए राजी नहीं हुई और आत्मसमर्पण करने के बजाय, उन्होंने प्रतिशोध के उद्देश्य से नेपाली अधिकारियों से सहायता मांगी।
इंग्लैंड की रानी ने ब्रिटिश भारत के लोगों को खुश करने के लिए एक घोषणा जारी की। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में, बेगम हजरत महल ने एक प्रति-घोषणा जारी की और लोगों को इन वादों पर विश्वास न करने की चेतावनी दी।
बेगम ने 1877 में भारत वापस आने की कोशिश की लेकिन इसके लिए आदेश जारी किए गए जिससे ब्रिटिश भारत में प्रवेश के लिए बिरजिस कादिर या उनकी मां द्वारा किसी भी अनुरोध पर विचार नहीं किया जाएगा।
इस कारण से बेगम हजरत महल भारत नहीं आ सकीं और उन्हें स्थायी रूप से नेपाल में रहना पड़ा। 1879 में उनकी मृत्यु हो गई।